युगपुरुष स्वामी विवेकानंद
डॉ० चमन लाल बंगा
सह-आचार्य
शिक्षा विभाग
हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय
ज्ञानपथ समरहिल शिमला
profchamanlalabanga@gmail.com
स्वामी विवेकानंद भारतीय इतिहास की गौरवशाली परम्परा के एक युगान्तरकारी महान विभूति हैं। इन्होंने भारत के अध्यात्म ज्ञान, इतिहास एवं परम्परा का दिव्य प्रकाश सारे संसार में फैलाया और मानवीय गुणों से अलंकृत विश्व बंधुत्व की भावना का सशक्त आधार प्रदान किया। स्वामी विवेकानंद जी का वेदांत वाणी में अभिव्यक्त यह आह्वान कर्मपथपर लक्ष्य प्राप्ति का प्रशस्त मार्ग है-
उतिष्ठत! जाग्रत!! प्राप्यवरान्निबोधत!!!
अर्थात् उठो जागो और तब तक नहीं रूको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए
– स्वामी विवेकानंद
किसी भी राष्ट्र के अभ्युदय के लिए उसके पास एक आदर्श होना आवश्यक है। असल में वह आदर्श है निर्गुण ब्रह्मा। लेकिन क्योंकि हम सब लोग किसी निराकार आदर्श से प्ररेणा नहीं प्राप्त कर सकते, इसीलिए हमें साकार आदर्श चाहिए। विवेकानंद को श्री रामकृष्ण के व्यक्तित्व के रूप वह स्वरूप मिला। किसी भी महापुरुष को अगर जाननाहो तो उनकेद्वारा लिखित या मुख द्वारा नि: सृत वाणियों को आत्मसात कर लेना चाहिए। पूरे विश्व के लिए गुरु और शिष्य का लाजवाब उदाहरण श्री रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानंद जी का है। विवेकानंद भारतीय चेतना के मंदिर के शिखर है तो उनकी नींव का पत्थर उनके गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस जी हैं। इस जहान में जब-जब स्वामी विवेकानंद को याद किया जाता है तब-तब श्री रामकृष्ण परमहंस भी याद किए जाते हैं।
आधुनिक भारत के आदर्श पुरुष के रूप में स्वामी विवेकानन्द जी
स्वामी विवेकानन्द जी भारत व विश्व में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। स्वामी विवेकानन्द ने भारतवासियों को बताया कि राष्ट्र सर्वोपरि है तथा स्वदेश प्रेम ही सबसे बड़ा धर्म है। बचपन की प्रारम्भिक अवस्था में नरेन्द्र नाथ बड़े चुलबुले और उत्पाती थे किन्तु आध्यात्मिक बातों के प्रति उनका विशेष आकर्षण था। इन्हीं गुणों के चलते नरेन्द्र नाथ का एक परम ओजस्वी नवयुवक के रूप में विकास हुआ।1
स्वामी विवेकानन्द विगत वर्षों में एक सन्यासी हैं जो दरिद्र, अस्पृश्य, अशिक्षित एवं रोगी बंधुओं के वेदना से दुखी होकर हिन्दू समाज का आह्वान करते हैं कि इनकी समस्याएं कौन दूर करेगा? इनकी इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है? स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू समाज की सुप्त भावनाओं को जगाया। उन्होंने कहा, ‘‘मत भूल कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, अपढ़, चमार, मेहतर सब तेरे रक्त-मांस के हैं, वे तेरे भाई हैं। बोल! अज्ञानी भारतवासी सभी मेरे भाई है। सभी ईश्वर के रूप हैं, समझ ले, दरिद्र जो तेरे दरवाजे पर आया है नारायण का स्वरूप है, बीमार-नारायण है, भूखा-नारायण है। सभी ईश्वर के ही रूप हैं। स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू समाज की दु:खपूर्ण स्थिति देखकर लाखों युवकों को मातृभूमि के सेवा हेतु आगे आने के लिए आह्वान किया। हजारों युवक आगे आए तथा इनकी सहायता से उन्होंने दीन-दुखियों की सेवा तथा शिक्षा के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।2
यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ये स्वामी विवेकानन्द ही थे, जिन्होंने अद्वैत दर्शन के श्रेष्ठत्व की घोषणा करते हुए कहा था कि इस अद्वैत में यह अनुभूति समाविष्ट है, जिसमें सब एक हैं, जो एकमेवाद्धितीय है; पर साथ-साथ उन्होंने हिन्दू धर्म में यह सिद्धान्त भी संयोजित किया कि द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत एक ही विकास के तीन सोपान या स्तर हैं, जिसमें अंतिम अद्वैत ही लक्ष्य है। यह एक और भी महान तथा अधिक सरल, इस सिद्धांत का अंग है कि अनेक और एक, विभिन्न् समयों पर विभिन्न समयों पर विभिन्न वृतियों में मन के द्वारा देखे जाने वाला एक ही तत्व है; अथवा जैसा कि रामकृष्ण ने उसी सत्य को इस प्रकार व्यक्त किया है, ‘‘ईश्वर साकार और निराकार, दोनों ही है। ईश्वर वह भी है, जिसमें साकार और निराकार, दोनों ही समाविष्ट हैं।’’ यही-वह वस्तु है, जो हमारे गुरुदेव के जीवन को सर्वोच्च महत्व प्रदान करती है, क्योंकि यहां वे पूर्व और पश्चिम के ही नहीं, भूत और भविष्य के भी संगम-बिंदु बन जाते हैं। स्वामी विवेकानन्द की यही अनुभूति है, जिसने उन्हें उस कर्म का महान उपदेष्टा सिद्ध किया, जो ज्ञान-भक्ति से अलग नहीं, वरन उन्हें अभिव्यक्त करने वाला है।3
स्वामी विवेकानन्द ने मातृभूमि की महिमा का गान पुण्य भूमि के रूप में किया है। स्वामी जी ने कहा है, ‘‘यदि इस पृथ्वी पर कोई ऐसा देश है, जिसे हम मंगलमयी पुण्यभूमि कह सकते हैं, यदि कोई ऐसा स्थान है जहां पृथ्वी के समस्त जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना ही पड़ता है, जहां भगवान की ओर उन्मुख होने के प्रत्यन में संलग्न रहने वाले जीवमात्र को अन्तत: आना होगा, यदि ऐसा कोई देश है, जहां मानव जाति की क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सद्वृत्तियों का सर्वाधिक विकास हुआ है और यदि ऐसा कोई देश है जहां आध्यात्मिकता तथा सर्वाधिक आत्मान्वेषण का विकास हुआ है, तो वह भूमि भारत ही है।’’ यह वह समय था जब स्वामी जी भारतीय अध्यात्म की धूम दुनिया में फेराकर आ रहे थे। जनता स्वामी जी की चरण रज को लेने के लिए लालायित थे तो स्वामी जी मातृभूमि की।4
स्वामी विवेकानन्द ने अध्यात्म, धर्म एवं संस्कृति के आधार ग्रन्थ वेद तथा वेदान्त दर्शन का अपना गहन अध्ययन अपने साधनामय अनुभव से व्यवहार सिद्ध किया तथा भारतवर्ष का व्यापक भ्रमण करके उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण के दुर्दशाग्रस्त भारत के चित्र को अपनी आंखों से देखा।
स्वामी विवेकानन्द ने भारत का सर्वांगीण दर्शन, विवेचन एवं विश्लेषण किया है। उनके अनुसार ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्मा’-जगत में सब कुछ ब्रह्मा है, की सांस्कृतिक अवधारणा का स्रोत वेदप्रणीत भारत का अध्यात्म एवं धर्म है। भारत का मेरुदण्ड धर्म है। उन्होंने कहा, ‘‘हे आधुनिक हिन्दुओं! तुम अपने को और प्रत्येक व्यक्ति को अपने सच्चे स्वरूप की शिक्षा दो और घोरतम निद्रा में पड़ी हुई जीवात्मा को इस नींद से जगा दो। जब तुम्हारी जीवात्मा प्रबुद्ध होकर सक्रिय हो उठेगी, तब तुम आप ही शक्ति का अनुभव करोगे। तभी तुम में साधुता और पवित्रता आएगी।
हम सब लोग मनुष्य अवश्य हैं, किन्तु हम लोगों में कुछ पुरुष और कुछ स्त्रियां हैं; कोई काले हैं और कोई गोरे-किन्तु सभी मनुष्य हैं, सभी एक मनुष्य जाति के अनतर्गत हैं। हम लोगों को चेहरा भी कई प्रकार का है। दो मनुष्यों का मुँह ठीक एक तरह का हम नहीं देख सकते, तथापि हम सब लोग मनुष्य हैं। मनुष्य रूपी सामान्य तत्व कहां है? मैंने जिस किसी काले या गोरे स्त्री या पुरुष को देखा, उन सबमें मुँह पर सामान्य रूप से मनुष्यत्व का एक अमूर्त भाव है, मैं उसे पकड़ या इन्द्रियगोचर भले ही न कर सकूं, फिर भी मैं निश्चयपूर्वक जानता हूं कि वह है। विश्व धर्म के सम्बन्ध में भी यही बात है, जो ईश्वर रूप से पृथ्वी के सभी धर्मों में विद्यमान है। यह अनन्त काल से वर्तमान है, और अनन्त काल तक रहेगा।
मयि सर्वामिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।
अर्थात ‘‘मैं इस जगत में प्राणियों के भीतर सूत्र की भान्ति वर्तमान हूं।’’5
जाति के साथ अनुष्ठानों पर स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि ‘‘जाति निरंतर बदल रही है, अनुष्ठान निरन्तर बदल रहे हैं, यही दिशा विधियों की है। यह केवल सार है, सिद्धान्त है, जो नहीं बदलता। हमें अपने धर्म का अध्ययन वेदों में करना है, वेदों को छोड़कर अन्य सब ग्रन्थों में परिवर्तन अनिवार्य है। वेदों की प्रामाणिकता सदा के लिए है; उनके अतिरिक्त हमारे दूसरे ग्रन्थों की प्रामाणिकता केवल विशिष्ट समय के लिए है। हमें सामाजिक सुधारों की आवश्यकता है। समय-समय पर महान पुरुष प्रगति के नये विचारों का विकास करते हैं और राजा उन्हें कानून का समर्थन देते हैं। पुराने समय में भारत में समाज-सुधार इसी प्रकार किये गये हैं और वर्तमान समय में ऐसे प्रगतिशील सुधार करने के लिए हमें पहले एक ऐसी अधिकारीसता का निर्माण करना होगा। इसलिए, उन आदर्श सुधारों पर, जो कभी व्यावहारिक नहीं होंगे, अपनी शक्ति व्यर्थ नष्ट करने के स्थान पर, यह अच्छा होगा कि हम इस समस्या की जड़ तक पहुंचे और एक व्यवस्थापिका संस्था का निर्माण करें; तात्पर्य यह कि लोगों को शिक्षित करें, जिससे कि वे स्वयं अपनी समस्यओं का समाधान करने में समर्थ हो सके।6
प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपना आदर्श लेकर उसे चरितार्थ करने का प्रयत्न करे। दूसरों को ऐसे आदर्शों को लेकर चलने की अपेक्षा, जिनको वह पूरा ही नहीं कर सकता, अपने ही आदर्श का अनुसरण करना सफलता का अधिक निश्चित मार्ग है। किसी समाज के सब स्त्री-पुरुष न एक मन के होते हैं, न ही एक ही योग्यता के और न एक ही शक्ति के। अतएव, उनमें से प्रत्येक का आदर्श भी भिन्न-भिन्न होना चाहिए; और इन आदर्शों में भी एक का भी उपहास करने का हमें कोई अधिकार नहीं। अपने आदर्श को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक को जितना हो सके, यत्न करने दो। फिर यह भी ठीक नहीं कि मैं तुम्हारे अथवा तुम मेरे आदर्श द्वारा जांजे जाओ। सेब के पेड़ की तुलना ओक से नहीं होनी चाहिए और न ओक की सेब से। बहुत्व में एकत्व की सृष्टि का विधान है। प्रत्येक स्त्री-पुरुष में व्यक्तिगत रूप से कितना भी भेद क्यों न हो, उन सबकी पृष्ठभूमि में एकत्व विद्यमान है।7
भारत खंडहरों में ढेर हुई पड़ी एक विशाल इमारत के सदृश है। पहले देखने पर आशा की कोई किरण नहीं मिलती। वह एक विगतऔर भग्ना वशिष्ट राष्ट्र है। पर थोड़ा और रूको, रूककर देखो, जान पड़ेगा कि इनके परे कुछ और भी है। सत्य यह है कि वह तत्व, वह आदर्श, मनुष्य जिसकी बाह्य व्यंजना मात्र है, जब तक कुण्ठित अथवा नष्ट-भ्रष्ट नहीं हो जाता, जब तक मनुष्य भी निर्जीव नहीं होता, तब तक उसके लिए आशा भी अस्त नहीं होती। यदि तुम्हारे कोट को कोई बीसों बार चुरा ले, तो क्या उससे तुम्हारा अस्तित्व भी शेष हो जायेगा? तुम नवीन कोट बनवा लोगे-कोट तुम्हारा अनिवार्य अंग नहीं। सारांश यह कि यदि किसी धनी व्यक्ति की चोरी हो जाय, तो उसकी जीवन शक्ति का अंत नहीं हो जाता, उसे मृत्यु नहीं कहा जा सकता। मनुष्य तो जीता ही रहेगा। ये तमाम विभीषकाएं, ये सारे दैन्य-दारिद्रय और दु:ख विशेष महत्व के नहीं-भारत-पुरुष अभी भी जीवित है, और इसलिए आशा है।8
स्वामी विवेकानन्द ने ब्रुकलिन एथिकल एसोसिएशन के तत्वावधान में लोग आइलैंड हिस्टोरिकल सोसाइटी के हाल में बहुसंख्यक श्रोताओं के सम्मुख 21 फरवरी, 1895 ई० में ‘‘संसार को भारत की देन’’ भाषण में कहा ‘‘जहां सबसे पहले आचार शास्त्र, कला, विज्ञान और साहित्य का उदय हुआ और जिसके पुत्रों की सत्यप्रियता और जिसकी पुत्रियों की पवित्रता की प्रशंसा सभी यात्रियों ने की है।’’ यही बात विज्ञानों के संबंध में भी सत्य है। भारत ने पुरातन काल में सबसे पहले वैज्ञानिक चिकित्सक उत्पन्न किये थे। दर्शन में तो, जैसा कि महान जर्मन दार्शनिक शापेन हॉवर ने स्वीकार किया है, हम अब भी दूसरे राष्ट्रों से बहुत ऊंचे हैं। संगीत में भारत ने संसार को सात प्रधान स्वरों और उनके मापनक्रम सहित अपनी वह अंकन पद्धति प्रदान की है, जिसका आनन्द हम ईसा से लगभग तीन सौ वर्ष पहले से ले रहे थे, जब कि वह यूरोप में केवल ग्यारहवीं शताब्दी में पहुंची। भाषा-विज्ञान में अब हमारी संस्कृत भाषा सभी लोगों द्वारा इस समस्त यूरोपीय भाषाओं की आधार स्वीकार की जाती है, जो वास्तव में अनर्गलित संस्कृत के अपभ्रंशों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। साहित्य में हमारे महाकाव्य तथा कविताएं और नाटक किसी भी भाषा की ऐसी सर्वोच्च रचनाओं के समकक्ष है। जर्मनी के महानतम कवि ने शकुंतला के सार का उल्लेख करते हुए कहा है कि यह ‘स्वर्ग और धरा का सम्मिलन है’।9
धर्म महासभा में विवेकानन्द जी ने अपने उद्बोधन में कहा था, हे अमेरिकावासी बहनों और भाइयों! आज आप लोगों ने हम लोगों की जैसी आंतरिक और सादर अभ्यर्थना की है, उसके उतर-दान के लिए मैं दंडायमान हुआ हूं और इससे आज मेरा हृदय आनंद से उच्छ्वसित हो उठा है। पृथ्वी पर सबसे प्राचीनतम सन्यासी समाज की तरफ से मैं आप लोगों को धन्यवाद ज्ञापित करता हूं। सर्वधर्म के उद्भव स्वरूप जो सनातन हिंदू धर्म है, उसका प्रतिनिधि होकर आज मैं आप लोगों को धन्यवाद देता हूं और क्या कहूं-पृथ्वी की विभिन्न हिन्दू जाति और विभिन्न हिंदू-संप्रदायों के कोटि-कोटि हिंदू नर-नारियों की तरफ से आज मैं आप लोगों को हृदय से धन्यवाद देता हूं।10
स्वामी जी ने जन-जन का आह्वान करते हुए उन्हें भारतीय संस्कृति के गौरव की शक्ति बताया और उन्हें राष्ट्र के पुनर्निर्माण में भागीदारी करने का सन्देश दिया। स्वामी विवेकानन्द को अब अपनावह संकल्प पूर्ण करना था, जो उन पर गुरुकृपा के रूप में था अर्थात् गुरुदेव के स्मृतिचिन्ह भस्मावशेष को सम्मान प्रदान करना। उन्होंने इसकी रूपरेखा तैयार कर ली थी। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की और इसका संविधान बनाया।11
मनुष्य पहले यह जान ले कि आसक्तिरहित होकर उसे किस प्रकार कर्म करना चाहिए, तभी वह दुराग्रह और मतान्धता से परे हो सकता है। यदि संसार में यह दुराग्रह, यह कट्टरता न होती, तो अब तक यह बहुत उन्नति कर लेता। यह सोचना भूल है कि धर्मान्धता द्वारा मानव-जाति की उन्नति हो सकती है? बल्कि उलटे, यह तो हमें पीछे हटाने वाली शक्ति है, जिससे घृणा और क्रोध उत्पन्न होकर मनुष्य एक-दूसरे से लड़ने-भिड़ने लगते है और सहानुभूति शून्य हो जाते हैं। हम सोचते हैं कि जो कुछ हमारे पास है अथवा जो कुछ हमारे पास नहीं है, वह एक कौड़ी मूल्य का भी नहीं।12
इस प्रकार सारांश यह है कि संसार की सहायता करने से हम वास्तव में स्वयं अपना ही कल्याण करते हैं। विवेकानन्द ने हिन्दू समाज को संकट काल में उसका आत्म गौरव लौटाया। विवेकानन्द समाज की दलित और कालबाहर हो चुकी परमपराओं को समाप्त कर देनेके समर्थक थे। वे हिन्दू समाज में ऊंच-नीच के भेद को समाप्त करना चाहते थे जिसके कारण हिन्दू समाज निर्बल हो रहा था। स्वामी विवेकानन्द ने केवल एक वाक्य कहा ‘‘गुलाम का कोई धर्म नहीं होता है। जाओ अपनी मां को पहले स्वतन्त्र करो।’’
स्वामी जी कहते थे, ‘‘हमारे पूर्वजों ने महान कार्य किया है हमें और भी महान कार्य करना है।’’
स्वामी विवेकानन्द प्रतयेक रूप में प्राचीन और आधुनिक भारत के सेतु थे। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने आधुनिक भारत को अपनी विलक्षण क्षमताओं से अत्यधिक प्रभावित किया है।
सन्दर्भ ग्रंथ सूची
1. स्वामी ब्रह्मस्थानन्द (2007), विवेकानन्द राष्ट्र को आह्वान, भारतीय साहित्य संग्रह, प्रकाशक-रामकृष्ण मठ, नेहरूनगर, कानपुर, उ०प्र०, पृ० 2-3
2. आचार्य विवेकानन्द तिवारी (2022), सामाजिक समरसता और संत समाज, लुमिनस बुक्स इंडिया, वाराणसी (उ०प्र०), पृ० 132
3. विवेकानन्द साहित्य (2021), प्रथम खंड, अद्वैतआश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्टाली रोड, कोलकाता-14
4. चेत राम गर्ग (2013), इतिहास दिवाकर, राष्ट्र प्रणेता युग द्रष्टा, त्रैमासिक अनुसंधान पत्रिका, ठाकुर जगदेव चंद स्मृति शोध संस्थान, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश, पृ० 29
5. विवेकानन्द साहित्य (2016), तृतीय खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 145
6. विवेकानन्द साहित्य (2017), चतुर्थ खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 245
7. विवेकानन्द साहित्य (2016), तृतीय खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 15
8. विवेकानन्द साहित्य (2019), दशम खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 3-5
9. विवेकानन्द साहित्य (2019), दशम खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 183
10. शंकर एवं सुशील गुप्ता (2009), विवेकानन्द की आत्मकथा, प्रभात पेपर बैक्स, नई दिल्ली-110002, पृ० 133
11. एम०आई० राजस्वी (2019), विश्वगुरु विवेकानन्द, प्रकाश बुक्स इण्डिया प्राईवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, पृ० 162-163
12. डॉ० विद्या चन्द ठाकुर (2013), इतिहास दिवाकर, त्रैमासिक अनुसंधान पत्रिका, ठाकुर जगदेव चंद स्मृति शोध संस्थान, गांव नेरी, हमीरपुर, हि०प्र०, पृ० 7
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