स्वामी विवेकानन्द के विचारों की प्रासंगिकता और मानवीय संवेदना
डॉ. हिमानी सिंह
सह आचार्य ’हिन्दी’
राजकीय कला कन्या महाविद्यालय
कोटा (राज.)-324001
मो. 9414392801
Email:- hihrsh1@gmail.com
‘हमारे व्यक्तित्व की उत्पत्ति हमारे विचारों में है; इसे ध्यान रखें कि आप क्या विचारते हैं, शब्द गौण हैं, विचार मुख्य हैं, और उनका प्रभाव दूर तक होता है।’ - स्वामी विवेकानन्द
आध्यात्मिक, ओजस्वी और प्रभावशाली व्यक्तित्व से ओत-प्रोत स्वामी विवेकानन्द ने मात्र उनतालीस वर्ष के अल्पकालीन जीवन में न केवल भारत को बल्कि सम्पूर्ण विश्व को एक सूत्र में पिरोने का अतुलनीय कार्य किया। एक ओजस्वी वक्ता होने के साथ-साथ वे सशक्त नेतृत्व, कुशल प्रबंधक और करुण हृदय से आप्लावित थे। वे व्यक्ति को मनुष्य बनाने को पक्षधर थे। भारत भ्रमण के समय उन्होंने मातृभूमि की दुर्दशा देखी, दरिद्रता, पिछड़ापन, भुखमरी, स्त्रियों की दीन अवस्था उनका तिरस्कार, समाज में जातिगत भेदभाव, अमीर और गरीब के बीच में बढ़ती खाई को देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठा और सामाजिक न्याय के प्रति उनकी धारणा दृढ़ होती गयी। देश की अवनति का सबसे बड़ा कारण बताते हुए स्वामी जी कहते हैं “मैं समझता हूँ, हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय पाप जन समुदायों की उपेक्षा है। भारत में दो बड़ी बुरी बातें हैं। स्त्रियों का तिरस्कार और गरीबों को जाति-भेद द्वारा पीसना। इस भारतभूमि के उन समुदायों को भी अपनी आत्मस्वत्व बुद्धि को उद्दीप्त करने का मौका नहीं दिया गया। हिंदू, मुसलमान या ईसाई के पैरों से रौंदे ये लोग यह समझ बैठे हैं कि जिस किसी के पास पैसा है, वे उसी के पैरों से कुचले जाने के लिए ही पैदा हुए हैं।"1 भारतीयों की इस दुर्दशा और अमानवीय स्थिति से आहत विवेकानन्द जी ने ओजस्वी वाणी में चेतावनी देते हुए युवाओं से कहा - “याद रखो कि राष्ट्र झोंपड़ी में बसा हुआ है, परन्तु शोक! उन लोगों के लिए कभी किसी ने कुछ नहीं किया। क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो? क्या उनका खोया हुआ व्याक्तित्व बिना उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक तृप्ति नष्ट किए, उन्हें वापस दिला सकते हो? यह काम करना है और हम इसे करेंगे ही।"2 किन्तु विडम्बना देखिए की विवेकानन्द जी के समय के भारत और 160 वर्ष पश्चात् आज के भारत में, व्यक्ति की सोच में कोई परिवर्तन नहीं आया है। जातिगत उन्माद, धार्मिक कट्टरता, अमीर-गरीब के बीच गहरा अन्तर, स्त्रियों की दुर्दशा, युवाओं की विलासिता और अनाचार, पारिवारिक संस्थाओं की टूटन, सामाजिक व्यभिचार में बढ़ोतरी ही हुई है और इसका सबसे बड़ा कारण है स्वार्थ, केवल स्वयं के बारे में सोचना, सामाजिक और नैतिक उत्थान प्राथमिकता नहीं है। व्यक्ति यह भूल जाता है कि सामाजिक उत्थान में ही निज विकास संभव है। क्षुद्र मानसिकता को त्यागने की आवश्यकता है। इसलिए वर्तमान समय में विवेकानंद जी के ये विचार आन्दोलित करते हैं - “मनुष्य! केवल मनुष्य ही हमें चाहिए। फिर हर एक वस्तु हमें प्राप्त हो जाएगी। हमें चाहिए केवल दृढ़, तेजस्वी, आत्मविश्वासी तरुण, सही और सच्चे हृदय वाले युवक! यदि सौ भी ऐसे पुरुषार्थी हमें मिल जाएं तो संसार आन्दोलित हो उठेगा - उनमें आमूल परिवर्तन हो जाएगा। इसलिए दृढ़-प्रतिज्ञा और प्रतिष्ठावान होकर भारतीयता के गर्व से ओतप्रोत बनो और सगर्व घोषणा करो: “मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है।"3
वैदिक आध्यात्मिक चिन्तन और भौतिक कल्याणकारी विचारों का अद्भुत समन्वय विवेकानन्द जी के आचरण और क्रियान्वयन में स्पष्ट देखा जा सकता है। वे मानते हैं कि मनुष्य की सफलता तभी है जब “एक विचार लो। उस विचार को अपना जीवन बना लो - उसका चिंतन करो, उसके स्वप्न देखो एवं उस विचार के अनुसार जीवन जियो। अपने शरीर के प्रत्येक अंग, मस्तिष्क, मांसपेशियाँ, स्नायु-तंत्र सभी को उस विचार से पूर्णतः आप्लावित कर अन्य सभी विचारों का तत्समय परित्याग कर दो। सफलता का यही मार्ग है।"4 यही कारण है कि अत्यन्त अल्प समय में भी उन्होंने रामकृष्ण मिशन द्वारा मानव मूल्यों के प्रतिपादन तथा समाज व व्यक्ति के हित में किये जा रहे कार्यों को विश्व के कोने-कोने में पहुँचाया! इस मिशन की सफलता स्वामी जी के मस्तिष्क में उत्पन्न वह विचार ही है जो मानवीय संवेदना से परिपूर्ण है। उनका मानना था कि मंदिरों में दान देने की अपेक्षा भूखे लोगों को खाना खिलाना जरूरी है। प्रत्येक मनुष्य में सेवा की भावना होनी चाहिए। मानव जाति की सेवा करना ईश्वर की सेवा करना है। सेवा ‘जागृत देवता’ की होनी चाहिए जो सृष्टि के घट-घट में समाया हुआ है। कर्मयुक्त पौरुष ही सत्य है इसके अतिरिक्त जो है, वह भ्रम है उन सब भ्रमित प्रतिमाओं को तोड़ देना चाहिए। विवेकानंद कहते है कि -
वह, जो तुममें है और तुमसे परे भी,
जो सबके हाथों में बैठकर काम करता है,
जो सबके पैरों में समाया हुआ चलता है,
जो तुम सबके घट में व्याप्त है,
उसी की आराधना करो और
अन्य प्रतिमाओं को तोड़ दो!
जो एक साथ ही ऊँचे पर और नीचे भी है,
पापी और महात्मा, ईश्वर और निकृष्ट कीट,
एक साथ ही है,
उसी का पूजन करो -
जो दृश्यमान है,
ज्ञेय है,
सत्य है,
सर्वव्यापी है,
अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो!5
स्त्रियों को उनके अधिकारों से वंचित करना आज के भारत की विचारणीय समस्या है। भारतीय संस्कृति के एक-एक सूत्र में विश्वास करने वाले विवेकानंद जी भारतीय स्त्री को मंगलमयी, कल्याणकारी भूमिका के रूप में देखते हैं। राष्ट्र निर्माण में स्त्रियों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसीलिए वे स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक है। स्त्रियों की समस्याओं, समाज में उनका स्थान, स्त्री का सामर्थ्य, उनकी उन्नति इत्यादि पर गम्भीरता से चिन्तन करते हैं - “स्त्रियों में यह क्षमता अवश्य होनी चाहिए कि वे अपनी समस्याएं अपने ढंग से हल कर सकें। उनका यह कार्य न दूसरा कोई कर सकता है, न किसी दूसरे को करना ही चाहिए। हमारे देश की महिलाएं संसार के किसी भी देश की अन्य महिलाओं के समान यह कार्य करने की क्षमता रखती है।"6 विवेकानन्द जी महिलाओं को केवल शिक्षित ही नहीं देखना चाहते थे वरन उनके लिए आत्मरक्षा की शिक्षा भी अनिवार्य मानते थे। तत्कालीन समाज में महिलाओं की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनैतिक स्थिति से वे बहुत चिंतित थे। देश में महिलाओं और पुरुषों के मध्य इतना भेद क्यों है, इसे समझाते हुए वे कहते हैं “इस देश में महिला और पुरुष के बीच इतना अंतर क्यों है - यह समझना बहुत मुश्किल है। वेदों का यह स्पष्ट कहना है कि सभी में एक ही और एक जैसी ही चेतना मौजूद है। आप हमेशा महिलाओं की आलोचना करते हैं, पर आपने उनके उत्थान के लिए क्या किया है, सिवाय उन्हें कड़े नियमों में बाँधने के ? पुरुषों ने औरतों को बस बच्चा पैदा करने की मशीन में बदल दिया है। महिला को ऊपर उठाए बिना आपके खुद के आगे बढ़ने का और कोई रास्ता नहीं हो सकता।"7 महिला भी शिक्षा की अधिकारिणी है। वे कहते हैं कि “कौन से शास्त्र हैं, जिनमें आपको लिखा मिलेगा कि नारी ज्ञान एवं भक्ति के लायक नहीं है ? पतन के दौर में जब धर्माचार्यों ने दूसरी जातियों को वेद पढ़ने के लिए अक्षम धोषित किया तभी उन्होंने महिलाओं को भी उनके अधिकारों से वंचित कर दिया। नहीं तो आप पाएँगे वैदिक और उपनिषद् काल में मैत्रेयी एवं गार्गी जैसी स्त्रियों ने ऋषि-मुनियों के बराबर स्थान प्राप्त किया था। एक हजार ब्राह्मणों की उपस्थिति में, जो वेदों के बड़े विद्वान थे, गार्गी ने बड़े साहस से याज्ञवल्क्य को ब्रह्मज्ञान के ऊपर शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी। स्त्रियाँ यदि उस समय ज्ञान की अधिकारी थीं तो आज के समय में यह अधिकार उन्हें क्यों न मिले?"8 विवेकानन्द शिक्षा का ध्येय मानव सेवा में निहित मानते हैं। वे कहते हैं कि “जब तक लाखों लोग भूखे हैं और अज्ञान में डूबे हैं, तब तक मैं ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ जिसने लाखों लोगों की कीमत पर शिक्षा पाई हो लेकिन उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया हो। शिक्षा उन विचारों की अनुभूति कर लेने का नाम है जो जीवन-निर्माण, ‘मनुष्य’ निर्माण तथा चरित्र निर्माण में सहायक हों।"9
वर्तमान भारत में जिस प्रकार धर्म का बाजारीकरण और राजनीतिकरण हुआ है। उसमें विभिन्न संतो, संन्यासियों, मत-धर्मावलम्बियों की यशलिप्सा, स्त्रीकामना, धन आकांक्षा, राजनैतिक पद लोलुपता, वैभव वासनायुक्त जीवन शैली को उघाड़ कर रख दिया है। प्राचीन काल से ही भारत एक धर्मप्रधान आध्यात्मिक मान्यताओं वाला देश रहा है। वर्तमान भारत के बहरूपिये साधु संतों ने मनुष्य की भावनाओं से खिलवाड़ करते हुए विश्व में ही नहीं वरन् भारत में भी संन्यासियों की गरिमा को ठेस पहुँचायी है। संन्यासी की जीवन कैसा होना चाहिए। “संन्यास धर्म की दीक्षा लेने पर प्रथम अनुष्ठान यह होता है कि व्यक्ति का पुतला जलाया जाता है, जिसका अभिप्राय यह होता है कि उसका पुराना शरीर, पुराना नाम और जाति सब नष्ट हो गये। तब उसका नया नामकरण होता है और उसे बाहर जाने तथा धर्मोपदेश करने या परिव्राजक बनने की अनुमति मिलती है, किन्तु वह जो भी कर्म करे, उसके लिए पैसा नहीं ले सकता।"10 उसके क्या कर्तव्य है इस ओर स्वामी विवेकानन्द ने ‘संन्यासी के गीत’ नामक अपनी रचना में बहुत स्पष्ट बताया है। ‘संन्यासी दूसरे मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति जगाता है, अपने कर्मों से गरीबों, असहायों और बीमारों की सेवा में तत्पर रहता है। आत्मिक शुचिता पर बल देता है। अध्यात्म सत्य को जन-जन तक पहुँचाने का काम करता हैं। मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरूप से साक्षात्कार करवाता है। वे कहते हैं उन पाखंड़ी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उनके हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकड़ों वर्षों के अंधविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को जड़-मूल से निकाल फेंको। आओं, मनुष्य बनो।" मानवता का आध्यात्मिक उत्थान करना ही स्वामी जी की सबसे बड़ी प्रेरणा थी। धर्म, शिक्षा और कर्म का समन्वय ही समाज सेवा है। जुलाई, 1895 न्यूयार्क के थाउजे़ंड आइलैंड पार्क में ‘संन्यासी का गीत’ रचते हुए वे लिखते है-
सत्य न आता पास, जहाँ यश-लोभ-काम का वास,
पूर्ण नही वह, स्त्री में जिसको होती पत्नी भास,
अथवा वह जो किंचित् भी संचित रखता निज पास!
वह भी पार नहीं कर पाता है माया का द्वार
क्रोधग्रस्त जो अतः छोड़कर निखिल वासना-भार
गाओ धीर-वीर संन्यासी, गूंजे मन्त्रोच्चार,
............. ओम् तत्सत् ओम्!
विरले ही तत्वज्ञ! करेंगे शेष अखिल उपहास,
निन्दा भी नरश्रेष्ठ, ध्यान मत दो, निर्बन्ध, अयास
यत्र-तत्र निर्भय विचरो तुम, खोलो मायापाश
अंधकार पीड़ित जीवों के! दुःख से बनो न भीत,
सुख में भी मत चाह करो, जाओ हे, रहो अतीत
द्वन्द्वो से सब, रटो वीर संन्यासी, मंत्र पुनीत,
............. ओम् तत्सत् ओम्!11
मानव हित, समाजहित और भलाई के मार्ग पर चलना सरल नहीं है। सच्चे देशभक्त और संन्यासी को इस मार्ग पर चलना ही होगा तभी मानव का उद्धार संभव है। वे कहते हैं कि - “भलाई का मार्ग संसार में सबसे अधिक ऊबड़-खाबड़ तथा कठिन है। इस मार्ग पर चलने वालों की सफलता आश्चर्यजनक होती है। किन्तु इस मार्ग में गिर पड़ना भी कोई आश्चर्यजनक नहीं है। हजारों ठोकरें खाते-खाते हमें चरित्र को दृढ़ बनाना होगा।"12 दृढ़ इच्छाशक्ति ही सभी समस्याओं का समाधान है। भोगवाद से मुक्त होकर दूसरे मनुष्यों के प्रति संवेदना और सद्भावना ही मुक्ति का द्वार है। “जब पड़ोसी भूखा मरता हो, तब मंदिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं, पाप है। जब मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो तब हवन में घृत जलाना अमानुषिक कर्म है।"13
वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के इस युग में समस्त विश्व एक हथेली पर सिमट गया है जिसे हम स्मार्टफोन कहते है। इसके द्वारा विश्व की समस्त संस्कृतियों, आचार-व्यवहार, विभिन्न भाषाओं संस्कारों, परम्पराओं में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। पुनः पश्चिम जगत की भौतिक चकाचौंध ने भारतीयों के ऊपर अपना गहरा प्रभाव डाला है। सामाजिक बन्धन टूटने लगे है। नैतिकता और मूल्यों में जबरदस्त गिरावट आयी है। पारिवारिक संस्थायें बिखरने लगी हैं। प्रकृति दोहन अपने चरम पर है। युवाओ ने मातृभाषा, राजभाषा को छोड़कर पाश्यात्य भाषा को भावाभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया है। इंटरनेट की सुविधा के कारण हथेली में समाने वाले इस छोटे से यंत्र ने मनुष्यों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है। अपने भारतीय होने पर लज्जा का अनुभव करना, अपनी भाषा को दृष्टि से देखना आज के युवा की कमजोरी है क्योंकि वह अपने गौरवमयी अतीत और संस्कृति से अनभिज्ञ है। इन ऐसे समय में भारतीय युवाओं को पुनः विवेकानन्द को जानने और समझने की आवश्यकता है। ऐसे आधुनिक नवयुवकों के लिए विवेकानन्द जी की यह सलाह अवश्य प्रेरणा जागृत करेगी। वे कहतें है “तुम गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबाल के द्वारा ही स्वर्ग के अधिक समीप पहुँच सकोगे। ये कुछ कड़े शब्द हैं, पर मैं उन्हें कहना चाहता हूँ, क्योंकि मैं उन्हें प्यार करता हूँ। मैं जानता हूँ कि काँटा कहाँ चुभता है। मुझे इसका कटु अनुभव है। तुम्हारे स्नायु और मांसपेशियाँ अधिक मजबूत होनें पर तुम गीता अधिक अच्छी तरह समझ सकोगे। तुम, अपने शरीर में शाक्तिशाली रक्त प्रवाहित होने पर, श्रीकृष्ण के तेजस्वी गुणों और उनकी अपार शक्ति को अधिक समझ सकोगे। जब तुम्हारे शरीर मजबूती से तुम्हारे पैरों पर खड़ा रहेगा और तुम अपने को ‘मनुष्य’ अनुभव करोगे, तब तुम उपनिषद् और आत्मा की महानता को अधिक अच्छा समझ सकोगे।"14 इसलिए आत्मज्ञान, आत्मशक्ति के द्वारा स्वयं की पहचान करो और गर्व करो की तुम भारतीय हो। जिन आध्यात्मिक विचारों को लेकर हम विश्व में सबसे आगे हैं उन विचारों पर पुनः चिन्तन करो, आगे बढ़ो और संसार से कहो -
“जागो, उठो, सपनों में मत खोये रहो,
यह सपनों की धरती है, जहाँ कर्म
विचारों की सूत्रहीन मालाएँ गूँथता है,.....
साहसी बनो और सत्य के दर्शन करो,
उससे तादात्म्य स्थापित करो,
छायाभासों को शांत होने दो;
यदि सपने ही देखना चाहो तो
शाश्वत प्रेम और निष्काम सेवाओं के ही सपने देखो!"15
“स्वामी जी ने अपनी वाणी और कर्तव्य से भारतवासियों में यह अभिमान जगाया कि हम अत्यन्त प्राचीन सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं, हमारे धार्मिक ग्रंथ संसार में सबसे उन्नत हैं और हमारा इतिहास सबसे महान है। हमारी संस्कृत भाषा विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है और हमारा साहित्य सबसे उन्नत साहित्य है। यही नहीं, प्रत्युत हमारा धर्म ऐसा है, जो विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरा है।.... स्वामी जी की वाणी से हिंदुओं में यह विश्वास उत्पन्न हुआ कि उन्हें किसी के भी सामने मस्तक झुकाने अथवा लज्जित होने की आवश्यकता नहीं है। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रीयता पहले उत्पन्न हुई, राजनीतिक राष्ट्रीयता बाद को जनमी है। इस सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के पिता स्वामी विवेकानन्द थे।"16 मानव सेवा और मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति स्वामी विवेकानन्द का अवदान बहुआयामी है। सर्वधर्म समभाव की चेतना उन्होंने अखिल विश्व में अंकित की। आज का भारत अपने गौरव, अपनी स्मृति का पुनरावलोकन करें। अपने मानवीय मूल्यों को पहचानें। ऊपरी भौतिक चम-दमक से दूर होकर आत्मचिन्तन में लीन हों, तभी स्वामीजी द्वारा सहिष्णुता, विश्वबंधुत्व और मानवजाति के समत्व का धर्म प्रतिफलित होगा। मानव सेवा को ही ईश्वरीय सेवा स्वीकार करने वाले विवेकानन्द आजीवन विश्व मानवता के कल्याण में लगे रहे। उनकी प्रगतिशील विचारधारा आज भी प्रासंगिक है। आज भारतवासियों को आवश्यकता है स्वामी विवेकानन्द के बताए मार्ग पर आगे बढ़ने की। उनका प्रखर और प्रेरक व्यक्तित्व हमें निर्भीकता से आलोक में सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।
ओ देवता, निर्बाध बढ़ो, अपने पथ पर,
तब तक,
जब तक कि यह सूर्य आकाश के मध्य में न आ जाय-
जब तक तुम्हारा आलोक विश्व में प्रत्येक देश में प्रतिफलित न हो;
जब तक नारी और पुरुष सभी उन्नत मस्तक हो कर यह नहीं देखें
कि उनकी जंजीरे टूट गयी
और नवीन सुखों के बसन्त में (उन्हें) नवजीवन मिला!17
संदर्भ ग्रंथ -
1. विवेकानन्द साहित्य - स्वामी स्वानन्द, अध्यक्ष अद्वैत आश्रम, पिथौरागढ़, पृष्ठ - 216, अंक - 10
2. विवेकानन्द चरित - श्री सत्येन्द्रनाथ मजूमदार, रामकृष्ण मठ, नागपुर, पृष्ठ - 449
3. स्वामी विवेकानन्द, मुंशी प्रेमचन्द, साहित्यागार, जयपुर, पृष्ठ - 16,
4. विवेकानन्द साहित्य - स्वामी स्वानन्द, अध्यक्ष अद्वैत आश्रम, पिथौरागढ़, पृष्ठ - 121
5. विवेकानन्द साहित्य: स्वामी स्वानन्द अध्यक्ष अद्वैत आश्रम, पिथौरागढ़, हिमालय, पृष्ठ - 193 (अल्मोड़े से एक अमेरिकन मित्र को लिखित, जुलाई 9, 1897 ई.) भाग-10
6. स्वामी विवेकानन्द, मुंशी प्रेमचन्द, साहित्यागार जयपुर - पृष्ठ - 06,
7. विवेकानन्द साहित्य- स्वामी स्वानन्द, पिथौरागढ़, पृष्ठ – 134 (दशम अंक)
8. विवेकानन्द साहित्य - चिंतनीय बातें, पृष्ठ - 38
9. स्वामी विवेकानन्द, मुंशी प्रेमचन्द, पष्ठ – 8
10. विवेकानन्द साहित्य - 17 मई 1894 ई. में हॉर्वर्ड क्रिमसन अंग्रेजी समाचार पत्र में प्रकाषित भाषण, पृष्ठ-283
11. विवेकानन्द साहित्य- स्वामी स्वानन्द, पिथौरागढ़, पृष्ठ – 175 (दशम अंक)
12. स्वामी विवेकानन्द, मुंशी प्रेमचन्द, साहित्यागार जयपुर, पष्ठ - 10
13. विवेकानन्द साहित्य - सुभाषित, पृष्ठ 215, दशम खण्ड
14. स्वामी विवेकानन्द, मुंशी प्रेमचन्द, साहित्यागार जयपुर, पष्ठ - 34
15. विवेकानन्द साहित्य: स्वामी स्वानन्द, अद्वैत आश्रम, पिथौरागढ़, हिमालय, पृष्ठ - 191-192 (अगस्त 1898 में ‘प्रबुद्ध भारत’ पत्रिका मद्रास से)
16. संस्कृति के चार अध्याय - रामधारीसिंह दिनकर, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ - 509
17. विवेकानन्द साहित्य - स्वामी स्वानन्द अद्वैत आश्रम, पिथौरागढ़, हिमालय, पृष्ठ - 204 (4 जुलाई, 1898 में कुछ अमेरिकन शिष्यों के साथ काश्मीर पर्यटन पर गये। वहाँ ‘मुक्ति’ कविता की रचना की।)
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