भारतीय सस्कृति के विराट पुरुष : स्वामी विवेकानंद
डॉ. प्रभा शर्मा
अध्यक्ष - हिंदी विभाग
राजकीय कला कन्या महाविद्यालय, कोटा
ईमेल – prabha2364@gmail.com
मोबाइल -7976740636
भारतीय नवजागरण के अग्रदूत स्वामी विवेकानंद ने सम्पूर्ण विश्व को भारतीय संस्कृति के गौरव एवं वैदिक दर्शन की गहराइयों से परिचित कराते हुए मानव कल्याण, जीवन में आध्यात्मिक और नैतिक विकास के कालजयी सन्देश दिए हैं। उन्होंने नैतिक आचरण, व्यक्तित्व विकास, सामाजिक सुधार, देश भक्ति, धर्म, अध्यात्म से लेकर युवा शक्ति और मातृ शक्ति की भक्ति, जीवन दर्शन, जीवन का वास्तविक उद्देश्य और सफलता के मूलमंत्र को अपने जीवन-सन्देश में बार-बार प्रगट किया है।
भारतीय इतिहास में स्वामी विवेकानंद एक ऐसे कालजयी महामानव हैं जिन्होंने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अज्ञान के अंधकार में डूबी हुई भारतीय जनता को ज्ञान का प्रकाश दिखाकर उसे अपने धर्म, संस्कृति एवं स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सन्नद्ध रहने की प्रेरणा दी। जिस समय स्वामी जी का आविर्भाव हुआ, उस समय भारत चारों तरफ अंधकार में डूबा हुआ था। लोगों को उससे निकल कर बाहर आने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। यही समय भारतीय पुनर्जागरण का समय है। अंग्रेजों की गुलामी से बाहर निकलने के लिए देश अपनी सुप्त अवस्था से जागने की कोशिश कर रहा था। इस जागरण के पीछे स्वामी विवेकानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय के योगदान को हम युवा भुला नहीं सकते हैं। स्वामी विवेकानंद ने जागरण की इस गति को तीव्रता प्रदान की।
शिकागो में 11 सितंबर 1893 ईसवी को विश्व धर्म सभा हुई। इस सभा में हिंदू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में स्वामी विवेकानंद अमेरिका गये। अमेरिका के शिकागो नगर की इस धर्म सभा में स्वामी जी का ऐतिहासिक भाषण हुआ। इस सभा में स्वामी जी ने जो कुछ कहा उससे भारतीय धर्म साधना की विशेषता सिद्ध होती है। उन्होंने पहले ही व्याख्यान में यह सिद्ध कर दिया कि सर्वधर्म समभाव और सहिष्णुता की भावना केवल भारत वासियों में ही है और इसका कारण हिंदू धर्म की उदारता तथा गतिशीलता है। स्वामी विवेकानंद ने बड़े गर्व के साथ शिकागो की विश्व धर्म महासभा में कहा था कि “मैं एक ऐसे धर्म का अनुयाई होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ित तथा शरणार्थियों को आश्रय दिया।”
स्वामी विवेकानंद ने भारतीय दर्शन, इतिहास, पुराण, महाभारत, रामायण, गीता आदि के आधार पर संपूर्ण विश्व को यह बताया कि ईश्वर एक है। वहीं एक ईश्वर विभिन्न रूपों में इस सृष्टि में चारों और दिखलाई पड़ता है। इसलिए सृष्टि में किसी से भी घृणा करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि ईश्वर समान रूप से सबके भीतर विद्यमान हैं। स्वामी जी के शब्दों में “वही एक ज्योति भिन्न-भिन्न रंग के कांच में से भिन्न-भिन्न रूप से प्रकट होती है। समायोजन के लिए इस प्रकार की अल्प विविधता आवश्यक है परंतु प्रत्येक के अंतःस्थल में उसी सत्य का राज है। ईश्वर ने अपने कृष्ण अवतार में हिंदुओं को यह आदेश दिया है, प्रत्येक धर्मों में मैं, मोती की माला में सूत्र की तरह पिरोया हुआ हूँ, जहां भी तुम्हें मानव सृष्टि को उन्नत बनाने वाली और पावन करने वाली अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखाई दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज से उत्पन्न हुआ है और इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ? सारे संसार को मेरी यह चुनौती है कि वह समग्र दर्शनशास्त्र में मुझे एक ऐसी उक्ति तो दिखा दे जिसमें यह बताया गया है कि केवल हिंदुओं का ही उद्धार होगा और दूसरों का नहीं।”
आज जब चारों तरफ धर्म, संप्रदायों को लेकर युद्ध की स्थिति बनी हुई है, इसमें विवेकानंद की प्रासंगिकता पहले से अधिक बढ़ गई है। स्वामी जी ने अपना सारा जीवन सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव का पाठ पढ़ाने में लगा दिया। उन्होंने सारे संसार को यह बतलाया कि यह ज्ञान भारतीय दर्शनशास्त्र में ही हैं कि सबके साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। धार्मिक रूप से पूजा उपासना के विषय को लेकर स्वतंत्रता की छूट भारतीय धर्म शास्त्र ही देते हैं। स्वामी जी ने शिकागो के अपने पहले ही भाषण में कहा था - “जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभु ! भिन्न-भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े - मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।” अपनी इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने मद्रास में दिए हुए अपने भाषण में कहा कि- “संसार की समस्त जातियों से वेदों की भाषा में हमको कहना होगा कि तुम्हारा लड़ना और झगड़ना वृथा है। तुम जिस ईश्वर का प्रचार करना चाहते हो क्या तुमने उसको देखा है? यदि तुमने उसको नहीं देखा तो तुम्हारा प्रचार वृथा है। जो तुम कहते हो वह स्वयं नहीं जानते और यदि तुम ईश्वर को देख लोगे तो क्या तुम झगड़ा नहीं करोगे, तुम्हारा चेहरा चमकने लगेगा।” स्वामी जी ने वर्ण व्यवस्था का आधार गुण और कर्म को माना है। स्वामी जी का यह मानना था कि हिंदू धर्म में आई विकृतियों का कारण पुरोहित और श्रेष्ठी वर्ग है। यह विकृतियां उदार मानवीय और कर्म प्रधान वैदिक व्यवस्था को जन्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था में भटका दिए जाने के कारण आई हैं। इसकी कोख से उपजी छुआछूत ने भारतीय समाज को और कमजोर कर दिया। जातियों ने समाज को बांट दिया। पौरुष और पराक्रम की प्रवृत्ति के स्थान पर निवृत्ति को श्रेष्ठ मानने की धारणा के विस्तार ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की वैदिक अवधारणा को भटका दिया। उन्होंने देश में व्याप्त निराशा को समझा। अपनी महान आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर पर गर्व करने की अपेक्षा पश्चिमी सभ्यता की ओर उन्मुक्त शिक्षित वर्ग की इस मनोग्रंथि को समझा कि वह भारतीय वैभव को तब तक स्वीकार नहीं करेगा जब तक कि उसे पश्चिमी देशों का प्रमाण पत्र ना मिल जाए विशेषकर इसी से प्रेरित होकर उन्होंने शिकागो विश्व धर्मसभा में जाने का निर्णय किया जो खेतड़ी नरेश अजय सिंह के वित्तीय सहयोग से संभव हुआ।
स्वामी जी भारतीय संस्कृति के एक-एक सूत्र में विश्वास करते थे। इस पुरातन संस्कृति में स्त्री की विशेष भूमिका मानी गई है। “यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता” सूक्ति यहां विख्यात है ही। आधुनिकता के रंग में रंगी हुई भारतीय नारियों को सीता का आदर्श गृहण करने की शिक्षा स्वामी जी ने दी है, उन्होंने बताया कि भारतीय नारी को सीता का आदर्श ग्रहण करना चाहिए, स्त्री चरित के जितने आदर्श हो सकते हैं, वे सब सीता में हैं। सीता शुद्धता, धैर्य तथा सहिष्णुता की सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा है। स्वामी जी के अनुसार – “चाहे हमारे सब पुराण नष्ट हो जाएं, यहां तक कि हमारे वेद भी लुप्त हो जाएं, हमारी संस्कृत भाषा सदा के लिए कालस्रोत में विलुप्त हो जाए, किंतु मेरी बात ध्यान पूर्वक सुनो जब तक भारत में अतिशय ग्राम्य-भाषा बोलने वाले पांच भी हिंदू रहेंगे तब तक सीता की कथा विद्यमान रहेगी। सीता का प्रवेश हमारी जाति की अस्थि-मज्जा में हो चुका है, प्रत्येक हिंदू नर-नारी के रक्त में सीता विराजमान है । हम सभी सीता की संतान हैं, हमारी नारियों को आधुनिक भावों में रंगने की चेष्टा हो रही है, यदि उन सब प्रयत्नों में उनको सीता चरित्र के आदर्श से भ्रष्ट करने की चेष्टा होगी तो वह सब असफल होंगे जैसा कि हम प्रतिदिन देखते हैं। भारतीय नारियों से सीता के चरणों का अनुसरण करा कर अपनी उन्नति की चेष्टा करनी होगी, यही एकमात्र पथ है।” वह महिलाओं की स्थिति के बारे में चिंतित रहते थे। वह अपने भाषणों, पत्रों, व्याख्यान में चिंता प्रकट करते थे । “किसी भी देश की सर्वांगीण उन्नति तब तक नहीं हो सकती जब तक कि उसका एक अंग शक्तिहीन हो, ठीक उसी प्रकार जिस तरह एक पांव के सहारे कोई भी उड़ नहीं सकता। नारी जाति के उत्थान का समर्थन करते हुए उन्होंने प्राचीन भारत के विदुषी नारियों के विषय में लिखा है - वैदिक और औपनिषदिक युग में मैत्रयी और गार्गी सदृश पुण्यशीला महिलाओं ने ऋषियों का स्थान लिया था। वेदज्ञ विद्वानों की सभा में गार्गी ने याज्ञवल्क्य को ब्रह्म के विषय में शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारा था।” स्वामी जी तत्कालीन भारत में महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक स्थिति से बहुत चिंतित थे, उनकी यह धारणा प्रबल थी कि स्त्री का शैक्षणिक विकास बहुत आवश्यक है इसलिए तो उन्होंने आमरिस प्रवासी अपनी शिष्या और अपनी अनन्य भक्त मारग्रेट नोबेल जिसका नाम उन्होंने निवेदिता दिया था, को स्त्री-शिक्षा के कार्य में ही लगा दिया । वे सेवा और शिक्षा दोनों कार्य में तन्मयता से जुट गईं। स्वामी जी ने अपने जीवन में मां, ममता और मातृभूमि को विशेष महत्व दिया।
स्वामी जी भारतीय संस्कृति की विशेषता बताते हुए कहते हैं – “संपूर्ण सृष्टि में वही चेतन तत्व विराजित है जिसका वर्णन हमारे ऋषि ‘अखंड मंडलाकारम व्याप्तम येन चराचरम्’ के रूप में करते हैं।” एक ही चेतना का प्रगटीकरण परिवार उसके आगे समाज, राष्ट्र व विश्व में हो रहा है। सब परस्परावलंबी हैं, परस्पर जुड़े हैं। किसी एक का नाश करेंगे तो स्वयं का नाश होगा ।भारतीय संस्कृति के इस एकात्म भाव का स्वामी जी ने संदेश दिया। लाहौर में स्वामी जी को सिख, सनातनी, आर्यसमाजी सब अलग-अलग बुलाना चाहते थे किंतु उन्होंने कहा कि सब एक साथ आओगे तो ही भाषण होगा आखिर में सब एक साथ आए और कार्यक्रम बहुत ही सफल रहा।
स्वामी जी गुलामी की जंजीरों को जितनी जल्दी हो सके तोड़कर फेंकना चाहते थे। उन भारतीयों की उन्होंने खूब-खूब आलोचना की जो अंग्रेजों की खुशामद करने में लगे रहते थे। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि कभी भी कोई गुलाम देश महान नहीं बन सकता है। इसलिए उन्होंने देश की स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी। भारत के नौजवानों को बतलाया कि सारे देवी- देवताओं को भुलाकर भारत माता की आराधना में लग जाओ। स्वामी जी ने अपने एक भाषण में कहा कि “आगामी 50 वर्ष के लिए यह जननी जन्मभूमि भारतमाता ही मानो आराध्य देवी बन जाए। तब तक के लिए हमारे मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी-देवताओं के हट जाने में कुछ भी हानि नहीं है। अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ। हमारा देश ही हमारा जागृत देवता है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं और सर्वत्र उसके कान हैं। समझ लो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं। जिन व्यर्थ के देवी-देवताओं को हम देख नहीं पाते उनके पीछे तो हम बेकार दौड़ें और जिस विराट देवता को हम अपने चारों ओर देख रहे हैं, उसकी पूजा ही ना करें। जब हम इस प्रत्यक्ष देवता की पूजा कर लेंगे तभी हम दूसरे देवी-देवताओं की पूजा करने योग्य होंगे, अन्यथा नहीं।”
स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति की सभी अच्छाइयों को स्वीकार किया। विवेकानंद के अनुसार समाज का चार वर्णों में विभाजन आदर्श समाज व्यवस्था का ध्योतक है। विवेकानंद को प्राचीन भारत की वर्ण व्यवस्था में साकार हुए सामाजिक सामंजस्य तथा समन्वय के आदर्श से प्रेरणा मिली थी। उन्होंने कहा कि “तत्व की बात यह नहीं है कि समाज पर नीरस एकरूपता की कोई व्यवस्था थोप दी जाए, आवश्यकता इस बात की है कि हर व्यक्ति को अच्छे ब्राह्मण का पद प्राप्त करने में सहायता दी जाए।” स्वामी जी ने वर्ण व्यवस्था का आधार गुण और कर्म को माना।
स्वामी विवेकानंद ने भारतीय शिक्षा और संस्कार पर गहरा चिंतन किया था। विवेकानंद जी शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य निर्माण मानते थे। मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता उसका चरित्र है। मनुष्य निर्माण करने का अर्थ चरित्र निर्माण करना है। सही शिक्षा की प्रक्रिया में चरित्र का विकास होता ही है। प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में जीवन का मूल उद्देश्य चरित्र निर्माण रहा है। मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है-
वृतं यत्नेन संरक्षेद वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो विततः क्षीणो वृतस्तु हतो हतः।।
अर्थात में अपने चरित्र की प्रत्यनपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। क्योंकि धन तो आता है और नष्ट होता रहता है। धन नष्ट होने से मनुष्य निर्धन नहीं होता परंतु चरित्र के नष्ट होने पर तो मनुष्य मरे हुए के समान हो जाता है।
स्वामी जी इस बात से बहुत व्यथित रहा करते थे कि ब्रिटिश शासन सुनियोजित ढंग से अंग्रेजी भाषा और ब्रिटेन की शिक्षा प्रणाली के माध्यम से हमारे प्राचीन सनातन धर्म और हिंदू संस्कृति के अस्तित्व के लिए संकट पैदा करता जा रहा है और हम सब मूकदर्शक बने यह सहन कर रहे हैं। इसलिए वे हमारे हमेशा अंग्रेजी भाषा की जगह हिंदी, संस्कृत तथा भारतीय भाषाओं के प्रयोग पर बल दिया करते थे। स्वामी जी ने अपने प्रवचन में कहा, “मैंने देखा है कि सभी देशों ने अपनी-अपनी भाषा के माध्यम से प्रगति की है। भारत ऐसा देश है जहां विदेशी भाषा शासन की ओर से लादकर हमारी महान संस्कृत भाषा के अस्तित्व पर आघात लगाया जा रहा है। हमारे धर्मशास्त्र हमें स्वाभिमान के साथ धर्म व संस्कृति पर अडिग रहने की प्रेरणा देते हैं। भारत व भारतीय संस्कृति को जानने के लिए देववाणी संस्कृत अनिवार्य रूप से पढ़नी चाहिए।”
स्वामी जी सकारात्मक सोच के पक्षपाती थे। उनके अनुसार शुभ विचार अच्छे चरित्र की पूंजी है। वह कहते हैं- “यदि कोई मनुष्य अच्छे विचार सोचे तथा अच्छे कार्य करे तो उससे इन संस्कारों का प्रभाव भी अच्छा ही होगा और इच्छा ना होते हुए भी वे उसको सत्कार्य करने के लिए विवश कर देंगे। स्वामी जी के इन्हीं सकारात्मक विचारों पर प्रसिद्ध कवि रविंद्रनाथ टैगोर ने टिप्पणी की है- “अगर आप भारत को समझना चाहते हैं तो विवेकानंद का अध्ययन कीजिए। उसमें सब सकारात्मक है, नकारात्मक कुछ भी नहीं है।” स्वामी जी ने अपने जीवन में जो सतकार्य किया, जो विचार रखे उससे प्रभावित होकर रोम्यारोला जैसे नोबेल पुरस्कार विजेता विदेशी विद्वान ने स्वामी जी के जीवन पर लिखा। रोम्यारोला स्वामी विवेकानंद के बारे में लिखते हैं- “उनके शब्द महान संगीत हैं, वोथोवन शैली के टुकड़े हैं, हैडल के समवेत गान के छंद प्रवाह की भांति उद्दीपकलय हैं। शरीर में विद्युत स्पर्श के से आघात की सिरहन का अनुभव किए बिना मैं उनके इन वचनों का स्पर्श नहीं कर सकता, जो 30 वर्ष की दूरी पर पुस्तकों के पृष्ठों में बिखरे पड़े हैं और जब वे नायक के मुख से ज्वलंत शब्दों में निकले होंगे तब तो ना जाने कैसे आघात एवं आवेग पैदा हुए होंगे।”
स्वामी विवेकानंद का जीवन भारतवर्ष ही नहीं अपितु किसी भी देश, काल, जाति, धर्म, ऊंच-नीच, अपने-पराए जैसे तमाम बातों के परे वैचारिक क्रांति का ऐसा प्रकाश पुंज है जिसमें सदियों को आलोकित करते रहने की दिव्यता रची बसी है। उनके विचारों के चंद अंशों को भी आत्मसात कर लिया जाए तो किसी भी कालखंड में मानवीय सरोकारों के विकास एवं संरक्षण के साथ ही नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति की क्रांति का सूत्रपात किया जा सकता है, चाहे बात राष्ट्रभक्ति की हो या अंतर्राष्ट्रीय एकता की अलख जगाने की। लक्ष्य चाहे स्वयं में सोई हुई शक्तियों को जागृत करने का हो या फिर अध्यात्म के मार्ग पर कदम रखते हुए दिव्यता के दर्शन का। स्वामी विवेकानंद के विचारों की सुरभि से सब कुछ प्राप्त करना संभव है। निराशा में डूबे और परेशानियों में उलझी लोगों में आत्मशक्ति जगाने के लिए स्वामी विवेकानंद के विचारों को ऐसा टॉनिक बताया गया है, जो अद्भुत तरीके से तन-मन पर प्रभाव डालकर हमें अंदर तक स्वस्थता प्रदान करते हैं।
स्वामी जी अपने 40 वर्षों से भी कम के अपने जीवन काल में धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक व सामाजिक मूल्यों तथा मातृभूमि की भक्ति को लक्ष्य बनाकर संपूर्ण विश्व के सामने ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया कि वे युवा शक्ति के प्रतीक बनकर अजर-अमर हो गए। आज स्वामी विवेकानंद जी हमारे बीच में नहीं है किंतु उनके विचार एवं संदेश आज भी उतने ही सटीक प्रेरणादायक प्रतीत होते हैं। वास्तव में विवेकानंद ऐसे युगपुरुष हैं जिन्होंने धर्म और राजनीति, राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता, उपनिषद और विज्ञान सबको अपने भीतर समाहित कर वर्तमान ही नहीं वरन निकट भविष्य के भारत को भी नवीनता से परिचित कराया।
संदर्भ:-
1. विवेकानंद साहित्य, खंड - 2
2. मधुमति, फरवरी 2017, पृष्ठ 11
3. विवेकानंद साहित्य, खंड- 7
4. राजस्थान पत्रिका, 12 जनवरी 2020
5. साहित्य अमृत, अगस्त 2013, पृष्ठ 231
6. www.google.co.in
7. तिवारी, डॉ. भरत कुमार, स्वामी विवेकानंद का दार्शनिक चिंतन, भारतीय विद्यापीठ, नई दिल्ली, 1988
8. Encyclopedia
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