जद्दन बाई : हसरतों,परवाजों की दास्ताँ
डॉ.उषा आलोक दुबे
जद्दन बाई का जन्म सन 1892 या सन 1908 के आस-पास और मृत्यु 08
अप्रैल 1949 को बम्बई (आज के मुंबई) में हुई । आप के पिता
बनारस के सारंगी वादक मियाँ जान एवं माँ दलीपा बाई पेशे से एक तवायफ़ थीं । सारंगी वादक मियाँ
जान के उस्ताद भूसन खाँ थे । गाने-बजाने की प्रारंभिक शिक्षा एवं परिवेश जद्दन
को परिवार से ही मिला । संदर्भ मिलते हैं कि मियाँ जान बेटी जद्दन को लेकर कलकत्ता गए जहां बड़ी
मलका जान की बेटी गौहर जान से जद्दन की शिक्षा हेतु सहायता मांगी । बड़ी मलका जान
अपने कुनबे के साथ सन 1883 में कलकत्ता आकर रहने लगी थीं । वे उत्तरी
कलकत्ता के चितपुर इलाके में रहीं । सन 1886 में बड़ी मलका जान ने उत्तरी कलकत्ता के
चितपुर इलाके में ही तीन मंज़िला मकान उस समय चालीस हजार रुपये में खरीदा, जो यह बताता है कि
उनकी माली हालत अब बहुत बेहतर थी । वे कलकत्ता की मशहूर तवायफ़ों में शुमार थीं
।
सन 1906 में गौहर की माँ बड़ी मलका जान का देहांत हो
गया । इस हिसाब से अगर 5-6 साल की उम्र में जद्दन बाई कलकत्ता आई थीं
तो यह सन 1913-14 के आस-पास का समय रहा होगा । गौहर जान जद्दन की गायकी से प्रभावित हुई और उसकी
आगे की शिक्षा के लिए भईया साहेब के पास भेज़ दिया । सन 1920
में भईया साहब की
मृत्यु के बाद उस्ताद मोजुद्दीन ने जद्दन बाई की तालीम पूरी कराई । इस तरह 13-14 साल की उम्र तक जद्दन
की बुनियादी शिक्षा पूरी होने की बात योग्य लगती है । उस्ताद मोजुद्दीन ठुमरी के लिए
कलकत्ता में प्रसिद्ध थे । उस्ताद मोजुद्दीन और उस्ताद बरकत अली खाँ ठुमरी के सबसे बड़े उस्ताद माने
जाते हैं । उस्ताद बरकत अली खाँ, बड़े गुलाम अली खाँ के छोटे भाई थे । सादगी
और विनम्रता उनके व्यक्तित्व की पहचान थी । श्रीमत गणपतराव
(भईया साहेब) और श्यामल चेत्री, मोजुद्दीन के उस्ताद
माने जाते थे । बशीर ख़ान हारमोनियम पर मोजुद्दीन का साथ देते थे । सितार वादक
गुलाम हुसैन ख़ान मोजुद्दीन के वालिद थे । सन 1894
में यह परिवार लौहार
से बनारस आया था । मोजुद्दीन यहाँ ‘श्रुतिधर’ नाम से जाने जाते थे । मोजुद्दीन की शिष्याओं में मलका जान, बड़ी मोती बाई और बाद
में जद्दन बाई का भी नाम जुड़ा । आप मलका जान को चाहते थे लेकिन मलका जान और उस्ताद
फैज खान के संबंध किसी से छुपे नहीं थे ।
सन 1922-24 के आस-पास मोजुद्दीन की
मृत्यु हो गई थी । श्रीमत गणपतराव (भईया साहेब) की मृत्यु सन 1920
में हुई थी । इस
हिसाब से यदि जद्दन बाई भईया साहेब से शिक्षा ग्रहण कर रही थीं और उनकी मृत्यु के
बाद उस्ताद मोजुद्दीन द्वारा ज़िद्दन की शिक्षा को पूर्ण कराने की बात को सच मान
लिया जाय तो यह समय 1918 से 1922 के आस पास का होना चाहिए । लेकिन जद्दन का
जन्म वर्ष यदि 1892 था तो 1918 में उनकी उम्र 26 साल बनती है जो कि तवायफ़ों की शिक्षा लेने
की उम्र नहीं थी । 14-15 साल की उम्र तक उनकी बुनियादी शिक्षा पूरी
हो जाती थी एवं उन्हें कोई संरक्षक भी मिल जाता था । ज़द्दन की एक जन्म तारीख सन 1908 भी बतायी जाती है ।
इस तिथि के हिसाब से 1918 में ज़द्दन की उम्र दस साल की बनती है । सन 1929 में फातिमा के जन्म
के समय ज़द्दन की उम्र 21 साल होती है । सन 1933
में पहली फ़िल्म के
समय उम्र होती है 25 वर्ष । और मृत्यु के समय सन 1949 में उम्र होती है 41
वर्ष । द ऑक्सफोर्ड
इनसाइक्लोपीडिया इनका जन्म वर्ष सन 1900 बताता है । उनके जीवन की तमाम कड़ियों एवं
उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर हमें भी यह लगता है कि
जद्दन बाई का जन्म वर्ष
सन 1892 नहीं हो सकता । उनका जन्म सन 1905
- 1908 के आस-पास ही हुआ होगा ।
ठुमरी की विधिवत शिक्षा
लेने के बाद जद्दन बाई सन 1921-22 के आस-पास बनारस वापस आ जाती हैं । इस समय जद्दन
की उम्र 13-14 साल की रही होगी जब तवायफ़ों के यहाँ ‘नथबाबू’ की तलाश होने लगती है । बनारस के दाल मंडी
इलाके में चौक फ़ौआरे के आस-पास ही जद्दन की कोठी थी । ठुमरी गायिका के
रूप में मशहूर होते ही जद्दन बाई बनारस के रईसों में चर्चा का केंद्र हो गईं ।
यहीं के एक साड़ी व्यापारी ‘बच्ची बाबू’ उनके संरक्षक भी बने । आगे चलकर इन्हीं से
जद्दन बाई ने निकाह किया । बच्ची बाबू का मूल नाम नरोत्तमदास खत्री था । आप बाद में मुसलमान बन गए थे । इनसे
उन्हें एक पुत्र भी हुआ जिसका नाम ‘अख़्तर हुसैन’ था । जद्दन बाई राजे- रजवाड़ों और रईस जमींदारों की महफ़िलों में अब
बुलाई जाने लगीं थीं । लखनऊ, बनारस, चेन्नई, रामपुर, इंदौर, इलाहाबाद, जोधपुर, गया और दरभंगा जैसी रियासतों में जद्दन
मफ़िलों की ज़ीनत बन गईं । इनके साथ संगत देने वालों में कल्लन खाँ का नाम कई जगह
मिलता है ।
गया के नवाब मुजफ्फर खाँ की
महफ़िलों में जद्दन बाई का बराबर आना-जाना था । वहीं उस्ताद इरशाद मीर खा नामक
हारमोनियम वादक से इन्हें प्रेम हो गया । सन 1925-26 के आस-पास इरशाद को लेकर जद्दन बाई कलकत्ता आ गई
और यहीं रहने लगीं । इरशाद से ही उन्हें एक पुत्र हुआ जिसका नाम अनवर हुसैन रक्खा
गया । इस समय जद्दन की उम्र 17-18 वर्ष थी । अपनी गायकी के लिए जद्दन मशहूर
तो हो ही चुकी थी । धीरे-धीरे उन्होने कलकत्ते
के रईसों के बीच भी
नाम कमाया और वहाँ अपनी एक कोठी बना ली । उनकी यह कोठी मध्य कलकत्ता के 08 इंडियन मिरर स्ट्रीट
पर थी । कलकत्ता में जद्दन बाई धीरे – धीर शानो शौकत भरी
जिंदगी जीने लगीं । घुड़सवारी, महँगे कपड़े और गहने उनकी पहचान बनने लगी । शायद
वो ग्लैमरस गौहर जान से प्रेरित हुई हों जो उसी कल्कत्ते में बहुत बड़ी हैसियत की
तवायफ़ थीं । गौहर का जद्दन पर स्नेह भी था ।
सन 1912 के आस-पास से कलकत्ता में
ठुमरी के बड़े संगीत कार्यक्रम आयोजित होने लगे थे । महराज नटोर का घर उत्तरी कलकत्ता, दक्षिणी कलकत्ता में
मुरारी सम्मेलन, धूलीचंद की महफिलें, वार्षिक शंकर उत्सव इत्यादि में ठुमरी
गायकी का प्रदर्शन होने लगा था । इसे फैलाने और प्रचारित-प्रसारित करने में श्यामल चेत्री जैसे लोगों
का बड़ा योगदान था । बहूबाजार, मेटियाबुरूज़
और चितपुर जैसे
इलाकों से ‘बाईजी’ लोगों को इन आयोजनों में ठुमरी गायन के लिए आमंत्रित किया जाने लगा था ।
कलकत्ता में बनारस, लखनऊ और पंजाबी टप्पा प्रधान सभी तरह की
ठुमरी को समान रूप से स्वीकार किया गया । आगरावाली मलका जान बहुत पहले से कलकत्ता
में रह रहीं थीं । चुलबुलवाली मलका जान, भागलपुरी मलका
जान, बड़ी मलका जान, गौहर जान, जद्दन बाई, मुन्नी बाई, शांति बाई, हमीदन बाई और
इंदुबाला जैसी बेजोड़ ठुमरी गायिकाएँ कलकत्ते में थीं । शुरुआती दिनों में अख्तरी
बाई जद्दन बाई से संगीत की बारीकियाँ सीखने जाती थीं । रिकार्डिंग कंपनी में
गंगुबाई हंगल की सिफ़ारिस भी जद्दन बाई ने ही की थी ।
बनारस रहते हुए
जद्दन बाई आये दिन
अंग्रेजों के छापे से परेशान हो चुकी थीं । दालमंडी स्थित इनके कोठे पर किसी अन्य
तवायफ़ की तुलना में सबसे अधिक छापे पड़ते थे । इन छापों से ही परेशान होकर जद्दन ने
दालमंडी वाली कोठी छोडकर बनारस में ही कहीं अन्यत्र मकान बना लिया था । अंग्रेज़ सरकार को यह
बराबर शक था कि क्रांतिकारियों का इनके यहाँ आना-जाना होता है एवं जद्दन बाई उनकी छुपे तौर
पर मदद भी करती हैं । इस शक की एक वजह इलाहाबाद के मीरगंज और प्रतापगढ़ के चिलबिला
के पास ( बेल्हा मंदिर के पास, नदी उस पार )
इनके मकान और वहाँ
महफ़िलों के नाम पर इनका आना - जाना भी था । इलाहाबाद और चिलबिला के कई
संभ्रांत वकील, कांग्रेस के कार्यकर्ता और कुछ क्रांतिकारी भी जमींदारों और नवाबों के
साथ जद्दन की महफ़िलों में शामिल रहते थे । चिलबिला का मकान या तो जद्दन बाई ने
खरीदा था या फिर यह उनका पुश्तैनी मकान था । जद्दन बाई की माँ को लेकर तरह-तरह की कहानियाँ गढ़ी
गई हैं जो बहुत उलझी हुई और अतार्किक लगती हैं, अतः उन बातों की चर्चा न करना ही हमने उचित
समझा । वैसे भी इस शोध पत्र का मुख्य केंद्र जद्दन बाई और उनकी जद्दो जहद है ।
मध्य कलकत्ता के 08
इंडियन मिरर स्ट्रीट
पर जद्दन बाई का एक मकान जीर्ण अवस्था में आज भी मौजूद है । इसी मकान में जद्दन
बाई अपनी सहयोगी मखना बीबी के साथ रहती थी । कलकत्ता म्युनिसिपल कार्पोरेशन के
दस्तावेज़ों में आज इस मकान के मालिकान हक संबंधी पुराने रिकार्ड स्पष्ट नहीं हैं ।
प्रापर्टी टैक्स के कुछ प्रमाण मखना बीबी के नाम ज़रूर मिलते हैं । इस मकान में
जद्दन बाई 1942 से 1946 तक बम्बई से आती रहती थीं । यह
मकान बाद में जद्दन बाई ने मखना बीबी के नाम ही वसीयत कर दी थी । एक जून 1929 को जद्दन बाई की बेटी
फातिमा का जन्म इसी मकान में हुआ था । यह बेटी उन्हें मोहन बाबू उर्फ़ मोहनचंद
उत्तमचंद त्यागी से विवाह के बाद हुई थी । विवाह के लिए मोहन बाबू ने इस्लाम कबूल
किया और अपना नया नाम अब्दुल रशीद रक्खा । जद्दन बाई और अब्दुल रशीद की यही बेटी फातिमा आगे
चलकर हिन्दी फ़िल्मों की मशहूर सिने तारिका बनी, जिसे दुनियाँ ‘नर्गिस’ के नाम से जानती है ।
( जद्दन बाई का कलकत्ता
स्थित जीर्ण मकान । फ़ोटो स्रोत - https://explorebengalheritage.com/eng/memories-of-jaddanbai/)
जद्दन बाई यहाँ सन 1931 तक रही, उसके बाद लाहौर के बड़े उद्यमी हकीम
रामप्रसाद के बुलावे पर वे सन 1932 में लौहार चली गईं । यहीं जद्दन ने हकीम
रामप्रसाद की फ़िल्म ‘राजा गोपीचन्द’ में काम के साथ फ़िल्मी दुनियाँ में अपना
सफ़र शुरू किया । इस फ़िल्म के हीरो हरिश्चंद्र बाली थे । इस फ़िल्म में उन्होने माँ
की भूमिका निभाई थी ।
कलकत्ता रहते हुए जद्दन बाई और उनके दूसरे
शौहर इरशाद के साथ रिश्तों में खटास आने लगी थी । जिस तेजी से जद्दन बाई कलकत्ता
में नाम और शोहरत कमा रहीं थी उसके मुक़ाबले इरशाद अपने आप को बहुत कमतर आँकने लगे
थे । फ़िर जिस तरह का बिंदास और फ़ैशन परस्त जीवन जद्दन बाई जीने लगी थी उसमें इरशाद
अपने आप को ‘फ़िट’ नहीं समझ रहे थे । एक दिन अचानक इरशाद बिना बताये कहीं चला जाता है । ऐसे
में अकेले दो बच्चों की परवरिश और महफिलें, मुजरा सब संभालना जद्दन बाई के लिए कठिन हो गया । लेकिन जद्दन ने हार नहीं
मानी और अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाती रहीं । बनारस और कलकत्ते के बीच उन्होने अपना
आना-जाना बनाये रक्खा । 1930-31 के आस-पास से जद्दन बाई ने ग्रामोंफोन के लिए
रिकार्डिंग देना भी शुरू कर दिया था । कोलम्बिया ग्रामोफोन कंपनी लिमिटेड के लिए
उन्होने पहले पहल रिकार्डिंग दी थी । उनके जिन गीतों को रिकार्ड किया गया उनमें से
कुछ इस प्रकार है – फूल गेंदवा न मारो, रूप जोबन गुण धरो, नुक्ता चीन है गम-ए-दिल, ना जा बालम परदेशवा, देवा – देवा सतसंग, कन्हैया तेरो कारो
रे और नैनो से नैना मिलाये इत्यादि । आगे चलकर उन्होने रेडियो के लिए भी ख़ूब
प्रस्तुतियाँ दीं । मोहन बाबू से उनका तीसरा विवाह था । लेकिन यह रिश्ता दोनों ने
उम्र भर निभाया । कुछ जगह संदर्भ मिलता है कि जद्दन के दूसरे शौहर इरशाद बाद में
मुंबई आ गए थे और मीर साहब नाम से संगीतकार बने । संभवतः नसीम बानों की किसी फ़िल्म
में इनका दिया हुआ संगीत था ।
सन 1932-33 में लाहौर रहते हुए जद्दन बाई ने फ़िल्म ‘राजा गोपीचंद’ और ‘इंसान या शैतान’ नामक फिल्मों में काम किया । सन 1934 में वे निर्माता निर्देशक राम दरियानी के
साथ बम्बई चली आयीं । यहाँ आकार उन्होने फ़िल्म ‘सेवासदन’ और ‘नाचवाली’ में काम किया । सन 1935 में जद्दन ने अपनी
ख़ुद की फ़िल्म कंपनी ‘संगीत मूवी टोन’
शुरू की । इस कंपनी के बैनर तले उन्होने तलाश-ए-हक (1935), हृदय मंथन (1936), मैडम फ़ैशन (1936), जीवन सपना (1937) और मोती का हार (1937) जैसी फिल्मों का निर्माण किया ।
इन फिल्मों के संगीत निर्देशन में भी उन्होने बड़ी भूमिका निभाई । फ़िल्म तलाश-ए-हक (1935) में संगीत निर्देशन की वजह से उन्हें हिंदी
फिल्मों की प्रथम महिला संगीत निर्देशक के रूप में भी जाना गया । हालांकि इरशद
सुल्ताना उर्फ़ ‘बिब्बो’ सन 1934
में बनी फ़िल्म ‘अदले-जहांगीर’ के लिए संगीत निर्देशन का काम पहले ही कर
चुकी थी । इनकी पहली फिल्म 1933 में बनी ‘मायाजाल’ थी । इशरत सुल्ताना उर्फ़ ‘बिब्बो’ का जन्म पुरानी दिल्ली के पास इशरताबाद में हुआ था। इशरत की मां ‘हफीजन बाई’ एक तवायफ थीं। बिब्बो ने सन 1937 बनी फिल्म ‘कज्जाक की लड़की’ में भी संगीत निर्देशन किया था ।
हिंदी के प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने
1934 में ‘द मिल मज़दूर’ नाम की जिस फिल्म की
पटकथा लिखी उसकी नायिका भी थी ‘बिब्बो’ । प्रेमचंद की लिखी
फिल्म ‘द मिल मजदूर’ मुंबई में 5 जून 1939 को इंपीरियल सिनेमाघर
में लंबी लड़ाई के बाद रिलीज हुई थी। वैसे तो यह फिल्म 1934 में ही बनकर तैयार हो चुकी थी,
लेकिन उस समय मुंबई
के बीबीएफसी (बॉम्बे बोर्ड ऑफ
फिल्म सर्टिफिकेशन) ने इसे प्रदर्शित
करने की अनुमति नहीं प्रदान की । उन्हें यह लगता था कि फ़िल्म मजदूरों को बरगला
सकती है और वे हड़ताल कर सकते हैं । तत्कालीन सेंसर बोर्ड में सदस्य के रूप में
शामिल बेरामजी जीजीभाई मुंबई मिल एसोसिएशन के भी अध्यक्ष थे, वे इस फ़िल्म को मिल एसोसिएशन के हितों के अनुकूल नहीं समझते थे । 1937 में बीबीएफसी का फिर से गठन हुआ और नए सदस्य
चुने गए। तब जाकर इस फ़िल्म को प्रदर्शित करने का रास्ता साफ हुआ । यह फ़िल्म
प्रेमचंद की मृत्यु के बाद प्रदर्शित हुई ।
हिन्दी सिनेमा के
शुरुआती दिनों में ऐसी बहुत सी तवायफें थीं जिन्होंने फिल्म की दुनियाँ में कदम
रखा और कामयाब रहीं । कई तवायफें रहीं जिन्होंने अपनी बेटियों को सफल अभिनेत्री के
रूप में प्रतिष्ठा दिलाने में कोई कमी नहीं छोड़ी । दिल्ली की तवायफ़ शमशाद बेगम
उर्फ़ छमिया बाई भी इसका मज़बूत उदाहरण हैं । अपनी बेटी नसीम बानो को फिल्मी दुनियाँ
में स्थापित करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही । नसीम की पहली फ़िल्म ‘ख़ून का ख़ून’ थी जो सन 1936 में रिलीज़ हुई थी ।
इसके बाद तलाक (1938) और पुकार (1939) जैसी फिल्मों में नसीम ने काम किया । बताते
हैं कि नसीम उन दिनों 2500 रुपये प्रति माह
कमाती थीं जो कि एक बड़ी रकम थी । इसी ग्लैमर और पैसे की चमक - धमक ने चालीस के दशक में कई लड़कियों को फ़िल्मी दुनियाँ की तरफ आकर्षित
किया । देविका रानी, लीला चिट्निस, शोभना समर्थ, नाड़िया, रोज़, नसीम बानो, शांता आप्टे, पद्मा देवी इन दिनों
की सफ़ल फ़िल्मी नायिकाएँ थीं ।
जद्दन बाई भी फ़िल्मी
दुनियाँ में अपनी एक जगह बनाने में कामयाब हो गईं थीं । बम्बई के नरीमन पॉइंट पर
उनका शानदार मकान था । ग्रामोंफोन और आल इंडिया रेडियो के लिए उनकी रिकार्डिंग
होने लगी थी । अपनी फिल्मों के फ्लॉप होने और कंपनी के नुकसान के बावजूद वो मज़बूती
से डटी हुई थीं । सन 1942 में आजादी की लड़ाई के
लिए उन पर ‘गुप्त रेडियो स्टेशन’ चलाने में क्रांतिकारियों की मदद का भी
आरोप लगा । अपनी बेटी फ़ातिमा को
वो एक कामयाब फ़िल्म अभिनेत्री के रूप में देखना चाहती थीं । इसके लिए उनके प्रयास
लगातार जारी थे । चाइल्ड आर्टिस्ट के रूप में वो फ़ातिमा को अपनी ही फ़िल्म में
प्रस्तुत कर चुकी थीं । 06 साल की फ़ातिमा ने तलाश-ए-हक (1935) में अपना पहला फ़िल्मी काम बतौर बाल कलाकार
किया था । मात्र 14 साल की उम्र में ही नरगिस को 1943 में निर्देशित महबूब खान की फिल्म ''तकदीर'' में काम करने का मौका मिला । महबूब खान ने फातिमा
को एक सुपरस्टार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । फ़ातिमा को नया नाम ‘नरगिस’ उन्हीं ने दिया ।
इसके बाद राजकपूर के
साथ उनकी फ़िल्मी पर्दे की जोड़ी बनी । राजकपूर के साथ नरगिस की जोड़ी को सिने दर्शको ने खूब पसंद किया । इस जोड़ी ने कई फिल्मों में एक
साथ काम किया । सन 1940 से लेकर सन 1960 के दशक तक यह जोड़ी हिन्दी सिनेमा की सबसे
खूबसूरत और लोकप्रिय जोडि़यों में से एक थी । नरगिस की कामयाब फिल्मों में सन 1945
में बनी फ़िल्म ‘हुमायूँ’ , सन 1949 में बनी ‘अंदाज़’ और
‘बरसात’, सन 1950
में आयी ‘आधी रात’ और ‘जान पहचान’, सन 1951 में
‘आवारा’, सन 1952
में ‘अंबर’ और ‘अनहोनी’, सन 1953 में ‘पापी’, सन 1955
में ‘श्री 420’, सन 1956 में
‘चोरी चोरी’, सन 1957
में ‘परदेसी’ और
‘मदर इण्डिया’, सन 1958
में ‘लाजवंती’, सन 1960
में ‘काला बाज़ार’, सन 1964
में ‘यादें’ और सन 1967 में आयी ‘रात और दिन’ जैसी फिल्मों को गिना जा सकता है ।
सन 1957 में फ़िल्मफ़ेयर
सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार नरगिस को फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ के लिए मिला । सन 1958 में नरगिस को भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री सम्मान’ से भी सम्मानित किया गया । जद्दन बाई ने
अपनी बेटी फ़ातिमा उर्फ़ नरगिस के लिए शायद यही सपना देखा होगा । संक्षेप में कहूँ
तो नरगिस अपनी माँ की आकांक्षाओं का अनुवाद थीं । ‘नरगिस’ जद्दन बाई की वो
फ़िल्म थी जिसने कामयाबी के सारे मक़ाम हासिल किये । नरगिस जद्दन बाई की जिद्द और
जद्दो जहद का सबसे सुनहरा अध्याय थी । अपने आखिर दिनों में नरगिस ने फ़िल्मों से
दूर रहते हुए अपने पति सुनील दत्त के साथ कई तरह के सामाजिक कार्यो में जुटी रहीं
। नरगिस एक बेटे ‘संजय दत्त’ और दो बेटियों ‘नम्रता दत्त’, ‘प्रिया दत्त’ की माँ थीं । संजय दत्त आगे चलकर हिंदी
फ़िल्मों के बड़े सुपर स्टार बने । नरगिस राज्यसभा सदस्य भी रहीं । 3 मई 1981
को नरगिस की कैंसर से
लड़ते हुए मृत्यु हो गई ।
जद्दन बाई की मृत्यु बेटी नरगिस अभिनित फिल्म ‘बरसात’ के निर्माण के दौरान
ही दिनांक 8 अप्रैल सन 1949 को कैंसर के कारण हुई । जद्दन बाई ने अपनी कामना का जो नगर बसाया
उसका पोर-पोर उनके श्रम का ऋणी
है । उनके इस नगर की रानी बनी उनकी बेटी नरगिस । उन्होने एक उत्सवधर्मी जीवन जिया
और संघर्षों के मेले में नाचती-गाती रहीं । समय की
नदी में जिंदगी की साँप - सीढ़ी का जद्दन
बाई ने खूब मजा लिया । जद्दन बाई की
दास्ताँ, हसरतों परवाजों की
दास्ताँ है । जद्दन बाई इतिहास के पन्नों में दर्ज़ एक ऐसा नाम है, जो लकीरों को लाँघना और विपदाओं से जूझना
सिखाता है । जीवन की हर लड़ाई को पूरी दृढ़ता से लड़ने वाली जद्दन बाई की आवाज़ ख़ामोशी
की पनाह में हमेशा के लिए सो गई ।
सौजन्य https://www.newstrend.news/618382/bollywood-actress-nargis-mother-jaddan-bai-life-story-and-facts/
संदर्भ सूची :
1. Notes on a Scandal: Writing Women’s Film History Against an Absent
Archive - Debashree Mukherjee, Bio Scope 4(1)
9–30 © 2013 Screen South Asia Trust SAGE Publications Los Angeles, London, New
Delhi, Singapore, Washington DCDOI: 10.1177/ 097492761200483052
http://bioscope.sagepub.com
2.
The Record
News: The Journal of the Society of Indian Record Collectors, Vol. 09, January
1993.
3. Thumri Singing in Kolkata: A New Dimension of Stylization and
Application - Dr. Swati Sharma, Assistant
Professor (Music), J.N.V.UNIVERSITY JOHDPUR (Raj.) International Journal of
Scientific and Research Publications, Volume 9, Issue 2, February 2019 ISSN 2250-3153
4. THE RECORD NEWS - The
journal of the ‘Society of Indian Record Collectors’ ISSN 0971-7942 Volume: Annual - TRN 2011, S.I.R.C. Units: Mumbai, Pune, Solapur, Nanded and Amravati.
5.
The Life and
Times of Nargis - T. J. S. George, South Asia Books, 1994.
6.
Meena Kumari:
The Classic Biography - Vinod Mehta, HarperCollins, 2013.
7.
Darlingji:
The True Love Story Of Nargis and Sunil Dutt - Kishwar Desai, HarperCollins –
2007.
8.
Nagarnotikatha
- Rabin Bandyopadhyay, Monfakira; 2nd reprint (2012).
9.
भारतीय संस्कृति और सेक्स – गीतेश शर्मा, राजकमल प्रकाशन – 2019
10. अन्या से
अनन्या तक की यात्रा – नगमा जावेद
मलिक, हम सबला
पत्रिका , सितंबर- दिसंबर 2011, शिवालिक - नई दिल्ली ।
11. https://explorebengalheritage.com/eng/memories-of-jaddanbai/
No comments:
Post a Comment
Share Your Views on this..