Saturday, 22 April 2023

स्वामी विवेकानन्द और शिक्षा का स्वरूप

 स्वामी विवेकानन्द और शिक्षा का स्वरूप

स्वामी विवेकानंद जी भारतीय और विश्व इतिहास के उन महान व्यक्तियों में से हैं जो राष्ट्रीय जीवन को एक नई दिशा प्रदान करने में एक अमृतधारा के समान हैं| विवेकानंद जी के व्यक्तित्त्व और विचारों में भारतीय साँस्कृतिक परंपरा के सर्वश्रेष्ठ तत्व निहित थे| उनका जीवन भारत के लिए एक वरदान की तरह था| स्वामी विवेकानंद जी का संपूर्ण जीवन माँ भारती और भारतवासियों की सेवा हेतु ही समर्पित था, उनका व्यक्तित्त्व भी विशाल समुद्र की तरह था| वे आधुनिक भारत के एक आदर्श प्रतिनिधि होने के अतिरिक्त वैदिक धर्म एवं संस्कृति के समस्त स्वरूपों के उज्जवल प्रतीक थे| प्रखर बुद्धि के स्वामी और तर्क विचारों से सुसज्जित जलते हुए दीपक की भांति वे प्रकाशमान थे| उनके अंतःकरण में आलोकित प्रस्फुटित ज्वाला प्रज्ज्वलित होती है| “उनके विचार शिक्षा और दर्शन इतने प्रभावी हैं कि स्वामी जी के द्वारा दिए गए सैकड़ों वक्तव्यों में से कोई एक वक्तव्य महान क्रान्ति करने के लिए व्यक्ति के जीवन में आमूल परिवर्तन करने में समर्थ है|”1

विवेकानंद जी क्रांति की नई छवि को गढ़ने वाले एक महान विचारक थे| वे समाजोद्वार को आत्मोद्वार से जोड़कर देखने के हिमायती थे| यही उनकी क्रान्ति को भी एक नया आयाम देता है| “जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुँचा दे, और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें| हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है,यह सर्वसाधारण को जानने दो| विशेषकर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं, और तब उन्हें अपना निर्णय करने दें|”2

उठो, साहसी बनो और वीर्यवान होओ| सारे उत्तरदायित्त्व अपने कन्धों पर लो| यह याद रखो कि तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो| तुम जो कुछ भी बल या सहायता चाहो, सबकुछ तुम्हारे ही भीतर विद्यमान है| अतः इस ज्ञान रुपी शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो और अपने ही हाथों अपना भविष्य गढ़ डालो| स्वामी विवेकानंद जी का यह मानना है कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं सिखाता, प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही सीखता है| बाहरी शिक्षक तो अपना सुझाव मात्र ही प्रस्तुत करते हैं, जिनसे भीतरी शिक्षक को सीखने और समझने में प्रेरणा मिलती है| स्वामी जी ने उस समय की शिक्षा को निरर्थक बताते हुए कहा है कि “आप उस व्यक्ति विशेष को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएँ पास कर ली हों तथा अच्छे भाषण दे सकता हो| पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं कर सकती वो चरित्र निर्माण नहीं कर सकती, जो समाज सेवा की भावना को पैदा नहीं कर सकती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से भला हमें क्या लाभ है?”3

स्वामी विवेकानंद जी के इस कथन से यह स्पष्ट है कि शिक्षा के प्रति उनका व्यापक दृष्टिकोण रहा है| अतः स्वामी जी सैधांतिक शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, वे व्यावहारिक शिक्षा को ही व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे| व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिए तैयार करती है| इसलिए शिक्षा में उन तत्त्वों का होना आवश्यक है जो उसके भविष्य के लिए भी महत्त्वपूर्ण हो| इस संदर्भ में स्वामी जी ने भारतीयों को समय-समय पर सजग करते हुए यह कहा है कि “तुमको कार्य के प्रत्येक क्षेत्र को व्यावहारिक बनाना पड़ेगा| सिद्धांतों के ढेरों ने संपूर्ण देश का विनाश कर दिया है|”4

स्वामी विवेकानंद जी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के लिए सबको तैयार करना चाहते हैं| लौकिक दृष्टि से शिक्षा के संबंध में उन्होंने यह स्पष्ट ही कहा है कि हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलंबी बने| परलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा है कि शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है| स्वामी विवेकानंद जी ऐसे परंपरागत व्यावसायिक तकनीकी शिक्षा शास्त्री न थे जिन्होंने शिक्षा का क्रमबद्ध सुनिश्चित विवरण दिया हो| वह मुख्यतः एक दार्शनिक, देशभक्त, समाज सुधारक और दिव्यात्मा थे| जिनका लक्ष्य अपने देश और समाज की खोई हुई जनता को जगाना तथा उसे नवनिर्माण के पथ पर अग्रसर करना था| शिक्षा दर्शन के क्षेत्र में विवेकानंद जी की तुलना विश्व के महानतम शिक्षा शास्त्रियों प्लेटो और रूसो तथा ब्रैटलैंड रसेल से की जा सकती है| क्योंकि उन्होंने शिक्षा के कुछ सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं जिनके आधार पर विशाल ज्ञान का भवन निर्माण तकनीकी रूप से भी कर सकते हैं|

विवेकानंद जी की रग-रग में भारतीयता तथा आध्यात्मिकता कूट-कूट कर भरी हुई थी| अतः उनके शिक्षा के स्वरूप का आधार भी भारतीय वेदांत या उपनिषद ही रहे| उनका प्रमुख उद्देश्य था मानव का नव निर्माण क्योंकि व्यक्ति ही समाज का मूल आधार है| व्यक्ति के सर्वांगीण उत्थान से समाज का भी सर्वांगीण उत्थान होता है, और व्यक्ति के पतन से ही समाज का भी पतन होता है| स्वामी जी ने अपने शिक्षा स्वरूप में व्यक्ति और समाज दोनों के समरस संतुलित विकास को ही शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य माना| स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार वेदांत दर्शन में प्रत्येक बालक में असीम ज्ञान और विकास की संभावना है परन्तु उन शक्तियों का पता नहीं है| शिक्षा द्वारा उसे इनकी प्राप्ति करवाई जाती है तथा उनके उत्तरोत्तर विकास में छात्र की सहायता की जाती है|स्वामी विवेकानन्द जी वेदांती थे इसलिए वे मनुष्य को जन्म से पूर्ण मानते थे और इस पूर्णता की अभिव्यक्ति को ही शिक्षा कहते थे| स्वामी जी के ही शब्दों में “मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को व्यक्त करना ही शिक्षा है|”5

स्वामी विवेकानंद जी शिक्षा के संबंध में कहते हैं कि सच्ची शिक्षा वह है जिससे मनुष्य की मानसिक शक्तियों का ऐसा विकास है जिससे वह स्वयमेव स्वतंत्रतापूर्वक विचार कर सही निर्णय कर सकें| आज की इक्कीसवीं शताब्दी के इस बदलते परिवेश जहाँ सूचना एवं प्रौद्योगिकी का युग चल रहा है, ऐसे में स्वामी विवेकानन्द जी के चिन्तन को अपनाना आवश्यक हो जाता है| स्वामी जी ने शिक्षा के वर्तमान स्वरूप को अभावात्मक बताते थे जिनके विद्यार्थियों को अपनी संस्कृति का ज्ञान नहीं, उन्हें जीवन के वास्तविक मूल्यों का पाठ नहीं पढ़ाया जा सकता है तथा उनमें श्रद्धा का भाव भी नहीं पनपता है| उनके अनुसार भारत के पिछड़ेपन के लिए वर्तमान शिक्षा पद्वति ही उत्तरदायी है, यह शिक्षा न तो उत्तम जीवन जीने की तकनीक प्रदान करती है और न ही बुद्धि का नैसर्गिक विकास करने में सक्षम हैं| स्वामी विवेकानन्द जी ने आधुनिक शिक्षा पद्वति की आलोचना करते हुए यह लिखा है कि “ऐसा प्रशिक्षण जो नकारात्मक पद्वति पर आधारित हो मृत्यु से भी बुरा है|”6

स्वामी जी भारतीयों के लिए पाश्चात्य दृष्टिकोण से प्रभावित शिक्षा पद्वति के स्थान पर भारतीय गुरुकुल पद्वति को श्रेष्ठ मानते थे जिसमें विद्यार्थियों तथा शिक्षकों में निकटता के संबंध तथा संपर्क रह सके और विद्यार्थियों में श्रद्धा, पवित्रता, ज्ञान, धैर्य, विश्वास, विनम्रता, आदर इत्यादि गुणों का भी विकास हो सके| स्वामी विवेकानन्द भारतीय शिक्षा पाठ्यक्रम में दर्शनशास्त्र एवं धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन को भी आवश्यक मानते थे| वे एक ऐसी शिक्षा के समर्थक थे जो संकीर्ण मानसिकता तथा भेदभाव साम्प्रदायिकता के दोषों से मुक्त हो| विवेकानंद के अनुसार शिक्षा का मूल उद्देश्य जिसमें व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो| उत्तम चरित्र, मानसिक शक्ति और बौद्धिक विकास हो, जिससे व्यक्ति पर्याप्त मात्रा में धन भी अर्जित कर सके और आपात कल के लिए धन का संचय भी कर सके| स्वामी विवेकानन्द के हृदय में गरीबों तथा पददलितों के प्रति असीम संवेदना भी थी| उन्होंने कहा भी राष्ट्र का गौरव महलों में सुरक्षित नहीं रह सकता, झोपड़ियों की दशा भी सुधारनी होगी| विवेकानन्द की समाजवादी अंतरात्मा ने चीत्कार कर कहा कि “मै उस भगवान या धर्म पर विश्वास नहीं कर सकता जो न तो विधवाओं के आँसू पोछ सकता है और न तो अनाथों के मुँह में एक टुकड़ा रोटी ही पहुँचा सकता है| “7

विवेकानन्द जी ने खुद पर विश्वास करने की प्रेरणा दी| आत्मविश्वास रखने पर ही व्यक्ति में कुछ करने की क्षमता विकसित होती है और आत्मविश्वासी समाज ही समस्त बाधाओं को लाँघकर ऊपर उठता है| विवेकानन्द जी ने कहा लोग कहते हैं इस पर विश्वास करो, उस पर विश्वास करो, मै कहता पहले अपने आप पर विश्वास करो| सर्वशक्ति तुममे है कहो हम सब कर सकते हैं| स्वामी विवेकानन्द जी ने नारी उत्थान के लिए स्त्री शिक्षा पर वल देते हुए कहा कि “पहले अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो, तब वे आपको बताएँगे कि उनके लिए कौन से सुधार आवश्यक हैं, उनके मामले में बोलने वाले तुम कौन होते हो| समाज स्त्री-पुरुष दोनों से मिलकर बना है| दोनों की शिक्षा पर ही देश का पूर्ण विकास संभव है| पक्षी आकाश में एक पंख से नहीं उड़ सकते, उसी प्रकार देश का सम्यक उत्थान मात्र पुरुषों की शिक्षा से ही संभव नहीं है| स्त्रियों को पुरुषों के समान ही शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर सुलभ होना चाहिए|”8

भारत एक निर्धन देश है और यहाँ की अधिकाँश जनता मुश्किल से ही अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाती है| स्वामी विवेकानन्द जी ने इस तथ्य एवं सत्य को हृदयंगम किया तथा यह भी अनुभव किया कि कोरे आध्यात्म से ही जीवन नहीं चल सकता जीवन चलाने के लिए कर्म आवश्यक है| इसके लिए उन्होंने शिक्षा के द्वारा मनुष्य को उत्पादन एवं उद्योग कार्य तथा अन्य व्यवसायों में प्रशिक्षित करने पर बल दिया| स्वामी विवेकानंद का विचार, दर्शन और शिक्षा अत्यंत उच्चकोटि की है| जीवन के मूल सत्यों रहस्यों और तथ्यों को समझने की कुंजी है| उनके द्वारा कहे गये एक-एक शब्द इतने असरदार हैं कि एक मुर्दे भी जान फूंक सकते हैं| वे मानवता के सच्चे प्रतीक थे, हैं और मानव जाति के अस्तित्त्व को जनसाधारण के पास पहुँचाने का अभूतपूर्व कार्य किया| वे अद्वैत वेदांत के बहुत ही प्रबल समर्थक थे| उन्होंने अपनी संस्कृति को जीवित रखने हेतु भारतीय संस्कृति के मूल अस्तित्त्व को बनाए रखने का आह्वान किया ताकि आने वाली भावी पीढ़ी पूर्ण पूर्ण संस्कारिक नैतिक गुणों से युक्त न्यायप्रिय, सत्यधर्मी और आध्यात्मिक तथा भारतीय आदर्श के सच्चे प्रतीक के रूप में विश्व में अपना वर्चस्व बनाये रखे| 

इस दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि स्वामी विवेकानन्द जी युग द्रष्टा और युग स्रष्टा दोनों ही थे| युगद्रष्टा की दृष्टि से उन्होंने अपने समय की स्थिति को देखा और समझा था और युगस्रष्टा उस द्रष्टि की उन्होंने नव भारत की नीव रखी थी| वे भारतीय धर्म दर्शन की व्यवस्था आधुनिक परिप्रेक्ष्य में करने वेदांत को व्यावहारिक रूप देने एवं उसका प्रचार करने और समाज सेवा एवं समाज सुधार करने के लिए बहुत प्रसिद्ध है, परन्तु इन्होने शिक्षा की आवश्यकता पर बहुत बल दिया और नवभारत के निर्माण के लिए तत्कालीन शिक्षा हेतु अनेकों सुझाव दिए| हमारे राष्ट्र की आत्मा झुग्गी-झोपडी में निवास करती है अतः शिक्षा के दीपक को घर-घर ले जाना होगा| तभी जाकर सारा जन समाज प्रबुद्ध हो सकेगा| शिक्षा मन्दिर के द्वार सभी व्यक्तियों के लिए खोल दिया जाएँ,जिससे समाज का कोई भी व्यक्ति अनपढ़ न रहे| शिक्षा आज़ाद हो| दृढ लगन और कर्म की शिक्षा ही जनसमूह को उचित शिक्षा दिला सकती है| शिक्षा के द्वारा देश के विकास को चरम पर ले जाए और सर्व धर्म के द्वारा सच्ची मानवता को अपनाकर ईश्वर की सेवा करे|

संदर्भ ग्रन्थ:

1- विवेकानन्द साहित्य, खंड-05 पृष्ठ-138-139

2- विवेकानन्द साहित्य, खंड-02 पृष्ठ-321

3- शिक्षा दर्शन एवं पाश्चात्य तथा भारतीय शिक्षा शास्त्री, सक्सेना एन.आर. स्वरूप, पृष्ठ-344 संस्करण-2009

4- वही

5- भारतीय राजनीतिक विचारक, जैन पुखराज, पृष्ठ-148, साहित्य पब्लिकेशन आगरा, संस्करण-2002

6- शोध समीक्षा और मूल्यांकन, संपादक-कृष्ण वीर सिंह, नवंबर-जनवरी-2009 राजस्थान

7- स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक चिंतन प्रासंगिकता, कुमार भावेश, जनवरी-2010 वर्ष-30 अंक-03 पृष्ठ-46

8- वही, पृष्ठ-48

 

 

                                                                                                                                  डॉ.महात्मा पाण्डेय

    सहायक आचार्य एवं शोध निर्देशक

हिन्दी विभाग,साठेय महाविद्यालय

विले पार्ले (पूर्व),मुंबई-४०००५७

मो.नंबर-८४५४०२८१८५

ईमेल-mahatmapandey1982@gmail.com


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