Sunday, 23 April 2023

जानकी बाई ‘छप्पन छुरी’ : निशान खोजने की कोशिश डॉ. मनीष कुमार मिश्रा डॉ.उषा आलोक दुबे

 

जानकी बाई छप्पन छुरी : निशान खोजने की कोशिश   

        डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

        डॉ.उषा आलोक दुबे

            अपने जीवन के संघर्षों का रूपांतरण जिस जीवन शिल्पी मन ने गहराते और फ़ैलते हुए अंधेरे के बीच किया, उन्हें रंग और रोशनी की दुनियाँ से कोई बेदख़ल नहीं कर सकता । इनकी दास्तानें इस दुनियाँ से भुलाए नहीं भूलेंगी । ऐसी ही एक मुकम्मल दास्ताँ की तलाश में वक्त की राख़ को झाड़ते हुए, हम पहुंचे छप्पन छुरी की मज़ार पर । छप्पन छुरी अर्थात मशहूर--मारूफ़ गायिका जानकी बाई इलाहाबादी ।  

          

            जानकी बाई मूलतः बनारस की रहने वाली थी । आप के पिता श्रीमान शिव बालक एक पहलवान थे और उनकी मिठाई- पूरी की छोटी-मोटी दुकान भी थी । संभवतः उनका आवास और दुकान बनरा पुल के पास वरुना पुल वाले मोहल्ले में था । कचौड़ी सब्ज़ी, दही जलेबी बनरसियों का आज भी प्रिय नाश्ता है । इसलिए मिठाई के साथ पूरी / कचौड़ी और सब्ज़ी बेचने की परंपरा वहाँ पुरानी है । बनारस अपने अखाड़ों और पहलवानों के लिए भी प्रसिद्ध रहा है । स्वामीनाथ अखाड़ा, अखाड़ा राम सिंह, बड़ा गणेश, गया सेठ, कर्ण घंटा और अखाड़ा जम्गू सेठ यहाँ के वो अखाड़े हैं जहां आज भी नियमित अभ्यास होता है । पहलवान महंत स्वामीनाथ, राम मूर्ति पहलवान, बांके लाल पहलवान, मनोहर पहलवान, बाबूल पहलवान, सुमेर पहलवान, चिक्कन पहलवान, झारकंडेय राय और भईया लाल यहाँ के जाने-माने पहलवान थे। ढाक, सखी, काला जंग और मुल्तानी दांव बनारसी पहलवानों की खासियत थी । इन पहलवानों को बनारस के सेठ, साहुकार और बड़े पंडे पुरोहित अपनी आवश्यकता अनुसार काम भी देते रहते थे । इन्हीं पहलवानों में एक रहे होंगे श्रीमान शिव बालक पहलवान ।

 

          जानकी बाई की माता का नाम मनकी या मानकी था । जो एक कुशल गृहणी और मिठाइयों को बनाने में निपुण कारीगर थीं । मनकी / मानकी ने अपनी बेटी की गायन कला को समझा और उसे बढ़ावा देने के लिए प्रयासरत रहीं । जानकी बाई के जन्म की तारीख़ को लेकर कई विवाद हैं । वैसे इनका जन्म सन 1880 के आस-पास माना लिया जाता है । जानकी साँवले रंग की थी । जानकी से बड़ी उसकी तीन बहनें और एक छोटा भाई भी था । जो बिखरी हुई थोड़ी बहुत जानकारी जानकी बाई के परिवार के विषय में मिलती है उसके हिसाब से जानकी की तीनों बहनें किसी महामारी में काल के गाल में समा चुकीं थीं । जानकी और उसका भाई बाबा महादेव की कृपा से बच गए थे । इनके परिवार में एक और स्त्री थी लक्ष्मी, जो कि जानकी की सौतेली माँ थी । लक्ष्मी से शिव बालक पहलवान ने विवाह नहीं किया था । वह कोई दुखियारी थी जिसे शिव बालक पहलवान ने अपने घर में शरण दी थी । उनके बीच का संबंध एक तरह से आपसी समझ का संबंध था ।

 

           मनकी / मानकी अपनी बेटी और बेटे के साथ बनारस छोड़कर इलाहाबाद में चौधराइन नसीबन के कोठे पर कैसे पहुंची यह कई कहानियों से घिरा हुआ प्रश्न है । उनकी भी थोड़ी पड़ताल ज़रूरी है । एक मत यह है कि जानकी बचपन से ही सुरीले गले की मलिका थी । मंदिरों में उसे भजन गाते सुन लोग मंत्र मुग्ध हो जाते थे । बेटी की इस ख़ूबी को पहचानकर  माँ मनकी / मानकी ने उसे स्थानीय शास्त्रीय संगीत के उस्तादों से शिक्षा ग्रहण करने का भी अवसर उपलब्ध कराया । जानकी इतनी निपुण हो गई कि मात्र बारह साल की आयु में उसने एक संगीत प्रतियोगिता में बनारस के बड़े नामी गायक पंडित रघुनंदन दुबे को परास्त कर दिया । इसके लिए  रानी बनारस के द्वारा उसे सम्मानित भी किया गया । लेकिन पंडित रघुनंदन दुबे इस अपमान से इतने आहत हुए कि उन्होने एक दिन मौका देखकर चाकू से जानकी पर हमला कर दिया । उन्होने चाकू से जानकी के चेहरे और शरीर पर कई घाव किए । घायल जानकी का रानी बनारस की मदद से मिशन अस्पताल में करीब छ साल इलाज़ चला और अंततः वह बच गई । जानकी के शरीर पर चाकू के कुल छप्पन निशान बने थे इसलिए आगे चलकर जानकी बाई को छप्पन छुरी भी कहा गया ।

 

             जानकी बाई से जुड़ी यह कहानी व्यक्तिगत तौर पर हमें भ्रामक अधिक लगती है । इसके कुछ कारण निम्नलिखित हैं

 

      बनारस की संगीत परंपरा या इसके उस्तादों का इतिहास जिस रूप में भी उपलब्ध है, वह अपनी संगीत परंपरा और नामचीन साधकों के प्रति काफी जानकारी उपलब्ध कर देता है । ख़ासकर 1835 के बाद की काफी जानकारी फुटकर रूप में उपलब्ध है ।  लेकिन कहीं भी हमें नामचीन गायक पंडित रघुनंदन दुबे का उल्लेख नहीं मिला । इतना ही नहीं अपितु किसी नामचीन गायक द्वारा बारह साल की बच्ची को चाकू मारकर बदला लेने की भी कोई चर्चा नहीं है । इसलिए इस बात पर विश्वास नहीं होता । अली मोहम्मद, अकबर अली, कामता प्रसाद मिश्र, शिव नारायण, गुरु नारायण, ज्वाला प्रसाद मिश्र, शिवदास जी, दरगाही मिश्र, मथुरा जी मिश्र, बड़े रामदास जी, पंडित जगदीप मिश्र, प्रयाग जी और दाऊ जी जैसे नामचीन संगीत साधकों के बीच किसी गायक पंडित रघुनंदन दुबे का कोई जिक्र नहीं मिलता ।  

 

    अगर महारानी बनारस किसी बच्ची का स्वयं सम्मान कर रही हैं तो बनारस में किसकी इतनी हिम्मत थी कि वह उसी सम्मान के बदले उस बच्ची पर जानलेवा हमला करे ? बनारस में काशी नरेश का क्या सम्मान रहा है ? जो इस बात को जानते हैं वे कभी इस हमले वाली बात पर विश्वास नहीं कर पायेंगे । महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह  सन 1835 से 1889 तक काशी के नरेश रहे। आप स्वयं साहित्य, संगीत और कला के बड़े संरक्षक थे ।

 

   अगर उस बच्ची के प्रति महारानी बनारस का इतना लगाव था कि वे छ सालों तक उसका इलाज़ करा सकती हैं तो क्या उस नामचीन गायक पंडित रघुनंदन दुबे को उन्होने सजा नहीं दी होगी ? इसकी कोई चर्चा नहीं मिलती ।

 

   यह कहानी कहीं से भी उन परिस्थितियों की पृष्ठभूमि नहीं तैयार कर पा रही है जिसके कारण मनकी / मानकी को बनारस छोड़कर इलाहाबाद आना पड़ा और एक चौधराइन के कोठे पर आश्रय लेना पड़ा ।

 

        इस पूरी कहानी में कुछ बातें सूत्र रूप में बड़ी महत्वपूर्ण हैं । जैसे कि जानकी का बचपन से ही संगीत गायन में निपुण होना, रानी बनारस की उसपर कृपा होना एवं जानकी पर चाकू से जानलेवा हमला होना । इस हमले के संदर्भ में जो दूसरी कहानी है वह यह कि मिठाई की दुकान पर आने वाले एक सिपाही द्वारा लक्ष्मी और जानकी से दिल्लगी की बातें करना । उसका नियमित रूप से दुकान पर आना और लक्ष्मी से प्रेमालाप करना । अंततः वह लक्ष्मी को अपने जाल में फसाने में भी कामयाब हो जाता है । किसी दिन जानकी उन्हें आपत्तीजनक हालत में देख जब शोर मचाना चाहती है तो वह सिपाही जानकी पर चाकू से हमला कर देता है । बहुत संभव है कि वह जानकी को ही अपनी हवस का शिकार बनाना चाहता हो और उसके चिल्लाने पर चाकू से हमला कर देता है । चूंकि रानी बनारस जानकी की गायन प्रतिभा से परिचित थीं, अतः जब उनसे उपचार की मदद मांगी गई हो, तो उन्होने इसकी व्यवस्था करा दी हो । घर मेँ सौतन आने से परिवार मेँ कलह लाज़मी था । मनकी / मानकी द्वारा इलाहाबाद आने के पीछे भी इसी तरह का पारिवारिक कलह मूल कारण रहा होगा । किसी प्रेमी द्वारा एक तरफा प्रेम में जानकी से आहत होकर भी उसपर हमले की कहानी कही जाती है ।  

 

     सन 2018 मेँ प्रकाशित ‘Requiem in Raga Janki’ नामक अपनी किताब मेँ नीलम सरन गौर इस उपर्युक्त कहानी को ही कुछ और बदलाओं के साथ प्रस्तुत करती हैं । नीलम जी ने बड़े कलात्मक तरीके से बिखरी हुई कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया है । वो ये दिखाती हैं कि लक्ष्मी जानकी पर हमले और उसके बाद की पारिवारिक मनःस्थिति के बीच घुटन महसूस करती है और एक दिन बिना किसी को कुछ बताए कहीं चली जाती है । उसके जाने के बाद शिव बालक पहलवान उसकी खूब तलाश करते हैं लेकिन उसे कहीं न पाकर एक दिन वो भी घर छोड़ कहीं चले जाते हैं । अब मनकी / मानकी अपने बच्चों के साथ अकेली रह जाती है । उसके संपर्क मेँ चेतगंज मेँ रहनेवाली एक महिला पार्वती आती है । पार्वती मनकी / मानकी  का विश्वास जीतकर उसे परिवार सहित इलाहाबाद लाकर चौधराइन नसीबन के कोठे पर बेच देती है । वह धोखे से मनकी के सारे गहने और पैसे भी अपने साथ ले जाती है । इस तरह लाचार, बेबस और ठगी हुई मनकी / मानकी अपना और अपने बच्चों का पेट पालने के लिए देह व्यापार करने के लिए विवश हो जाती है । इलाहाबाद के उस कोठे से मनकी / मानकी के जीवन का एक नया अध्याय शुरू होता है ।

 

         मनकी / मानकी अपनी बेटी को इस घृणित काम से दूर रखते हुए उसे अच्छे उस्तादों से संगीत की शिक्षा दिलाना शुरू करती है । हिंदी, उर्दू, संस्कृत और अँग्रेजी की शिक्षा जानकी को दी जाती है । जानकी को गायन की शिक्षा लखनऊ के उस्ताद हस्सू खाँ ने दी । बताते हैं कि मनकी बाई को उस समय हस्सू खाँ पर प्रति माह एक मोटी रकम खर्च करनी पड़ती थी । कुछ किताबों में यह रकम दो हजार प्रतिमाह बताई गई है ।  हस्सू खाँ के दादा उस्ताद नत्थन पीरबख्श को ग्वालियर घराने का जन्मदाता कहा जाता है। उस्ताद नत्थन पीरबख्श को दो पुत्र थे- कादिर बख्श और पीर बख्श । जनाब कादिर बख्श को ग्वालियर के राजा दौलत राव जी ने अपने राज्य में नियुक्त कर लेते हैं जनाब कादिर बख्श के तीन पुत्र थे जिनके नाम इस प्रकार हैं- हद्दू खाँ, हस्सू खाँ और नत्थू खाँ। तीनों भाई मशहूर ख्याल गाने वाले और ग्वालियर राज्य के दरबारी उस्ताद थे हस्सू खाँ के पुत्र का नाम गुले इमाम खाँ था । गुले इमाम खाँ के पुत्र मेंहदी हुसैन खाँ थे

  

        जानकी बाई को सारंगी श्रीमान घसीटे एवं तबला रहिमुद्दीन ने सिखाया । अपने साँवले रंग और चेहरे के दागों को लेकर वह जब भी असहज होती तो उनके उस्ताद हस्सू खाँ उनकी हिम्मत बंधाते और उनका खोया हुआ आत्मविश्वास वापस लाते । हस्सू खाँ के माध्यम से ही जानकी बाई रीवाँ नरेश के यहाँ गद्दी पूजन समारोह में संगीत की प्रस्तुति देने जाती हैं । वे पर्दे के पीछे से अपना गीत प्रस्तुत करती हैं । उनके गीत से सब मंत्रमुग्ध हो जाते हैं लेकिन राजा साहब उन्हें पर्दे से निकलकर गाने के लिए कहते हैं । इसपर जानकी बाई बड़ी विनम्रता से राजा साहब से कहती हैं कि संगीतकार के लिए सूरत नहीं सीरत महत्वपूर्ण है । राजा साहब उनसे बहुत प्रभावित होते हैं और ढेरों इनाम देकर उन्हें सम्मानित करते हैं । मौसिकी से उनकी बेपनाह मोहब्बत अब रंग लाने लगी थी ।

 

        यहाँ से दरबारों में गायन का जो सिलसिला शुरू होता है वो जानकी बाई को सफलता के शिखर पर पहुंचा देता है । कोई उन्हें बुलबुल कहता तो कोई कहता कि उनके कंठ स्वर में मिसरी की डलिया घुली हुई है । उनकी आवाज की तरावट और मिठास अद्भुद थी । ईमन और भैरवी राग पर उनको महारत हासिल थी । जानकी बाई को रागदारी मेँ महारत हासिल थी । ठुमरी और दादरा दोनों ही गायकी की शैलियों मेँ वे बेजोड़ थीं । इसके साथ ही वे पूरबी, चैती, कजरी, बन्नी-बन्ना, सोहर, फ़ाग, होरी और गारी गाने मेँ निपुण थीं । वे अपनी नज़्में ख़ुद लिखती । मशहूर शायर और इलाहाबाद मेँ जज के रूप मेँ कार्यरत रहे ख़ान बहादुर सय्यद अकबर इलाहाबादी से उन्होने गज़लों की बारीकियाँ सीखी । कहते हैं कि तवायफ़ जब शायरी भी करे तो वह दोधारी तलवार हो जाती है । जानकी बाई छप्पन छुरी सिर्फ़ चाकू के छप्पन निशानों के कारण नहीं कहलाती होंगी बल्कि अपनी आवाज़ की तरावट, उसकी मिठास, चुभते हुए कलामों के साथ अपनी ख़ास तरह की गायकी के कारण भी उन्हें यह नाम मिला होगा ।

 

             जिन दरबारों की जानकी बाई चहेती बनी उनमें भरतपुर दरबार हैदराबाद, नेपाल के राणा, दरभंगा रियासत, जौनपुर इत्यादि शामिल हैं । लाहौर से रंगून और कश्मीर से हैदराबाद तक अनेकों रियासतों , नवाबों, उमराओं और जमीदारों के यहाँ जानकी बाई सम्मान के साथ बुलाई जाती थी । उनपर इनाम-इकराम की बारिश होती । कलकत्ता के सेठ बाबू ओंकार मल भी उन्हें सम्मान से आमंत्रित करते । इसी का परिणाम रहा कि जल्द ही जानकी बाई इलाहाबाद के सबसे धनी लोगों में गिनी जाने लगीं । उनके नाम से इलाहाबाद में एक दर्जन से अधिक कोठियाँ थीं । नवाबगंज परगना के पास बहुत सारी जमीन भी उन्होने अपने नाम लिखा ली थी । मुंशी सय्यद गुलाम अब्बास उनकी इन तमाम प्रापर्टी की देखरेख और किराया वसूलने के साथ-साथ कोर्ट कचहरी के मामले भी देखते ।  

 

           जानकी बाई मंदिरों या धार्मिक स्थलों पर प्रस्तुति देने का पैसा नहीं लेती थी । गरीब और बेसहारा लोगों की मदद भी खुले दिल से करती । जरूरतमंद लड़कियों के विवाह में आर्थिक सहायता देती । रामबाग स्टेशन के आस-पास उन्होने एक मुसाफ़िर खाना भी बनवाया था । ये इलाहाबाद मेँ चौक घंटा के पास रहते हुए बाद मेँ प्रयागराज आ गईं थीं । सन 1911 के आस-पास इलाहाबाद के ही जार्ज़ टाऊन मेँ आयोजित एक संगीत के मुक़ाबले मेँ जानकी बाई ने गौहर जान को कड़ी टक्कर दी थी । मलका--तरन्नुम, शान--कलकत्ता, निहायत मशहूर--मारूफ़ गायिका गौहर जान, जानकी बाई से उम्र में पाँच से दस साल बड़ी रही होंगी ।

 

           गौहर जान का जन्म 26 जून 1873 . में वर्तमान उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में हुआ था । दोनों के एक साथ कई बड़े आयोजनों में गायन प्रस्तुति देने के संदर्भ मिलते हैं । दिसम्बर सन 1911 में जब जॉर्ज पंचम भारत आए थे तो उनके स्वागत में गौहर और जानकी बाई ने संगीत की यादगार प्रस्तुति दी थी । उन्होने यह जलसा ताज़पोशी का मुबारक हो, मुबारक होनामक गीत प्रस्तुत किया था । इनकी प्रस्तुति से प्रसन्न होकर जॉर्ज पंचम ने दोनों को सोने की सौ-सौ गिन्नियाँ भेंट की थी । बताते हैं कि इलाहाबाद के अतरसुइया (पुलिस लाईन) के जिस चबूतरे पर बैठकर जानकी बाई भजन गायीं वो चबूतरा चाँदी के सिक्कों से पट गया था । कुल चौदह हजार सत्तर रुपए जमा हुए थे जिसे जानकी बाई ने इलाहाबाद के ही किसी ख़ानक़ाह में दान दे दिया था ।

 

           अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें सशस्त्र पुलिस की सुरक्षा दे रक्खी थी । उनके पास दो नाली बंदूक का लाइसेंस भी था । वे पालकी से चलती और दूर की यात्रा बग्घी या ट्रेन से करती । मोतीलाल नेहरू, तेज़बहादुर सप्रू, तेज़नारायण मुल्ला, न्यायमूर्ति कन्हैयालाल, सुरेंद्रनाथ सेन, मुंशी ईश्वर शरण, लाला रामदयाल, हृदयनाथ कुंजरू और अमरनाथ झा जैसे संभ्रांत जानकी बाई के क़द्रदानों मेँ शामिल थे । मोतीलाल नेहरू सन 1919 और 1920 में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे । इलाहाबाद से निकलने वाले दी लीडर्सनाम के अखबार के बोर्ड के आप पहले चेयरमैन बने फिर 1919 में एक नया अखबार दी इंडिपेंडेंटशुरू किया था । तेज बहादुर सप्रू बडे कानूनविद एवं उर्दू - फ़ारसी के बड़े विद्वान् थे ।

 

         अपने जिन गीतों की गायकी के लिए जानकी बाई जानी गईं उनमें नहीं भूले रे तुम्हारी सुरतिया रामा, नदी नारे न जाओ श्याम पइयाँ परूँ, गुलनारों मेँ राधा प्यारी बसे, समधी देखो बांका निराला है रे, तोरी बोलिया सुनै कोतवाल तूती बोलै ले, तू ही बाटू जग मेँ जवान सांवर गोरिया, बाबू दारोगा कौने करनवा धरला पियवा मोर, रंग महल के दस दरवाजे, ये मतवारे नैनवा जुल्म करें, मजा ले लो रसिया नई झूलनी का, सइयाँ निकस गए मैं ना लड़ी थी, यार बोली ना बोलो चले जाएंगे, आओ आओ नगरिया हमारे, मोरा हीरा हे राम हेराय गये, एक काफ़िर पर तबियत आ गई, कन्हैया ने मारी रंग पिचकारी, अब न बजाओ कान्हा बंसिया, चोलिया मस्की जाये, हथवा लगत कुम्हलाईल हो रामा जूही की कलियां, तो के लेके निकस जेबे इत्यादि ।

 

        सन 1931 के आस-पास जानकी बाई की नज़मों का संकलन दीवान--जानकी नाम से प्रकाशित हुआ । कुछ जगहों पर यह इलाहाबाद के ही इसरार करीमी प्रेस द्वारा प्रकाशित बताया गया है। मेरे हिसाब से यह असरार करीमी प्रेस’, इलाहाबाद होना चाहिए । यह प्रेस इलाहाबाद के जॉनसन गंज में है । पता है 143, जॉनसन गंज, इलाहाबाद 211003 । यहीं से अकबर इलाहाबादी की भी कुछ छपी हुई किताबों के संदर्भ मिलते हैं । जैसे कि Akbar Ilahabadi, Kulliyat, Vol. III, Allahabad, Asrar-e Karimi Press, 1940.”  

 

        ग्रामोफोन जिसे फोनोग्राफ अथवा रिकॉर्ड प्लेयर भी कहा जाता है भारत में नेटिवरिकार्डिंग सन 1902 में शुरू करता है । ग्रामोंफोन अँड टाईप राइटर लिमिटेड के लिए रिकार्डिंग जानकी बाई ने मार्च सन 1907 मेँ दिल्ली से शुरू किया । उन्हें 20 टाईटल के लिए उस समय मात्र 250 रुपये दिये गए । जिसकी कुल 2408 डिस्क बिकी । नवंबर 1908 में कलकत्ता में उनकी रिकार्डिंग हुई और इस बार 24 टाईटल के लिए उन्हें 900 रुपये दिये गए । नवंबर 1909 में उनकी रिकार्डिंग दिल्ली में हुई और इस बार उन्हें 22 टाईटल के लिए उन्हें 1700 रुपये दिये गए । दिसंबर 1910 में दिल्ली में रिकार्डिंग की गई और 22 टाईटल्स के लिए 1800 रूपए उन्हें मिले । सन 1911 में कलकत्ता में ‘The Pathephone & Cinema Company’ में कुल 60 से 70 टाईटल्स की रिकार्डिंग के लिए जानकी बाई को 5000 रूपए मिले । अब उन्हें ग्रामोफोन सेलेब्रेटी और रिकार्डिंग क्वीन के नाम से पहचाना जाने लगा था । मफ़िलों में गायन प्रस्तुति के लिए 1915-1920 आते आते जानकी बाई दो हजार से कम की राशि स्वीकार नहीं करती थी ।

 

          हम देखते हैं कि मात्र चार सालों में जानकी बाई 250 रुपए से 5000 रुपए का मेहनताना पाने लगी थीं । अलग-अलग कंपनियों के लिए उन्होने 1931-32 तक रिकार्डिंग की । इसतरह उनके सैकड़ों टाईटल्स रिकार्ड हुए लेकिन दुर्भाग्य की वे सब सुरक्षित नहीं रक्खे जा सके । रिकार्डिंग खत्म होते समय वे मैं जानकी बाई इलाहाबादी जरूर कहती । यह उस समय की एक परंपरा थी । इससे यह पता लगाना आसान होता कि संबंधित रिकार्डिंग किसकी है । कई कव्वालियों की रिकार्डिंग में भी यही चीज देखेने को मिलती है । कई गुमनाम क़व्वाली के फनकारों की जानकारी ही इसी परंपरा के बदौलत मिल पाई ।  इलाहाबाद में रिकार्डिंग की सुविधा सन 1916 के बाद हो गई थी । वार्षिक तौर पर कई रिकार्डिंग कंपनियाँ जानकी बाई से अनुबंध करना चाह रहीं थी, जिसके लिए उन्हें मोटी रकम का लुभावना प्रस्ताव भी दिया गया । लेकिन जानकी बाई ने ऐसा कोई अनुबंध किसी कंपनी के साथ नहीं किया ।

 

         जानकी बाई ने इलाहाबाद के ही वकील अब्दुल हक से निकाह किया और इस्लाम कबूल कर किया । अब्दुल हक पहले से विवाहित थे और उनके बच्चे भी थे । उनका आवास मेहदौरी में कहीं था । लेकिन जानकी बाई का इनके साथ रिश्ता बड़ा तनावपूर्ण रहा । अंततः रिश्ता टूट गया । अपनी कोई संतान न होने के कारण जानकी बाई ने अबुल अजीज नामक एक बच्चे को गोद भी लिया था । यह लड़का बुरी संगत में पड़कर गांजे और भांग का नसेड़ी हो गया था । जानकी बाई को लगा कि शायद विवाह हो जाने और अच्छी जीवन संगिनी मिलने से यह सुधर जाये । इसी बात को ध्यान में रखते हुए वे अबुल अजीज की शादी चौदह वर्षीय चाँदनी नामक लड़की से बड़ी धूम धाम से कराती हैं । लेकिन इसका कोई असर उस लड़के पर नहीं पड़ता ।

 

          इस रिश्ते से भी जानकी बाई को निराश ही हांथ लगी । अंततः उन्होने पति और गोद लिए नसेड़ी बेटे से पूरी तरह रिश्ता तोड़ लिया था । बहू चाँदनी की इनके रहते ही किसी बीमारी से मृत्यु हो चुकी थी । जीवन के अंतिम दिनों मेँ रिश्तों की चोट से आहत जानकी बाई ने एक ट्रस्ट बनाकर अपनी सारी संपत्ति ट्रस्ट के हवाले कर दी । यह ट्रस्ट जरूरतमंद लड़कियों की शादी कराने, तालीम के लिए आर्थिक सहायता देना, वैद्यकीय जरूरतें पूरी करने जैसे अनेकों समाजोपयोगी कार्यों में मदद देता था । जानकी बाई की मृत्यु इलाहाबाद मेँ ही 18 मई सन 1934 मेँ हुई । माफ़िलों की शान मानी जाने वाली जानकी बाई के अंतिम समय में अपना कहलाने वाला कोई उनके पास नहीं था ।

 

        जानकी बाई को इलाहाबाद के आदर्श नगर स्थित काला डांडा कब्रिस्तान मेँ सुपुर्दे ख़ाक किया गया । यहाँ छप्पन छुरी की मज़ार आज भी है । इस मज़ार के निचाट सूनेपन में भी हमें लगा कि कोई चुप्पियों का राग छेड़े हुए है । पास में फूली हुई दो-चार सरसों मानों सारंगी और ढोलक पर साथ दे रहीं हों । हम वहाँ से चलने को हुए तो जैसे हवा ने कानों में कहा इन्हें याद रखना, किसी पुराने वादे की तरह ।’’

 

 

 

 

सौजन्य https://thelistacademy.com/item/janki-bai-allahabad/

 

 

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 संदर्भ सूची :

 

1.  संगीत रस परंपरा और विचार संपादक ओम प्रकाश चौरसिया । वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2001

2.  ये कोठेवालियाँ अमृतलाल नागर । लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद । संस्करण 2008

3.  बनारसी ठुमरी की परंपरा में ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियाँ एवं उपलब्धियां (19वीं-20वीं सदी ) – डॉ. ज्योति सिन्हा, भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र, शिमला ।  प्रथम संस्करण वर्ष 2019 ।

4.  कोठागोई प्रभात रंजन । वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली । संस्करण 2015

5.  महफ़िल गजेन्द्र नारायण सिंह । बिहार ग्रंथ अकादमी पटना । संस्करण 2002

6.  Requiem in Raga Janki - Neelam Saran Gour, Penguin Viking, 2018

7.  My Name Is Gauhar Jaan: The life and Times of a Musician – Vikram Sampath, Rupa Publications India, January 2010.

8.  The Record News: The Journal of the Society of Indian Record Collectors, Vol. 14, April 1994.

 

 

 

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