स्वामी विवेकानन्द का उत्तराखण्ड आगमन
डॉ. कवलजीत कौर
समाजशास्त्र विभाग
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चम्पावत, उत्तराखण्ड
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’की संकल्पना ने पूरे विश्व को एक श्रंृख्ला में निबद्ध करने का प्रयास किया है। सम्पूर्ण विश्व में शायह ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने स्वामी विवेकानन्द का नाम नहीं सुना हो। आधुनिक भारत में इनका उल्लेख युवा पुरूष के रूप में किया जाता है। स्वामी विवेकानन्द का लक्ष्य समाजसेवा, जनशिक्षा, धार्मिक पुनरूत्थान और समाज में जागरूकता लाना, मानव की सेवा आदि था। जनचिंतन उत्थान के प्रति चिन्तन, जन शिक्षण का प्रसार, वास्तविक समाजवाद की अवधारणा, सामाजिक एकता, जन-जागरण की आवश्यकता तथा कर्मशीलता सम्बन्धी विचारों ने जन मन को प्रभावित किया है और इनमें आज भी जनसाधारण को अभिप्रेरित करने का अनुपम सामर्थ्य है। स्वामी विवेकानन्द वह ज्योतिपुंज है जिन्होंने भारत की आधी शताब्दी को ज्योतित किया और एक युगपुरूष के रूप में संतृप्त मानवता के कल्याण में लगे रहे। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व सम्पूर्ण विश्व के लिए अनुकरणीय है। स्वामी विवेकानन्द में वे सभी गुण समाहित थे जो उन्हें महान से महानतम बनाते गये, जो उन्हें नरेन्द्र से स्वामी विवेकानन्द के रूप में अभिनन्दित कर सके।
स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने विचारों के प्रचार एवं प्रसार करने के लिए कई देश-विदेश की यात्राऐं की। इन्ही यात्राओं के दौरान वे उत्तराखण्ड आए। स्वामी विवेकानन्द का उत्तराखण्ड की धरती से खास लगाव था। हिमालय की गोद में बसे देवभूमि की खूबियां ही कुछ ऐसी है जहां महान विभूतियों ने तपस्या की और आत्मज्ञान हासिल किया। दुनिया के लिए प्रेरणास्त्रोत महान संत स्वामी विवेकानन्द अपने जीवन के अन्तिम समय उत्तराखण्ड के लोहाघाट स्थित अद्वैत आश्रम में बिताना चाहते थे। देवभूमि में पाँच बार आध्यात्मिक यात्रा कर चुके युग पुरूष की उत्तराखण्ड में कई स्मृतियाँ जुड़ी है।
पहली यात्रा- वर्ष 1888 में नरेन्द्र के रूप में हिमालय क्षेत्र की पहली यात्रा शिष्य शरदचन्द गुप्त (बाद में सदानन्द) के साथ की थी। शरदचन्द हाथरस (उत्तर प्रदेश) में स्टेशन मास्टर थे। ऋषिकेश में कुछ समय रहने के बाद वापस लौट गए थे।
दूसरी यात्रा- स्वामी विवेकानन्द ने अपनी दूसरी यात्रा अपने गुरू भाई स्वामी अखण्डानन्द के साथ की थी। जुलाई 1890 में स्वामी विवेकानन्द रेल से काठगोदाम पहुंचे जहां से पहले वह सरोवर नगर नैनीताल पैदल गए। नैनीताल में स्वामी विवेकानन्द रामप्रसन्न भट्टाचार्य के घर पर छः दिन तक रहे। इसके बाद वह अल्मोड़ा की राह पर चल पड़े। अल्मोड़ा के रास्ते में तीसरे दिन वे काकड़ीघाट पहंुचे। काकड़ीघाट अल्मोड़ा से 28 किमी की दूरी पर स्थित है। यह कोसी और सील नदियों के संगम पर स्थित छोटी सी घाटी में बसा हुआ है। इसे संत सोमवरी गिरी महाराज और हैड़ाखान बाबा की साधना स्थली भी माना जाता है। माना जाता है कि स्वामी विवेकानन्द को भी यही आत्मज्ञान की अनुभूति हुई थी।
आत्मसाक्षात्कार के बाद स्वामी विवेकाननद अल्मोड़ा की तरफ चल पड़े। अल्मोड़ा से तीन किलोमीटर पहले करबला के पास भूख प्यास के कारण स्वामी विवेकानन्द अर्ध बेहोशी की हालत में गिर पड़े। तभी पास में एक छोटी सी झोपड़ी में रहने वाले एक मुस्लिम फकीर जुल्फिकार अली की नजर स्वामी विवेकानन्द पर पड़ी। वह विवेकानन्द के लिए ककड़ी लेकर आया। स्वामी विवेकानन्द के आग्रह पर उसने उनके मुँह में ककड़ी का टुकड़ा डालकर उनकी जान बचाई। सात सालांे बाद 1897 में अपनी अल्मोड़ा यात्रा के दौरान जुल्फिकार अली को गले लगाकर स्वामी विवेकानन्द ने यह बात सभी को बताई। आज उस स्थान पर स्वामी विवेकानन्द मेमोरियल रैस्ट हॉल स्थित है। यहाँ आज भी जुल्फिकार अली के वंशज रहते है।
अल्मोड़ा में स्वामी विवेकानन्द रघुनाथ मंदिर के सामने खजांची मुहल्ले में एक मकान में रहे। यह मकान लाला बद्री साह ठुलघरिया का था। लाला बद्री साह ठुलघरिया ने स्वामी विवेकानन्द का बड़े मन से स्वागत किया। अल्मोड़ा की अपनी इस प्रथम यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द ने कसारदेवी की एक गुफा में तप भी किया। वर्तमान में यहां शासक मठ स्थित है। अल्मोड़ा पहुँचकर स्वामी विवेकानन्द को अपनी बहन की आत्महत्या की खबर तार से मिली जिसके बाद वे अल्मोड़ा से निकल पड़े और एकांतवास के लिए बद्रिकाश्रम की यात्रा पर चल दिए। स्वामी विवेकानन्द सोमेश्वर की घाटी से पैदल पहले कर्णप्रयाग पहुँचे। उन दिनों केदारबद्री के रास्ते पर दुर्भिक्ष के प्रकोप के कारण सरकार ने रास्ता बंद किया हुआ था। स्वामी विवेकानन्द रूद्रप्रयाग की ओर मुड़ गए। यहां स्वामी विवेकानन्द ने ध्यान किया। काठगोदाम से रूद्रप्रयाग तक की 280 मील की यह यात्रा स्वामी विवेकानन्द ने एक माह में तय की थी। एक माह रूद्रप्रयाग रहने के बाद स्वामी विवेकानन्द टिहरी चले गए। यहां उनकी मुलाकात टिहरी के दीवान रघुनाथ भट्टाचार्य से हुई। रघुनाथ भट्टाचार्य इस मुलाकात के बाद हमेशा के लिए स्वामी विवेकानन्द के भक्त हो गए।
अपने गुरूभाई अखण्डानन्द के अस्वस्थ होने के कारण स्वामी विवेकानन्द को देहरादून आए। अक्टूबर 1890 में स्वामी विवेकानन्द देहरादून बाए। यहां उन्होंने सिविल सर्जन मैकलारेन से अखण्डानन्द का इलाज करवाया। इसके बाद अखण्डानन्द के साथ स्वामी विवेकानन्द ऋषिकेश गए। ऋषिकेश में वे चंदेश्वर नामक शिवमंदिर के पास पर्णकुटीर में रहे। स्वामी विवेकानन्द की पहली उत्तराखण्ड यात्रा का यह अन्तिम पड़ाव था। विश्वख्याति पाने के बाद 6 मई 1897 के स्वामी विवेकानन्द कलकत्ता से अल्मोड़ा के लिए निकले। 9 मई को स्वामी विवेकानन्द काठगोदाम पहुँचे जहां गुडविन और अन्य शिष्यों ने स्वामी विवेकानन्द का स्वागत किया। 11 मई को स्वामी विवेकानन्द का अल्मोड़ा में भव्य स्वागत हुआ। लाला बद्रीसाह के प्रयासों से स्वामी विवेकानन्द के लिए स्वागत सभा मंडल का आयोजन हुआ जिसमें पण्डित ज्वालादत्त जोशी ने हिन्दी में, पण्डित हरीराम पांडे ने बद्रीशाह की ओर से अंग्रेजी में और एक अन्य पण्डित ने संस्कृत में अभिनंदन पत्र पढ़कर सुनाया।
तीसरी यात्रा- अपनी तीसरी यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा पहंुचे तो अल्मोड़ा में उनका भव्य स्वागत हुआ था। इस यात्रा में उन्होंने अपना अधिकांश समय दउलधार में बिताया। अल्मोड़ा-ताकुला-बागेश्वर मार्ग पर 75 किमी की दूरी पर स्थित दउलधार में अल्मोड़ा के चिरंजीलाल साह का उद्यान था। सुन्दर तालाब के साथ लगे दो बड़े भवनों वाला यह स्थान वर्तमान में खंडहर हो चुका है। स्वामी विवेकानन्द ने दउलधार की सुन्दरता के विषय में अनेक लोगों को पत्र लिखकर बताया है। स्वामी शुद्धानन्द, मेरी हेल्बायस्टर, भगिनी निवेदिता आदि को लिखे अपने प़त्रों में स्वामी विवेकानन्द ने दउलधार की सुन्दरता का वर्णन किया है। इस दौरान अल्मोड़ा नगर में स्वामी विवेकानन्द के तीन व्याख्यान हुए। पहला हिन्दी में जिला स्कूल (वर्तमान में जी.आई.सी.) में, दूसरा इंग्लिश क्लब में और तीसरी चार सौ प्रबुद्ध लोगों की सभा में।
स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने संबोधन में कहा था, ‘यह हमारे पूर्वजों के स्वप्न का प्रदेश है। भारत जननी श्री पार्वती की जन्म भूमि है। यह वह पवित्र स्थान है जहां भारत का प्रत्येक सच्चा धर्मपिपासु व्यक्ति अपने जीवन का अन्तिम काल बिताने का इच्छुक रहता है। यह वही भूमि है जहां निवास करने की कल्पना में अपने बाल्याकाल से ही कर रहा हूँ। मेरे मन में इस समय हिमालय में एक केन्द्र स्थापित करने का विचार है और संभवतः मैं आप लोगों को भलीभांति यह समझाने में समर्थ हुआ हूँ कि क्यों मैने अन्य स्थानों की तुलना में इसी स्थान को सार्वभौमिक धर्मशिक्षा के एक प्रधान केन्द्र के रूप में चुना है। इन पहाड़ों के साथ्र हमारी जाति की श्रेष्ठतम स्मृतियाँ जुड़ी हुई है। यदि धार्मिक भारत के इतिहास से हिमालय को निकाल दिया जाए तो उसका अत्यल्प ही बचा रहेगा, अतएव यहां एक केन्द्र अवश्य चाहिए। यह केन्द्र केवल कर्म प्रधान ही नहीं होगा बल्कि यही निस्तब्धता, ध्यान तथा शांति की प्रधानता होगी। मुझे आशा है कि एक न एक दिन मैं इसे स्थापित कर सकूँगा।’नवम्बर 1897 में स्वामी विवेकानन्द ने आठ दिवसीय देहरादून की यात्रा की। उत्तराखण्ड की इस यात्रा का अन्तिम स्थल देहरादून ही था। स्वामी विवेकानन्द के आह्नान पर उनकी पश्चिमी देशों में रहने वाली शिष्याऐं भारत आई। मई 1898 को स्वामी विवेकानन्द की बहुउद्देशीय यात्रा प्रारम्भ हुई।
चौथी यात्रा- स्वामी विवेकानन्द की चौथी उत्तराखण्ड यात्रा के समय उनके साथ गुरूभाई स्वामी तुरीयानन्द और स्वामी निरंजनानन्द, उनके शिष्य स्वामी सदानन्द और स्वरूपानन्द थे। स्वामी विवेकानन्द की पश्चिमी देशों से आई शिष्याओं में ओलीबुल, मैकलाउड, मूलर, भगिनी निवेदिता और पैटरसन शामिल थी। 13 मई 1898 को स्वामी विवेकानन्द अपनी टोली के साथ काठगोदाम पहुँचे। डोली और घोड़े में बैठकर स्वामी विवेकानन्द और उनके साथी नैनीताल पहुँचे। नैनीताल में उनका स्वागत राजस्थान में खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने किया। नैनीताल में वे तीन दिनों तक रहे।
नैनीताल में स्वामी विवेकानन्द की भेंट खेतड़ी की दो नर्तकियों से हुई। नर्तकियों से मिलने पर बहुत से लोगों ने स्वामी विवेकानन्द की आलोचना भी की। इस यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा के थामसन हाउस में रूके। अल्मोड़ा में एस.जे.के. परिसर के निकट स्थित ऐतिहासिक ओकले हाउस परिसर में देवदार के पेड़ के नीचे 1898 ई. में स्वामी विवेकानन्द ने आयरलैंड की मार्गेट एलिजाबेथ को दीक्षा दी थी और उन्हें सिस्टर निवेदिता नाम दिया। कहा जाता है कि इस यात्रा से पहले तक भगिनी निवेदिता अपना पूरा जीवन सेवा में देने की बात को लेकर निश्चित नहीं थी। अल्मोड़ा में ही भगिनी निवेदिता ने तय किया कि अब वे अपना पूरा जीवन सेवा में व्यतीत करेंगी।
25 मई से 28 मई तक तीन दिन स्वामी विवेकानन्द ने सैयादेवी के शिखर पर तपस्या में व्यतीत किये और 30 मई को एक सप्ताह के लिए किसी और जगह चले गए। इस दौरान टायफायड के कारण गुडविन की मृत्यु हो गयी। गुडविन स्वामी विवेकानन्द के आशुलिपि, लेखक और समर्पित भक्त थे। गुडविन की मृत्यु का समाचार सुनकर स्वामी विवेकानन्द ने कहा, ‘अब मेरे जनता में भाषण के दिन समाप्त हो गये है, मेरा दाहिना हाथ चला गया है।’
पांचवी यात्रा- 1916 ई. में स्वामी विवेकानन्द जी के शिष्यों स्वामी तुरियानन्द और स्वामी शिवानन्द ने अल्मोड़ा में ब्राइट एंड कार्नर पर एक केन्द्र की स्थापना कराई जो आज रामकृष्ण कुटीर के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में रामकृष्ण कुटीर में एक पुस्तकालय जोकि तुरियानन्द पुस्तकालय के नाम से प्रसिद्ध है ज्ञानवर्धक किताबों से सजज्जित है। रामकृष्ण कुटीर में 2020 ई. में स्वामी विवेकानन्द जी की मृर्ति की स्थापना भी कर दी गयी है।
स्वामी विवेकानन्द ने सेवियर को बंगाल से छपने वाले ’प्रबुद्ध भारत’का संपादन सौपा। अब इसे अल्मोड़ा से छापने का आग्रह किया। इस तरह यह स्वामी विवेकानन्द का अन्तिम अल्मोड़ा प्रवास था। इस प्रवास में स्वामी विवेकानन्द 23 दिन तक अल्मोड़ा रहे थे। 1896 ़के लन्दन प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानन्द के मन में हिमालय में एक मठ स्थापना के संबंध में हेल बहनों को एक पत्र लिखा। इसी वर्ष इस संबंध में एक पत्र स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा के लाला बद्रीसाह को भी लिखते है, जब स्वामी विवेकानन्द ने इस संबंध में सेवियर दम्पत्ति बात की तो वे उत्साहित होकर इसका हिस्सा बनने को तैयार हो गए।
सार्वजनिक मंच पर मठ की स्थापना की बात स्वामी विवेकानन्द ने 1897 की यात्रा के दौरान भी कह दी थी। 1898 में जब स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा से कश्मीर की यात्रा पर चले तो सेवियर ने मठ के लिए भूमि खोजना शुरू करा दिया। अन्त में उन्हें अल्मोड़ा से 70 किमी दूर लोहाघाट से 10 किमी दूर माईपट नाम का स्थान मिला। यह अवकाश प्राप्त जनरल मि. मैकग्रेगर का चाय बागान था। उसने मठ बनाने के लिए जमीन बेचने पर हामी भी दी। इसका नाम बाद में मायावती हुआ।
स्वामी विवेकानन्द का हिमालय मठ का स्वप्न 19 मार्च 1899 को पूरा हुआ। 26 दिसम्बर 1900 को स्वामी विवेकानन्द मायावती के लिए निकले। 29 दिसम्बर को वे काठगोदाम पहुँच गए। 3 जनवरी 1901 को अनेक बाधाओं के बाद स्वामी विवेकानन्द सीधा मायावती पहुँच गए। स्वामी विवेकानन्द के मायावती पहुँचने से पहले कर्मठ सेवियर की मृत्यु हो चुकी थी। उनकी पत्नी श्रीमती सेवियर ने अपना अधिकांश समय मायावती में ही बिताया। स्वामी विवेकानन्द 3 जनवरी से 18 जनवरी 1901 तक मायावती में रहे। स्वामी विवेकानन्द ने मायावती से पत्रिका प्रबुद्ध के लिए तीन लेख लिखे। पन्द्रह दिन के अपने मायावती प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानन्द प्रत्येक दिन और शाम आध्यात्मिक चर्चा करते। 18 जनवरी 1901 को स्वामी विवेकानन्द ने मायावती से विदाई ली।
स्वामी विवेकानन्द ने देशवासियों को आत्म-सम्मान, शान्ति, निर्भयता व मानव गौरव की प्रेरणा दी। वेदांत का प्रचार, प्रेम, विश्वबन्धुत्व पद बल दिया। समाज सेवा को प्रथम कार्य माना। उनकी इन शिक्षाओं व कार्यों के कारण भारत निरन्तर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहा है। वर्तमान में जो कुछ समस्याएँ व बाधाऐं है उनको दूर करने में उनके चिन्तन से लगातार प्रेरणा मिलती है। आज युवा शक्ति, ज्ञान शक्ति को इस युग में स्वामी विवेकानन्द हमारे बीच अपने ओजस्वी विचारों के कारण बने हुए है।
संदर्भ ग्रन्थ-
1. प्रताप सिंह, आधुनिक भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास, रिसर्च पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, जयपुर, 1997
2. सुमित सरकार, आधुनिक भारत (1885-1947), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1993, पृ0 91
3. अमरेश्वर अवस्थी एवं रामकुमार अवस्थी, आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिन्तन, रिसर्च पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 2004, पृ. 123
4. योगेश कुमार शर्मा, भारतीय राजनीतिक चिन्तक, कनिष्का पब्लिशर्स, नई दिल्ली, 2001, पृ. 23
No comments:
Post a Comment
Share Your Views on this..