बेगम अख़्तर : जिसे आप गिनते थे आशना
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
डॉ.उषा आलोक दुबे
ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल गायकी की वह मदभरी मख़मली आवाज साधारण तरीके से असाधारण थी । कशिश, कसक, खनक, सोज, साज़, शरारत, शिकायत और मोहब्बत के दर्द में डूबी वह आवाज़ ‘बिब्बी’ से अख़्तरी बाई फैज़ाबादी, फिर बेग़म इश्तिय़ाक अहमद अब्बासी से होते हुए अंततः मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेग़म अख़्तर के रूप में मशहूर और मारुफ़ हुई । बेगम अख़्तर की ज़िंदगी में दुख
अनचाहे मेहमान की तरह हमेशा रहे और आगे चलकर उनकी मखमली आवाज़ का हिस्सा बन गए । बेगम अख़्तर को ग़ज़ल, दादरा और ठुमरी ने वो मुकाम दिया, जहां पहुंचना किसी भी व्यक्ति के लिए किसी सुंदर सपने से कम नहीं होता है । उनके जैसा ग़ज़ल-सरा कोई दूसरा न हुआ । कौन सा सुर किस गज़ल के मिजाज़ की तर्जुमानी में बेहतर होगा, इसकी बारीक समझ बेगम अख़्तर को थी । उनकी गायकी जहां एक ओर शोखी भरी थी, वहीं दूसरी ओर उसमें शास्त्रीयता की गहराइयां भी थी। आवाज में गज़ब की लोच की क्षमता के कारण उनकी गाईं ठुमरियां,गज़लें,टप्पा और दादरा बेजोड़ हैं। उनकी गायकी उनके जीवन का एक तरह से अनुवाद है । उनकी आवाज़ में एक लिपटी हुई ख़ुशबू है जो उनके चाहने वालों को आज भी दीवाना बना देती है। रागों के रंगीन धागों से सधी, बेहद साफ लेकिन ख़ुमारी भरी आवाज और शुद्ध उर्दू उच्चारण रखने वाली बेगम अख्तर हिंदुस्तानी संगीत के लिए कोहिनूर हीरे की तरह थीं । शब्दों के साफ़ एवं सही उच्चारण के साथ ही ग़ज़ल गायकी की तैरती हुई आवाज़ में यह भी ध्यान रखा जाता है कि सासों का
उतार-चढ़ाव ठीक हो । ग़ज़ल-सार की सांस का लंबा होना भी बेहद जरूरी है। गायक को यह ध्यान
रखना पड़ता है कि शब्द ही उसकी जड़ें हैं । उसके एहसास का जायका सुनने वालों को तभी
मिलेगा जब आवाज़ में भावों की संगदिली हो । ग़ज़ल की सांगीतिक प्रस्तुति में इस बात
का भी ध्यान रखना पड़ता है कि आलाप व तान का प्रयोग एकदम सधे
तरीके से हो । इसे उसी
तरह समझना होता है, जैसे कोई सच्ची मोहब्बत को समझता है । आसान और सीधे सरल शब्दों में ग़ज़ल पढ़ने वालों को अधिक पसंद किया जाता है क्योंकि जन सामान्य उससे
आसानी से जुड़ जाता है । यहाँ बोल,आलाप के माध्यम
से ही बंदिशों का विस्तार किया जाता है,जिससे श्रोता को
रसात्मक अनुभूति होती है। ख़याल गायकी में एक ही शब्द को बार-बार अलग ढंग से उच्चारित करते हुए अपनी निपुणता और तान पर अपनी पकड़ को
गायक प्रदर्शित करते हैं। ग़ज़ल की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण यह है कि जिंदगी के
सारे रंगों को स्वर,लय और ताल के माध्यम
से प्रदर्शित करने का यह आज भी सबसे सशक्त माध्यम है । ग़ज़ल में जिंदगी का पसरा हुआ सुकून है । कहते
हैं कि स्वर और संगीत जिसे जितना मिलता है वह उतना ही फ़रिश्ता होते जाता है
क्योंकि इनकी साधना में खुद को जितना मिटाया जाय उतना ही सुकून मिलता है । ऐसी साधना
के लिए अधिक से अधिक तनहा होना पड़ता है । ऐसी साधन के लिए ही छोटी बिब्बी तैयार हो
रही थी । तहजीब, तरन्नुम
और अदब के सितारों वाला आँचल उसे लुभा रहा था ।
फ़ैज़ाबाद के ‘भदरसा’
गाँव में जन्मी थी अख़्तरी बाई । अख़्तरी बाई के पिता असगर हुसैन पेशे से सिविल जज
एवं शायर थे । असगर हुसैन को पेशेवर तवायफ़ मुश्तरी बाई से इश्क हुआ फ़िर पहले से
विवाहित असगर साहब ने अपनी दूसरी बेगम के रूप में मुश्तरी बाई से निकाह किया । 07
अक्टूबर सन 1914 को मुश्तरी बाई ने दो जुड़वा बेटियों अख़्तर और अनवरी को जन्म दिया
। जिन्हें प्यार से बिब्बी और ज़ोहरा बुलाया जाता था। इन दोनों लड़कियों के होते ही
असगर साहब और मुश्तरी के रिश्तों में कड़वाहट फैलने लगी थी । आगे चलकर असगर साहब ने
मुश्तरी से रिश्ता तोड़ते हुए ज़ोहरा और बिब्बी को अपनी बेटी मनाने से भी इंकार कर
दिया । चार साल की बिब्बी और ज़ोहरा ने कोई विषाक्त मिठाई खा ली जिससे ज़ोहरा की मौत
हो गई । अब छोटी बिब्बी और मुश्तरी ही एक दूसरे का सहारा थे । मुश्तरी बाई के भाई
ने छोटी बिब्बी को संगीत की तालीम दिलाने के लिए अपनी बहन को राजी किया । अंततः मुश्तरी
बाई ने अपनी बेटी बिब्बी को गायकी के क्षेत्र में निपुण बनाने का निर्णय लिया ।
स्वयं बिब्बी भी इसमें रुचि रखती थी । 1920 के आस-पास फ़ैज़ाबाद छूटने के बाद माँ
बेटी पहले गया फ़िर कलकत्ता आकर रहने लगे थे ।
गया
आने के साथ ही बिब्बी की मौसकी का लंबा सफ़र शुरू हुआ । उस उम्र में बिब्बी तवायफ़ चंद्राबाई
की गायकी की दीवानी थीं और उनके जैसा ही गाना चाहती थी । चंदाबाई एक नौटंकी कंपनी
में काम करती थी । उस जमाने में पटना के नामी सारंगी वादक उस्ताद इमदाद ख़ान, पटियाला घराने के अता
मोहम्मद ख़ान, किराना
घराने के अब्दुल वाहिद ख़ान, उस्ताद रमज़ान खाँ, उस्ताद बरकत अली, उस्ताद गुलाम मोहम्मद खाँ और
उस्ताद झंडे ख़ान जैसे नामी-गिरामी उस्तादों के मार्गदर्शन में उनकी मौसकी का सफ़र
पूरा हुआ । जैसे-जैसे रियाज़ बढ़ा उनकी गायकी की सुर्ख़ी एक ख़ास साँचे में ढलने लगी ।
ये इन उस्तादों की नैमत थी कि अख़्तरी बाई की
गायकी में ग्वालियर घराने की मशहूर जादुई तानें, किराना
घराने की बढ़त का अंदाज , पटियाला घराने की रूमानियत और पूरबिया
गायकी अंग की खुशबू और सुबह की अजान सी पाक नूरानियत बसी थी । अपनी आवाज़ से शब्दों
को छानकर उन्हें एक ख़ास तेवर से भर देना, कोई अख़्तरी बाई
फ़ैज़ाबादी से सीखे । उनकी आवाज़ हमारे भीतर की बंज़र जमीं पर मुसलसल गिरती बारिश की
तरह थी । मोहर्रम के समय अखतरी फ़ैज़ाबाद आती थीं और मर्सिया एवं सोज़ गाते-गाते
प्रसिद्ध हुई । मोहर्रम पर फ़ैज़ाबाद में मर्सिया गाने की परंपरा अखतरी को अपनी माँ
मुश्तरी से मिला था ।वह सिया मुसलमान थीं । रीड़गंज स्थित इनके मकान को 2014 में बेगम अख़्तर
की जन्म शताब्दी पर फ़ैज़ाबाद नगरपालिका ने “बेगम अख़्तर मार्ग” कर के उनके प्रति
अपनी श्रद्धांजलि दी ।
सन 1934 में
बिहार ज़बरदस्त भूकंप से काँप गया था । जान-माल का बड़ा नुकसान हुआ । संकट में घिरे
बिहार के आपदा प्रभावित लोगों की मदद के लिए एक संगीत समारोह कलकत्ता में आयोजित
किया गया, जिसमें
अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी को गायन प्रस्तुति के लिए बुलाया गया । इस कार्यक्रम में
मुख्य अतिथि के रूप में स्वयं सरोजनी नायडू उपस्थित थीं । आप अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी की
गायकी से बड़ी प्रभावित हुईं और उपहार रूप में उन्हें खद्दर की साड़ी भेंट की । इसके
बाद पारसी थिएटर में काम की संभावनाओं के लिए वे कलकत्ता में ही रही । कोरीथियन
कंपनी के माध्यम से अखतरी को यह मौका मिला भी । उस समय 700 रुपये उनका मासिक वेतन
निर्धारित था । यह वह जमाना था जब सोना 16 रुपये तोला था । इसी थिएटर में ‘नई
दुल्हन’ नामक
पहले नाटक में अखतरी बाई ने अभिनय किया । यह नाटक हिट रहा और पूरे एक साल तक चला ।
यह कंपनी 1936 में जब लखनऊ आयी थी तो हैदराबाद के निजाम के आमंत्रण पर उन्होने 15
दिन की छुट्टी मांगी जिसे कंपनी ने देने से मना कर किया । इस बात से नाराज़ होकर अखतरी ने अपना इस्तीफ़ा ही
दे दिया ।
सन1933-34 से अखतरी
बाई थियेटर और रईसों, रियासतों के यहाँ प्रस्तुतियाँ देने लगी थी
। रामपुर, ओरझा,
अयोध्या और हैदराबाद जैसी रियासतों में आप की प्रस्तुतियाँ हुईं ।अयोध्या में
महाराज प्रताप नारायण सिंह ‘ददुआ
महाराज’ एवं
जगदंबिका प्रताप नारायण सिंह के समय में अखतरीअपनी सांगीतिक प्रस्तुतियाँ देती रहीं । 1938 में लखनऊ के हजरतगंज में
“अखतरी मंजिल” नामक कोठा तैयार हो चुका था । ‘बड़े
साहब’ यानी
मुश्तरी बाई की देख रेख में रईस, जज, मुंसिफ़
और व्यापारी लोगों का यहाँ आना शुरू हो गया । रामपुर के नवाब रजा अली खाँ,
संगीतकार मदन मोहन, शास्त्रीय गायक पंडित कुमार गंधर्व, शायर
जिगर मुरदाबादी से अखतरी बाई के बड़े खास रिश्ते थे । वैसे इन रिश्तों की कोई गवाही नहीं मिल सकती ।
मेरा मानना है कि इन किस्सों की हकीकत खोजने से कहीं अधिक जरूरी है कि इन किस्सों
से जो दृष्टि मिलती है वो हमारे बड़े काम की हो सकती है । 1938-45 के बीच अखतरी बाई
द्वारा कुछ खड़ी महफ़िलों में गाने का भी जिक्र मिलता है ।
सन 1925-1930 के आस-पास मेगाफ़ोन
रिकॉर्ड कंपनी ने अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी का पहला रिकॉर्ड बनाया गया । उनकी पहली
रिकार्डिंग संभवतः “वो आसरा-ए-दामने” था । यह सिलसिला लगातार आगे बढ़ा और उनकी
ग़ज़लों, ठुमरी, दादरा
आदि के कई ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड्स बाजार में जारी किये गए । अख़्तरी बाई के कई रिकॉर्ड
की मांग इतनी थी कि मेगाफोन कंपनी को कोलकाता में रिकॉर्ड प्रेसिंग प्लांट बनवाना
पड़ा । तीस के दशक में अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी ने कई हिंदी फ़िल्मों में भी काम किया ।
उनका फ़िल्मी सफ़र ईस्ट इंडिया फ़िल्म कंपनी के माध्यम से शुरू हुआ । इसी कंपनी में
जहाँआरा कज्जन जैसी मशहूर नायिकाएँ भी काम करती थीं । बोलती फिल्मों के शुरुआती
दिनों में जहाँआरा बड़ी नायिका थीं । इस कंपनी के मालिक रायबहादुर करनानी थे । उन्होने
जिन फ़िल्मों में काम किया वे हैं - ‘एक दिन
का बादशाह’ (
1933), ‘अमीना’ (1934), ‘मुमताज़
बेगम’ (1934), ‘जवानी
का नशा’ (1935), ‘नसीब का
चक्कर’ (1935) इत्यादि
। आश्चर्य इस बात का कि इन सभी फ़िल्मों में उन पर फ़िल्माये गये सभी गाने अख़्तरी
बाई फ़ैज़ाबादी ने स्वयं गाए । अपनी फ़िल्म रोटी(1942) के लिए महबूब ख़ान ने उनसे कुल
06 गज़लें रिकार्ड कराई लेकिन इनमें से 04 गीत रिकार्ड प्रोड्यूसर – डायरेक्टर के
झगड़े या किसी अन्य कारण के चलते डिलीट कर दिए गए । फ़िल्म रोटी के लिए उन्हें 25000
रुपये मिले थे । रूप कुमारी (1934) ,
अनारबाला (1939), नल दमयंती(1933)
, नाचरंग, दाना-पानी (1953) और एहसान (1954) नामक फ़िल्मों
में भी आप ने गीत गाये । अपनी अंतिम फ़िल्म के रूप में उन्होंने सत्यजीत रे की “जलसाघर”
(1958) के लिए एक शास्त्रीय गायिका की भूमिका निभाई । सन
1945 में पन्नाबाई नामक फ़िल्म में भी अख्तरी के दो गीत शामिल हुए ।
रसूलनबाई,
हीराबाई बड़ोदकर,
लक्ष्मीबाई बड़ोदकर, सिद्धेश्वरी देवी, बड़ी
मोतीबाई, असगरी
बेगम, वहीदनबाई
एवं बड़ी मैना बाई जैसी गायिकाओं को सुनते हुए गायकी के न जाने कितने दिलकश नजारे
उनकी आँखों में नाच रहे थे । वे अपने विश्वास के कंधों पर खड़ी हुई और न जाने कितनी
रंगीन शामों का शामियाना उनकी जादूई आवाज़ में डूबे रहे । उनकी आवाज़ की रवानी में अंदर का दर्द
रिहा होता था, पिघलती
हुई शामें ज़िंदगी की आग को मीठे,तीखे और
सुर्ख रंग के शोलों में तब्दील होते देखती । वे गुमशुदा मौसम अब तो किस्से कहानी
बनकर रह गए हैं। ठुमरी, दादरा, होरी, चैती, कजरी, सावनी
और बारहमासा में विधा के अनुरूप चयन अखतरी बाई की ख़ासियत थी । पुनः रागागमन में
उनका कोई जबाब नहीं था । पुकार लेते हुए वो स्वरों को घसीटती नहीं थी अपितु पूरा
स्वर लगाती । काफ़ी, खमाज, भैरवी, पीलू, देश और
पहाड़ी राग में उनकी रुचि थी । राग तिलंग उन्हें अधिक प्रिय था । उनकी आवाज़ की जब पत्ती लगती तो वह सुनना अद्भुद
होता । बिस्मिल्ला खाँ कहते थे – पत्ती सुनने में बेसुरी लगती है । मगर जब अखतरी
गाती है तो सुरीली हो जाती है । वो ग़ज़ल भी ठुमरी की शैली में गाती थीं । खटके, मुर्की,
तलफ़्फुज़, अदायगी
सबकुछ ठुमरी के अनुकूल । सारंगी पर नवाज़ गुलाम साविर और तबले पर मुन्ने खाँ की
संगत पर उन्हें भरोसा था । मझले कद और गौर वर्ण की अखतरी मंच पर हमेशा आत्म
विश्वास से भरी दिखती । चाय-पान की शौकीन अखतरी हज कर चुकी थी । वे मिलनसार और
मृदुभाषी थी । ठुमरी और दादरे में पुरब और पंजाब अंग के तालमेल की नई शैली के सृजन
का श्रेय अख़्तरी बाई फैज़ाबादी को ही है ।
अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी
जिन गज़लों को गाती थीं उनका चयन बड़ी सूझ बूझ और अपनी रुचि के अनुसार करती थीं । उन्होंने ग़ज़ल के वही शेर चुने जिनमें
उदासी,टूटन,बेचैनी और द्वंद है। उनकी
आवाज़ की नैमत जिन गज़लों को मिली उनकी खूबसूरती में चार चाँद लग गए । मिर्जा गालिब, दाग़ देहलवी, फैज अहमद
फैज, मिर्जा
सौदा, आतिश, मोमिन
खां मोमिन, इब्राहीम
जौक़, दाग, मीर तकी
मीर, ख्वाजा
मीर दर्द, अमीर
मिनाई ,जिगर मुरादाबादी, कैफी आजमी, सरदार
अहमद खां याने बहज़ाद लखनवी,
सुदर्शन फाकिर, शकील
बदायूंनी, शमीम
जयपुरी और हफीज़ होशियारपुरी जैसे नामचीन शायरों की कई गज़लों को आप की आवाज ने आम
लोगों के बीच अधिक लोकप्रिय बनाते हुए उन्हें मकबूलियत दी । ग़ज़ल के
अलावा, दादरा, ठुमरी व
अन्य रागों व गायन में भी बेगम अख्तरी को महारत हासिल थी। बेगम अख़्तर के पसंदीदा
रागों में राग जोगिया, राग शुद्ध
कल्याण, राग
देश, राग
मिश्र काफ़ी, राग
शिवरंजनी, राग
भैरवी, राग
कोमल असावरी का नाम
लिया जा सकता है । वैसे राग तिलंग उन्हें अधिक प्रिय था ।
अगर बेग़म की दो सबसे मशहूर गज़लें हैं, तो वो
हैं शकील की लिखी ये दोनों गजलें । इसके अतिरिक्त बेगम की गयी जो
गज़लें मशहूर हुई हैं उनमें ‘वो जो हममें तुममें क़रार था’, ’तुम्हें याद हो के न याद हो’,‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम
पे रोना आया’,‘मेरे हमनफस’,’मेरे हमनवा’,’मुझे दोस्त बन के दगा न दे’,'कभी तकदीर का मातम
कभी दुनिया का गिला’,’मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गम
पे रोना आया', जैसी कई दिल को छू लेने वाली गज़लों के
नाम लिए जा सकते हैं । बेगम अख्तर ने ग़ज़ल गायकी को जो प्रतिष्ठा एवं प्रवाह दिया उसी परंपरा को कई अन्य गायकों ने आगे बढ़ाया। ऐसे गायकों में मेहंदी हसन, नूरजहां, सुरैया, रफी, महेंद्र कपूर ,गुलाम अली, जगजीत सिंह,पंकज उदास,तलत अजीज,भुपेंद्र सिंह एवं मुन्नी बेगम जैसे कई
गायकों के नाम लिए जा सकते हैं । जब भी ग़ज़लख्वानी की बात की जाएगी तो बेगम
अख्त़र का नाम सबसे पहले ज़हन में उभरेगा।
सन 1945 में अख़्तरी
की उम्र 31 वर्ष की थी । उम्र के इसी पड़ाव में अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी ने काकौरी के
नवाब बैरिस्टर इश्तियाक़ अहमद अब्बासी से निकाह का फैसला लिया जो उनकी शायरी और
संगीत के दीवाने थे और इंग्लैंड से पढ़कर
आए थे । निकाह के बाद बेगम अख़्तर क़रीब पांच साल तक गायकी से दूर पर्दानशीं होकर ‘मतीन
मंज़िल’ में
रही । कोठे से कोठी तक का यह सफ़र अखतरी बाई के बेगम अख़्तर बनने का भी सफ़र था ।
यहाँ रहते हुए वे संगीत से दूर हुई , इसका
परिणाम यह हुआ कि वह बीमार रहने लगीं । पैथेडीन नामक दर्द निवारक इंजेक्शन की आप
आदी होने लगी । ज़र्दा, शराब और सिगरेट पीने में भी पहले जैसी
आज़ादी नहीं रही । बेगम दोहरी जिंदगी में घुट रही थी । उनकी इस बीमारी का इलाज सिर्फ
और सिर्फ संगीत ही था जिसे अहमद अब्बासी ने समझा और उन्हें दुबारा गायन शुरू करने
की अनुमति दी । आकाशवाणी डायरेक्टर एल. के. मेहरोत्रा ने अब्बासी साहब को मनाया ।
इस तरह सन 1949 में उन्होने
लखनऊ रेडियो स्टेशन से अपनी गायकी का नया दौर शुरू किया । उन्होंने कुल 03 गज़लें
और 01 दादरा रिकार्ड कराया । अपनी मन पसंद संगीत की दुनिया में लौटकर वो इतनी ख़ुश
हुई कि उनकी आंखों आंसू निकल पड़े । सन 1951 में आप की माँ का देहांत हो गया, लेकिन
गायकी के माध्यम से बेगम अख़्तर ने खुद को संभाला । आप की शिष्याओं में शांति
हीरानंद, रीता
गांगुली, ममता
दास गुप्ता, अंजली
बनर्जी और शिप्रा बोस का नाम प्रमुख है ।
इसके बाद तो बेगम अख़्तर
रेडियो पर नियमित रुप से अपने अंतिम दिनों तक प्रस्तुतियाँ देती रहीं । बेगम अख़्तर
के करीब 400 गानों
के रिकॉर्ड भी बने । बेगम अख़्तर ने ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन को अपनी गायकी
और संगीत से मलामाल किया था। बेगम अख्तर ने 1961 में
पाकिस्तान, 1963 में
अफगानिस्तानऔर 1967 में
तत्कालीन सोवियत संघ में भी अपने सुरों का जादू बिखेरा। इसी समय लखनऊ के भातखंडे
कालेज में Semi & Light Classical Music विभाग
में विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में आप ने पदभार स्वीकार किया । भारत सरकार ने सन 1968 में
उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया । 1972 में केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी अवार्ड
से आप सम्मानित हुई । 1973-74 में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से आप
सम्मानित हुई । सन 1975 में
पद्म विभूषण (मरणोपरांत) सम्मान से सम्मानित किया । 1960-70 का दशक उनके उत्कर्ष
का चरम था ।
गुजरात
के अहमदाबाद में अपने आख़िरी संगीत समारोह में बेगम अख़्तर को लगा कि वह उतना
अच्छा नहीं गा रहीं थीं, जितना वह चाहती थीं। अच्छा गाने की कोशिश
में उन्होंने अपनी लय को ऊंचा कर दिया। उस दिन उनकी तबीयत वैसे ही ठीक नहीं थी और
उस पर दर्शकों की मांग की वजह से उन्होंने गाने पर ज़्यादा ही ज़ोर लगा दिया, जिसकी
वजह से वह बीमार पड़ गईं और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। 26 अक्टूबर 1974 को आप को तीसरी बार दिल का दौरा
पड़ा । 30 अक्टूबर
सन 1974 को बेगम
अख़्तर का इंतक़ाल हो गया। आप को पहला दिल का दौरा 1967 में और दूसरा जुलाई 1974 में पड़ा था । लखनऊ के
ठाकुरगंज के करीब पसंद बाग में उन्हें सुपुर्दे-खाक किया गया। उनकी मां मुश्तरी
बाई की कब्र भी उनके बगल में ही थी।
30 मार्च 1975 को लखनऊ
में आप की याद में ‘याद-ए-अख़्तर’ का
आयोजन हुआ । कल्याणी कला केंद्र 1985 से आप की स्मृति में कार्यक्रम आयोजित करता
रहा है । सन 1993 में ‘कला
संस्कृति लच्छू महाराज कथक अकादमी’ द्वारा
लखनऊ में संगीत संध्या का आयोजन किया गया ।
सन 1994 में बेगम की 80वीं जयंती
पर कालधर्मी संस्था की ओर से ‘जश्ने
अख़्तर’ का
आयोजन किया गया । डाक विभाग द्वारा 02 दिसंबर 1994 को तत्कालीन संचार राज्य मंत्री
सुखराम के हाथों बेगम अख़्तर पर डाक टिकट जारी हुआ । इसी तरह “बेगम अख़्तर मेमोरियल कल्चरल सोसायटी”
द्वारा बेगम की स्मृति में कार्यक्रम
आयोजित होते रहते हैं । बेगम अख़्तर की 100वीं जयंती पर तमाम सरकारी संस्थानों
द्वारा कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया । गूगल ने 07 अक्टूबर
2017 को बेगम
अख़्तर के 103 वें
जन्मदिन पर एक डूडल समर्पित किया । ये सब बातें साफ बताती हैं कि बेगम को भुलाया
नहीं जा सकता । आज़ भी बेगम अख़्तर की पुरकशिश आवाज़, उसकी
पाकीज़गी ज़िंदगी की ख़्वाहिशों से वापस जोड़ देती हैं । वे एक कुशल शिल्पकार की तरह
अपनी आवाज़ की झंकार से हमारे दर्द को एक सुकून, एक
राहत देती हैं ।
संदर्भ सूची :
1.
अख़्तरी : सोज़ और साज़ का अफ़साना –
संपादक यतीन्द्र मिश्र,
वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, पेपर
बैक द्वितीय संस्करण- 2022
2.
बेगम अख़्तर व उपशास्त्रीय संगीत – डॉ.
सुधा सहगल एवं डॉ. मुक्ता,
राधा पब्लिकेशन्स नई दिल्ली,
प्रथम संस्करण 2007
3.
बनारसी ठुमरी की
परंपरा में ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियाँ एवं उपलब्धियां (19वीं-20वीं सदी ) – डॉ. ज्योति सिन्हा, भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र, शिमला । प्रथम संस्करण वर्ष 2019 ।
4.
महफ़िल – गजेन्द्र नारायण
सिंह । बिहार ग्रंथ अकादमी पटना । संस्करण 2002 ।
5.
https://www.bbc.com/hindi/india-37661820
6. https://www.ichowk.in/society/begum-akhtar-birthday-remembering-eminent-begum-akhtar-ghazal-song-and-indian-classical-singer-begum-akhtar-life-story/story/1/18546.html
7.
https://m.thelallantop.com/article/news-detail/625d2a3033907fa4843d368a
8.
https://amitkumarsachin.com/begum-akhtar-biography-in-hindi/
9.
http://podcast.hindyugm.com/2009/01/beghum-akhtar-mallika-e-ghazal-anita.html
10.
https://delhibulletin.in/kalams-of-poets-who-became-immortal-by-getting-the-voice-of-begum/
11.
https://hindivivek.org/27230
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