Saturday, 22 April 2023

भारतीय चित्रकला का स्वरुप एवम उसकी महत्ता : स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में |

 


भारतीय चित्रकला का स्वरुप एवम उसकी महत्ता : स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में |


“जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को वश में कर लेता है और निरंतर अभ्यास करता है

सफलता उसके कदम जरूर चूमती है”.

अपने इन्हीं प्रेरणादायी विचारों के लिए स्वामी विवेकानंद आज भारतीय युवाओं के ही नहीं बल्कि समूचे संसार के युवाओं के लिए प्रेरणा का आधार हैं. वह एक मार्गदर्शक हैं जो सम्पूर्णता की बात करते हैं, अर्थात किसी भी व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकासहोना अत्यंत आवश्यक है . स्वामी जी ने भारतीय संस्कृति को आत्मसात किया और उसे एक नई उर्जा के साथ अभिव्यक्त किया. इस अभिव्यक्ति में उस भारतीय चेतना का समावेश था जो सदियों से संसार को जीवन जीने की राह दिखाती आयी है. चाहे वह ज्ञान- विज्ञान हो, दर्शन हो, जीवन पद्धति हो, या फिर कला संस्कृति . सभी क्षेत्रों में भारत ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसे और भी स्पष्ट रूप में समझने के लिए हमें प्राचीन भारतीय साहित्य व कला की ओर उन्मुख होना पड़ेगा.चाहे वो महर्षि वाल्मीकि हों, महर्षि वेदव्यास हों या फिर भारतीय संस्कृति की महिमा को अपनी रचनाओं में पिरोने वाले महाकवि कालिदास हों सभी ने अपनी अपनी दृष्टि से इसका प्रचार प्रसार किया है और यह वर्तमान में भी अत्यंत प्रासंगिक हैं क्योंकि इनमे सम्पूर्ण जगत की मंगल कामना की गई है . इसके साथ ही हम यदि कला के संदर्भ में देखें तो हमारे सम्मुख ऐसे कई कालजयी उदहारण मौजूद हैं . मौर्य काल के अशोक स्तम्भ हों,अजंता के जीवंत और भावपूर्ण चित्र हों या फिर एलोरा के कौशलपूर्ण वास्तुकला के नमूने . यह सभी हजारों वर्ष बाद भी कला जगत के लिये प्रेरणा का आधार बने हुए है और लोगों को आश्चर्यचकित करते है. इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्वामी जी को भारतीय सनातन परम्परा की गहरी समझ थी जिसे उन्होंने पूर्णरूप से आत्मसात किया और उसे अपने नवीन विचारों के माध्यम से भारतीय जनमानस विशेषकर युवाओं के समक्ष रक्खा जिससे वो पश्चिमी चमक धमक में धूमिल पद रही भारतीय अस्मिता को पुनः पहचानने में सक्षम हुए और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना महत्वपूर्ण योगदान भी दिया.

स्वामी विवेकानंद को मूलरूप से उनके तर्क,आत्मबल और प्रभावशाली प्रेरक विचारों के लिए जाना जाता है. लेकिन हमें यह भी समझने की आवश्यकता है कि उनकी कला के बारे में भी बहुत भी गहरी समझ थी जिस पर वह गहराई से चिंतन किया करते थे . उनके कला विचारों के अध्ययन से यह विदित होता है कि स्वामी जी की दृष्टि में  कला, संगीत और साहित्य की समझ के बिना बहुमुखी प्रतिभा का विकास संभव नहीं है . इसीलिए उन्होंने भारतीय कला खासकर चित्रकला के बारे में अपने विचारों को बड़े ही स्पष्ट रूप से प्रकट किया है . इसके साथ ही पश्चिमी कला शैली, महत्ता और उपयोगिता के बारे में भी अपने विचारों को व्यक्त किया है जिसकी चर्चा निम्लिखित है –

सभी विधाएं – काव्य, चित्रकला और संगीत शब्दों , रंगों और ध्वनि के माध्यम से व्यक्त किये गए अनुभव हैं. 

यह ब्रह्माण्ड एक कला संग्रहालय है और ऐसा लगता है कि में एक चित्र दीर्घा में खड़े होकर समय द्वारा प्रतिपल निर्मित चित्रों को देख रहा हूँ.

यदि चित्रकार अपने अहम् को भूलकर पूर्ण रूप से अपनी सृजना में डूब जाये तो वह यक़ीनन उत्कृष्ट कलाकृतियों का निर्माण करने में सक्षम होगा.

एक उत्कृष्ट पेंटिंग को मात्र देखने से ही हम यह नहीं समझ सकते कि इसकी सुन्दरता कितनी गहरी है, इसके लिए आँखों का भी प्रशिक्षित होना आवश्यक है. 

अक्सर ऐसा माना जाता है कि चित्रकला उन विद्यार्थियों के लिए है जो पढाई में अच्छे नहीं होते, लेकिन एक प्रभावी पेंटिंग बनाने हेतु चित्रकार को हस्त कौशल के साथ साथ बौधिक स्तर पर भी प्रबुद्ध होना आवश्यक है. 




एक मधुर स्वर या एक सुन्दर पेंटिंग देखते ही मन स्थिर हो जाता है, यह हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है और हम इससे दूर नहीं रह सकते. .

स्वामी विवेकानंद इस दुनिया की तुलना एक सुन्दर पेंटिंग से करते हुए कहते हैं कि “ साहूकार चला गया, खरीददार चला गया, विक्रेता चला गया लेकिन यह दुनिया एक पेंटिंग की भांति अब भी स्थिर है “.

स्वामी जी की समझ भारतीय कला के साथ साथ अन्य देशों की कला के बारे में भी थी. वह जापानी कला के बारे में अपने विचार व्यक्त कहते हुए कहते हैं कि “ मैंने जापानी चित्रों का अवलोकन किया है, कोई भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो सकता है . इसकी प्रेरणा कुछ ऐसी प्रतीत होती है जो नक़ल से परे है ”. 

ग्रीस चित्रकला के बारे में स्वामी जी कहते हैं कि ग्रीस चित्रकारों की उर्जा शायद मांस के टुकड़े को चित्रित करने में की जाती है, वे इसे इतना सजीव बनाना चाहते हैं कि इन्हें देखकर एक कुत्ता भी इसे असली समझकर इसकी तरफ आकर्षित हो उठता है.एक चित्रकार के लिए सिर्फ अनुकरण करने से बेहतर है कि किसी भी कलाकृति में चित्रकार की स्वयं की सोच एवम भावना भी अभिव्यक्त होनी चाहिए.

पेरिस की कला जगत के बारे में भी उनकी गहरी समझ थी और 19वीं सदी के मध्य पेरिस पूरी दुनिया की कला संस्कृति के केंद्र के रूप में जानी जाती थी. इस समय पूरी दुनिया के कलाकार पेरिस में आते थे और अपनी कला को यहाँ रहकर परिपक्व बनाते थे.  यहाँ के कला माहौल के बारे में अपना विचार व्यक्त करते हुए विवेकानंद जी  कहते हैं कि यदि कोई  चित्रकार,मूर्तिकार या नर्तक पेरिस के माहौल में रह लेगा तो वह किसी भी देश में आसानी से रह सकता है.





विवेकानंद जहाँ एक ओर भारतीय कला की सराहना करते हैं वहीँ उसके आदर्शों व मूल्यों को भी बनाये रखने की बात करते हुए कहते हैं कि ‘ भारतीय कला में आदर्श होना उचित है लेकिन इसे पूर्णरूप से कामुकता में परिवर्तित करना उचित नहीं है. 

स्वामी जी ने यूरोपीयन संस्कृति व कला के अनुकरण को भारतीयों के लिए अनुचित बताया. वह कहते हैं कि “ यूरोपीयन शैली में चित्र बनाने वाले भारतीय चित्रकारों से बेहतर हमारे बंगाल के पटुआ चित्रकार हैं जो हमारे भारतीय संस्कृति को बड़े ही सहजता से उकेरते हैं. इनमे उनकी सहजता और सरलता बड़े ही स्वाभाविक रूप से उनकी कृतियों में प्रस्फुटित होती है. साथ ही विविध पारंपरिक कला शैली सदियों से भारतीय संस्कृति और उसकी महत्ता को प्रदर्शित करती रही है, इसलिए हमें पश्चिमी कला के अनुकरण से बचना होगा . साथ ही स्वयं की विशेषताओं को कला संगीत व साहित्य के माध्यम से प्रदर्शित करना होगा. स्वामी विवेकानंद ने मौलिकता को अत्यंत महत्वपूर्ण माना है. वह कहते हैं कि “कला से मौलिकता का क्षरण उसकी महत्ता को कम करता जा रहा है. कला सदैव स्वाभाविक होनी चाहिए बिल्कुल प्रकृति सृजन की भांति .पश्चिमी कला के बारे में वह कहते हैं कि वहां विभिन्न वस्तुओं की तस्वीरें खींचकर उनका अनुकरण कर दिया जाता है जिससे कला का मूल स्वरुप लुप्तप्राय हो जाता है . कहीं कहीं इस कार्य के लिए तो मशीनों को भी प्रयोग में लाया जा रहा है जिससे इसकी मौलिकता प्रभावित हो रही है.इस प्रकार के सृजन से कलाकार के विचार व स्वानुभूति कला में पूर्णतया नहीं आ पाती है.” आगे वह कहते हैं कि “प्राचीन कलाकार आपने मष्तिस्क से मौलिक विचारों को विकसित करते थे और उन्हें अपनी कलाकृतियों में अभिव्यक्त करने का प्रयास करते थे, लेकिन धीरे-धीरे कला में मौलिकता को और विकसित करने का प्रयास दुर्लभ होता जा रहा है . हालाँकि किसी भी अवस्था में कला एवम उसकी संवेदना को जीवित रखने की अत्यंत आवश्यकता है क्योंकि प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक विशेषता होती है. उसके तौर – तरीकों, रीत – रिवाजों, रहन-सहन को वहां की मूर्तिकला और चित्रकला में विशिष्ट रूप से देखा जा सकता है”.


विवेकानंद पश्चिमी कला के विविध आयामों के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि चित्र संगीत और नृत्य सभी अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्पष्ट हैं. नृत्य करते हुए वे ऐसे दिखते हैं जैसे अपने पैरों को पटक रहे हैं. वाद्ययत्रों की ध्वनि कानों में चुभती है और एक कर्कशता पैदा करती है. वहीँ भारत में संगीत में एक लय और सुकून है जो मन मन को स्पर्श करती है और सौन्दर्य की अनुभूति प्रदान करती है.अलग अलग देशों में अलग अलग अभिव्यक्ति के माध्यम और तरीके हैं . जो लोग बहुत अधिक भौतिकवादी हैं, उनके विचार भी उनकी कला में परिलक्षित होती है. जो संवेदनशील अधिक हैं वे प्रकृति को अपने आदर्श के रूप में देखते हैं और अपनी कला में उससे जुड़े विचारों को व्यक्त करने का प्रयास करते हैं, कुछ ऐसे भी रचनाकार हैं जिनका आदर्श प्रकृति से परे परालौकिक है , यह एक निरंतर साधना का ही परिणाम है जो एक कलाकार को सम्पूर्णता की ओर ले जाती है. 

पश्चिमी चित्रकला के साथ साथ भारतीय चित्रकला की तुलना करते हुए विवेकनद जी कहते हैं कि “पश्चिम में कुछ ऐसे भी चित्रों का निर्माण हुआ है जिन्हें देखकर आप भूल जायेंगे कि वास्तविक प्राकृतिक वस्तुए हैं . भारत में भी यह देखने को मिलता है. विशेषकर जब आप प्राचीन भारतीय कला को देखते हैं तो उसमे एक उच्च आदर्श दिखाई पड़ता है. हालाँकि समय के साथ पूरी दुनिया में कला व उसकी अभिव्यक्ति प्रभावित हुई है. पश्चिम में भी पहले की भांति उत्कृष्ट चित्र नहीं बनते . यदि हम भारत की बात करें तो यहाँ की कला में भी मौलिक विचारों की अभिव्यक्ति वर्तमान में काम देखने को मिल रही है, विशेषकर कला महाविद्यालयों में कला विद्यार्थियों द्वारा निर्मित चित्रों में . हमें पश्चिमी कला का अनुकरण करने से बचना होगा और पुनः भारतीय संस्कृति की महत्ता व उसके उच्च आदर्शों को नए तरीके से स्थापित कर उन्हें नवीन रूप में चित्रित करना होगा. 

इस प्रकार स्वामी विवेकानंद जी जहाँ एक ओर तर्क और ज्ञान की बात करते हैं वहीँ दूसरी ओर मानव ह्रदय से स्पंदन की भी बात करते हैं जो विविध कलाओं में प्रदर्शित होता है. वह मानव को सम्पूर्णता में देखने का प्रयास करते हैं और उसके लिए उसे प्रेरित भी करते हैं . वह भलीभांति जानते हैं कि मष्तिष्क के साथ साथ मानव मन भी संवेदनशील और  सकारात्मक उर्जा से स्पंदित होना चाहिए और यह तभी संभव हो सकता है जब वह ज्ञान विज्ञान के साथ साथ कला संगीत और साहित्य में निपुण होगा.


मिठाई लाल 

सहायक आचार्य,

इंस्टीटूट ऑफ़ फाइन आर्ट्स,                   

छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर.

मो. नं. 8840274431 


            


 


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