गंगा
प्रसाद विमल का जन्म 03 जुलाई 1939 को उत्तरकाशी
(उत्तराखंड) में हुआ । प्रारंभिक शिक्षा उत्तरकाशी में
ही उन्होने पूरी की । फ़िर पंजाब विश्वविद्यालय समेत कई भारतीय
विश्वविद्यालयों द्वारा आपने अपनी उच्च शिक्षा
पूर्ण की । इनकी शिक्षा गढ़वाल, हृषिकेश, इलाहाबाद, यमुनानगर
एवं पंजाब विश्वविद्यालय जैसी अनेक जगहों पर हुई। आप शुरू से ही एक प्रतिभावान विद्यार्थी थे । रचनात्मक
मनोवृत्ति होने के
कारण इनके व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास तमाम साहित्यिक क्षेत्रों में हुआ। सन 1963 में "समर
स्कूल ऑफ़ लिंगुइस्टिक्स", उस्मानिया
विश्वविद्यालय, हैदराबाद में आप अध्ययनरत रहे । सन 1965
में डॉक्टर ऑफ़ फ़िलॉसॉफ़ी/ PhD की उपाधि आप
ने प्राप्त की । इसी वर्ष आप का विवाह 05
फ़रवरी 1965 को कमलेश अनामिका के साथ संपन्न हुआ, जिनसे आप को दो सन्तानें
आशीष (1969) और कनुप्रिया (1975) हुई।
विमल जी ने उपन्यास, निबंध, कविता, नाटक, अनुवाद
समेत कई विधाओं में लेखन कार्य किया । आप के जो कविता संग्रह प्रकाशित हैं उनमें
बोधि-वृक्ष, नो सूनर, इतना कुछ, सन्नाटे
से मुठभेड़, मैं वहाँ हूँ, अलिखित-अदिखत, कुछ तो है
प्रमुख हैं । कोई शुरुआत, अतीत में
कुछ, इधर-उधर, बाहर न
भीतर और खोई हुई थाती आप के प्रकाशित कहानी संग्रह हैं । अपने से अलग, कहीं कुछ
और, मरीचिका, मृगांतक
आप के प्रकाशित उपन्यास हैं ।"आज नहीं कल" शीर्षक से आप का एक नाटक भी
प्रकाशित हो चुका है । आप के आलोचनात्मक ग्रंथों में प्रेमचंद, समकालीन
कहानी का रचना विधान, आधुनिकता : साहित्य का संदर्भ इत्यादि प्रमुख हैं । इनके अतिरिक्त आप के संपादन में कई
पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जैसे कि
अभिव्यक्ति, गजानन माधव मुक्तिबोध का रचना संसार, अज्ञेय का
रचना संसार, लावा (अंग्रेजी), आधुनिक
कहानी, सर्वहारा के समूह गान, नागरी
लिपि की वैज्ञानिकता, वाक्य विचार इत्यादि । आप के द्वारा
अनुदित पुस्तकों में इतनो किछू, लिव्ज
वेयर एंड अदर पोएम्स प्रमुख हैं ।
गंगा प्रसाद विमल अपने दो परिजनों के साथ दक्षिण
श्रीलंका में दिनांक 23
दिसंबर 2019 को एक सड़क दुर्घटना का शिकार
हुए । इस दुर्घटना में 80 वर्षीय विमल जी का निधन हो गया । इस सड़क हादसे में विमल के साथ उनकी
पुत्री कनुप्रिया और नाती श्रेयस का भी निधन हो गया। दुर्घटना के समय वे मटारा से
कोलंबो की यात्रा कर रहे थे। बाद में
जो जानकारी श्रीलंका पुलिस के द्वारा आधिकारिक तौर पर मिली, उसके अनुसार विमल जी की गाड़ी के ड्राइवर को गाड़ी चलाते समय नींद आ
गई थी, जिससे उनका वाहन एक लॉरी से टकरा गया। एक श्रेष्ठ
साहित्यकार इस तरह हमारे बीच से चला गया । लेकिन अपने अमूल्य साहित्य के माध्यम से विमल जी हमेशा हमारी स्मृतियों में
रहेंगे ।
हिन्दी उपन्यासों की समीक्षा दृष्टि को
लेकर एक भारी असंतोष अक्सर कथाकारों के अंदर देखा गया है। अमरकांत जैसे उपन्यासकार
यह मानते हैं कि हिन्दी उपन्यासों की समीक्षा या आलोचना दृष्टि उस तरह से विकसित
नहीं हुई, जिस तरह उसे होना चाहिए था। इसबारे में समय समय पर विद्वान अपनी बात रखते
ही रहे हैं । विजयमोहन सिंह का एक लेख ‘उपन्यास में विचार’ नामक शीर्षक से ‘नया ज्ञानोदय’
के नवम्बर 2006 के अंक में छपा। वे इसी संदर्भ में अपनी बात रखते हुए लिखते हैं कि
‘‘यह नहीं भूलना चाहिए कि उपन्यास अंततः और मूलतः एक रचनात्मक विधा है और उसमें
‘विचार’ प्रसंग के अनुरोध से आते हैं, और चूंकि उसमें अक्सर कई प्रकार के चरित्रों को आमने-सामने रखा जाता है
जिससे एक वैचारिक द्वंद्व और ऊर्जा उत्पन्न होती है, उसका इस्तमाल अपने लिए पक्ष या
प्रतिपक्ष बनाने के लिए नहीं करना चाहिए। हाँ यदि उपन्यासकार ने किसी चरित्र विशेष
को अपना प्रवक्ता बनाने के लिए प्रस्तुत किया है तो उससे लेखक के जीवन वर्णन या
जीवन के प्रति उसके रूख का पता जरूर चलता है। लेकिन फिर भी उपन्यास की रचनात्मकता
उससे असम्पृक्त ही रहती है।...” लेकिन विमल जी जैसे उपन्यासकार मृगान्तक जैसे
उपन्यास के माध्यम से चरित्र और परिवेश के बीच ऐसा ताना-बाना बुनते हैं कि वहाँ
कलात्मक कृतिमता दिखाई ही नहीं पड़ती । यह इस उपन्यास की एक महत्वपूर्ण खूबी मानी
जा सकती है ।
हम जानते हैं कि साठ के दशक के बाद सामाजिक,आर्थिक एवं राजनीतिक स्तर पर भारतीय
समाज बहुत बदल रहा था । सरकारी योजनाएँ विफल हो रहीं थीं । चीन के साथ युद्ध में
मिली पराजय से मोह भंग जैसी स्थितियाँ सामने थीं । हताशा, निराशा और कुंठा के बीच प्रदर्शन एवं
आत्म प्रवचन का जीवन मध्यम एवं निम्न मध्यम वर्गीय जीवन की सच्चाई थी । समाज की
इसी मनोदशा को अपने उपन्यासों के माध्यम से प्रस्तुत करने वाले लोगों में मोहन
राकेश, राज कमल चौधरी, महेंद्र भल्ला, उषा प्रियंवद, रमेश बक्षी और गंगा प्रसाद विमल प्रमुख रहे । इस बीच विमल जी के चार
उपन्यास प्रकाशित हुए । मृगांतक सन 1978 में प्रकाशित हुआ । एक शोधार्थी के वृतांत
को उपन्यास के कथानक के रूप में बड़ी ही रोचकता के साथ विमल जी ने प्रस्तुत किया है
। लगातार सभ्य होता हुआ मनुष्य अपनी पशुता से छुटकारा नहीं ले पा रहा है । अशिक्षा, गरीबी, धर्मांधता और तंत्र मंत्र इत्यादि किस
तरह उसके मार्ग में बाधक बने हुए हैं, इसे इस उपन्यास के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है ।
टाइगर तंत्रा सन 1978 में
प्रकाशित आप के हिंदी उपन्यास मृगांतक का अंग्रेजी संस्करण है जो वर्ष 2010 में
प्रकाशित हुआ । इस उपन्यास पर आधारित एक फ़िल्म " Bokshu The Myth" काफ़ी
चर्चित रही ।यह फिल्म वर्ष 2002 में
रिलीज़ हुई थी । यह
उपन्यास उस भारतीय तंत्र परंपरा के विश्वास की पड़ताल है जिसके अनुसार तंत्र साधना
से व्यक्ति जानवर का रूप ले सकता है । ऐसे व्यक्ति / साधक को ही “बोक्षु” कहा जाता
है । इस संदर्भ में लेखक ने एक अंग्रेज़ –मैकटॉफ का भी जिक्र किया है । इस अंग्रेज़ को अजब सनक थी,वह पूर्वीय
क्षितिज के तमाम रहस्यों को समझना चाहता था
। लेकिन बाद में हिमालय की घाटियों और पर्वत शृंखलाओं के बीच यह अंग्रेज़ जाने कहाँ
खो जाता है ।
बोक्षु
विद्या से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण
सूचनाएँ लेखक को इन्हीं
मैकटॉफ साहब के ग्रंथों में मिलती हैं और वे
इससे प्रभावित भी होते हैं । एक और नाम का जिक्र लेखक करते हैं - डेविड चेम्बरलिन का । इन दोनों अंग्रेज़ खोजी विद्वानों के माध्यम से लेखक यह जान पाता है कि
बोक्षुविद्या का अस्तित्व है तथा इससे जुड़ी हुई कोई मूल पांडुलिपि भी है जो खोजी जानी बाकी है । अपने तमाम अध्ययन,अनुमान और अनुसंधान के आधार पर लेखक इस नतीजे पर पहुँचता है कि ‘जलेड’ नामक तीर्थस्थान / मंदिर में ऐसी कोई पाण्डुलिपि ज़रूर मिलेगी । लेकिन इस “जलेड” नामक स्थान का पता लगाना बहुत बड़ी चुनौती थी । लेकिन अपनी
साहसिक यात्राओं के द्वारा लेखक इस स्थान का पता लगाने में कामयाब हो जाता है ।
बोक्षु विद्या के संदर्भ में इस उपन्यास के माध्यम से लेखक बताते हैं कि यह एक ऐसी कला है
जिसके माध्यम से साधक व्यक्ति बोक्षु अर्थात बाघ का रूप धारण कर सकता है। वैसे तो यह बहुत रहस्यपूर्ण साधना है, लेकिन ऐसा
माना जाता है
कि तंत्र-मंत्र की दुनिया में यह सबसे सरल साधना है जिसे मनुष्य थोड़े ही समय में
सिद्ध कर सकता है। महत्वपूर्ण
यह नहीं कि इस साधना द्वारा व्यक्ति रूप बदल सकता है अपितु इससे वह अमरत्व को भी
प्राप्त कर सकता है । बोक्षु साधना के बाद एक वर्ष तक साधक को कोई रोग, आघात, या कोई भी वस्तु नहीं मार सकती ।
इसतरह एक अल्प से समय
की साधना के बाद साधक अपनी उम्र
में एक नया वर्ष पर
जोड़ सकता है जो कि अमरत्व से भरा होगा । अमरत्व की इसी लालसा में देश विदेश के कई लोग हिमालय की तराइयों, कामरूप, भास्कर
पीठ, नेपाल, ज्ञान लोक
और तिब्बत की यात्राओं,लामा बाबा, तांत्रिकों,प्राचीन पुस्तकालयों इत्यादि की ख़ाक छानते रहे ।
इन्हीं यात्राओं के आकर्षण में लेखक भी पड़ता है । वह भी इस तांत्रिक विद्या
को जानना चाहता है । इसके लिए वह हर ख़तरा उठाने के लिए तैयार हो जाता है । स्वामी
विशुद्धानंद, कविराज गोपीनाथ, कुसुंपति, नारकंडा, लामा बाबा, श्रीमान सूद, कीर्तिबाई इत्यादि के माध्यम से होते हुए लेखक मनि राम तक पहुँचता है ।
वही मनि राम जिसका अपना गाँव है – जलेड । पहाड़ी
रास्ता बंद होने पर मनि राम के साथ लेखक पैदल दूरांत, निर्जन
घाटियों, जंगलों के रास्ते अपनी मंज़िल तक पहुँचने का रोचक वर्णन करते हैं । उस गाँव में पहुँचकर रहस्य से भरे खंडहर और मंदिर का रोमांचकारी वर्णन है ।
यहीं तांत्रिक सर्वदानंद भी मिलते हैं जिनकी साधना खुद एक रहस्य है । उनकी सेविका
रिखली देई लेखक और मनि राम के भोजन इत्यादि का प्रबंध करती है । मंदिर के पुस्तकों
और लिपियों को देखकर लेखक को कई रोचक जानकारी मिलती है । जैसे कि बोक्षु
विद्या जिस भी लिपी में अंकित है- उसके अक्षर कोई भी व्यक्ति, चाहे उसकी अपनी भाषा कोई भी हो, पढ़ सकता
है। अर्थात् वह एक ऐसी लिपी है जिसे विश्व लिपि माना जा सकता है ।
जलेड के मंदिर और आस-पास का वातावरण एकदम रहस्यमय है । यहाँ पहुँच कर एक
बार लेखक को आशंका होती है कि क्या वो उसी जगह हैं, जिसकी उन्हें इतने दिनों से तलाश थी ? वहाँ एक अजीब सी विरानी छायी रहती थी
। मंदिर के बाहर एक रजिस्टर है जिसमें सैकड़ों लोगों का नाम दर्ज़ है । ये उन
आगंतुकों के नाम हैं जो कभी इस मंदिर में आये हुए हैं । कई विदेशियों के नाम भी
हैं । कई अघोरी तांत्रिक भी खास अवसरों पर पूजा पाठ और तंत्र साधना के लिये आते
रहते हैं । मंदिर में लकड़ी की कई बड़ी – बड़ी संदूकें हैं जिनमें कई प्राचीन ग्रंथ
रखे हुए हैं । अधिकांश ग्रंथ चोरी भी हो चुके हैं ।
अपने ख़ोज बीन के दौरान लेखक को उन
लोगों के नाम भी पता चलते हैं जो मंदिर की सामग्री चुराने के लिये जिम्मेदार थे ।
इन्हीं सब कारणों से ग्राम पंचायत ने यह नियम बना लिया था कि जिस किसी भी आगंतुक
को मंदिर की वस्तुओं को देखना होगा, उसे पहले लिखित रूप में अनुमति लेनी होगी । लेखक अनुमति के लिये
नियमानुसार अपनी अर्जी तो लगा देता है लेकिन कई तरह की आशंकाओं से भर जाता है ।
उसे लगता है कि उसे जो चाहिये वह संभवतः यहाँ ना मिले । वह तराई की तरफ़ ढलान के
खंडहर भी इस उम्मीद में हो आता है कि शायद वहाँ कुछ मिल जाये । लेकिन मनि राम उसे
ऐसा दुबारा ना करने की बात करता है । गाँव के नियमानुसार उस खंडहर में भी बिना
अनुमति कुछ खोज़ना या खुदाई जैसा कार्य नहीं किया जा सकता था । अतः लेखक उसकी
अनुमति हेतु भी प्रक्रिया पूरी करता है । इन पाबंदियों के लिये शायद बहुत देर हो
चुकी होती है, लेकिन लेखक उम्मीद नहीं छोडता । तमाम आशंकाओं के बीच भी उसे लगता है कि
शायद उसका काम हो जाये ।
ख़ोज बीन की जटिलताओं और परेशानियों के
बीच लेखक को सर्वदानंद का व्यवहार भी बहुत विचित्र और असहज़ लगता है । यद्यपि
सर्वदानंद उनकी पूरी मदद करता है और स्थानीय लोगों से भी लेखक की सहायता करने को
कहता है । जाने-अनजाने ख़तरों से भी वह लेखक को आगाह करते रहता है । नाग-गंगा की
बाढ़ और उससे इलाके के जन जीवन पर होने वाले प्रभाव से सर्वदानंद लेखक को अवगत
कराता है । वह बताता है कि जलेड ओझा लोगों का गाँव था जिन्होंने देवी माँ को नाराज़
कर दिया था । परिणाम स्वरूप उन सब को यह स्थान छोडकर भागना पड़ा । लेकिन बीच-बीच
में वे लोग माँ के दर्शन और अपने पूर्वजों द्वारा हुए अपराधों की क्षमा याचना हेतु
आते रहते हैं । लेखक के साथ आया हुआ मनि राम ऐसे ही लोगों में से एक है । वे यहाँ
आ तो सकते हैं लेकिन स्थायी रूप से बस नहीं सकते । ऐसी ही कई अन्य बातों से लेखक
तांत्रिक सर्वदानंद के माध्यम से अवगत होता है । रात को जंगली जानवरों, विशेष रूप से बाघ के हमले से सावधान
रहने की बात इन सब में सबसे महत्वपूर्ण थी ।
सर्वदानंद किस उद्देश्य से इतनी कड़क तंत्र साधना कर रहा है, यह बात लेखक को आशंकित किये हुए थी ।
यहाँ तक कि रिखली देई को भी इस संदर्भ में कुछ पता नहीं था । सर्वदानंद
रात को अकेले नदी किनारे साधना करने जाता है और मध्य रात्रि के बाद लौटता । कई बार
तो वह पूरी तरह नग्न अवस्था में घर आता । लेखक को यह आशंका होने लगी कि कहीं
सर्वदानंद ही तो बोक्षु नहीं ? रिखली देई आत्मानंद से प्रेम करती थी, लेकिन उनकी सामाजिक परंपरा के अनुसार
सर्वदानंद अधिक मूल्य देकर उसे अपनी साधना में सहायता हेतु ख़रीद लेता है । गरीब
आत्मानंद कुछ नहीं कर पाता । लेकिन रात में जब बोक्षु आत्मानंद को बुरी तरह घायल
कर देता है तो रिखली देई दुख से भर जाती है । उसे भी यह आशंका होने लगती है कि यह
सब सर्वदानंद ने ही किया होगा । हो सकता है वही बोक्षु हो या बोक्षु होने की ही
तांत्रिक साधना में लगा हो ।
अतः जब मनि राम और सर्वदानंद आत्माराम को लेकर डॉक्टर के पास जाने के लिये
निकलते हैं तो वह लेखक के साथ एक अप्रत्याशित व्यवहार करती है । वह सर्वदानंद से
इसका बदला लेने के लिए लेखक के साथ उस रात हम बिस्तर होती है । उसका यह व्यवहार
आत्माराम के प्रति उसके प्रेम को अभिव्यक्त करता है । वह ऐसा इसलिए करती है ताकि सर्वदानंद की साधना
भ्रष्ट कर सके । उपन्यास में लेखक ने रिजिया शाह जैसे लोगों का भी वर्णन किया है
जो बड़ी चालाकी से मंदिर से जुड़ी किताबों एवं क़ीमती पुरानी वस्तुओं का सौदा करते
हैं । लेखक जब उनसे मिलने जाता है तो शाह बड़ी चालाकी से उनसे भी सौदेबाजी करने की
कोशिश करता है । गाँव के गरीब और लाचार लोगों को शाह अपने शोषण के चक्र में फसाये
रखता है । ऐसे लालची लोगों की वजह से ही मंदिर की बहुत सी अमूल्य वस्तुएं चोरी हो
गई थीं । आश्चर्य की बात यह कि ऐसे लोगों पर माँ का श्राप नहीं लगा था । वे वहीं
रहते हुए अपने शोषण और दमन के चक्र को बड़ी चालाकी से संचालित कर रहे थे ।
एक रोचक प्रसंग नक्छेदा की माँ से
मिलने का भी है जो एक ही घटना के घटित होने के पीछे कई संभावनाओं के होने से इंकार
नहीं करती । अपने दादा के बोक्षु होने और अपनी ही बेटी को मारने के संदर्भ में वह
कई संभावनाओं की चर्चा करती है । वह एक तरफ़ उन्हें भीरु बताती है तो दूसरी तरफ़ यह
तर्क भी रखती है कि कोई बाप कितना भी कायर क्यों न हो, लेकिन वह अपनी बेटी को अपनी आखों के
सामने मरने के लिये कैसे छोड़ सकता है ? फ़िर यह भी कि हो सकता है अपनी कायरता को छिपाने के लिये ही उन्होने बोक्षु
वाली बात लोगों के बीच उड़ाई हो । अपनी तमाम बातों के बीच वह बूढ़ी औरत मानो लेखक को
यह बताना चाहती हो कि कुछ होने न होने के बीच में संभावनाओं का एक अनंत आकाश होता
है । जहां तर्क,व्यवहार और सुविधा के आधार पर कई क़िस्से समय के मेले का हिस्सा होते हैं ।
ऐसे में किसी एक सत्य की तलाश शायद न हो सके लेकिन वांछित सत्य को अधिक पुष्ट
अवश्य किया जा सकता है । बड़े ही सामान्य तरीके से वह महिला लेखक को गहरी दर्शनिकता
में उलझा रही थी ।
अपनी तमाम ख़ोज बीन के बाद लेखक उस “जलेड” से
लौटने का मन बना लेता है । यह मानते हुए कि वह जगह पहाड़ों और अतीत की एक जेल है
जहां संभवतः वह दुबारा कभी लौटना ना चाहे । इस तरह इस उपन्यास के माध्यम से लेखक
यह बताने की कोशिश करता है कि मनुष्य अपने अंदर के जानवर को जगाकर कोई अमरत्व
प्राप्त कर पाता है या नहीं इस पर विवाद हो सकता है लेकिन उसकी लालसा उसे इस तरफ़
ढ्केलती ज़रूर है । इस गल्प के माध्यम से लेखक मानवीय स्वभाव के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
का भी प्रयास कई संदर्भों के माध्यम से करते हैं । जीवन की जटिलताओं में लालसा, व्यवहार और मनोवृत्ति के ताने-बाने को
समझने के एक प्रयास के रूप में भी इस उपन्यास को देखा जा सकता है । यह उपन्यास
रचनात्मक कौशल के साथ-साथ अर्थ और विवेचना के कई आयाम भी प्रस्तुत करता है ।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
हिन्दी व्याख्याता
के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय
कल्याण – पश्चिम, महाराष्ट्र
संदर्भ :
3.
https://samalochan.blogspot.com/2019/12/blog-post_26.html
4.
https://www.dainiktribuneonline.com/news/archive/
5.
http://www.argalaa.org/issue.php?issue=july2009&category=Anusrijan&author=Ganga%20Prasad%20Vimal
6.
http://shodhganga.inflibnet.ac.in:8080/jspui/bitstream/10603/68196/8/08_chapter%203.pdf
7.
https://www.kafaltree.com/obituary-to-gangaprasad-vimal/
8.
Tiger Tantra – Ganga Prasad Vimal, Global Vision Press, New Delhi 2010
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