भाषा विशेष के संदर्भ में अश्लील, अशिष्ट, बुरी, अपमानजनक, असभ्य, भद्दी, गँवारू और फूहड़ जैसी शब्दावली का उपयोग जब होता है तो उसकी चोट उस ‘समाज’ पर होती है जिसका प्रतिनिधित्व वह भाषा कर रही है । अक्सर एक ही समाज के किसी अलग वर्ग या समूह की भाषा को इसतरह अपमानित किया जाता है । नागरी समाज की भाषा सभ्य और कुलीन तो ग्राम्य समाज की भाषा भद्दी और गँवारू । ‘अपनी भाषा’ अच्छी तो बाहरी या दूसरे प्रांतों / क्षेत्रों के लोगों की भाषा को बुरी भाषा मानने की परंपरा भी विश्व भर में प्रचलित है । भाषा शुद्धता के आग्रही सधुक्कड़ी या खिचड़ी भाषा को भी अनुचित ही मानते हैं । बड़े वृत्त की भाषाएँ छोटे वृत्त की भाषाओं को हमेशा से कमतर आँकती रही हैं । बावजूद इसके हर भाषा में आप को असभ्य /अश्लील शब्दावली मिल जाती है। कोई भी भाषा अपने आप को इनसे अलग नहीं कह सकती । हमारे यहाँ तो गाली एक लोक विधा के रूप में प्रचलित रही है । उत्तर भारत में शादी ब्याह जैसे मांगलिक - शुभ अवसरों पर गारी गाने की परंपरा बहुत पुरानी है ।
संस्कृत साहित्य में देखें तो भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में लज्जास्पद बातों का निषेध किया । आचार्य भामह ‘काव्यालंकार’ में ग्राम्य शब्दों को निषिद्ध मानते हैं । आचार्य वामन ने लज्जा, घृणा उत्पन्न करनेवाले एवं अमंगल की सूचना देनेवाले शब्द को काव्य के संदर्भ में अश्लील माना है । बावजूद इसके ऋग्वेद से लेकर बीसवीं शती तक के संस्कृत साहित्य में ऐसी बुरी भाषा या शब्दावली की कोई कमी नहीं है । संस्कृत साहित्य में तो अनुष्ठान के एक अंग के रूप में गालियों का प्रयोग होता रहा है । क्षेमेन्द्र ने ‘कला विलास’ में गणिकाओं के धनापहरण के कौशलों को , गवैयों के हथकण्डों को , गणकों की धूर्तताओं की चर्चा करते हुए उपशब्दों का भरपूर प्रयोग किया है । ऐसे ही उदाहरण अरबी, फ़ारसी और तुर्की जैसी भाषाओं में भी समान रूप से मिलते हैं । मादर, हराम, वकूफ, शातिर अरबी के शब्द हैं जिनसे हिन्दी में कई गालियों या अपमानजनक शब्दों का सृजन हुआ । हालांकि मूल रूप में इन शब्दों का अर्थ बड़ा शिष्ट है । ‘मादर’ माँ के लिए, हराम अर्थात निषिद्ध या विधि विरुद्ध। वकूफ अर्थात रुकना या डटे रहना। बे-वकूफ वह जो बिना रुके कोई काम करता है, जैसे लगातार बोलना । शातिर शब्द शतरंज के खिलाड़ी के लिए प्रयुक्त होता था लेकिन अब इसका प्रयोग चालाक या धूर्त के रूप में होने लगा है । इसी तरह फ़ारसी का एक शब्द है चूली अर्थात कायर या नामर्द । इसी चूली से चूलिया और फ़िर चूलिया से हिन्दी में जो शब्द आया वह अपशब्द के रूप में धड़ल्ले से इस्तमाल हुआ ।
कहने का अभिप्राय यह है कि अपमानजनक या अश्लील शब्दावली हर भाषा का सत्य है । भाषा को बिगाड़ने का जिम्मेदार सिर्फ़ अनपढ़ लोगों को बताना उचित नहीं है । पढे लिखे विद्वानों, लेखकों इत्यादि का भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान है । समाज में व्यक्ति अपनी हताशा, निराशा, कुंठा के साथ – साथ अपनी श्रेष्ठता के मद में भी अपमानजनक या अश्लील भाषा का उपयोग करता रहा है । तीक्ष्ण, अप्रिय और अपमानित करने वाले शब्दों को अशिष्ट या गाली के रूप में देखा गया । गालियाँ जाति-बोधक, संबंध बोधक, पशु पक्षियों से तुलना करती हुई , स्त्री की यौनिकता को केंद्र बनाकर अथवा मानव की विकलांगता या उसके स्वभाव, शारीरिक बनावट इत्यादि से जुड़ी हुई होती हैं । सभ्य समाज में इन गालियों को शोभनीय नहीं माना गया । रामचरित मानस में लक्ष्मण परशुराम को कहते हैं –
वीर व्रती तुम धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।
भाषाई परिवर्तन हमेशा विकल्पों के साथ उपस्थित होता है । ऐसे में वक्ता एक सामान्य परिपाटी एवं आदतन निर्धारित मानकों / तरीकों / स्वरूपों को अपनाता है । वह रूपकों या नये प्रयोगों से बचता है । ऐसे लोग भाषाई नियमों से परे जाने की हिम्मत नहीं करते और जीवन भर इसकी शुद्धता की वकालत करते रहते हैं । शुद्ध, व्याकरणनिष्ठ और स्पष्ट उच्चारण की उनकी सतर्कता हमेशा बनी रहती है । लेकिन भाषा तो बहता नीर है । हर क्षण उसमें कुछ नया जुड़ रहा है तो पुराना छूट रहा है । यह उसका स्वभाव उसकी प्रकृति है । इसे भाषा का गुण और नियति दोनों माना जा सकता है । जिस भाषा रूप को हम ‘बिगड़ी हुई’ मानते हैं, दरअसल उस समाज का लोक चित्त उसी बिगड़े हुए भाषा के रूप में अधिक खिलता है । आम जनमानस तक पहुँचने के लिए इसी भाषा का हांथ पकड़ना पड़ता है । परिवेश और परिस्थितियाँ भाषा का नियंत्रण व्याकरण के हाथों में नहीं रहने देती ।
नागरिकों का बँटवारा उनके द्वारा प्रयोग में लायी जानेवाली भाषा के आधार पर हमेशा से होता रहा है । किंतु इसके आधार पर उन्हीं नागरिकों में नागरिक मूल्यों की कमतरता या अधिकता को नहीं आँका जा सकता । यह ठीक है कि एक मानकीकृत शिष्ट भाषा के साथ आप प्रशासनिक कार्यों एवं व्यवहार में अधिक दक्ष हो जाते हैं । प्रशासनिक संगति बिठाने में ऐसी भाषाएँ महत्वपूर्ण होती हैं । इस तरह ऐसी भाषा शासन और सत्ता के निकट बने रहने का एक कारगर हथियार बन जाती हैं । एक ‘सांस्कृतिक उत्पाद’ के रूप में परिष्कृत एवं परिमार्जित भाषा का रूप हमेशा ही ‘फ़ायदे का सौदा’ रहा है । अतः लोग इसकी तरफ़ आकर्षित होते हैं और ‘अवसर एवं प्रभाव की भाषा’ के रूप में इसे खुले दिल से स्वीकार करते हैं । इतना तो निश्चित है कि किसी भाषा की श्रेष्ठता के मूल में सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ अधिक महत्वपूर्ण होते हैं ।
भाषाई कुलीनतावाद आप को अधिक सभ्य दिखने, सम्पन्न होने एवं प्रशासन के करीब होने का अवसर अधिक देता है । सत्ता के केंद्र भी काफ़ी हद तक जन संस्कृति और मानकविहीन भाषा को कमतर मानते हैं । बृहद आर्थिक एवं सामाजिक संवादों के लिए साक्षरता एवं भाषा की एकरूपता बहुत बड़ी जरूरत है । सत्ता के केन्द्रीकरण और कानून के पालन के लिए भी यह ज़रूरी है । भारत में यह काम एक जमाने में फ़ारसी ने बख़ूबी किया । मुगल अपने घरों में तुर्की, प्रशासनिक कार्यों में फ़ारसी और मस्जिदों में अरबी भाषा का उपयोग करते थे । अंग्रेज़ों ने फ़ारसी, हिंदुस्तानी, हिन्दी और उर्दू से काफी दिनों तक काम चलाया । फिर उन्होने अँग्रेजी को सत्ता की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया । हम जुबान सब को पसंद होते हैं, इसे आज की बाजारवादी संस्कृति अच्छे से समझती है । उसके लिए वह भाषा अधिक महत्वपूर्ण है जिसका बाजार अधिक बड़ा है । यही कारण है कि भारतीय भाषाओं का वैश्विक स्तर पर उपयोग बढ़ा है । विशेष रूप से विज्ञापन, मीडिया और सिनेमा के क्षेत्र में । यहाँ भाषा की उत्कृष्टता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण उसकी व्याप्ति हो गई है ।
भाषा का बुनियादी उपयोग प्रश्न पूछने और उसका उत्तर प्राप्त करने से है । भाषाई प्रश्न, भाषा के अन्य स्वरूपों के साथ संगति बैठाने का मामला अधिक है । जो भाषा कक्षा में पढ़ते हुए उपयुक्त है, वह घर पर नहीं । जो भाषा कार्य क्षेत्र के लिए उपयुक्त है वह दोस्तों के साथ गपशप के लिए नहीं । जो भाषा राजनीति के लिए उपयुक्त है वह राजनीतिक कूटनीति के लिए नहीं । यह स्पष्ट है कि ‘भाषा के उपयोग की कला’ एक विवेकपूर्ण एवं जटिल निर्णय होता है । भाषा के पास हमेशा वह जगह सुरक्षित रहती है जहां परंपराओं एवं नवाचारों की संलग्नता को स्वीकार किया जा सके । जन संस्कृति, गैर मानकीकृत भाषा के पास भी ऐसा बहुत कुछ होता है जिसपर वह समाज गर्व कर सके । भाषाई अध्ययन में शिष्ट – अशिष्ट से अधिक ‘संलग्नता की संस्कृति’ की व्याख्या निरंतर होती रहनी चाहिए । इस तरह का अकादमिक दखल अधिक समाजोपयोगी होगा ।
बुरे प्रभाओं, प्रसंगों, अशिक्षा और सामाजिक क्षरण को हम अशिष्ट भाषा का कारक मान लें तो भी इस तरह के भाषिक इकाई के उत्थान के लिए सकारात्मक प्रयास ज़रूरी है । भाषा के सामाजिक इतिहास को खंगालते हुए, समाज भाषा को मूल्यांकन का आधार बनाते हुए हम ऐसी पहल कर सकते हैं । यह किसी भी उन्नत, उदार, प्रगतिशील और मानवीय मूल्यों में निष्ठा रखने वाले समाज के लिए बहुत ज़रूरी है । अशिष्ट या अपमानजनक समझी जानेवाली भाषा के अंदर लैंगिकता, जातीयता, धर्म और व्यक्तिगत अक्षमताओं को आधार बनाकर ऐसे शब्द कहे जाते हैं जो अपने शब्द रूप में अधिकतर निरर्थक होते हैं । लेकिन ऐसे शब्दों, वाक्यों को सुननेवाला क्रोध में आ जाता है । वह अपने आप को अपमानित महसूस करता है । वैसे भी कहते हैं कि ठंड और बेज़्जती जितना महसूस करो उतनी ही बढ़ती जाती है । कहने का अभिप्राय यह कि कहे हुए अपमानजनक शब्दों से कहीं अधिक यह व्यक्ति की संवेदनशीलता पर निर्भर करता है कि वह किसी बात पर कितना अपमानित महसूस करता है ? भाषा आग की तरह है । इसमें आप हांथ सेंक भी सकते हैं और जला भी सकते हैं । कब, कहाँ, कैसी और कितनी भाषा का उपयोग करना है यह एक जटिल और विवेकपूर्ण निर्णय होता है ।
सार्वजनिक स्थानों पर अश्लील या अपमानजनक भाषा के इस्तमाल पर रोक इसी उद्देश्य से लगायी जाती है कि ऐसे स्थानों पर प्रशासन या उनके प्रतीकों की कुशल कार्यप्रणाली पर इसका अनुचित प्रभाव न पड़े । व्यवस्था को सुचारु रूप से कार्यशील बनाये रखने के लिए यह ज़रूरी समझा गया होगा । यह बात राज सत्ता और धर्म सत्ता पर समान रूप से लागू होती है । सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं एवं बच्चों को ऐसी भाषा से बचाना भी ज़रूरी समझा गया होगा । अधिकांश देशों में आज भी ऐसे नियम हैं कि महिलाओं, बच्चों और जाति विशेष के व्यक्ति के संदर्भ में अनुचित बात कहने पर क़ानूनन दंड दिया जा सकता है । हमारा देश भी इसका प्रमाण है । कार्यक्षेत्र में / सार्वजनिक स्थलों पर अपमानजनक बात या अश्लील हरकतें भी अपराध की श्रेणी में आते हैं ।
अश्लील, अशिष्ट भाषा का उपयोग जितना अनुचित माना जाता है उतना ही बड़ा सच यह भी है कि यह एक साहसिक कार्य है । भारत में कई राजनीतिक क्षेत्रीय पार्टियां हैं । भूमिपुत्रों और क्षेत्रीय अस्मिता का प्रश्न ये बड़े ज़ोर-शोर से उठाती हैं । ऐसा करते समय ये भाषा की सारी मर्यादाएं तार-तार कर देते हैं । नफ़रत और हिंसात्मक बातों का खुले आम प्रदर्शन होता है । ऐसा करने से वह नेता ‘अपने लोगों’ के बीच अधिक लोकप्रिय बनता है । तामिलनाडु में हिंदी विरोध, महाराष्ट्र और असम जैसे राज्यों में हिंदी भाषी लोगों का विरोध इसका उदाहरण है । इसी तरह कट्टर हिंदू या मुस्लिम नेता अपनी आम सभाओं में दूसरे धर्म के लोगों के प्रति अशिष्ट एवं अपमानजनक बातें कहने में कोई कसर नहीं छोडते । यह सब एक सोची समझी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा होता है । कई बड़े कश्मीरी नेताओं का भारत विरोधी आम बयान भी इसी श्रेणी में आता है ।
नफ़रत की यह राजनीति भारतीय राजनीति का एक घिनौना किंतु ‘कामयाब फ़ार्मूला’ रहा । इससे स्पष्ट है कि ऐसी भाषाओं के उपयोग के पीछे सिर्फ़ भावुकता या क्रोध नहीं अपितु प्रभाव, अधिकार, पहचान एवं सोची समझी रणनीति का भी योगदान होता है । लोग बड़ी चालाकी से इसका उपयोग करते हुए अपने उचित-अनुचित स्वार्थ को सिद्ध करते हैं । भाषा में बढ़ता हुआ खुलापन और साहस विमर्शवादी साहित्य में लोकप्रिय हुआ । अपने समाज के प्रति हुए सदियों के शोषण के खिलाफ़ आवाज उठाने के लिए साहित्यकारों को यही भाषा अधिक उपयुक्त लगी । दलित साहित्य में आक्रोश की कविताओं की भाषा ऐसी ही रही । अन्याय के प्रतिकार के रूप में भी ऐसी भाषा को उचित ही माना जाना चाहिए । यहाँ भी यह बात स्पष्ट है कि अपने प्रयोजन के लिए भाषा का कलात्मक उपयोग अधिक महत्वपूर्ण होता है ।
धर्म और राजसत्ता की व्यवस्था, मान्यताओं के खिलाफ़ जिसने भी आचरण किया, उसे निकृष्ट मानकर उसके लिए कई ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया जो अशिष्ट और अपमानजनक रहीं । धीरे धीरे अशिष्ट भाषा ‘वर्ग प्रतीक’ के रूप में भी उभरने लगी । अशिष्ट/ अश्लील और अपमानजनक भाषा के प्रयोग को बढ़ाने में युद्धों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । विजेता आक्रांता बनके लूट और हिंसा को बढ़ावा देते थे । स्त्रियों का बलात्कार करके वर्ग विशेष का नैतिक मान मर्दन किया जाता था । युद्धों की धकान और तनाव ने भी अश्लीलता के लिए जमीन तैयार की । स्थानांतरण और शरणार्थियों की समस्याओं ने भी ऐसी भाषा और सोच के लिए उर्वरा का काम किया । पूरे विश्व में इनके प्रति अधिकांश रूप से घृणा का ही भाव रहा ।
हारे हुए देश, समाज या जाति के प्रति घृणा को बढ़ावा दिया जाता रहा । प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिकन, रशियन, जर्मन और ब्रिटिश लोगों के संदर्भ में ऐसे अनेकों उदाहरण खोजे जा सकते हैं । दुश्मन देश के प्रति अपमानजनक बातों की बाढ़ सी आ गई । नए - नए शब्द और मुहावरे गढ़े गए । सन 1971 में पाकिस्तानी सेना द्वारा ऑपरेशन सर्चलाइट बांग्लादेश में चलाया गया । जिसमें करीब 30 लाख लोग मारे गए और अंदाज़न दो लाख महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया । एक करोड़ से अधिक लोग शरणार्थी के रूप में भारत आये । इन शरणार्थियों को भोजन और अन्य सुविधाओं को देने के लिए भारत सरकार को अपना बजट भी 1971-72 और 1972-73 में 2192 करोड़ से बढ़ाकर 2839 करोड़ करना पड़ा था। इस बात को हम भारत- पाकिस्तान के संदर्भ में भी आसानी से समझ सकते हैं । सन 1947 में भारत के बंटवारे के बाद हिन्दू – मुस्लिम कत्लेआम का सबसे बड़ी क़ीमत महिलाओं को चुकानी पड़ी । एक अनुमान है कि इस दौरान लगभग एक लाख महिलाओं का अपहरण, हत्या और बलात्कार हुआ ।
निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि भाषा के शिष्ट, अशिष्ट, अश्लील या अपमानजनक होने का प्रश्न एक सामाजिक एवं राजनीतिक संदर्भों का विषय है । इसकी अधिक गहन पड़ताल समाज भाषाविज्ञान के माध्यम से होनी चाहिए । कहे गए की अपेक्षा कहने के हेतु या प्रयोजन की चिंता अधिक होनी चाहिए । भाषा के आधार पर किसी समाज या समूह को कमतर आँकना एक बड़ी सामाजिक भूल है । अगर उद्देश्य ठीक हो तो इन शब्दों का सकारात्मक पक्ष भी है । प्रतिकार के साथ – साथ जीवन के राग रंग को समझने में ये सहायक हैं । जो सहज और स्वाभाविक है उसका दमन भी उचित नहीं । अंत में अपनी बात इस शेर से ख़त्म करेंगे -
जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए ।
-जां निसार अख़्तर
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
सहायक प्राध्यापक – हिन्दी विभाग
के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय
कल्याण, महाराष्ट्र ।
डॉ. उषा आलोक दुबे
सहायक प्राध्यापक – हिन्दी विभाग
एम. डी. महाविद्यालय
परेल, महाराष्ट्र ।
संदर्भ सूची :
1. Bad Language: Are some words better than
others? – Edwin L. Battistella, Oxford University Press 2005.
2. Bad Language in Reality-A study of swear words,
expletives and gender in reality television by Anna Fälthammar Schippers.
Göteborgs universities e-publicering.
https://core.ac.uk/reader/20388360
3. Do You
Really Want to Hurt Me? Predicting Abusive Swearing in Social Media, Endang
Wahyu Pamungkas, Valerio Basile, Viviana Patti, Dipartimento di Informatica, University
of Turin. Proceedings of the 12th Conference on Language Resources and
Evaluation (LREC 2020), pages 6237–6246, Marseille, 11–16 May 2020.
4. क्षेमेन्द्र और उनका समाज : डॉ. मोती चन्द्र, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 1984 में प्रकाशित ।
5. भाषा और समाज – रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, 2008 में प्रकाशित ।
6. संस्कृत साहित्य में गालियाँ – राधा वल्लभ त्रिपाठी । https://www.youtube.com/watch?v=54SBYhTfBVA
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