"सनातन" शब्द का प्रयोग बहुत प्राचीन है और यह संस्कृत साहित्य में कई ग्रंथों में मिलता है। लेकिन अगर हम इसकी पहली उपस्थिति की बात करें, तो यह वेदों और उपनिषदों में भी मिल सकता है।
हालांकि, स्पष्ट रूप से "सनातन धर्म" शब्द का प्रयोग सबसे पहले महाभारत में मिलता है। महाभारत के शांति पर्व और अनुशासन पर्व में "सनातन धर्म" का उल्लेख हुआ है, जहाँ इसे शाश्वत और अपरिवर्तनीय धर्म के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
इसके अलावा, मनुस्मृति और अन्य धर्मशास्त्रों में भी "सनातन" शब्द का उपयोग हुआ है, विशेष रूप से हिंदू धर्म की अनादि परंपराओं को व्यक्त करने के लिए। सनातन का शाब्दिक अर्थ ही "शाश्वत" या "सदैव रहने वाला" होता है, जो किसी ऐसे धर्म या विचारधारा को दर्शाता है जो समय से परे है।
1.महाभारत, अनुशासन पर्व (146.13)
धर्मं सनातनं सत्यं, पुण्यं यज्ञसमुद्भवम्।
(अर्थ: सनातन धर्म सत्यस्वरूप है और यज्ञों से उत्पन्न पुण्य का स्रोत है।)
2.गीता श्लोक:
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।। (गीता 1.40)
अनुवाद:
"कुल के नाश होने पर उसके सनातन धर्म नष्ट हो जाते हैं। और जब धर्म नष्ट हो जाता है, तब संपूर्ण कुल अधर्म से भर जाता है।"
3.मनुस्मृति:
मनुस्मृति 4.138
एष धर्मः सनातनः
(अर्थ: यह धर्म सनातन (शाश्वत) है।)
मनुस्मृति में कई स्थानों पर "सनातन" शब्द धर्म के संदर्भ में आया है, जहाँ इसे नित्य और अपरिवर्तनीय रूप में प्रस्तुत किया गया है।
4. योग वशिष्ठ:
सनातनं हि यत्सर्वं योगेन भवति स्थितम्।
(अर्थ: जो कुछ भी सनातन है, वह योग के द्वारा स्थिर होता है।)
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