Saturday, 29 March 2025

एक शब्द में अध्यात्म की परिभाषा

 भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता (अध्याय 9, श्लोक 22) में "योग" शब्द के माध्यम से अध्यात्म की परिभाषा दी है। यह श्लोक इस प्रकार है—

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

अर्थ:

जो भक्त अनन्य भाव से मेरा चिंतन और भजन करते हैं, मैं उनके योग (अर्थात जो उनके पास नहीं है, उसे प्राप्त करने) और क्षेम (अर्थात जो उनके पास है, उसकी रक्षा करने) का दायित्व लेता हूँ।

यहाँ "योग" केवल सांसारिक वस्तुओं को पाने की बात नहीं करता, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति की ओर संकेत करता है। इस संदर्भ में योग का अर्थ आत्मा और परमात्मा के मिलन से है, जो संपूर्ण अध्यात्म का सार है।

अगर आप और गहराई से देखेंगे, तो गीता (अध्याय 2, श्लोक 50) में भी कृष्ण योग को परिभाषित करते हैं—

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥

अर्थ:

समबुद्धि वाला व्यक्ति शुभ-अशुभ दोनों कर्मों को त्याग देता है। इसलिए, योग में स्थित होकर कर्म कर, क्योंकि योग ही कर्मों में कुशलता है।


यहाँ "योग" का अर्थ संतुलन और समत्व की अवस्था से है, जो अध्यात्म का सार है। इस प्रकार, भगवान कृष्ण ने एक ही शब्द— "योग"— के माध्यम से पूरे आध्यात्मिक दर्शन को व्यक्त किया है।

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