जैसे भी हो ये मंज़र बदलना होगा
लाज़मी है घरों से निकलना होगा ।
ढ़ीले पड़ चुके व्यवस्था के कलपुर्जे
मरम्मत में इन्हें खूब कसना होगा ।
बाहर निकलने के अपने खतरे तो हैं
मगर हर हाल में खतरा उठाना होगा ।
आज अकेले हो अकेले ही चल दो
कल साथ तुम्हारे यह जमाना होगा ।
सब के हिस्से में नहीं होती बुलंदी
कुछ को नींव का पत्थर बनना होगा ।
फिज़ा बदलेगी तो ये हवा बदलेगी
तब जा के मौसम कोई सुहाना होगा ।
मेरे बुलाने पर भी तुम कहां आओगे
हमेशा की तरह कोई बहाना होगा ।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
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