डॉ हर्षा त्रिवेदी
स्थायी निवास : उदयपुर,राजस्थान।
विद्या वाचस्पति : पद्मश्री "दयाप्रकाश सिन्हा के नाटकों का अनुशीलन" ( मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से )
प्रकाशन :
मौलिक पुस्तकें : सहारों का
बंधन ( हिंदी नाटक) , नाटककार दयाप्रकाश सिन्हा, शब्द संधान ।
शोध आलेख : राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठित शोध-पत्रिकाओं/ पुस्तकों में 25 से अधिक शोध आलेख प्रकाशित ।
उपलब्धि : 30 से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठिओं विशेषकर संयुक्त राष्ट्र संघ, जिनेवा में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए "Existential and functional harmony between the man and the nature: A Rigvedik Phenomenon " विषय पर पत्र-वाचन,
राष्ट्रीय उच्च अध्ययन संस्थान,राष्ट्रपति निवास, शिमला से Associate
विशेषज्ञता : हिन्दी नाटक, फिल्म पटकथा लेखन एवं अभिनय में विशेष रूचि । राजसमंद विकास किरण,एन अनलकी डे, भूत एन अनटोल्ड स्टोरी,नो रूल्स आदि शार्ट फिल्मो का पटकथा लेखन ।
सम्प्रति : विवेकानंद इंस्टिट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज-TC ( गुरू गोविंद सिंह इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय दिल्ली से संबद्ध ) पीतमपुरा,दिल्ली में सहायक आचार्य हिंदी के रूप में 2018 से कार्यरत।
संपर्क : harsha.trivedi@vips.edu
1. तुम्हारी तकलीफ़ें ।
हे स्त्री !
तुम्हारी तकलीफ़ें
निजी होकर भी
उन सब की हैं जो
आदतन
इस बात पर
विश्वास करती हैं कि
विश्वास
कायम रहना चाहिए
मनुष्यता
बची रहनी चाहिए
और संघर्ष
निरंतर जारी रहना चाहिए ।
2. और इस तरह ।
अब मैं
चुप रहूँगी
तुमसे जुड़ी
हर एक बात पर
और इसतरह
एक सजा काटूँगी
उम्र भर ।
3. कायरता और प्रेम ।
कायरता
स्वभाव ही नहीं
हथियार भी है
स्वार्थी और आत्मकेंद्रित लोगों का ।
किसी कायर से प्रेम
प्रेम की हत्या है ।
4. संभावनायें ।
प्रेम में संभावनायें
विश्वास की डोर से
बँधीं होती हैं ।
शायद तभी
तुम कर सके
मुझे प्रेम ।
5. नैतिक इतिहास ।
समुच्चय में निबद्ध
श्रेष्ठता के
आदर्शों का बोझ
नैमित्तिक स्तर पर
हमारे
नैतिक इतिहास को
अनुप्राणित करते हुए
बदलता है
शक्ति के
उत्पाद रूप में ।
सत्ता प्रयोजन से
संकुचित
परिवर्तन का लहज़ा
किसी विसम्यकारी
तकनीक से
हमारे सत्ता व ज्ञान सिद्धांत
हमेशा लोगों को
संरचनात्मक स्तर पर
एक लहर में
निगल जाती है
और हम
अपनी संकल्पनाओं से दूर
प्रस्थान करते हैं
जड़ताओं में
जड़ होते हैं ।
6. प्रज्ञा अनुप्राणित प्रत्यय ।
किसी प्रज्ञावान व्यक्ति का
शब्दबद्ध वर्णन
उसके सद्गुणों की
यांत्रिक व्याख्या मात्र है
या फ़िर
शब्दाडंबर ।
जबकि
उसकी वैचारिक प्रखरता
उसके लंबे
अध्यवसाय की
अंदरुनी खोह में
एक आंतरिक तत्व रूप में
कर्म वृत्तियों को
पोषित व प्रोत्साहित करती हैं ।
उच्च अध्ययन कर्म
एक ज्ञानात्मक उद्यम है
जो कि
प्रज्ञा की साझेदारी में
पोसती हैं
एक आभ्यंतर तत्व को
जो कि
अपने संबंध रूप में
ईश्वर का प्रत्यय है ।
लेकिन ध्यान रहे
घातक संलक्षणों से ग्रस्त
छिद्रान्वेषी मनोवृत्ति
आधिपत्यवादी
मानदंडों की मरम्मत में
प्रश्न से प्रगाढ़ होते रिश्तों की
जड़ ही काट देते हैं
और इसतरह
अपने सिद्धांतों के लिए
पर्याय बनने /गढ़ने वाले लोग
अपनी तथाकथित जड़ों में
जड़ होते -होते
जड़ों से कट जाते हैं ।
7. हाँ मैं भी चिराग़ हूँ पर ।
हाँ मैं भी चिराग़ हूँ पर ।
कुछ सवालात हैं
कि जिनमें
उलझी सी हूँ
मैं भी एक चिराग़ हूँ
बस
बुझी- बुझी सी हूँ ।
अब भी उम्मीद है
कि वो आयेगा ज़रूर
सो प्यार की राह में
ज़रा
रुकी- रुकी सी हूँ ।
न जाने
कितनी उम्मीदों को
ढोती हूँ पैदल
अभी चल तो रही हूँ
पर
थकी - थकी सी हूँ ।
यूँ तो आज भी
इरादे
वही हैं फ़ौलाद वाले
बस वक्त के आगे
थोड़ा
झुकी- झुकी सी हूँ ।
8. राष्ट्र,राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद ।
जब वो राष्ट्र की बात करे
तो तुम मनुष्यता की दुहाई दो
जब वह राष्ट्रीयता कहे
तब तुम मनुष्य की स्वतंत्रता कहो
यह जानते हुए भी कि
राष्ट्र एक आदर्श यथार्थ है और
मनुष्यता आदर्श भाव ।
मनुष्यता यात्रा है
पावनता के पुनर्वास की
अनवरत प्रयास की
और राष्ट्र
वह खोह है
जहां हर तरह से
संपन्न होकर
तुम विपन्नता का
राग अलाप रहे हो ।
अधिकारों की चिंता से ग्रस्त
दायित्व से अनजान
तुम बौद्धिकता की
फटी डफली का राग हो
यह राष्ट्र ही है
जिसे तुम कोसते हो निरंतर
इसी पर बोझ बनकर ।
नहीं मैं प्रमाणित नहीं कर रही
ना ही कुछ साबित कर रही
मैं तो वैसे ही पक्ष में खड़ी हूं
जैसे कि तुम
विपक्ष में
ताकि जब इतिहासों को
खंगाला जाय
तो जयचंदों को
चिन्हित किया जा सके ।
मुझे तुमसे घृणा भी नहीं
क्योंकि वो दुकान
तुम्हारी है
मैं तो आभारी हूं
कि तुमने
मेरे संकल्पों, विचारों को
अधिक दृढ़ किया ।
राष्ट्र
तन है
राष्ट्रीयता
भाव है
राष्ट्रवाद
प्राण है
और नहीं है
तो होना चाहिए
क्योंकि सुंदर संकल्पों, सपनों इत्यादि के लिए
पहले आप का होना अनिवार्य है ।
9. अनुच्छेद 370
मानवीय उदारता का विस्तार
प्रेम, करुणा और स्वतंत्रता जैसे मूल्य
राष्ट्रीय भावनाओं से
श्रेष्ठ कैसे हो गए ?
कब हो गए ?
क्यों हो गए ?
अगर कहो तो
बता भी दूं ।
सुविधा,संपन्नता
और सुरक्षा के प्रति
आश्वस्त रहते हुए
तुम एक नास्टेल्जिया जीते हो
विरोधा भक्ति में लीन
निरर्थकता का साहित्य रचते हो
यह बताते हुए कि
देश हार गया
देश सो गया
या कि ऐसी ही कोई
विछिप्तता पूर्ण
कविता,कहानी या लेख
और यह सब करते हुए
इसी देश में
आराम फरमा रहे हो
यह कहते हुए कि
यह देश अब हराम है ।
सुनो बंधु !
मैं तुम्हारी बुद्धि की कायल हूं
पर विचारों की नहीं
इसलिए
मुस्कुरा रही हूं
तुम्हारी इस
बेचैनी भरी समझ पर ।
दरअसल
बात बहुत छोटी है
वह यह कि
राष्ट्र सबसे पहले है
क्योंकि राष्ट्र
हमारी प्राण वायु है
इन रगो में बहता खून
हमारा जुनून है ।
आलोचना की ओट में
तुम कहां चोट कर रहे हो ?
अरे बचोगे
तभी तो रचोगे ?
मनुष्यतर सपनों का संसार
कृतज्ञतर विचार
समावेशी संस्कृति
और ऐसा ही बहुत कुछ
भले
फैशन में ही सही ।
वैसे
जितना जानती हूं तुम्हें
उसमें
तुम कृतज्ञ मनुष्य
कभी लगे नहीं मुझे
पर यह तो था कि
तुम लगे रहे
और लगते लगते
तुम लगने लगे ।
अब देखो
अनुच्छेद 370
एक बदबूदार नाली थी
जिससे
राष्ट्र का खून पिया जा रहा था
कई सालों से
और हम पिला रहे थे
क्योंकि राष्ट्र
अखंड रहे इसीलिए
और आज
यह नाली बंद कर दी गई
क्योंकि राष्ट्र
अखण्ड है इसलिए
पर तुम हो कि........ ।
जिन
उदार मूल्यों को
बस
लिख भर देते हो
उन्हें
जीना भी सीखो
और तब
तुम देखोगे कि
यह किसी के पक्ष या विपक्ष का नहीं
अपितु
गौरव और स्वाभिमान का प्रश्न है ।
10. सहयज्ञ ।
अतिवादिता का उद्रेक
वांछनीय और प्रतीक्षित
रूपांतण की संभावित प्रक्रिया को
असाध्य बना देता है
फ़िर ये भटकते हुए सिद्धांत
समय संगति के अभाव में
अपने प्रतिवाद खड़े करते हैं
अपने ही विकल्प रूप में ।
यही संस्कार है
सांस्कृतिक संरचना का
जो निरापद हो
परंपरा की गुणवत्ता
और प्रयोजनीयता के साथ
करता है निर्माण
प्रभा, ज्ञान और सत्य का ।
ज्ञानात्मक मनोवृत्ति
संभावनात्मक नियमों की खोज में
लांघते हुए सोपान
करती हैं घटनाओं के अंतर्गत
हेतुओं का अनुसंधान
और देती है
सनातन सारांश ।
स्वरूप के विमर्श हेतु
सौंदर्यबोधी संवेदनशीलता
खण्ड के पीछे
अखण्ड का दर्शन तलाशती है
प्रतिवादी शोर को
संवादी स्वरों में बदलती है
और अंत में
अपनी आनुष्ठानिक मृत्यु पर भी
सबकुछ सही देखती है
क्योंकि वह
सब को साथ देखती है ।
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