गुस्सा !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
आज लगभग १५ दिन से घर में रंग-रोगन का काम हो रहा था. शाम को कॉलेज से वापस आते समय मैं खुश था कि आज मुझे वही धूल,अस्त-व्यस्त सामान और रंगों की अजीब सी ताज़ी महक झेलनी नहीं पड़ेगी . घर पंहुचा तो अपना ही घर अपना नहीं लग रहा था . पूरा घर एक दम सुंदर,साफ़ और सुव्यवस्थित . मेरी किताबें भी माँ ने अच्छे से आलमारी में लगा कर रख दी थी .
मैं यह सब देख मन ही मन खुश हो रहा था क़ि माँ ने मेरी कितनी मेहनत बचा ली . यह सब सोचते हुए ही एक विचार मेरे पूरे शरीर को बिजली के करेंट की तरह ''झटका '' दे कर चला गया . मैंने अपनी किताबो को ध्यान से देखने लगा . आशंका अब यकीन में बदल रही थी . जिस बात का डर था वही हुआ . मेरी कई किताबें रद्दी में सिर्फ इस लिए दे दी गंयी थी क्योंकि वे बेहद पुरानी हो चुकी थी . मेरे कई स्मृति चिन्ह भी कूड़े दान की शोभा बन चुके थे . इतना ही नहीं राज्य स्तरीय दो पुरस्कारों के प्रमाण पत्र भी पुराने होने की सजा पा चुके थे .
जैसा की स्वाभाविक है, यह सब जान कर मैं आग बबूला हो गया . लेकिन कुछ कडवी बाते माँ को सुनाने
के अतरिक्त मैं कर भी क्या सकता था ? चुपचाप घर से निकल कर अपनी भडास निकालने ब्लॉग पे बैठ गया . लेकिन यह ब्लॉग लिखते-लिखते मेरा गुस्सा शांत हो चुका है . मैं यह सोच के खुश हूँ कि अब राज्य स्तरीय पुरस्कार मेरे घर में कूड़े दान के लायक समझे जाने लगे हैं . हिंदी साहित्य के कई मूल्यवान ग्रन्थ भी इसी श्रेणी में आ चुके हैं . सब माँ का आशीर्वाद है . वरना मैं महा मूर्ख इस बात से अभी तक अज्ञान था . इस अज्ञानतावश ही मैं माँ को ना जाने क्या-क्या कह आया . मुझे निश्चित ही माँ से माफ़ी मांगनी चाहिए . साथ ही साथ उनका धन्यवाद भी ज्ञापित करना चाहिए जो उन्होंने मेरे कई पुराने पर अप्रकाशित लेख नहीं फेके . यंहा तक कि अभी पन्नो पे ही लिखित डी.लिट. की आधी थेसिस भी उन्होंने कृपा पूर्वक नहीं फेका. अगर फेक भी देती तो मै क्या कर लेता ? श्रीमद भागवत गीता की वो बात याद कर के अपने आप को दिलाशा देता की-जो हुआ अच्छे के लिए हुआ .इसके अतरिक्त और रास्ता भी क्या था .
अंत में माँ को धन्यवाद और कोटि -कोटि प्रणाम !!!!
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