ग़म-ए-आशिक़ी
से कह दो राह-ए-आम तक न पहुँचे 
मुझे ख़ौफ़
है ये तोहमत मेरे नाम तक न पहुँचे 
मैं नज़र
से पी रहा था तो ये दिल ने बद-दुआ दी 
तेरा हाथ
ज़िन्दगी भर कभी जाम तक न पहुँचे 
नई सुबह पर
नज़र है मगर आह ये भी डर है 
ये सहर भी
रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे 
वो
नवा-ए-मुज़महिल क्या न हो जिस में दिल की धड़कन 
वो
सदा-ए-अहले-दिल क्या जो अवाम तक न पहुँचे 
उन्हें
अपने दिल की ख़बरें मेरे दिल से मिल रही हैं 
मैं जो
उनसे रूठ जाऊँ तो पयाम तक न पहुँचे 
ये
अदा-ए-बेनिआज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक 
मगर ऐसी
बेरुख़ी क्याa के
सलाम तक न पहुँचे 
जो
नक़ाब-ए-रुख़ उठा दी तो ये क़ैद भी लगा दी 
उठे हर
निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे 
वही इक
ख़मोश नग़्मा है "शकील" जान-ए-हस्ती 
जो ज़ुबाँ
तक न आये जो क़लाम तक न पहुँचे
 
 
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