झिझक रहे कदमों से
अनकहे शब्दों से
आशायें कितनी रखी थी
ख़ामोशी के लफ्जों से
सपनों की राहें बनी थी
अभिलाषाओं की आहें हसीं थी
साकार वो ना कर पाई
दिल की चाहें सजीं थी
बहक उठे आखों के आंसूं
द्रवित हुआ ह्रदय बेकाबू
झलक दिखी जब हाँ की बातों में
ख्वाब सजे जागी रातों में
वो लम्हा अनमोल था कितना
वैसे जीवन का मोल है कितना
वक़्त गया वो बातें बीतीं
राहें हैं तनहाई ने जीतीं
झिझक रहे कदमों से
अनकहे शब्दों से
आशायें कितनी रखी थी
ख़ामोशी के लफ्जों से
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