Sunday, 29 August 2010

आशायें कितनी रखी थी ख़ामोशी के लफ्जों से

झिझक रहे कदमों से
अनकहे शब्दों  से
आशायें कितनी रखी थी
 ख़ामोशी के लफ्जों से


सपनों की राहें बनी  थी
अभिलाषाओं की आहें हसीं  थी
साकार वो ना कर पाई
दिल की चाहें सजीं थी


                                      
                                 
बहक उठे आखों के आंसूं
द्रवित हुआ ह्रदय बेकाबू
झलक दिखी जब हाँ की बातों में
ख्वाब सजे जागी रातों में 

वो लम्हा अनमोल था कितना

वैसे जीवन का मोल है कितना
वक़्त गया वो बातें बीतीं
राहें हैं तनहाई ने जीतीं






झिझक रहे कदमों से
 अनकहे शब्दों से

आशायें कितनी रखी थी
 ख़ामोशी के लफ्जों से








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