Wednesday, 23 December 2009

सजे हो महफ़िल में आखों में चमक नहीं /

सजे हो महफ़िल में आखों में चमक नहीं ,
हँसता चेहरा खिलती बातें पर वो मुस्कान नहीं ;
घूम रही है तू इठला के पर गुमान नहीं ,
क्या उलझन है तेरे दिल की ,
क्यूँ तेरा मन शांत नहीं /
तेरी खनकती आवाजों को सब तेरी खुशियाँ मान रहे ,
बदन थिरकता तेरा धुनों पे सब सुखी तुझे जान रहे ;
तेरी आभा जो खोयी है वो नहीं जान रहे ,
जो कहना चाहो कह दो मुझसे क्या बिखरा क्या खोया है ,
क्यूँ खुशियाँ दिल में नहीं तेरे जो तुने चेहरे पे बिखरा है ;
क्या यादों का साथ अभी है ,
क्या ह्रदय में घाव अभी है ,
क्या सब हो के भी कुछ खलता है ,
क्या प्यार तेरा अब भी जलता है ;
क्यूँ त्योहारों पे उमंगें उमंगें छाती है ,
क्यूँ फिर भी आखें नहीं हंस पाती हैं /
अब राहों पे रुकना कैसा ,
अब चाहों से हटना कैसा ,
ह्रदय है हावी तो दिल की सुनो ,
अब क्यूँ घुटना क्यूँ मुड़ के देखना ;
अब है रिश्तों को अपने ढंग से जीना /
कुछ तकलीफे कुछ खुशियाँ होंगी ,
पर वो तेरी अपनी होंगी /
-- - -- - - पर वो तेरी अपनी होंगी /

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लिप्त हैं वो अभिसार में ,

खोये हैं वो इक दूजे के प्यार में ;

ओठ पी रहे ओठों की मदिरा ,

चंचल मान और काम का कोहरा ;

मचल रहा बदन बदन के प्यास से ,

चहक रहा तन तन के साथ से,

चन्दन सा घर्षण मेंहंदी सी खुसबू ,

उत्तेजित काया मन बेकाबू ,

कम्पित उच्च उरोजों का वो मर्दन ,

चूमता बदन और हर्ष का क्रन्दन ,

उफनती सांसों का महकता गुंजन ,

दुनिया से अनजान पलों में ,

स्वर्गिक वो तनों का मंथन ,

कितना भींच सको अपने में ,

कितना दैविक वो छनों का बंधन ,

भावों की वो चरमानुभुती है ,

प्रेमोत्सव की परिणिति है ;

प्यार सिर्फ अभिसार की राह नहीं है यारों ,

पर प्यार की ही ये भी इक प्रीती है ,

प्यार का बंधन तन मन का आलिंगन ,

कितनी दिव्य ये भी इक रीती है /

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क्या वक़्त था वो भी ,क्या समय था वो भी ,

वो मुझपे मरती थी मै कितना डरता था ;

नजरें जब भी उनसे मिलती थी ,

पलकें पहले मेरी झुकतीं थी ,

पास जो आके वो इतराती ,

मेरी हालत पतली हो जाती ,

बात वो करती जब अदा से ,

कम्पित तन मन थर -थर करता ,

बदन कभी जब बदन से लगता ,

दिल मेरा धक् -धक् सा करता ,

मुस्काती थी तब वो खुल के ,

मै पत्थर का बुत बन जाता ,

हफ्ते बीते ,बीते मौसम ,

बदला साल महीने बीते ,

पता नहीं कब मैंने हाथ वो पकड़ा ,

कब उसने बंधन में जकड़ा ,

कब डूबा उसकी बातों में ,

कब खोया उसकी आखों में ,

वक़्त उड़ा फिर ,नहीं पता चला फिर ,

कब उसकी मगनी कब शादी बीती ,

असहाय हुआ मूक बना कब ,

क्यूँ उसने नहीं मुझको बोला ,

आखों में खालीपन लिए मै डोला ,

अब सिने को सिने की बारी थी ,

अब नए जीवन से लड़ने की तैयारी थी ,

नयी राह पे फिर मैं निकला ,

फिर जीवन को जीने की ठानी थी /

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