Wednesday, 28 February 2024

ताशकंद का राज कपूर रेस्टोरेंट

 ताशकंद में भारतीय व्यंजन परोसने वाले रेस्टोरेंट्स में से "राज कपूर" एक है । शहर के बीचों बीच स्थित यह रेस्टोरेंट एक बड़े होटल द ग्रैंड प्लाजा का एक हिस्सा है जो पहली मंजिल पर स्थित है। यहां शाकाहारी एवम मांसाहारी दोनों भारतीय व्यंजन मिलते हैं। खास बात यह है कि इस रेस्टोरेंट के मालिक भारतीय नहीं बल्कि जकार्ता से हैं । यहां के अधिकांश कर्मचारी उज़्बेकी हैं जो अंग्रेजी और  उज़्बेकी भाषा बोलते हैं। लेकिन किचन में व्यंजन बनानेवाले शेफ भारत से हैं अतः स्वाद में वो भारतीयता की महक महसूस होती है। रोटी दाल, दाल चावल जैसे नियमित भारतीय भोज्य पदार्थ आप को उज़्बेकिस्तान के सामान्य होटलों में नहीं मिल पाएगा । इसके लिए आप को राज कपूर, द होस्ट, शालीमार और कारवां जैसे रेस्टोरेंट्स में ही आना होगा ।

हिंदी फिल्मों के महानायक राज कपूर के नाम पर बने इस रेस्टोरेंट में आप राजकपूर समेत कई अन्य भारतीय सिने अभिनेता एवम अभिनेत्रियों के फिल्मी पोस्टर और चित्र देख सकते हैं जिन्हें बड़े करीने से यहां की दीवारों पर सजाया गया है। जो कि उनकी वैश्विक लोकप्रियता का प्रतीक है।







Tuesday, 20 February 2024

वो मेरी मातृभाषा है।

 वो मेरी मातृभाषा है ।


जिसके आंचल ने दुलराया 

भावों से भर दिए हैं प्राण

जिसकी रज को चंदन जाना

और जाना जिसके तन को अपना प्राण

वो मेरी मातृभाषा है।


जीवन के ताने बाने को

बुननेवाली वो भाषा

मुझमें अक्सर शामिल

वो बिलकुल मुझ सी 

वो मेरी मातृभाषा है।


जिसकी कोह में

मेरे सारे राग विराग

जो सुलझाती सारी उलझन को

करती रहती सदा दुलार

वो मेरी मातृभाषा है।


श्वास श्वास जिसकी अभिलाषा

जो जीवन शैशव सी है प्यारी

जो पावन उतनी

जितने की चारों धाम

वो मेरी मातृभाषा है।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा

विजिटिंग प्रोफेसर (ICCR Hindi Chair)

ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज

ताशकंद, उज़्बेकिस्तान।

Monday, 5 February 2024

18. मजबूरियां बेड़ियां बन पांव से लिपट जाती हैं

 मजबूरियां बेड़ियां बन पांव से लिपट जाती हैं

परदेश में मेरी दुनियां कितनी सिमट जाती है।


वहां दिन रात कितना कुछ कहते सुनते थे हम 

यहां पराई बोली के आगे ज़ुबान अटक जाती है।


यहां अकेले अब वो इस कदर याद आती हैं कि

उन्हें सोचते हुए पूरी रात यूं ही निपट जाती है।


अब इन सर्द हवाओं में अकेले यहां दुबकते हुए 

उसके हांथ की चाय मेरे हाथों से छटक जाती है।


गुल गुलशन शहद चांदनी वैसे तो सब है लेकिन

वो ख़्वाब में आकर मुझे प्यार से डपट जाती है।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा

विजिटिंग प्रोफेसर

ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज

उज़्बेकिस्तान 

Friday, 19 January 2024

राजस्थानी सिनेमा का इतिहास"

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मित्रों,

आप को सूचित करते हुए प्रसन्नता हो रही है कि मेरे और डॉ हर्षा त्रिवेदी द्वारा संपादित पुस्तक "राजस्थानी सिनेमा का इतिहास" अनंग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होकर आ गई है। पुस्तक एमेजॉन से ऑनलाईन खरीदी जा सकती है।


राजस्थानी सिनेमा पर हिंदी में प्रकाशित संभवतः यह पहली पुस्तक है । राजस्थानी सिनेमा से जुड़े कई लोगों तक हम नहीं पहुंच सके लेकिन भविष्य में इसके संशोधित, परिवर्धित संस्करण की जब भी योजना बनेगी, इसमें नए विचारों और आलेखों को निश्चित ही स्थान दिया जाएगा। पुस्तक में जो प्रूफ इत्यादि की त्रुटियां रह गई हैं, आगामी संस्करण में उसे भी सुधार लिया जाएगा। 

इस पुस्तक में कुल 25 आलेख हैं जिनमें से 03 आलेख अंग

राजस्थानी सिनेमा पर जो लोग शोध कार्य से जुड़े हैं उनके लिए रिफ्रेंस बुक के रूप में यह किताब निश्चित ही बड़ी सहायक होगी । एकदम अछूते विषयों और क्षेत्रों में काम करने की अपनी अलग चुनौती होती है, सामग्री का अभाव बड़ी समस्या है। ऐसे में हमने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए यथाशक्ति कोशिश की कि हम संबंधित विषय पर अधिकतम जानकारी एक दस्तावेज के रूप में अकादमिक जगत में उपलब्ध करा सकें । हम कितने सफल हुए यह तो पाठक ही बताएंगे लेकिन काम को पूरा करने का सुकून हमें ज़रूर मिला । आशा और विश्वास है कि पाठकों का आशीष भी उनकी प्रतिक्रिया के रूप में हमें प्राप्त होगा । 

इस पुस्तक के प्रकाशन की जिम्मेदारी अनंग प्रकाशन, नई दिल्ली ने विधिवत निभाई । उनके सहयोग के लिए हम उनके आभारी हैं। अंत में पुनः सभी के प्रति आभार ज्ञापित करते हुए हम विश्वास रखते हैं कि आगे भी सभी का सहयोग इसी तरह मिलता रहेगा।

धन्यवाद!

डॉ मनीष कुमार मिश्रा

डॉ हर्षा त्रिवेदी 


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Sunday, 14 January 2024

जो प्रेम करते हैं


जो प्रेम करते हैं।

जो प्रेम करते हैं
उनकी आखों में
होते हैं कई कई रंग
वो गाते हैं
अमरता का गान
जीते हैं हर क्षण को
किसी उत्सव की तरह।

जो प्रेम करते हैं
बेफिक्री
उनकी आदत होती है
उन्हें बोलने के लिए
किसी भाषा की जरूरत
न के बराबर होती है
प्रेम के दिन अक्सर
होते हैं वसंत की तरह।

जो प्रेम करते हैं
वो अक्सर होते हैं
औरों से बेखबर
वो दुनियां की
सबसे अनोखी चीज़ में
सुगंध बटोरते रहते हैं
सारी दुनियादारी उनके लिए
होती है
व्यर्थ नाटक की तरह।

जो प्रेम करते हैं
वे इतिहास के जंगल में
पुराने पन्नों की गंध की तरह
या कि
पोखर के तल की मिट्टी की तरह
होते हैं
होने न होने के
तमाम षड्यंत्रों के बावजूद भी ।

प्रेम में पगी
तरसती आखों का जल
किसी प्रेमी की तरह
किसी के इशारे पर
किसी की यादों में
कैद रहता है
किसी निरपराध कैदी की तरह।

                डॉ मनीष कुमार मिश्रा  
                कल्याण , महाराष्ट्र 

38. तुम्हारी स्मृतियों से ।

 


यह जो
मेरी मनोभूमि है
लबालब भरी हुई
तुम्हारी स्मृतियों से
यहां
रुपहली बर्फ़ पर
प्रतिध्वनियां
उन लालसाओं को
विस्तार देती हैं
जो की अधूरी रहीं ।

ये रोपती हैं
जीवन राग के साथ
गुमसुम सी यादें
लांघते हुए
उस समय को
कि जिसकी प्रांजल हँसी
समाई हुई है
मेरे अंदर
बहुत गहरे में कहीं पर ।

इस घनघोर एकांत में
उजाड़ मौसमों के बीच
बहुत कुछ
ओझल हो गया
तो बहुत कुछ गर्क।

विस्मृतियों के
ध्वंस का गुबार
इन स्याह रातों में
रोशनदान से
अब भी
झांकते हैं मुझे
और मैं
ऐसी दुश्वारियों के बीच
डूबा रहता हूं
अपना ही निषेध करते हुए
उन बातों में
जो तुम कह चुकी हो ।

मैं
शिलाआें सा जड़
नहीं होना चाहता इसलिए
लगा रहता हूं
हंसने की
जद्दोजहद में भी
लेकिन मेरा चेहरा
गोया कोई
ना पढ़ी जा सकनेवाली
किसी इबारत की तरह
बिलकुल नहीं है ।

ऐसे में
सोचता हूं कि
विपदाओं की इस बारिश में
पीड़ाओं के बीच
कोई पुल बनाऊं
ताकि
साझा कर सकूं
पीड़ाओं से भरी चुप्पियां ।

इन चुप्पियों में
कठिन पर कई
जरूरी प्रश्न हैं
जिनका
अभिलेखों में
संरक्षित होना ज़रूरी है
वैसे भी
प्रेम में लोच
बहुत ज़रूरी है।

फिर इसी बहाने
तुम याद आती रहोगी
पूरे वेग से
और
एक उपाय
शेष भी रह जायेगा
अन्यथा
ख़ुद को खोते हुए
मैं
तुम्हें भी खो दूंगा ।

जबकि मैं
तुम्हें खोना नहीं चाहता
फिर यह बात
तुम तो जानती ही हो
इसलिए
तुम रहो
मेरे होने तक
फिर भले ही जुदा हो जाना
हमेशा की तरह
पर
हमेशा के लिए नहीं ।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा
सहायक प्राध्यापक
हिन्दी विभाग
के एम अग्रवाल महाविद्यालय
कल्याण पश्चिम
महाराष्ट्र

 

Monday, 8 January 2024

हिंदी ब्लॉगर श्री रवि रतलामी जी हमारे बीच नहीं रहे।

 जाने माने हिंदी ब्लॉगर श्री रवि रतलामी जी हमारे बीच नहीं रहे। ईश्वर चरणों में प्रार्थना है कि वो पुण्य आत्मा को शान्ति प्रदान करें।

सन 2011 में हिंदी ब्लॉगिंग पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित कर रहा था। विषय नया था अतः उत्साह और भय का एक अलग  रोमांच हो रहा था। उस समय इस संगोष्ठी को सफल बनाने में श्री रवि रतलामी जी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। आप स्वयं भी इस संगोष्ठी में उपस्थित रहे।

रवि रतलामी जी की पावन स्मृतियों को प्रणाम ।




Saturday, 6 January 2024

उज़्बेकिस्तान में हिन्दी प्रचार-प्रसार की स्थिति

 उज्बेकिस्तान में हिंदी के वैश्विक प्रचार- प्रसार को लेकर ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जो हमें खुश कर सके । हिंदी के वैश्विक रूप के संदर्भ में ये दरअसल हमारे देखे हुए ख्वाब हैं जिसे उज़्बेकिस्तान और भारत के लोग मिलकर साकार कर रहे हैं । हिंदी उज़्बेकी के रिश्ते का नयापन और उनकी भाषायी कशीदाकारी का यह जाल एक ऐसे ताने-बाने को बुन रहा है जो दोनों देशों के हित में है । दोनों तरफ के साहित्यिक विद्वान जिस तरह आदान-प्रदान के कार्य में अनुवाद के माध्यम से लगे हुए हैं, उसमें यह निश्चित कर पाना बड़ा मुश्किल सा लगता है कि कौन किसका ज्यादा मुरीद है । ऐसा लगता है कि एक दूसरे की भाषा के जादू में सम्मोहित होने की हद तक काम हो रहा है । यह फैलाव और प्रभाव निश्चित तौर पर भविष्य में एक नई दिशा का आगाज होगा । पसर जानेवाली मुस्कान की तरह हिंदी उज़्बेकियों के दिल को छू रही है और भाषा के स्तर पर इन दोनों ही देश में अभी एक-दूसरे को आजमाने की बहुत गुंजाइश है । इन दोनों देश के लोगों के बीच की स्वभावगत उदारता और किरदार का बड़प्पन इन्हें बेहतरीन की तलाश में एक साथ लाया है ।

हिन्दी प्रचार-प्रसार की दृष्टि से उज़्बेकिस्तान मध्य एशिया में उम्मीदों के प्रकाश का ऐसा अन्तः केंद्र बनकर उभरा है जो हिन्दी जगत की आखों में नाच उठे । भारत और उज़्बेकिस्तान दोनों ही उस सपने से परिचित हैं जो आपसदारी एवं विश्वास के कंधों पर खड़ा हुआ है । अपनी भाषा और संस्कृति के वैश्विक विस्तार में ये दोनों राष्ट्र एकसाथ हैं । अपनी भाषा और संस्कृति के माध्यम से मानवीय करुणा,विश्वास और संवेदना का सौंदर्य पूरे विश्व में बिखेरने के लिए ऐसी साझेदारी दोनों राष्ट्रों के हित में है । भाषायी मेलजोल दरअसल ख़ुशबू से भरे वे रंग हैं जो फ़ासलों के गुबार को दरकिनार कर छनकर आती हुई उम्मीद को अपनी कोह में बसा सजाते और सँवारते हैं । इस तरह की भाषायी साझेदारी भविष्य के भारत और उज़्बेकिस्तान के लिए निश्चित ही प्रगति के नए आयाम गढ़ेगी ।

डॉ मनीष कुमार मिश्रा

सहायक प्राध्यापक हिन्दी विभाग

के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय

कल्याण, महाराष्ट्र

 

Thursday, 7 December 2023

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में विभाजन की त्रासदी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न ।

 

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में विभाजन की त्रासदी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न  

 

मंगलवार दिनांक 28 नवंबर 2023 को भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की शुरुआत हुई। संगोष्ठी का मुख्य विषय "भारत विभाजन की त्रासदी और भारतीय भाषाओं का साहित्य" है । इस संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में राष्ट्रीय सिंधी भाषा विकाश परिषद के निदेशक प्रो. रविप्रकाश टेकचंदानी, संस्थान के नेशनल फेलो प्रो. हरपाल सिंह और बीज वक्ता के रूप में व्यंक्तेश्वर कालेज, नई दिल्ली से प्रो. निर्मल कुमार उपस्थित थे।

 

मान्यवर अतिथियों द्वारा दीप प्रज्ज्वलित करके इस संगोष्ठी की शुरुआत हुई। संगोष्ठी के संयोजक डॉ मनीष कुमार मिश्रा ने स्वागत भाषण के साथ संगोष्ठी के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला। दिल्ली के व्यंक्तेश्वर कॉलेज में इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रो निर्मल कुमार ने विभाजन और सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में अपना सारगर्भित वक्तव्य दिया। प्रो हरपाल सिंह ने विभाजन की त्रासदी को लेकर अपने विचार साझा किए । प्रो रवि टेकचंदानी ने सिंधी साहित्य और समाज के परिप्रेक्ष्य में बड़ा मार्मिक वक्तव्य प्रस्तुत किया। इस अवसर पर उन्होंने विभाजन पर प्रकाशित अपनी पुस्तक की प्रति भी संस्थान के सचिव श्री नेगी जी को भेंट की । संस्था के निदेशक प्रो नागेश्वर राव जी ऑनलाईन माध्यम से कार्यक्रम से जुड़े और सभी आए हुए अतिथियों के प्रति आभार ज्ञापित किया। अंत में संस्थान के सचिव श्री नेगी जी ने आभार ज्ञापन की जिम्मेदारी पूरी की । इस सत्र का कुशल संचालन श्री प्रेमचंद जी ने किया । राष्ट्रगान के साथ यह उद्घाटन सत्र समाप्त हुआ ।

 

उद्घाटन सत्र के अतिरिक्त पहले दिन तीन चर्चा सत्र संपन्न हुए जिनमें देश भर से जुड़े 10 विद्वानों ने अपने प्रपत्र प्रस्तुत किए । इन तीनों सत्रों की अध्यक्षता क्रमशः प्रो आलोक गुप्ता (फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ), प्रो निर्मल कुमार(व्यंकटेश्वर कॉलेज, नई दिल्ली  में इतिहास विभाग के अध्यक्ष ) और प्रो रविंदर सिंह जी (फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ) ने किया । संगोष्ठी के दूसरे दिन कुल चार चर्चा सत्र संपन्न हुए जिनकी अध्यक्षता क्रमशः प्रोफ़ेसर महेश चंपकलाल (टैगोर फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ), प्रोफ़ेसर नंदजी राय (फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ), प्रोफ़ेसर हरपाल सिंह (नेशनल फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ) और प्रोफ़ेसर हरि मोहन बुधोलिया जी ने किया । दूसरे दिन कुल 13 प्रपत्र वाचकों ने अपने प्रपत्र प्रस्तुत किए ।

 

समापन सत्र की अध्यक्षता भी प्रोफ़ेसर हरि मोहन बुधोलिया जी ने की । इस अवसर पर संस्थान के अकड़ेमिक रिसोर्स आफ़िसर श्री प्रेमचंद जी भी उपस्थित थे । संगोष्ठी के संयोजक डॉ मनीष कुमार मिश्रा ने दो दिवसीय संगोष्ठी की रिपोर्ट प्रस्तुत की । वरिष्ठ एसोशिएट श्री अयूब ख़ान जी ने संगोष्ठी पर अपना मंतव्य व्यक्त किया । श्री प्रेमचंद ने संस्थान की गतिविधियों की जानकारी देते हुए इस संगोष्ठी में प्रस्तुत सभी आलेखों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की बात कही । अध्यक्षी भाषण में प्रोफ़ेसर हरि मोहन बुधोलिया जी ने सुंदर आयोजन की तारीफ़ की । अंत में संयोजक के रूप में डॉ मनीष कुमार मिश्रा ने सभी के प्रति आभार ज्ञपित करते हुए , अध्यक्ष की अनुमति से संगोष्ठी समाप्ति की घोषणा की । इस तरह दो दिन की संगोष्ठी बड़े सुखद वातावरण में संपन्न हुई।

 















डॉ मनीष कुमार मिश्रा

Sunday, 19 November 2023

तुझे भुलाने की कोशिश में

 तुझे भुलाने की कोशिश में सब याद रह गया

तु मुझमें मुझसे ज्यादा जाने के बाद रह गया।


उसके बिना इश्क का रोज़ा छूटे तो कैसे छूटे 

जाने किस छत मेरी हसरतों का चाँद रह गया।


मोहब्बत करें और बड़े इत्मीनान से रहा करें

अब इस जहां में कौन ऐसा दिलशाद रह गया।


चुप्पियों के टूटते ही कायर कोई भी बचा नहीं 

फिर सामने तो आग में तपा फौलाद रह गया।


बूढ़े मां बाप की आखों से टपकता लहू देख 

वो खुश था बहुत जो कि बे औलाद रह गया।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा


 



Saturday, 18 November 2023

हर मुलाकात के बाद

 हर मुलाकात के बाद कुछ न कुछ अधूरा रह गया

तेरे साथ वाला वो मौसम मेरे अंदर ठहरा रह गया।


जिसे लूटना था उसे तेरी एक नजर ने लूट लिया 

इश्क में नाकाम सा जमाने भर का पहरा रह गया।


हरसिंगार झरता रहा पूरी रात चांदनी को पीते हुए

ओस से लिपटकर वह सुबह तक बिखरा रह गया।


तुम्हारे बाद के किस्से में तो गहरी उदासी छाई रही

उन यादों का शुक्रिया कि जीने का आसरा रह गया।


ये सुना था मैंने भी कि वक्त हर ज़ख़्म भर देता है 

पर इश्क का घाव ताउम्र हरा और गहरा रह गया।


यूं तो मंज़र कई सुहाने मिलते रहे मौसम बेमौसम

पर मेरी नजर में तो बसा हुआ तेरा चेहरा रह गया। 


रोशनी के साथ तो कितना शोर शराबा आ जाता है

गुमनाम जद्दोजहद के साथ तो बस अंधेरा रह गया।


आवारगी में लिपटी हुई रंगीन रातों के किस्से सुनके 

बस अपने पांव पटकता सलीकेदार सवेरा रह गया।

डॉ मनीष कुमार मिश्रा 






Wednesday, 15 November 2023

जिसपर गिरी है गाज वो यूक्रेन और गाजा है।


 कौन जाने किसे किसकी मिल रही सज़ा है

जिसपर गिरी है गाज वो यूक्रेन और गाजा है।


इन सियासत के सितमगरों से पूछे तो कोई 

बारूद के बवंडरवाली ये कौन सी फिज़ा है।


शहर के शहर खंडहर बनानेवालों बता दो

क्या सच में तुम्हें ज़रा भी खौफ ए कजा है।


मिसाइल से भला कब हल हुए हैं मसाइल

हजारों कत्ल हो जाएं यह किसकी रजा है।


तेल और हथियारों की सौदागिरी के वास्ते

इंसानियत का हो कत्ल इसमें कैसी मज़ा है।


   डॉ मनीष कुमार मिश्रा 








Tuesday, 14 November 2023

ढलती शाम के साथ

 ढलती शाम के साथ चांदनी बिखर जाती है

वही एक तेरी सूरत आंखों में निखर जाती है।


तू कब था मेरा यह सवाल तो बेफिजूल सा है 

तेरे नाम पर आज भी तबियत बहक जाती है।


बस यही सोच तेरी चाहत को संभाले रखा है

कि हर दीवार एक न एक दिन दरक जाती है।


तुम्हें सोचता हूं तो एक कमाल हो ही जाता है

जिंदगी की सूखी स्याही इत्र सी महक जाती है।


वैसे तो मैं आदमी हूं एकदम खानदानी लेकिन

तेरी सूरत पर मासूम तबियत फिसल जाती है।

डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

जो क़िस्मत मेहरबान थी

 जो क़िस्मत मेहरबान थी वह रूठ गई

गोया आखरी उम्मीद हांथ से छूट गई।


मैं जिसे जिंदगी समझ बैठा था अपनी 

वो ख़्वाब थी जो नींद के साथ टूट गई।


सच कहूं तो बात बस इतनी सी थी कि 

मिट्टी बड़ी कच्ची थी सो गागर फूट गई।


हां उसे देखा था बस एक नज़र भरकर 

और वह एक नज़र से सबकुछ लूट गई ।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा 


अपने सनम को जब कहूं तो खुदा कहूं

 अपने सनम को जब कहूं तो खुदा कहूं 

अब इससे भी ज्यादा कहूं तो क्या कहूं ।


हैरानी नहीं है कोई भी जो अकेला हूं मैं

आवारगी आदत रही किसे बेवफ़ा कहूं ।


वो एक प्यासी उम्र थी जो अब बीत गई

तो अब क्यों किसी से वही किस्सा कहूं ।


कुछ टूटे सपने दिल के दराजों में बंद हैं

बेमतलब सी बात तो है लेकिन क्या कहूं ।


सुना है वो मेरे बिना बड़ी खुश रहती हैं 

वैसे सुनी सुनाई बातों पर क्या बयां कहूं ।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा 



तुम क्या हो कि दर्द से एक रिश्ता पुराना

 तुम क्या हो कि दर्द से एक रिश्ता पुराना 

मैं क्या कि भूला हुआ कोई किस्सा पुराना ।


नए जमाने की चाल ढाल बेहद नई ठहरी 

पर मुझे अजीज़ है जाने क्यों रास्ता पुराना ।


कई बार सोचा कि फिर से मुलाकात करें 

पर याद आ गया तुम्हारा वो गुस्सा पुराना ।


सब के लिए नया नया कुछ तलाशता रहा 

अपने लिए तो ठीक रहा कुछ सस्ता पुराना ।


उम्र के साथ चेहरे की रंगत भी जाती रही 

जाने कहां खो गया वो चेहरा हंसता पुराना ।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

चलते चलते जब एक रोज थक जाऊंगा

 चलते चलते जब एक रोज थक जाऊंगा 

उजाले बांटकर धीरे से कहीं ढल जाऊंगा।


होना तो हम सभी के साथ यही होना है

कि कोई आज चला गया मैं कल जाऊंगा।


माना कि बहुत सारी खामियां हैं मुझ में

पर किसी खोटे सिक्के सा चल जाऊंगा।


मौत की आशिकी से इनकार कब किया

जिंदगी जितना छल सकूंगा छल जाऊंगा।


ये बाजार बहलाता फुसलाता है कुछ ऐसे

गोया मासूम सा बच्चा हूं कि बहल जाऊंगा।

    डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

Wednesday, 25 October 2023

महीना वही पर मौसम अलग सा है

 महीना वही पर मौसम अलग सा है

यह नवंबर कहां तुम्हारी महक सा है। 


सबकुछ तो है मगर जैसे फीका सा है 

जिंदगी के जायके में तू  नमक सा है।


जिसे गुनगुनाना चाहता हूं हरदम मैं

हमदम तू बिलकुल उस ग़ज़ल सा है। 


निहारता हूं अकेले में अक्सर चांद को

यकीनन वह तेरी किसी झलक सा है।


मैं अब तुम्हें पाऊं  तो भला पाऊं कैसे 

एक कतरा हूं मैं और तू फलक सा है। 



                         मनीष कुमार मिश्रा 

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