हर मुलाकात के बाद कुछ न कुछ अधूरा रह गया
तेरे साथ वाला वो मौसम मेरे अंदर ठहरा रह गया।
जिसे लूटना था उसे तेरी एक नजर ने लूट लिया
इश्क में नाकाम सा जमाने भर का पहरा रह गया।
हरसिंगार झरता रहा पूरी रात चांदनी को पीते हुए
ओस से लिपटकर वह सुबह तक बिखरा रह गया।
तुम्हारे बाद के किस्से में तो गहरी उदासी छाई रही
उन यादों का शुक्रिया कि जीने का आसरा रह गया।
ये सुना था मैंने भी कि वक्त हर ज़ख़्म भर देता है
पर इश्क का घाव ताउम्र हरा और गहरा रह गया।
यूं तो मंज़र कई सुहाने मिलते रहे मौसम बेमौसम
पर मेरी नजर में तो बसा हुआ तेरा चेहरा रह गया।
रोशनी के साथ तो कितना शोर शराबा आ जाता है
गुमनाम जद्दोजहद के साथ तो बस अंधेरा रह गया।
आवारगी में लिपटी हुई रंगीन रातों के किस्से सुनके
बस अपने पांव पटकता सलीकेदार सवेरा रह गया।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
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