मजबूरियां बेड़ियां बन पांव से लिपट जाती हैं
परदेश में मेरी दुनियां कितनी सिमट जाती है।
वहां दिन रात कितना कुछ कहते सुनते थे हम
यहां पराई बोली के आगे ज़ुबान अटक जाती है।
यहां अकेले अब वो इस कदर याद आती हैं कि
उन्हें सोचते हुए पूरी रात यूं ही निपट जाती है।
अब इन सर्द हवाओं में अकेले यहां दुबकते हुए
उसके हांथ की चाय मेरे हाथों से छटक जाती है।
गुल गुलशन शहद चांदनी वैसे तो सब है लेकिन
वो ख़्वाब में आकर मुझे प्यार से डपट जाती है।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
विजिटिंग प्रोफेसर
ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज
उज़्बेकिस्तान
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