ढलती शाम के साथ चांदनी बिखर जाती है
वही एक तेरी सूरत आंखों में निखर जाती है।
तू कब था मेरा यह सवाल तो बेफिजूल सा है
तेरे नाम पर आज भी तबियत बहक जाती है।
बस यही सोच तेरी चाहत को संभाले रखा है
कि हर दीवार एक न एक दिन दरक जाती है।
तुम्हें सोचता हूं तो एक कमाल हो ही जाता है
जिंदगी की सूखी स्याही इत्र सी महक जाती है।
वैसे तो मैं आदमी हूं एकदम खानदानी लेकिन
तेरी सूरत पर मासूम तबियत फिसल जाती है।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
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