चलते चलते जब एक रोज थक जाऊंगा
उजाले बांटकर धीरे से कहीं ढल जाऊंगा।
होना तो हम सभी के साथ यही होना है
कि कोई आज चला गया मैं कल जाऊंगा।
माना कि बहुत सारी खामियां हैं मुझ में
पर किसी खोटे सिक्के सा चल जाऊंगा।
मौत की आशिकी से इनकार कब किया
जिंदगी जितना छल सकूंगा छल जाऊंगा।
ये बाजार बहलाता फुसलाता है कुछ ऐसे
गोया मासूम सा बच्चा हूं कि बहल जाऊंगा।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
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