Monday, 19 July 2010

बोझिल से कदमों से वो बाज़ार चला

बोझिल से कदमों से वो बाज़ार चला
बहु बेटो ने समझा कुछ देर के लिए ही सही अजार चला

कांपते पग चौराहे पे भीड़
वाहनों का कारवां और उनकी चिग्घाडती गूँज
खस्ताहाल  सिग्नल बंद पड़ा
रास्ता भी गड्ढों से जड़ा था

हवालदार कोने में कमाई में जुटा चाय कि चुस्किया लगा रहा
 छोर पे युवकों का झुण्ड जाने वालों कि खूबसूरती सराह रहा

 चौराहा का तंत्र बदहवाल  था
उसके कदमों में भी कहाँ सुर ताल था
तादात्म्यता जीवन कि बिठाते बिठाते
जीवन के इस मोड़ पे अकेला पड़ा था

लोग चलते रुकते दौड़ते थमते
एक मुस्तैद संगीतकार कि धुन कि तरह
अजीब संयोजन कि गान कि तरह
दाहिने हाथ के शातिर खिलाडी के बाएं हाथ के खेल की तरह
केंद्र और राज्य के अलग सत्तादारी पार्टियों के मेल की तरह
चौराहा लाँघ जाते फांद जाते

 उसके ठिठके पैरों कि तरफ कौन देखता
८० बसंत पार उम्रदराज को कौन सोचता
निसहाय सा खड़ा था
ह्रदय द्वन्द से भरा था

 मन में साहस भरा कांपते पैरों में जीवट
हनुमान सा आत्मबल और जीवन का कर्मठ
 युद्धस्थल में कूद पड़ा था वो
किसी और मिट्टी का बना था वो



हार्न  की चीत्कार
गाड़ियों की सीत्कार
परवा नहीं थी साहसी को
वो पार कर गया चौराहे की आंधी को

सहज सी मुस्कान लिए वो चला अगले युद्धस्थान के लिए
हर पल बदलती  जिंदगी के  नए फरमान के लिए /

No comments:

Post a Comment

Share Your Views on this..