बोझिल से कदमों से वो बाज़ार चला
बहु बेटो ने समझा कुछ देर के लिए ही सही अजार चला
कांपते पग चौराहे पे भीड़
वाहनों का कारवां और उनकी चिग्घाडती गूँज
खस्ताहाल सिग्नल बंद पड़ा
रास्ता भी गड्ढों से जड़ा था
हवालदार कोने में कमाई में जुटा चाय कि चुस्किया लगा रहा
छोर पे युवकों का झुण्ड जाने वालों कि खूबसूरती सराह रहा
चौराहा का तंत्र बदहवाल था
उसके कदमों में भी कहाँ सुर ताल था
तादात्म्यता जीवन कि बिठाते बिठाते
जीवन के इस मोड़ पे अकेला पड़ा था
लोग चलते रुकते दौड़ते थमते
एक मुस्तैद संगीतकार कि धुन कि तरह
अजीब संयोजन कि गान कि तरह
दाहिने हाथ के शातिर खिलाडी के बाएं हाथ के खेल की तरह
केंद्र और राज्य के अलग सत्तादारी पार्टियों के मेल की तरह
चौराहा लाँघ जाते फांद जाते
उसके ठिठके पैरों कि तरफ कौन देखता
८० बसंत पार उम्रदराज को कौन सोचता
निसहाय सा खड़ा था
ह्रदय द्वन्द से भरा था
मन में साहस भरा कांपते पैरों में जीवट
हनुमान सा आत्मबल और जीवन का कर्मठ
युद्धस्थल में कूद पड़ा था वो
किसी और मिट्टी का बना था वो
हार्न की चीत्कार
गाड़ियों की सीत्कार
परवा नहीं थी साहसी को
वो पार कर गया चौराहे की आंधी को
सहज सी मुस्कान लिए वो चला अगले युद्धस्थान के लिए
हर पल बदलती जिंदगी के नए फरमान के लिए /
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