Monday, 12 July 2010

मंदिरों की घंटियाँ चीत्कार सी लगी /

                                                   
     सुबह में बोझिलता थी
मौसम में आकुलता
    दिल में तड़प थी
दिखती न मंजिल न सड़क थी
सोया  था मै हार के
    जागा था मन मार के
उगता सूरज मौसम साफ़
    दिल था पर उदास


कोकिला की कूक भी काक सी लगी
मंदिरों की घंटियाँ चीत्कार सी लगी


मृत जवानों का ढेर था
        नक्सालियों का ये खेल था
खूं से जमीं लाल थी
       दरिंदगी खूंखार थी
गृहमंत्री को खेद था
      उनका खूं सफ़ेद था


भोपाल का फैसला न्याय की हार थी
दोष थे खूब बंट रहे इन्साफ की न राह थी


कश्मीर सुलग रहा  
   अलगाववाद फिर पनप रहा
लोग यहाँ मर रहे
  नेता बहस कर रहे

चैनल सेक रहे T.R.P. नेता अपना स्वार्थ
लोग मरे या मरे शहर पैसा यहाँ यथार्थ


वोट की नीति ही सबसे बड़ी है नीति
वोट ही प्रीती है वोट की ही है रीती

वोट है धंधा कुर्सी पैसे की खान
देश से क्या लेना देना सबको चाहिए बड़ा मकान

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