Saturday, 20 February 2010

मीडिया और समाज

मीडिया और समाज **************************************

                                      मीडिया का मतलब या अर्थ अगर आप अब भी -माध्यम समझते हैं,तो  इसे आप क़ी नादानी ही नहीं भोलापन भी समझना होगा .आज हम और जिस समय में जी रहे हैं,वह समय पूँजी और मानवीयता के संघर्ष का समय है. आम आदमी इतना अधिक कमजोर ,मजबूर ,जकड़ा हुआ और भ्रमित है क़ि वह यह ही नहीं समझ पा रहा है क़ि वह क्या है ? कौन है ?क्यों है ? और किसका है ? उसकी पूरी क़ी-पूरी जिन्दगी एक अंधी दौड़ बन गई है . वह तो बस भाग रहा है,जब तक भाग सकता है भाग रहा है.जिस दिन वह भागते हुवे गिर जायेगा ,सभी उसे कुचलते हुवे आगे निकल जायेंगे . जाना कंहा है ?किसी को नहीं मालूम .
                                     आज से ८-९ साल पहले जब मैं इस तरह क़ी बात सोचता था,तो मुझे लगता था क़ी -हम भारतीय कितने पिछड़े हुवे हैं.हमे समय के साथ चलना नहीं आता . अपना विकास करना नहीं आता .हम लोग ईमोस्न्ल फूल हैं. हमे जिन्दगी में प्रेक्टिकल होना चाहिए. पैसा कमाना चाहिए.सबसे आगे रहना चाहिए. ये धर्म और दर्शन क़ी बातों से कुछ नहीं होता.लेकिन आज जब इन सब बातों पे सोचता हूँ,आज के हालात देखता हूँ तो अपनी गलती का एहसास हो जाता है. बाजारवाद और मंडीकरन क़ी इस दुनिया ने रिश्तों क़ी कीमत का एहसास करा दिया. जीवन में संतुष्टि का महत्व समझा दिया. साथ ही साथ अपने धर्म और दर्शन के प्रति सम्मान भी इसी बाजारवाद ने ही मुझे समझाया .हमसब आज जिस तनाव और स्पर्धा के युग में जी रहे हैं,उससे बचने के सभी रास्ते भारतीय धर्म और दर्शन में है.बात सिर्फ इतनी सी है क़ी हम इस बात को समझने में वक्त कितना लेते हैं.
                                अपनों से दूर अकेले किसी शहर में लाखों के पैकेज पे काम करने वाले लगभग सभी दोस्त कहते हैं क़ि-''-कुत्ता बना के रख दिया है यार.इतना तनाव रहता है क़ि क्या बताऊँ .पैसा है लेकिन उसका करना क्या है .बस कमाओ और उडाओ,यही जिन्दगी बन गई है .कोई सोसल लाइफ नहीं रह गई है.अलग ही दुनिया है .''इन  सब बातों को सुनता हूँ तो समझ में आता है क़ि जिन्दगी वो नहीं है जो आज कल  सभी तरह के विज्ञापनों के माध्यम से प्रचारित और प्रसारित किया जा रहा है .इसमें मुख्य भूमिका निभाने वाली मीडिया आज सिर्फ माध्यम नहीं रह गई है,बल्कि वो हमारा ही एक विस्तृत अंग बन गई है.वो हमारा एक ऐसा हिस्सा बन गई है ,जिसे हम चाहें तो भी अपने से काट के अलग नहीं कर सकते.ऐसा हम कर भी नहीं सकते क्योंकि हम जिस समय में रह रहे हैं वह समय इन्मध्य्मिन के द्वारा नियंत्रित और व्यवस्थित किया जा रहा है.हमारी सोच और समझ पर इन माध्यमों का हमसे जादा ध्यान है. अपने निर्णय हमे लेन हैं लेकिन विकल्पों क़ि सूची ये माध्यम प्रदान करेंगे .साथ ही साथ हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा यह भी वे ही हमे बतायेंगे .हमे सिर्फ अपनी हैसियत के अनुसार किसी को चुन लेना है.वैसे यह चुनाव भी कितना हमारा होगा यह कहना मुश्किल है. 
                             किसी ने जिन्दगी क़ि परिभाषा देते हुए लिखा क़ि-''जिन्दगी विकल्पों के बीच से चुनाव का नाम है.''लेकिन आज हालत यह है क़ि -''जिन्दगी प्रायोजित और प्रचारित विकल्पों के बीच आर्थिक क्षमता का प्रदर्शन मात्र है.''हम ऐसी कठपुतली बन गए हैं क़ि जिसकी डोर बड़े-बड़े पूंजीपतियों के हाथ में है.मीडिया और इस मीडिया को चलाने वाला पैसा समाज के सरोंकारों से कोसों दूर जा चुका है. लाभ-हानि के गणित में मानवीयता क़ि कीमत कुछ नहीं है.संवेदनाएं मीडिया का हथियार हैं.मुनाफा कमाने का हथियार .इस मुनाफे के आगे कोई दूसरी बात मायने नहीं रखती. मूल्यों और कीमत क़ि लड़ाई में मानवीय मूल्यों का जो पतन हो रहा है,उसे जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना अच्छा है.
     

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