Thursday, 7 December 2023

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में विभाजन की त्रासदी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न ।

 

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में विभाजन की त्रासदी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न  

 

मंगलवार दिनांक 28 नवंबर 2023 को भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की शुरुआत हुई। संगोष्ठी का मुख्य विषय "भारत विभाजन की त्रासदी और भारतीय भाषाओं का साहित्य" है । इस संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में राष्ट्रीय सिंधी भाषा विकाश परिषद के निदेशक प्रो. रविप्रकाश टेकचंदानी, संस्थान के नेशनल फेलो प्रो. हरपाल सिंह और बीज वक्ता के रूप में व्यंक्तेश्वर कालेज, नई दिल्ली से प्रो. निर्मल कुमार उपस्थित थे।

 

मान्यवर अतिथियों द्वारा दीप प्रज्ज्वलित करके इस संगोष्ठी की शुरुआत हुई। संगोष्ठी के संयोजक डॉ मनीष कुमार मिश्रा ने स्वागत भाषण के साथ संगोष्ठी के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला। दिल्ली के व्यंक्तेश्वर कॉलेज में इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रो निर्मल कुमार ने विभाजन और सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में अपना सारगर्भित वक्तव्य दिया। प्रो हरपाल सिंह ने विभाजन की त्रासदी को लेकर अपने विचार साझा किए । प्रो रवि टेकचंदानी ने सिंधी साहित्य और समाज के परिप्रेक्ष्य में बड़ा मार्मिक वक्तव्य प्रस्तुत किया। इस अवसर पर उन्होंने विभाजन पर प्रकाशित अपनी पुस्तक की प्रति भी संस्थान के सचिव श्री नेगी जी को भेंट की । संस्था के निदेशक प्रो नागेश्वर राव जी ऑनलाईन माध्यम से कार्यक्रम से जुड़े और सभी आए हुए अतिथियों के प्रति आभार ज्ञापित किया। अंत में संस्थान के सचिव श्री नेगी जी ने आभार ज्ञापन की जिम्मेदारी पूरी की । इस सत्र का कुशल संचालन श्री प्रेमचंद जी ने किया । राष्ट्रगान के साथ यह उद्घाटन सत्र समाप्त हुआ ।

 

उद्घाटन सत्र के अतिरिक्त पहले दिन तीन चर्चा सत्र संपन्न हुए जिनमें देश भर से जुड़े 10 विद्वानों ने अपने प्रपत्र प्रस्तुत किए । इन तीनों सत्रों की अध्यक्षता क्रमशः प्रो आलोक गुप्ता (फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ), प्रो निर्मल कुमार(व्यंकटेश्वर कॉलेज, नई दिल्ली  में इतिहास विभाग के अध्यक्ष ) और प्रो रविंदर सिंह जी (फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ) ने किया । संगोष्ठी के दूसरे दिन कुल चार चर्चा सत्र संपन्न हुए जिनकी अध्यक्षता क्रमशः प्रोफ़ेसर महेश चंपकलाल (टैगोर फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ), प्रोफ़ेसर नंदजी राय (फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ), प्रोफ़ेसर हरपाल सिंह (नेशनल फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ) और प्रोफ़ेसर हरि मोहन बुधोलिया जी ने किया । दूसरे दिन कुल 13 प्रपत्र वाचकों ने अपने प्रपत्र प्रस्तुत किए ।

 

समापन सत्र की अध्यक्षता भी प्रोफ़ेसर हरि मोहन बुधोलिया जी ने की । इस अवसर पर संस्थान के अकड़ेमिक रिसोर्स आफ़िसर श्री प्रेमचंद जी भी उपस्थित थे । संगोष्ठी के संयोजक डॉ मनीष कुमार मिश्रा ने दो दिवसीय संगोष्ठी की रिपोर्ट प्रस्तुत की । वरिष्ठ एसोशिएट श्री अयूब ख़ान जी ने संगोष्ठी पर अपना मंतव्य व्यक्त किया । श्री प्रेमचंद ने संस्थान की गतिविधियों की जानकारी देते हुए इस संगोष्ठी में प्रस्तुत सभी आलेखों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की बात कही । अध्यक्षी भाषण में प्रोफ़ेसर हरि मोहन बुधोलिया जी ने सुंदर आयोजन की तारीफ़ की । अंत में संयोजक के रूप में डॉ मनीष कुमार मिश्रा ने सभी के प्रति आभार ज्ञपित करते हुए , अध्यक्ष की अनुमति से संगोष्ठी समाप्ति की घोषणा की । इस तरह दो दिन की संगोष्ठी बड़े सुखद वातावरण में संपन्न हुई।

 















डॉ मनीष कुमार मिश्रा

Sunday, 19 November 2023

तुझे भुलाने की कोशिश में

 तुझे भुलाने की कोशिश में सब याद रह गया

तु मुझमें मुझसे ज्यादा जाने के बाद रह गया।


उसके बिना इश्क का रोज़ा छूटे तो कैसे छूटे 

जाने किस छत मेरी हसरतों का चाँद रह गया।


मोहब्बत करें और बड़े इत्मीनान से रहा करें

अब इस जहां में कौन ऐसा दिलशाद रह गया।


चुप्पियों के टूटते ही कायर कोई भी बचा नहीं 

फिर सामने तो आग में तपा फौलाद रह गया।


बूढ़े मां बाप की आखों से टपकता लहू देख 

वो खुश था बहुत जो कि बे औलाद रह गया।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा


 



Saturday, 18 November 2023

हर मुलाकात के बाद

 हर मुलाकात के बाद कुछ न कुछ अधूरा रह गया

तेरे साथ वाला वो मौसम मेरे अंदर ठहरा रह गया।


जिसे लूटना था उसे तेरी एक नजर ने लूट लिया 

इश्क में नाकाम सा जमाने भर का पहरा रह गया।


हरसिंगार झरता रहा पूरी रात चांदनी को पीते हुए

ओस से लिपटकर वह सुबह तक बिखरा रह गया।


तुम्हारे बाद के किस्से में तो गहरी उदासी छाई रही

उन यादों का शुक्रिया कि जीने का आसरा रह गया।


ये सुना था मैंने भी कि वक्त हर ज़ख़्म भर देता है 

पर इश्क का घाव ताउम्र हरा और गहरा रह गया।


यूं तो मंज़र कई सुहाने मिलते रहे मौसम बेमौसम

पर मेरी नजर में तो बसा हुआ तेरा चेहरा रह गया। 


रोशनी के साथ तो कितना शोर शराबा आ जाता है

गुमनाम जद्दोजहद के साथ तो बस अंधेरा रह गया।


आवारगी में लिपटी हुई रंगीन रातों के किस्से सुनके 

बस अपने पांव पटकता सलीकेदार सवेरा रह गया।

डॉ मनीष कुमार मिश्रा 






Wednesday, 15 November 2023

जिसपर गिरी है गाज वो यूक्रेन और गाजा है।


 कौन जाने किसे किसकी मिल रही सज़ा है

जिसपर गिरी है गाज वो यूक्रेन और गाजा है।


इन सियासत के सितमगरों से पूछे तो कोई 

बारूद के बवंडरवाली ये कौन सी फिज़ा है।


शहर के शहर खंडहर बनानेवालों बता दो

क्या सच में तुम्हें ज़रा भी खौफ ए कजा है।


मिसाइल से भला कब हल हुए हैं मसाइल

हजारों कत्ल हो जाएं यह किसकी रजा है।


तेल और हथियारों की सौदागिरी के वास्ते

इंसानियत का हो कत्ल इसमें कैसी मज़ा है।


   डॉ मनीष कुमार मिश्रा 








Tuesday, 14 November 2023

ढलती शाम के साथ

 ढलती शाम के साथ चांदनी बिखर जाती है

वही एक तेरी सूरत आंखों में निखर जाती है।


तू कब था मेरा यह सवाल तो बेफिजूल सा है 

तेरे नाम पर आज भी तबियत बहक जाती है।


बस यही सोच तेरी चाहत को संभाले रखा है

कि हर दीवार एक न एक दिन दरक जाती है।


तुम्हें सोचता हूं तो एक कमाल हो ही जाता है

जिंदगी की सूखी स्याही इत्र सी महक जाती है।


वैसे तो मैं आदमी हूं एकदम खानदानी लेकिन

तेरी सूरत पर मासूम तबियत फिसल जाती है।

डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

जो क़िस्मत मेहरबान थी

 जो क़िस्मत मेहरबान थी वह रूठ गई

गोया आखरी उम्मीद हांथ से छूट गई।


मैं जिसे जिंदगी समझ बैठा था अपनी 

वो ख़्वाब थी जो नींद के साथ टूट गई।


सच कहूं तो बात बस इतनी सी थी कि 

मिट्टी बड़ी कच्ची थी सो गागर फूट गई।


हां उसे देखा था बस एक नज़र भरकर 

और वह एक नज़र से सबकुछ लूट गई ।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा 


अपने सनम को जब कहूं तो खुदा कहूं

 अपने सनम को जब कहूं तो खुदा कहूं 

अब इससे भी ज्यादा कहूं तो क्या कहूं ।


हैरानी नहीं है कोई भी जो अकेला हूं मैं

आवारगी आदत रही किसे बेवफ़ा कहूं ।


वो एक प्यासी उम्र थी जो अब बीत गई

तो अब क्यों किसी से वही किस्सा कहूं ।


कुछ टूटे सपने दिल के दराजों में बंद हैं

बेमतलब सी बात तो है लेकिन क्या कहूं ।


सुना है वो मेरे बिना बड़ी खुश रहती हैं 

वैसे सुनी सुनाई बातों पर क्या बयां कहूं ।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा 



तुम क्या हो कि दर्द से एक रिश्ता पुराना

 तुम क्या हो कि दर्द से एक रिश्ता पुराना 

मैं क्या कि भूला हुआ कोई किस्सा पुराना ।


नए जमाने की चाल ढाल बेहद नई ठहरी 

पर मुझे अजीज़ है जाने क्यों रास्ता पुराना ।


कई बार सोचा कि फिर से मुलाकात करें 

पर याद आ गया तुम्हारा वो गुस्सा पुराना ।


सब के लिए नया नया कुछ तलाशता रहा 

अपने लिए तो ठीक रहा कुछ सस्ता पुराना ।


उम्र के साथ चेहरे की रंगत भी जाती रही 

जाने कहां खो गया वो चेहरा हंसता पुराना ।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

चलते चलते जब एक रोज थक जाऊंगा

 चलते चलते जब एक रोज थक जाऊंगा 

उजाले बांटकर धीरे से कहीं ढल जाऊंगा।


होना तो हम सभी के साथ यही होना है

कि कोई आज चला गया मैं कल जाऊंगा।


माना कि बहुत सारी खामियां हैं मुझ में

पर किसी खोटे सिक्के सा चल जाऊंगा।


मौत की आशिकी से इनकार कब किया

जिंदगी जितना छल सकूंगा छल जाऊंगा।


ये बाजार बहलाता फुसलाता है कुछ ऐसे

गोया मासूम सा बच्चा हूं कि बहल जाऊंगा।

    डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

Wednesday, 25 October 2023

महीना वही पर मौसम अलग सा है

 महीना वही पर मौसम अलग सा है

यह नवंबर कहां तुम्हारी महक सा है। 


सबकुछ तो है मगर जैसे फीका सा है 

जिंदगी के जायके में तू  नमक सा है।


जिसे गुनगुनाना चाहता हूं हरदम मैं

हमदम तू बिलकुल उस ग़ज़ल सा है। 


निहारता हूं अकेले में अक्सर चांद को

यकीनन वह तेरी किसी झलक सा है।


मैं अब तुम्हें पाऊं  तो भला पाऊं कैसे 

एक कतरा हूं मैं और तू फलक सा है। 



                         मनीष कुमार मिश्रा 

Thursday, 19 October 2023

भगवान परशुराम : सोशल मीडिया और छविकरण

 

 

 

भगवान परशुराम : सोशल मीडिया और छविकरण

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

 

                    भगवान परशुराम से संबंधित कथाओं का कोई अंत नहीं है । पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भगवान परशुराम के राजनीतिक देवताकरण / छविकरण के समकालीन प्रयासों में सोशल मीडिया-आधारित सामग्री जैसे मीम्स, पोस्ट, चित्र, टिप्पणियां और अन्य सुविधाओं का  बना विश्लेषण या सही जानकारी के बहुत सी बातें लिखी जा रही हैं । एक राजनीतिक प्रतीक के रूप में भगवान परशुराम के लोकप्रिय उद्भव को इस तरह उपयोग में लाना देश और समाज के व्यापक हित में नहीं है । हिंदुत्व का वैचारिक जनादेश स्पष्ट रूप से विभिन्न वर्गों के बीच एकता का प्रस्ताव करता है, लेकिन डिजिटल सोशल मीडिया में भगवान परशुराम का कतिपय समकालीन राजनीतिक उपयोग  हिंदुत्व की उस मूल चेतना के लिए ही चुनौती प्रस्तुत करती है । इस प्रक्रिया में, यह लेख धार्मिक आस्था, विश्वास  और सोशल मीडिया  की सामाजिक संरचनाओं के बीच जटिल संबंधों से जुड़ा है ।

                  एक तरफ तो यह चिंतन और मौलिकता के संक्रमण का काल है तो दूसरी तरफ अनुपयोगी व्यर्थ मामूली बातों के जश्न उत्सव और सौंदर्य का समय है । यह समय आत्मकेंद्रियता, आत्ममुग्धता एवं आत्माभिमान का समय है । ऐसे समय में विस्थापित हो रहे जीवन मूल्यों, विचारों इत्यादि के पावन पुनर्वास की एक सार्थक लड़ाई हमें इसी पूँजी, विज्ञान और प्रौद्योगिकी जैसे हथियारों के सजग उपयोग से ही सुनिश्चित करनी होगी । आज पूरे विश्व में आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्र में प्रगति विकास की मूल अवधारणा बन चुका है । शायद यही कारण है कि भारत जैसे विकासशील देश में आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में गतिशीलता / नवीनता अधिक से अधिक व्यापक होते हुए दिखाई दे रही है । देश का मध्यम वर्ग तेजी से बढ़ रहा है । इस वर्ग की क्रय शक्ति बढ़ रही है । बाजार इस वर्ग को लुभा रहा है और भारत क्रय - विक्रय का महासागर बनता जा रहा है ।

                   हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक अखंड राष्ट्र के रूप में  भारत का स्वरूप बहुवचनात्मक है । बाह्य विविधताओं से परिपूर्ण इस देश में कुछ आंतरिक मूल तत्व हैं जो इसकी अखंडता के लिए कवच के समान हैं । भारतीयता जैसी अवधारनाएं इन्हीं प्रांजल तत्वों की खोह में सुरक्षित रहती हैं । पूरे विश्व में इस तरह का दूसरा उदाहरण नहीं है । ये तत्व ही प्रकाश के वे अंतःकेंद्र हैं जो पवित्र,निर्मल विचारों और मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिये साहित्य और संस्कृति के माध्यम से सच्चा बयान प्रस्तुत करते हैं । एक राष्ट्र के रूप में हमें ऊर्जावान, प्रज्ञावान और अग्रगामी बनाते हैं । यह भी सिखाते हैं कि दृष्टि के विस्तार में हम एक हैं । अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्ति में लिखा गया है कि 

“जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम्”

(अथर्ववेद १२-१-४५ )

 अर्थात बहुत से लोग कई भाषायें बोलते हैं और उनके कई धर्म हैं । अर्थात हजारों सालों से यह भूमि बहुभाषी और बहुधर्मी रही है । रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में अनेकों संस्कृतियों के लोगों एवं उनकी भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन है । मध्यकालीन कवियों और संतों ने लंबी यात्राएं की और अपने विचारों का प्रचार-प्रसार किया । गुरुग्रंथ साहब में अनेकों संतों की वाणी संग्रहित है । मीरा बाई राजस्थानी, गुजराती और हिंदी के बीच सेतु का काम कर रहीं थी । यही काम विद्यापति बिहारी और बंगाली के बीच कर रहे थे । मैथिली विद्यापति की मातृभाषा थी लेकिन बांग्ला वाले भी उन्हें ब्रजबुलि अर्थात बंगला भाषा के रचनाकार मानते हैं । रहीम और रसखान की बृजभाषा पर कौन मोहित नहीं हुआ । 

                भारतीय दर्शन जीवन की संपूर्णता में विश्वास करता है । श्वेताश्वतरोपनिषद(4/6) में वर्णन मिलता है कि दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है। हमारा शरीर एक पीपल के वृक्ष समान है । आत्मा तथा परमात्मा सनातन सखा अर्थात् दो पक्षी हैं जो शरीर रूपी वृक्ष पर हृदय रूपी घोसलें में एक साथ निवास करते हैं । उनमें से एक तो कर्मफल का भोग करता है और दूसरा भोग न करके केवल देखता रहता है।)

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥

 

मानवीय उदारता का श्रेष्ठ साहित्य महाभारत को माना जा सकता है । अलग-अलग भारतीय भाषाओं में भिन्नता के बाद भी कुछ सूक्ष्म सूत्र ज़रूर हैं जो इसे जोड़ता है । देवताओं और मनुष्यों के बीच पुल बनानेवाले भारतीय ऋषियों,मुनियों,संतों एवं कवियों ने दिव्य और पावन के अवतरण की संभावनाओं को हमेशा जिंदा रखा । राम, परशुराम और कृष्ण के रूप में इन्होंने समाज को एक आदर्श,प्रादर्श और प्रतिदर्श दिया । 

            ऐसे महान मानवीय आदर्शों के साथ हमें अपनीय मानवीय उदारता को और  विस्तार देना होगा,ताकि विस्तृत दृष्टिकोण हमारी थाती रहे ।  निरर्थकता में सार्थकता का रोपण ऐसे ही हो सकता है । स्वीकृत मूल्यों का विस्थापन और विध्वंश चिंतनीय है । विश्व को बहुकेंद्रिक रूप में देखना, देखने की व्यापक,पूर्ण और समग्र प्रक्रिया है । समग्रता के लिए प्रयत्नशील हर घटक राष्ट्रीयता का कारक होता है । जीवन की प्रांजलता, प्रखरता और प्रवाह को निरंतर क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है । वैचारिक और कार्मिक क्रियाशीलता ही जीवन की प्रांजलता के प्राणतत्व हैं । जीवन का उत्कर्ष इसी निरंतरता में है । भारतीय संस्कृति के मूल में समन्वयात्मकता प्रमुख है । सब को साथ देखना ही हमारा सही देखना होगा । अँधेरों की चेतावनी और उनकी साख के बावजूद हमें सामाजिक न्याय चेतना को आंदोलित रखना होगा । खण्ड के पीछे अख्ण्ड के लिये सत्य में रत रहना होगा । सांस्कृतिक संरचना में प्रेम, करुणा और सहिष्णुता को निरंतर बुनते हुए इसे अपना सनातन सत्य बनाना होगा । भगवान परशुराम के प्रति यही हमारी सच्ची श्रद्धा हो सकती है ।

              समग्रता के लिए प्रयत्नशील हर घटक राष्ट्रीयता का कारक होता है । ,सादृश्य मौलिकता का सिद्धांत यह बताता है कि ना किए हुए अनुभव को भी अपने अनुभव की सादृश्यता में व्यक्त करना,कोई कोरी कला नहीं अपितु वास्तविकता की तलाश है । सीखने से अधिक सीखने की क्षमता का विकास होना चाहिए । सार्वभौमिक प्रतीकों के लिए नए प्रयासों की आवश्यकता है । कुछ विद्वानों ने इतिहास को एक निर्मिति माना है । जिसमें समाज बोध के साथ-साथ इतिहासकार की अपनी दृष्टि भी समाहित है । यही कारण है कि एक ही समय के कई इतिहास होते हैं । किसी समय का कोई एक इतिहास नहीं होता । वस्तुपरक इतिहास की अवधारणा, इतिहास आलेखकारी का एक तत्व/ घटक मात्र है । तथ्यों की विरलता जितनी बड़ी समस्या है, उतनी ही उनकी बहुलता भी समसामयिक संदर्भों में समस्या बनती जा रही है ।

             परंपरा को सामान्य रूप में उस आधिकारिक या स्वीकृत व्यवहार के रूप में चित्रित किया जाता है जो कि समय विशेष में किसी समाज विशेष में हो । परंपरा क्या है ? यह समझना भी जरूरी है । परंपरा सामान्य रूप से उस आधिकारिक या स्वीकृत व्यवहार के रूप में चित्रित किया जाता है जो कि समय विशेष में किसी समाज विशेष में हो । लेकिन यह स्वीकृति बनती कैसे है ? कब बनती है ? कितने दिन के लिए बनती है ? और बनी हुई स्वीकृति बदलती कैसे है ? ये प्रश्न भी जरूरी हैं । अर्थात यह जानने का प्रयास कि परंपरा का उद्गम स्थान क्या होता है ? इस संदर्भ में रामाश्रय राय जी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि - कोई भी विश्वास या व्यवहार शून्य में अविर्भूत नहीं होता । इसलिए वे  किसी इतर तत्व को इसका स्रोत मानते हैं ।

                  मुझे लगता है कि समय और परिस्थितियों से प्राप्त अनुभव के आधार पर जीवन को अधिक सुरक्षित एवं सुगम बनाने के लिए समाज विशेष में आधिकारिक रूप से अथवा सामुदायिक स्वीकृति के आधार पर कुछ संकल्पना निर्धारित की जाती हैं । इन संकल्पनाओं के निर्धारण में पूर्व की वैचारिक एवं कार्मिक पद्धतियां नवाचार के प्रयोग का माध्यम बनते हुए, परिवर्तन की नई प्रक्रिया को आत्मसाथ करते हुए गतिशील होती हैं । इस गतिशीलता में सतत रूप से स्वीकृति और अस्वीकृति का द्वंद्व चलता रहता है । समय और परिस्थितियों के अनुरूप अनुकूलता की परिभाषा भी बदलती रहती है । ऐसे में परंपरा दरअसल एक निरंतरता है जिसमें एकदम से न तो कुछ छूट जाता है और न ही जुड़ जाता है, अपितु कुछ छूटने और कुछ जोड़ने की प्रक्रिया इस परंपरा की मूल चेतना का केंद्र है

               आज प्रौद्योगिकी के विकास से मानव जीवन की सभी आवश्यकताएं पूरा  करने का प्रयास हो रहा है । तकनीक हमारे जीवन का एक हिस्सा हो गया है । हमारा भविष्य हमारे तकनीकी विकास का ही प्रतिरूप होगा यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है । भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने हाल ही में जय जवान जय किसान जय विज्ञान के साथ जय अनुसंधान की बात कही । इस बात से हम यह समझ सकते हैं कि भविष्य की राह विज्ञान और अनुसंधान की रोशनी से जगमगायेगी ।  मौलिक चिंतन का वह स्वरूप जो समाज और देश की अपनी आवश्यकताओं के अनुसार हो, उनको प्रोत्साहित करना महत्वपूर्ण है । आवश्यकता आविष्कार की जननी है लेकिन वे आवश्यकताएं जो समाज और देश की सामाजिक, आर्थिक, सामरिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक जरूरतों से जुड़ी हों उन्हें पहचान कर उनके लिए अनुसंधान के माध्यम से नए रास्ते तलाशना अधिक तर्कसंगत एवं समीचीन है ।

              आज़ फेसबुक जैसे सोशल मीडिया ‘स्वपूर्ति’ (सेल्फ़ फुलफिलमेंट ) के नये केन्द्र बन गये हैं। इस आत्ममोह, आत्मकेन्द्रियता के बीच हम स्वयं को खोने की भयानक त्रासदी से जूझ रहे हैं, उस पर भी कमाल यह कि हमे यह पता ही नहीं। हमें यह भ्रम  है कि हम फेसबुक द्वारा असीमित लोगों के बीच पहुँच जाते है। जब कि सच्चाई यह है कि हम कहीं नही पहुँचते। बल्कि जहाँ पहुँच सकते हैं वहाँ की राह भी कठीन हो जाती है। मानव जीवन सीमाओं में बंधा है। यह उसकी मूल प्रकृति है। इसे हम क्यों भूल जाते हैं। प्रकृति ने हमें कई संदर्भों में अपूर्ण बनाकर हमारी सीमाओं को सुनिश्चित किया है। ऐसा इसलिए ताकि इस अपूर्णता में हम ‘पूर्णता’ के मर्म को समझ पायें और आपसी सहयोग, विचार-विनिमय इत्यादि के माध्यम से जीवन के विभिन्न संदर्भों  में सामजस्य की स्थितियों को लगातार तलाशते रहें । इसी से मानव जाति का परिष्कार एवं  परिमार्जन संभव है।

 

 

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

विजिटिंग प्रोफ़ेसर

ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज़

ताशकंद, उज्बेकिस्तान

संदर्भ सूची :

1.        Political deification of Lord Parshuram: tracing Brahminic masculinity in contemporary North India - Jigisha Bhattacharya.https://www.tandfonline.com/doi/full/10.1080/0048721X.2022.2094775?scroll=top&needAccess=true&role=tab

2.        https://www.britannica.com/topic/Parashurama

3.        https://ijcrt.org/papers/IJCRT2303503.pdf

4.        Collins, Brian. The Other Rama: Matricide and Genocide in the Mythology of Parasurama. State University of New York Press. 2020.

5.        Postcolonial Indian Literature Towards a critical framework – Satish C. Aikant, Indian Institute of Advanced Study, Shimla, first published 2018.

6.        Social Awareness in Modern Indian Literature – R.K.Kaul and Jaidev. Indian Institute of Advanced Study, Shimla, first published 1993.

7.        Literature and Infinity – Franson Manjali, Indian Institute of Advanced Study, Shimla, first published 2001. 

8.        Ethics of information Technologies in knowledge society – Jacob Dahi Rendtorft, Roskide University, Denmark. Journalism and Mass Communication April 2016, Vol 6, No. 04, 213-220.

9.        Impact of media on society: As sociological perspective Hakim Khalid Mehraj, Akhtar Neyaz Bhat, Hakeem Rameez Mehraj Govt. college Baramulla – International Journal of Humanities and social science invention ISSN (online) 2319-7722, ISSN (Print) 2319-7714. Volume 3, issue 06/June 2014 I P.P. 56-64.

10.     Indian literature – Edited by Arbinda Poddar – Indian Institute of Advanced Study, 1972.

11.     Understanding Itihasa – Sibesh Bhattacharya, IIAS, Shimla, 2010.

12.     Methodology of Socio-Historical Linguistic – D.D.Madhulkar, IIAS, Shimla, 1996.

13.     Postcolonial Indian Literature: Towards a Critical Framework – Satish C. Aikant, IIAS, Shimla, 2008.

14.     The Quest for Indian Sociology: Radhakamal Mukerjee and our Times – Manish Thakur, IIAS, Shimla, 2014.

 

Friday, 22 September 2023

रामदरश मिश्र के उपन्यास

  


1. पानी के प्राचीर 1961

2. जल टूटता हुआ 1969

3. बीच का समय 1970

4. सूखता हुआ तालाब 1972

5.  अपने लोग 1976

6. रात का सफर 1976

7. आकाश की छत 1979

8. आदिम राग 1982

9. बिना दरवाज़े का मकान 1984

10. दूसरा घर 1986

11. थकी हुई सुबह 1994

12. बीस बरस 1996

13. परिवार 2006

14. बचपन भास्कर का 2010

15. एक था कलाकार 2020

16. एक बचपन यह भी

Friday, 8 September 2023

G 20

 G20 


G20 समूह विश्व बैंक एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रतिनिधि, यूरोपियन यूनियन एवं 19 देशों का एक अनौपचारिक समूह है। G20 सदस्य विश्व सकल घरेलू उत्पाद के 80% से अधिक, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के 75% और विश्व की 60% आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं।

यह एक मंच है जिसे G7 द्वारा, विकसित एवं विकासशील दोनों अर्थव्यवस्थाओं के सहयोग से स्थापित किया गया था। वर्ष 1999 से वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक के गवर्नरों का सम्मेलन आयोजित किया जाता है।

वर्ष 2008 के वित्तीय संकट के दौरान दुनिया ने उच्चतम राजनीतिक स्तर पर एक नई सर्वसम्मति की आवश्यकता को महसूस किया। इसके परिणामस्वरूप यह निश्चय किया गया कि वर्ष में एक बार G20 राष्ट्रों के नेताओं की बैठक की जाएगी। G20 राष्ट्रों के वित्त मंत्री एवं केंद्रीय बैंक के गवर्नर वर्ष में दो बार बैठक करते हैं जिसमें विश्व बैंक एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रतिनिधि भी भाग लेते हैं।

G20 के कार्यों को दो ट्रैक्स में विभाजित किया जाता है: 

फाइनेंस ट्रैक G20 समूह के वित्त मंत्री एवं केंद्रीय बैंक के गवर्नर और उनके प्रतिनिधियों के साथ सभी बैठकों में वित्तीय विनियमन, राजकोषीय मुद्दे एवं मुद्रा पर केंद्रित होता है।शेरपा ट्रैक राजनीतिक जुड़ाव, भ्रष्टाचार का विरोध, विकास, ऊर्जा आदि जैसे व्यापक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करता है।

G20 समूह में अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, यूरोपियन यूनियन, फ्राँस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, मेक्सिको, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया, तुर्की, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैं।स्पेन को एक स्थायी, गैर-सदस्य के रूप में आमंत्रित किया जाता है जो प्रत्येक वर्ष G20 सम्मेलन में भाग लेता है। G20 समूह का अध्यक्ष पद सदस्य देशों के मध्य वार्षिक तौर पर एक प्रक्रिया के तहत रोटेट होता रहता है जो समय के साथ-साथ क्षेत्रीय संतुलन सुनिश्चित करता है। अध्यक्ष पद के चुनाव के लिये 19 राष्ट्रों को 5 समूहों में विभाजित किया जाता है, प्रत्येक समूह में 4 देश से अधिक नहीं होते हैं। अध्यक्ष पद वार्षिक स्तर पर प्रत्येक समूह में रोटेट (Rotate) होता है। प्रत्येक वर्ष G20 का कोई समूह, अध्यक्ष पद के लिये किसी अन्य समूह से किसी एक देश का चयन करता है। भारत समूह 2 में है जिसमें रूस, दक्षिण अफ्रीका एवं तुर्की भी शामिल हैं।

G20 समूह के पास स्थायी सचिवालय या मुख्यालय नहीं होता है। इसके अतिरिक्त G20 समूह का अध्यक्ष अन्य सदस्यों के साथ परामर्श करके G20 एजेंडा को लागू करने और वैश्विक अर्थव्यवस्था के विकास हेतु उत्तरदायी है।

महत्त्वपूर्ण बिंदु :

ट्रोइका (Troika): प्रत्येक वर्ष जब एक सदस्य देश अध्यक्ष पद ग्रहण करता है तो वह देश पिछले वर्ष के अध्यक्ष देश एवं अगले वर्ष के अध्यक्ष देश के साथ समन्वय स्थापित करके कार्य करता है और इस प्रक्रिया को ही सामूहिक रूप से ट्रोइका कहते है। यह समूह के एजेंडे की अनुकूलता एवं निरंतरता को सुनिश्चित करता है।

सहयोग:

G20 समूह के सदस्यों के कार्यों को विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा सहयोग प्रदान किया जाता है जो नीतियों के निर्माण में सलाह देते हैं। इन संगठनों में शामिल हैं:

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष 

आर्थिक सहयोग और विकास संगठन 

संयुक्त राष्ट्र 

विश्व बैंक 

विश्व व्यापार संगठन


G20 समूह द्वारा संबोधित मुद्दे :


वित्तीय बाज़ार 

कर एवं राजकोषीय नीति

व्यापार

कृषि

रोज़गार

ऊर्जा

भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई

रोज़गार बाज़ार में महिलाओं की उन्नति

सतत् विकास एजेंडा 2030

जलवायु परिवर्तन

वैश्विक स्वास्थ्य 

आतंकवाद 

समावेशी उद्यमशीलता 


G20 सम्मेलन में भारत की प्राथमिकताएँ :

भ्रष्टाचार से लड़ने के लिये कर अपवंचन की जाँच करना।

आतंकवादी वित्तपोषण को अवरुद्ध करना।

प्रेषण की लागत में कटौती।

प्रमुख दवाओं तक बाज़ार की पहुँच।

विश्व व्यापार संगठन में सुधार।

पेरिस समझौता को पूर्णतः लागू करना।


उपलब्धियाँ


तीव्र निर्णयन: 


समावेशी रुप : 


समन्वित कार्रवाई: 


चुनौतियाँ :


हितों का ध्रुवीकरण:

 

Friday, 1 September 2023

वैश्या वृत्ति से जुड़े हिंदी उपन्यास

 1.सलाम आखिरी - मधु कांकरिया

2.शेष कादंबरी -अलका सरावगी

3.मुर्दाघर - जगदम्बा प्रसाद दीक्षित

4.आज बाज़ार बंद है  - मोहनदास नैमिशराय

5. सुहाग के नूपुर - अमृतलाल नागर 

6. मुर्दों का टीला - रांग्ये राघव

7. कुंभी पाक - नागार्जुन

8. वैशाली की नगरवधू - आचार्य चतुर्सेन शास्त्री

9. सेवासदन - प्रेमचंद 

10. पतिता की साधना - भगवती प्रसाद बाजपेई 

11. साधू और वैश्या - कृष्ण प्रसाद कौल

12. मंदिर की नर्तकी - आचार्य चतुर्सेन शास्त्री

13. दिल्ली का दलाल - पाण्डेय बेचने शर्मा उग्र 

14. वह फिर नहीं आई - भगवती चरण वर्मा 

15. वैश्या पुत्र -  ऋषभ चरण जैन 

16. वैश्या वृतांत - यशवंत कोठारी 

डॉ मनीष कुमार मिश्रा

के एम अग्रवाल महाविद्यालय,कल्याण 


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