Thursday, 19 October 2023

भगवान परशुराम : सोशल मीडिया और छविकरण

 

 

 

भगवान परशुराम : सोशल मीडिया और छविकरण

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

 

                    भगवान परशुराम से संबंधित कथाओं का कोई अंत नहीं है । पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भगवान परशुराम के राजनीतिक देवताकरण / छविकरण के समकालीन प्रयासों में सोशल मीडिया-आधारित सामग्री जैसे मीम्स, पोस्ट, चित्र, टिप्पणियां और अन्य सुविधाओं का  बना विश्लेषण या सही जानकारी के बहुत सी बातें लिखी जा रही हैं । एक राजनीतिक प्रतीक के रूप में भगवान परशुराम के लोकप्रिय उद्भव को इस तरह उपयोग में लाना देश और समाज के व्यापक हित में नहीं है । हिंदुत्व का वैचारिक जनादेश स्पष्ट रूप से विभिन्न वर्गों के बीच एकता का प्रस्ताव करता है, लेकिन डिजिटल सोशल मीडिया में भगवान परशुराम का कतिपय समकालीन राजनीतिक उपयोग  हिंदुत्व की उस मूल चेतना के लिए ही चुनौती प्रस्तुत करती है । इस प्रक्रिया में, यह लेख धार्मिक आस्था, विश्वास  और सोशल मीडिया  की सामाजिक संरचनाओं के बीच जटिल संबंधों से जुड़ा है ।

                  एक तरफ तो यह चिंतन और मौलिकता के संक्रमण का काल है तो दूसरी तरफ अनुपयोगी व्यर्थ मामूली बातों के जश्न उत्सव और सौंदर्य का समय है । यह समय आत्मकेंद्रियता, आत्ममुग्धता एवं आत्माभिमान का समय है । ऐसे समय में विस्थापित हो रहे जीवन मूल्यों, विचारों इत्यादि के पावन पुनर्वास की एक सार्थक लड़ाई हमें इसी पूँजी, विज्ञान और प्रौद्योगिकी जैसे हथियारों के सजग उपयोग से ही सुनिश्चित करनी होगी । आज पूरे विश्व में आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्र में प्रगति विकास की मूल अवधारणा बन चुका है । शायद यही कारण है कि भारत जैसे विकासशील देश में आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में गतिशीलता / नवीनता अधिक से अधिक व्यापक होते हुए दिखाई दे रही है । देश का मध्यम वर्ग तेजी से बढ़ रहा है । इस वर्ग की क्रय शक्ति बढ़ रही है । बाजार इस वर्ग को लुभा रहा है और भारत क्रय - विक्रय का महासागर बनता जा रहा है ।

                   हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक अखंड राष्ट्र के रूप में  भारत का स्वरूप बहुवचनात्मक है । बाह्य विविधताओं से परिपूर्ण इस देश में कुछ आंतरिक मूल तत्व हैं जो इसकी अखंडता के लिए कवच के समान हैं । भारतीयता जैसी अवधारनाएं इन्हीं प्रांजल तत्वों की खोह में सुरक्षित रहती हैं । पूरे विश्व में इस तरह का दूसरा उदाहरण नहीं है । ये तत्व ही प्रकाश के वे अंतःकेंद्र हैं जो पवित्र,निर्मल विचारों और मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिये साहित्य और संस्कृति के माध्यम से सच्चा बयान प्रस्तुत करते हैं । एक राष्ट्र के रूप में हमें ऊर्जावान, प्रज्ञावान और अग्रगामी बनाते हैं । यह भी सिखाते हैं कि दृष्टि के विस्तार में हम एक हैं । अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्ति में लिखा गया है कि 

“जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम्”

(अथर्ववेद १२-१-४५ )

 अर्थात बहुत से लोग कई भाषायें बोलते हैं और उनके कई धर्म हैं । अर्थात हजारों सालों से यह भूमि बहुभाषी और बहुधर्मी रही है । रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में अनेकों संस्कृतियों के लोगों एवं उनकी भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन है । मध्यकालीन कवियों और संतों ने लंबी यात्राएं की और अपने विचारों का प्रचार-प्रसार किया । गुरुग्रंथ साहब में अनेकों संतों की वाणी संग्रहित है । मीरा बाई राजस्थानी, गुजराती और हिंदी के बीच सेतु का काम कर रहीं थी । यही काम विद्यापति बिहारी और बंगाली के बीच कर रहे थे । मैथिली विद्यापति की मातृभाषा थी लेकिन बांग्ला वाले भी उन्हें ब्रजबुलि अर्थात बंगला भाषा के रचनाकार मानते हैं । रहीम और रसखान की बृजभाषा पर कौन मोहित नहीं हुआ । 

                भारतीय दर्शन जीवन की संपूर्णता में विश्वास करता है । श्वेताश्वतरोपनिषद(4/6) में वर्णन मिलता है कि दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है। हमारा शरीर एक पीपल के वृक्ष समान है । आत्मा तथा परमात्मा सनातन सखा अर्थात् दो पक्षी हैं जो शरीर रूपी वृक्ष पर हृदय रूपी घोसलें में एक साथ निवास करते हैं । उनमें से एक तो कर्मफल का भोग करता है और दूसरा भोग न करके केवल देखता रहता है।)

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥

 

मानवीय उदारता का श्रेष्ठ साहित्य महाभारत को माना जा सकता है । अलग-अलग भारतीय भाषाओं में भिन्नता के बाद भी कुछ सूक्ष्म सूत्र ज़रूर हैं जो इसे जोड़ता है । देवताओं और मनुष्यों के बीच पुल बनानेवाले भारतीय ऋषियों,मुनियों,संतों एवं कवियों ने दिव्य और पावन के अवतरण की संभावनाओं को हमेशा जिंदा रखा । राम, परशुराम और कृष्ण के रूप में इन्होंने समाज को एक आदर्श,प्रादर्श और प्रतिदर्श दिया । 

            ऐसे महान मानवीय आदर्शों के साथ हमें अपनीय मानवीय उदारता को और  विस्तार देना होगा,ताकि विस्तृत दृष्टिकोण हमारी थाती रहे ।  निरर्थकता में सार्थकता का रोपण ऐसे ही हो सकता है । स्वीकृत मूल्यों का विस्थापन और विध्वंश चिंतनीय है । विश्व को बहुकेंद्रिक रूप में देखना, देखने की व्यापक,पूर्ण और समग्र प्रक्रिया है । समग्रता के लिए प्रयत्नशील हर घटक राष्ट्रीयता का कारक होता है । जीवन की प्रांजलता, प्रखरता और प्रवाह को निरंतर क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है । वैचारिक और कार्मिक क्रियाशीलता ही जीवन की प्रांजलता के प्राणतत्व हैं । जीवन का उत्कर्ष इसी निरंतरता में है । भारतीय संस्कृति के मूल में समन्वयात्मकता प्रमुख है । सब को साथ देखना ही हमारा सही देखना होगा । अँधेरों की चेतावनी और उनकी साख के बावजूद हमें सामाजिक न्याय चेतना को आंदोलित रखना होगा । खण्ड के पीछे अख्ण्ड के लिये सत्य में रत रहना होगा । सांस्कृतिक संरचना में प्रेम, करुणा और सहिष्णुता को निरंतर बुनते हुए इसे अपना सनातन सत्य बनाना होगा । भगवान परशुराम के प्रति यही हमारी सच्ची श्रद्धा हो सकती है ।

              समग्रता के लिए प्रयत्नशील हर घटक राष्ट्रीयता का कारक होता है । ,सादृश्य मौलिकता का सिद्धांत यह बताता है कि ना किए हुए अनुभव को भी अपने अनुभव की सादृश्यता में व्यक्त करना,कोई कोरी कला नहीं अपितु वास्तविकता की तलाश है । सीखने से अधिक सीखने की क्षमता का विकास होना चाहिए । सार्वभौमिक प्रतीकों के लिए नए प्रयासों की आवश्यकता है । कुछ विद्वानों ने इतिहास को एक निर्मिति माना है । जिसमें समाज बोध के साथ-साथ इतिहासकार की अपनी दृष्टि भी समाहित है । यही कारण है कि एक ही समय के कई इतिहास होते हैं । किसी समय का कोई एक इतिहास नहीं होता । वस्तुपरक इतिहास की अवधारणा, इतिहास आलेखकारी का एक तत्व/ घटक मात्र है । तथ्यों की विरलता जितनी बड़ी समस्या है, उतनी ही उनकी बहुलता भी समसामयिक संदर्भों में समस्या बनती जा रही है ।

             परंपरा को सामान्य रूप में उस आधिकारिक या स्वीकृत व्यवहार के रूप में चित्रित किया जाता है जो कि समय विशेष में किसी समाज विशेष में हो । परंपरा क्या है ? यह समझना भी जरूरी है । परंपरा सामान्य रूप से उस आधिकारिक या स्वीकृत व्यवहार के रूप में चित्रित किया जाता है जो कि समय विशेष में किसी समाज विशेष में हो । लेकिन यह स्वीकृति बनती कैसे है ? कब बनती है ? कितने दिन के लिए बनती है ? और बनी हुई स्वीकृति बदलती कैसे है ? ये प्रश्न भी जरूरी हैं । अर्थात यह जानने का प्रयास कि परंपरा का उद्गम स्थान क्या होता है ? इस संदर्भ में रामाश्रय राय जी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि - कोई भी विश्वास या व्यवहार शून्य में अविर्भूत नहीं होता । इसलिए वे  किसी इतर तत्व को इसका स्रोत मानते हैं ।

                  मुझे लगता है कि समय और परिस्थितियों से प्राप्त अनुभव के आधार पर जीवन को अधिक सुरक्षित एवं सुगम बनाने के लिए समाज विशेष में आधिकारिक रूप से अथवा सामुदायिक स्वीकृति के आधार पर कुछ संकल्पना निर्धारित की जाती हैं । इन संकल्पनाओं के निर्धारण में पूर्व की वैचारिक एवं कार्मिक पद्धतियां नवाचार के प्रयोग का माध्यम बनते हुए, परिवर्तन की नई प्रक्रिया को आत्मसाथ करते हुए गतिशील होती हैं । इस गतिशीलता में सतत रूप से स्वीकृति और अस्वीकृति का द्वंद्व चलता रहता है । समय और परिस्थितियों के अनुरूप अनुकूलता की परिभाषा भी बदलती रहती है । ऐसे में परंपरा दरअसल एक निरंतरता है जिसमें एकदम से न तो कुछ छूट जाता है और न ही जुड़ जाता है, अपितु कुछ छूटने और कुछ जोड़ने की प्रक्रिया इस परंपरा की मूल चेतना का केंद्र है

               आज प्रौद्योगिकी के विकास से मानव जीवन की सभी आवश्यकताएं पूरा  करने का प्रयास हो रहा है । तकनीक हमारे जीवन का एक हिस्सा हो गया है । हमारा भविष्य हमारे तकनीकी विकास का ही प्रतिरूप होगा यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है । भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने हाल ही में जय जवान जय किसान जय विज्ञान के साथ जय अनुसंधान की बात कही । इस बात से हम यह समझ सकते हैं कि भविष्य की राह विज्ञान और अनुसंधान की रोशनी से जगमगायेगी ।  मौलिक चिंतन का वह स्वरूप जो समाज और देश की अपनी आवश्यकताओं के अनुसार हो, उनको प्रोत्साहित करना महत्वपूर्ण है । आवश्यकता आविष्कार की जननी है लेकिन वे आवश्यकताएं जो समाज और देश की सामाजिक, आर्थिक, सामरिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक जरूरतों से जुड़ी हों उन्हें पहचान कर उनके लिए अनुसंधान के माध्यम से नए रास्ते तलाशना अधिक तर्कसंगत एवं समीचीन है ।

              आज़ फेसबुक जैसे सोशल मीडिया ‘स्वपूर्ति’ (सेल्फ़ फुलफिलमेंट ) के नये केन्द्र बन गये हैं। इस आत्ममोह, आत्मकेन्द्रियता के बीच हम स्वयं को खोने की भयानक त्रासदी से जूझ रहे हैं, उस पर भी कमाल यह कि हमे यह पता ही नहीं। हमें यह भ्रम  है कि हम फेसबुक द्वारा असीमित लोगों के बीच पहुँच जाते है। जब कि सच्चाई यह है कि हम कहीं नही पहुँचते। बल्कि जहाँ पहुँच सकते हैं वहाँ की राह भी कठीन हो जाती है। मानव जीवन सीमाओं में बंधा है। यह उसकी मूल प्रकृति है। इसे हम क्यों भूल जाते हैं। प्रकृति ने हमें कई संदर्भों में अपूर्ण बनाकर हमारी सीमाओं को सुनिश्चित किया है। ऐसा इसलिए ताकि इस अपूर्णता में हम ‘पूर्णता’ के मर्म को समझ पायें और आपसी सहयोग, विचार-विनिमय इत्यादि के माध्यम से जीवन के विभिन्न संदर्भों  में सामजस्य की स्थितियों को लगातार तलाशते रहें । इसी से मानव जाति का परिष्कार एवं  परिमार्जन संभव है।

 

 

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

विजिटिंग प्रोफ़ेसर

ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज़

ताशकंद, उज्बेकिस्तान

संदर्भ सूची :

1.        Political deification of Lord Parshuram: tracing Brahminic masculinity in contemporary North India - Jigisha Bhattacharya.https://www.tandfonline.com/doi/full/10.1080/0048721X.2022.2094775?scroll=top&needAccess=true&role=tab

2.        https://www.britannica.com/topic/Parashurama

3.        https://ijcrt.org/papers/IJCRT2303503.pdf

4.        Collins, Brian. The Other Rama: Matricide and Genocide in the Mythology of Parasurama. State University of New York Press. 2020.

5.        Postcolonial Indian Literature Towards a critical framework – Satish C. Aikant, Indian Institute of Advanced Study, Shimla, first published 2018.

6.        Social Awareness in Modern Indian Literature – R.K.Kaul and Jaidev. Indian Institute of Advanced Study, Shimla, first published 1993.

7.        Literature and Infinity – Franson Manjali, Indian Institute of Advanced Study, Shimla, first published 2001. 

8.        Ethics of information Technologies in knowledge society – Jacob Dahi Rendtorft, Roskide University, Denmark. Journalism and Mass Communication April 2016, Vol 6, No. 04, 213-220.

9.        Impact of media on society: As sociological perspective Hakim Khalid Mehraj, Akhtar Neyaz Bhat, Hakeem Rameez Mehraj Govt. college Baramulla – International Journal of Humanities and social science invention ISSN (online) 2319-7722, ISSN (Print) 2319-7714. Volume 3, issue 06/June 2014 I P.P. 56-64.

10.     Indian literature – Edited by Arbinda Poddar – Indian Institute of Advanced Study, 1972.

11.     Understanding Itihasa – Sibesh Bhattacharya, IIAS, Shimla, 2010.

12.     Methodology of Socio-Historical Linguistic – D.D.Madhulkar, IIAS, Shimla, 1996.

13.     Postcolonial Indian Literature: Towards a Critical Framework – Satish C. Aikant, IIAS, Shimla, 2008.

14.     The Quest for Indian Sociology: Radhakamal Mukerjee and our Times – Manish Thakur, IIAS, Shimla, 2014.

 

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