Friday, 19 January 2024

राजस्थानी सिनेमा का इतिहास"

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मित्रों,

आप को सूचित करते हुए प्रसन्नता हो रही है कि मेरे और डॉ हर्षा त्रिवेदी द्वारा संपादित पुस्तक "राजस्थानी सिनेमा का इतिहास" अनंग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होकर आ गई है। पुस्तक एमेजॉन से ऑनलाईन खरीदी जा सकती है।


राजस्थानी सिनेमा पर हिंदी में प्रकाशित संभवतः यह पहली पुस्तक है । राजस्थानी सिनेमा से जुड़े कई लोगों तक हम नहीं पहुंच सके लेकिन भविष्य में इसके संशोधित, परिवर्धित संस्करण की जब भी योजना बनेगी, इसमें नए विचारों और आलेखों को निश्चित ही स्थान दिया जाएगा। पुस्तक में जो प्रूफ इत्यादि की त्रुटियां रह गई हैं, आगामी संस्करण में उसे भी सुधार लिया जाएगा। 

इस पुस्तक में कुल 25 आलेख हैं जिनमें से 03 आलेख अंग

राजस्थानी सिनेमा पर जो लोग शोध कार्य से जुड़े हैं उनके लिए रिफ्रेंस बुक के रूप में यह किताब निश्चित ही बड़ी सहायक होगी । एकदम अछूते विषयों और क्षेत्रों में काम करने की अपनी अलग चुनौती होती है, सामग्री का अभाव बड़ी समस्या है। ऐसे में हमने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए यथाशक्ति कोशिश की कि हम संबंधित विषय पर अधिकतम जानकारी एक दस्तावेज के रूप में अकादमिक जगत में उपलब्ध करा सकें । हम कितने सफल हुए यह तो पाठक ही बताएंगे लेकिन काम को पूरा करने का सुकून हमें ज़रूर मिला । आशा और विश्वास है कि पाठकों का आशीष भी उनकी प्रतिक्रिया के रूप में हमें प्राप्त होगा । 

इस पुस्तक के प्रकाशन की जिम्मेदारी अनंग प्रकाशन, नई दिल्ली ने विधिवत निभाई । उनके सहयोग के लिए हम उनके आभारी हैं। अंत में पुनः सभी के प्रति आभार ज्ञापित करते हुए हम विश्वास रखते हैं कि आगे भी सभी का सहयोग इसी तरह मिलता रहेगा।

धन्यवाद!

डॉ मनीष कुमार मिश्रा

डॉ हर्षा त्रिवेदी 


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Sunday, 14 January 2024

जो प्रेम करते हैं


जो प्रेम करते हैं।

जो प्रेम करते हैं
उनकी आखों में
होते हैं कई कई रंग
वो गाते हैं
अमरता का गान
जीते हैं हर क्षण को
किसी उत्सव की तरह।

जो प्रेम करते हैं
बेफिक्री
उनकी आदत होती है
उन्हें बोलने के लिए
किसी भाषा की जरूरत
न के बराबर होती है
प्रेम के दिन अक्सर
होते हैं वसंत की तरह।

जो प्रेम करते हैं
वो अक्सर होते हैं
औरों से बेखबर
वो दुनियां की
सबसे अनोखी चीज़ में
सुगंध बटोरते रहते हैं
सारी दुनियादारी उनके लिए
होती है
व्यर्थ नाटक की तरह।

जो प्रेम करते हैं
वे इतिहास के जंगल में
पुराने पन्नों की गंध की तरह
या कि
पोखर के तल की मिट्टी की तरह
होते हैं
होने न होने के
तमाम षड्यंत्रों के बावजूद भी ।

प्रेम में पगी
तरसती आखों का जल
किसी प्रेमी की तरह
किसी के इशारे पर
किसी की यादों में
कैद रहता है
किसी निरपराध कैदी की तरह।

                डॉ मनीष कुमार मिश्रा  
                कल्याण , महाराष्ट्र 

38. तुम्हारी स्मृतियों से ।

 


यह जो
मेरी मनोभूमि है
लबालब भरी हुई
तुम्हारी स्मृतियों से
यहां
रुपहली बर्फ़ पर
प्रतिध्वनियां
उन लालसाओं को
विस्तार देती हैं
जो की अधूरी रहीं ।

ये रोपती हैं
जीवन राग के साथ
गुमसुम सी यादें
लांघते हुए
उस समय को
कि जिसकी प्रांजल हँसी
समाई हुई है
मेरे अंदर
बहुत गहरे में कहीं पर ।

इस घनघोर एकांत में
उजाड़ मौसमों के बीच
बहुत कुछ
ओझल हो गया
तो बहुत कुछ गर्क।

विस्मृतियों के
ध्वंस का गुबार
इन स्याह रातों में
रोशनदान से
अब भी
झांकते हैं मुझे
और मैं
ऐसी दुश्वारियों के बीच
डूबा रहता हूं
अपना ही निषेध करते हुए
उन बातों में
जो तुम कह चुकी हो ।

मैं
शिलाआें सा जड़
नहीं होना चाहता इसलिए
लगा रहता हूं
हंसने की
जद्दोजहद में भी
लेकिन मेरा चेहरा
गोया कोई
ना पढ़ी जा सकनेवाली
किसी इबारत की तरह
बिलकुल नहीं है ।

ऐसे में
सोचता हूं कि
विपदाओं की इस बारिश में
पीड़ाओं के बीच
कोई पुल बनाऊं
ताकि
साझा कर सकूं
पीड़ाओं से भरी चुप्पियां ।

इन चुप्पियों में
कठिन पर कई
जरूरी प्रश्न हैं
जिनका
अभिलेखों में
संरक्षित होना ज़रूरी है
वैसे भी
प्रेम में लोच
बहुत ज़रूरी है।

फिर इसी बहाने
तुम याद आती रहोगी
पूरे वेग से
और
एक उपाय
शेष भी रह जायेगा
अन्यथा
ख़ुद को खोते हुए
मैं
तुम्हें भी खो दूंगा ।

जबकि मैं
तुम्हें खोना नहीं चाहता
फिर यह बात
तुम तो जानती ही हो
इसलिए
तुम रहो
मेरे होने तक
फिर भले ही जुदा हो जाना
हमेशा की तरह
पर
हमेशा के लिए नहीं ।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा
सहायक प्राध्यापक
हिन्दी विभाग
के एम अग्रवाल महाविद्यालय
कल्याण पश्चिम
महाराष्ट्र

 

Monday, 8 January 2024

हिंदी ब्लॉगर श्री रवि रतलामी जी हमारे बीच नहीं रहे।

 जाने माने हिंदी ब्लॉगर श्री रवि रतलामी जी हमारे बीच नहीं रहे। ईश्वर चरणों में प्रार्थना है कि वो पुण्य आत्मा को शान्ति प्रदान करें।

सन 2011 में हिंदी ब्लॉगिंग पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित कर रहा था। विषय नया था अतः उत्साह और भय का एक अलग  रोमांच हो रहा था। उस समय इस संगोष्ठी को सफल बनाने में श्री रवि रतलामी जी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। आप स्वयं भी इस संगोष्ठी में उपस्थित रहे।

रवि रतलामी जी की पावन स्मृतियों को प्रणाम ।




Saturday, 6 January 2024

उज़्बेकिस्तान में हिन्दी प्रचार-प्रसार की स्थिति

 उज्बेकिस्तान में हिंदी के वैश्विक प्रचार- प्रसार को लेकर ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जो हमें खुश कर सके । हिंदी के वैश्विक रूप के संदर्भ में ये दरअसल हमारे देखे हुए ख्वाब हैं जिसे उज़्बेकिस्तान और भारत के लोग मिलकर साकार कर रहे हैं । हिंदी उज़्बेकी के रिश्ते का नयापन और उनकी भाषायी कशीदाकारी का यह जाल एक ऐसे ताने-बाने को बुन रहा है जो दोनों देशों के हित में है । दोनों तरफ के साहित्यिक विद्वान जिस तरह आदान-प्रदान के कार्य में अनुवाद के माध्यम से लगे हुए हैं, उसमें यह निश्चित कर पाना बड़ा मुश्किल सा लगता है कि कौन किसका ज्यादा मुरीद है । ऐसा लगता है कि एक दूसरे की भाषा के जादू में सम्मोहित होने की हद तक काम हो रहा है । यह फैलाव और प्रभाव निश्चित तौर पर भविष्य में एक नई दिशा का आगाज होगा । पसर जानेवाली मुस्कान की तरह हिंदी उज़्बेकियों के दिल को छू रही है और भाषा के स्तर पर इन दोनों ही देश में अभी एक-दूसरे को आजमाने की बहुत गुंजाइश है । इन दोनों देश के लोगों के बीच की स्वभावगत उदारता और किरदार का बड़प्पन इन्हें बेहतरीन की तलाश में एक साथ लाया है ।

हिन्दी प्रचार-प्रसार की दृष्टि से उज़्बेकिस्तान मध्य एशिया में उम्मीदों के प्रकाश का ऐसा अन्तः केंद्र बनकर उभरा है जो हिन्दी जगत की आखों में नाच उठे । भारत और उज़्बेकिस्तान दोनों ही उस सपने से परिचित हैं जो आपसदारी एवं विश्वास के कंधों पर खड़ा हुआ है । अपनी भाषा और संस्कृति के वैश्विक विस्तार में ये दोनों राष्ट्र एकसाथ हैं । अपनी भाषा और संस्कृति के माध्यम से मानवीय करुणा,विश्वास और संवेदना का सौंदर्य पूरे विश्व में बिखेरने के लिए ऐसी साझेदारी दोनों राष्ट्रों के हित में है । भाषायी मेलजोल दरअसल ख़ुशबू से भरे वे रंग हैं जो फ़ासलों के गुबार को दरकिनार कर छनकर आती हुई उम्मीद को अपनी कोह में बसा सजाते और सँवारते हैं । इस तरह की भाषायी साझेदारी भविष्य के भारत और उज़्बेकिस्तान के लिए निश्चित ही प्रगति के नए आयाम गढ़ेगी ।

डॉ मनीष कुमार मिश्रा

सहायक प्राध्यापक हिन्दी विभाग

के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय

कल्याण, महाराष्ट्र

 

Thursday, 7 December 2023

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में विभाजन की त्रासदी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न ।

 

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में विभाजन की त्रासदी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न  

 

मंगलवार दिनांक 28 नवंबर 2023 को भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की शुरुआत हुई। संगोष्ठी का मुख्य विषय "भारत विभाजन की त्रासदी और भारतीय भाषाओं का साहित्य" है । इस संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में राष्ट्रीय सिंधी भाषा विकाश परिषद के निदेशक प्रो. रविप्रकाश टेकचंदानी, संस्थान के नेशनल फेलो प्रो. हरपाल सिंह और बीज वक्ता के रूप में व्यंक्तेश्वर कालेज, नई दिल्ली से प्रो. निर्मल कुमार उपस्थित थे।

 

मान्यवर अतिथियों द्वारा दीप प्रज्ज्वलित करके इस संगोष्ठी की शुरुआत हुई। संगोष्ठी के संयोजक डॉ मनीष कुमार मिश्रा ने स्वागत भाषण के साथ संगोष्ठी के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला। दिल्ली के व्यंक्तेश्वर कॉलेज में इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रो निर्मल कुमार ने विभाजन और सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में अपना सारगर्भित वक्तव्य दिया। प्रो हरपाल सिंह ने विभाजन की त्रासदी को लेकर अपने विचार साझा किए । प्रो रवि टेकचंदानी ने सिंधी साहित्य और समाज के परिप्रेक्ष्य में बड़ा मार्मिक वक्तव्य प्रस्तुत किया। इस अवसर पर उन्होंने विभाजन पर प्रकाशित अपनी पुस्तक की प्रति भी संस्थान के सचिव श्री नेगी जी को भेंट की । संस्था के निदेशक प्रो नागेश्वर राव जी ऑनलाईन माध्यम से कार्यक्रम से जुड़े और सभी आए हुए अतिथियों के प्रति आभार ज्ञापित किया। अंत में संस्थान के सचिव श्री नेगी जी ने आभार ज्ञापन की जिम्मेदारी पूरी की । इस सत्र का कुशल संचालन श्री प्रेमचंद जी ने किया । राष्ट्रगान के साथ यह उद्घाटन सत्र समाप्त हुआ ।

 

उद्घाटन सत्र के अतिरिक्त पहले दिन तीन चर्चा सत्र संपन्न हुए जिनमें देश भर से जुड़े 10 विद्वानों ने अपने प्रपत्र प्रस्तुत किए । इन तीनों सत्रों की अध्यक्षता क्रमशः प्रो आलोक गुप्ता (फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ), प्रो निर्मल कुमार(व्यंकटेश्वर कॉलेज, नई दिल्ली  में इतिहास विभाग के अध्यक्ष ) और प्रो रविंदर सिंह जी (फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ) ने किया । संगोष्ठी के दूसरे दिन कुल चार चर्चा सत्र संपन्न हुए जिनकी अध्यक्षता क्रमशः प्रोफ़ेसर महेश चंपकलाल (टैगोर फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ), प्रोफ़ेसर नंदजी राय (फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ), प्रोफ़ेसर हरपाल सिंह (नेशनल फ़ेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ) और प्रोफ़ेसर हरि मोहन बुधोलिया जी ने किया । दूसरे दिन कुल 13 प्रपत्र वाचकों ने अपने प्रपत्र प्रस्तुत किए ।

 

समापन सत्र की अध्यक्षता भी प्रोफ़ेसर हरि मोहन बुधोलिया जी ने की । इस अवसर पर संस्थान के अकड़ेमिक रिसोर्स आफ़िसर श्री प्रेमचंद जी भी उपस्थित थे । संगोष्ठी के संयोजक डॉ मनीष कुमार मिश्रा ने दो दिवसीय संगोष्ठी की रिपोर्ट प्रस्तुत की । वरिष्ठ एसोशिएट श्री अयूब ख़ान जी ने संगोष्ठी पर अपना मंतव्य व्यक्त किया । श्री प्रेमचंद ने संस्थान की गतिविधियों की जानकारी देते हुए इस संगोष्ठी में प्रस्तुत सभी आलेखों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की बात कही । अध्यक्षी भाषण में प्रोफ़ेसर हरि मोहन बुधोलिया जी ने सुंदर आयोजन की तारीफ़ की । अंत में संयोजक के रूप में डॉ मनीष कुमार मिश्रा ने सभी के प्रति आभार ज्ञपित करते हुए , अध्यक्ष की अनुमति से संगोष्ठी समाप्ति की घोषणा की । इस तरह दो दिन की संगोष्ठी बड़े सुखद वातावरण में संपन्न हुई।

 















डॉ मनीष कुमार मिश्रा

Sunday, 19 November 2023

तुझे भुलाने की कोशिश में

 तुझे भुलाने की कोशिश में सब याद रह गया

तु मुझमें मुझसे ज्यादा जाने के बाद रह गया।


उसके बिना इश्क का रोज़ा छूटे तो कैसे छूटे 

जाने किस छत मेरी हसरतों का चाँद रह गया।


मोहब्बत करें और बड़े इत्मीनान से रहा करें

अब इस जहां में कौन ऐसा दिलशाद रह गया।


चुप्पियों के टूटते ही कायर कोई भी बचा नहीं 

फिर सामने तो आग में तपा फौलाद रह गया।


बूढ़े मां बाप की आखों से टपकता लहू देख 

वो खुश था बहुत जो कि बे औलाद रह गया।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा


 



Saturday, 18 November 2023

हर मुलाकात के बाद

 हर मुलाकात के बाद कुछ न कुछ अधूरा रह गया

तेरे साथ वाला वो मौसम मेरे अंदर ठहरा रह गया।


जिसे लूटना था उसे तेरी एक नजर ने लूट लिया 

इश्क में नाकाम सा जमाने भर का पहरा रह गया।


हरसिंगार झरता रहा पूरी रात चांदनी को पीते हुए

ओस से लिपटकर वह सुबह तक बिखरा रह गया।


तुम्हारे बाद के किस्से में तो गहरी उदासी छाई रही

उन यादों का शुक्रिया कि जीने का आसरा रह गया।


ये सुना था मैंने भी कि वक्त हर ज़ख़्म भर देता है 

पर इश्क का घाव ताउम्र हरा और गहरा रह गया।


यूं तो मंज़र कई सुहाने मिलते रहे मौसम बेमौसम

पर मेरी नजर में तो बसा हुआ तेरा चेहरा रह गया। 


रोशनी के साथ तो कितना शोर शराबा आ जाता है

गुमनाम जद्दोजहद के साथ तो बस अंधेरा रह गया।


आवारगी में लिपटी हुई रंगीन रातों के किस्से सुनके 

बस अपने पांव पटकता सलीकेदार सवेरा रह गया।

डॉ मनीष कुमार मिश्रा 






Wednesday, 15 November 2023

जिसपर गिरी है गाज वो यूक्रेन और गाजा है।


 कौन जाने किसे किसकी मिल रही सज़ा है

जिसपर गिरी है गाज वो यूक्रेन और गाजा है।


इन सियासत के सितमगरों से पूछे तो कोई 

बारूद के बवंडरवाली ये कौन सी फिज़ा है।


शहर के शहर खंडहर बनानेवालों बता दो

क्या सच में तुम्हें ज़रा भी खौफ ए कजा है।


मिसाइल से भला कब हल हुए हैं मसाइल

हजारों कत्ल हो जाएं यह किसकी रजा है।


तेल और हथियारों की सौदागिरी के वास्ते

इंसानियत का हो कत्ल इसमें कैसी मज़ा है।


   डॉ मनीष कुमार मिश्रा 








Tuesday, 14 November 2023

ढलती शाम के साथ

 ढलती शाम के साथ चांदनी बिखर जाती है

वही एक तेरी सूरत आंखों में निखर जाती है।


तू कब था मेरा यह सवाल तो बेफिजूल सा है 

तेरे नाम पर आज भी तबियत बहक जाती है।


बस यही सोच तेरी चाहत को संभाले रखा है

कि हर दीवार एक न एक दिन दरक जाती है।


तुम्हें सोचता हूं तो एक कमाल हो ही जाता है

जिंदगी की सूखी स्याही इत्र सी महक जाती है।


वैसे तो मैं आदमी हूं एकदम खानदानी लेकिन

तेरी सूरत पर मासूम तबियत फिसल जाती है।

डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

जो क़िस्मत मेहरबान थी

 जो क़िस्मत मेहरबान थी वह रूठ गई

गोया आखरी उम्मीद हांथ से छूट गई।


मैं जिसे जिंदगी समझ बैठा था अपनी 

वो ख़्वाब थी जो नींद के साथ टूट गई।


सच कहूं तो बात बस इतनी सी थी कि 

मिट्टी बड़ी कच्ची थी सो गागर फूट गई।


हां उसे देखा था बस एक नज़र भरकर 

और वह एक नज़र से सबकुछ लूट गई ।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा 


अपने सनम को जब कहूं तो खुदा कहूं

 अपने सनम को जब कहूं तो खुदा कहूं 

अब इससे भी ज्यादा कहूं तो क्या कहूं ।


हैरानी नहीं है कोई भी जो अकेला हूं मैं

आवारगी आदत रही किसे बेवफ़ा कहूं ।


वो एक प्यासी उम्र थी जो अब बीत गई

तो अब क्यों किसी से वही किस्सा कहूं ।


कुछ टूटे सपने दिल के दराजों में बंद हैं

बेमतलब सी बात तो है लेकिन क्या कहूं ।


सुना है वो मेरे बिना बड़ी खुश रहती हैं 

वैसे सुनी सुनाई बातों पर क्या बयां कहूं ।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा 



तुम क्या हो कि दर्द से एक रिश्ता पुराना

 तुम क्या हो कि दर्द से एक रिश्ता पुराना 

मैं क्या कि भूला हुआ कोई किस्सा पुराना ।


नए जमाने की चाल ढाल बेहद नई ठहरी 

पर मुझे अजीज़ है जाने क्यों रास्ता पुराना ।


कई बार सोचा कि फिर से मुलाकात करें 

पर याद आ गया तुम्हारा वो गुस्सा पुराना ।


सब के लिए नया नया कुछ तलाशता रहा 

अपने लिए तो ठीक रहा कुछ सस्ता पुराना ।


उम्र के साथ चेहरे की रंगत भी जाती रही 

जाने कहां खो गया वो चेहरा हंसता पुराना ।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

चलते चलते जब एक रोज थक जाऊंगा

 चलते चलते जब एक रोज थक जाऊंगा 

उजाले बांटकर धीरे से कहीं ढल जाऊंगा।


होना तो हम सभी के साथ यही होना है

कि कोई आज चला गया मैं कल जाऊंगा।


माना कि बहुत सारी खामियां हैं मुझ में

पर किसी खोटे सिक्के सा चल जाऊंगा।


मौत की आशिकी से इनकार कब किया

जिंदगी जितना छल सकूंगा छल जाऊंगा।


ये बाजार बहलाता फुसलाता है कुछ ऐसे

गोया मासूम सा बच्चा हूं कि बहल जाऊंगा।

    डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

Wednesday, 25 October 2023

महीना वही पर मौसम अलग सा है

 महीना वही पर मौसम अलग सा है

यह नवंबर कहां तुम्हारी महक सा है। 


सबकुछ तो है मगर जैसे फीका सा है 

जिंदगी के जायके में तू  नमक सा है।


जिसे गुनगुनाना चाहता हूं हरदम मैं

हमदम तू बिलकुल उस ग़ज़ल सा है। 


निहारता हूं अकेले में अक्सर चांद को

यकीनन वह तेरी किसी झलक सा है।


मैं अब तुम्हें पाऊं  तो भला पाऊं कैसे 

एक कतरा हूं मैं और तू फलक सा है। 



                         मनीष कुमार मिश्रा 

Thursday, 19 October 2023

भगवान परशुराम : सोशल मीडिया और छविकरण

 

 

 

भगवान परशुराम : सोशल मीडिया और छविकरण

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

 

                    भगवान परशुराम से संबंधित कथाओं का कोई अंत नहीं है । पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भगवान परशुराम के राजनीतिक देवताकरण / छविकरण के समकालीन प्रयासों में सोशल मीडिया-आधारित सामग्री जैसे मीम्स, पोस्ट, चित्र, टिप्पणियां और अन्य सुविधाओं का  बना विश्लेषण या सही जानकारी के बहुत सी बातें लिखी जा रही हैं । एक राजनीतिक प्रतीक के रूप में भगवान परशुराम के लोकप्रिय उद्भव को इस तरह उपयोग में लाना देश और समाज के व्यापक हित में नहीं है । हिंदुत्व का वैचारिक जनादेश स्पष्ट रूप से विभिन्न वर्गों के बीच एकता का प्रस्ताव करता है, लेकिन डिजिटल सोशल मीडिया में भगवान परशुराम का कतिपय समकालीन राजनीतिक उपयोग  हिंदुत्व की उस मूल चेतना के लिए ही चुनौती प्रस्तुत करती है । इस प्रक्रिया में, यह लेख धार्मिक आस्था, विश्वास  और सोशल मीडिया  की सामाजिक संरचनाओं के बीच जटिल संबंधों से जुड़ा है ।

                  एक तरफ तो यह चिंतन और मौलिकता के संक्रमण का काल है तो दूसरी तरफ अनुपयोगी व्यर्थ मामूली बातों के जश्न उत्सव और सौंदर्य का समय है । यह समय आत्मकेंद्रियता, आत्ममुग्धता एवं आत्माभिमान का समय है । ऐसे समय में विस्थापित हो रहे जीवन मूल्यों, विचारों इत्यादि के पावन पुनर्वास की एक सार्थक लड़ाई हमें इसी पूँजी, विज्ञान और प्रौद्योगिकी जैसे हथियारों के सजग उपयोग से ही सुनिश्चित करनी होगी । आज पूरे विश्व में आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्र में प्रगति विकास की मूल अवधारणा बन चुका है । शायद यही कारण है कि भारत जैसे विकासशील देश में आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में गतिशीलता / नवीनता अधिक से अधिक व्यापक होते हुए दिखाई दे रही है । देश का मध्यम वर्ग तेजी से बढ़ रहा है । इस वर्ग की क्रय शक्ति बढ़ रही है । बाजार इस वर्ग को लुभा रहा है और भारत क्रय - विक्रय का महासागर बनता जा रहा है ।

                   हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक अखंड राष्ट्र के रूप में  भारत का स्वरूप बहुवचनात्मक है । बाह्य विविधताओं से परिपूर्ण इस देश में कुछ आंतरिक मूल तत्व हैं जो इसकी अखंडता के लिए कवच के समान हैं । भारतीयता जैसी अवधारनाएं इन्हीं प्रांजल तत्वों की खोह में सुरक्षित रहती हैं । पूरे विश्व में इस तरह का दूसरा उदाहरण नहीं है । ये तत्व ही प्रकाश के वे अंतःकेंद्र हैं जो पवित्र,निर्मल विचारों और मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिये साहित्य और संस्कृति के माध्यम से सच्चा बयान प्रस्तुत करते हैं । एक राष्ट्र के रूप में हमें ऊर्जावान, प्रज्ञावान और अग्रगामी बनाते हैं । यह भी सिखाते हैं कि दृष्टि के विस्तार में हम एक हैं । अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्ति में लिखा गया है कि 

“जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम्”

(अथर्ववेद १२-१-४५ )

 अर्थात बहुत से लोग कई भाषायें बोलते हैं और उनके कई धर्म हैं । अर्थात हजारों सालों से यह भूमि बहुभाषी और बहुधर्मी रही है । रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में अनेकों संस्कृतियों के लोगों एवं उनकी भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन है । मध्यकालीन कवियों और संतों ने लंबी यात्राएं की और अपने विचारों का प्रचार-प्रसार किया । गुरुग्रंथ साहब में अनेकों संतों की वाणी संग्रहित है । मीरा बाई राजस्थानी, गुजराती और हिंदी के बीच सेतु का काम कर रहीं थी । यही काम विद्यापति बिहारी और बंगाली के बीच कर रहे थे । मैथिली विद्यापति की मातृभाषा थी लेकिन बांग्ला वाले भी उन्हें ब्रजबुलि अर्थात बंगला भाषा के रचनाकार मानते हैं । रहीम और रसखान की बृजभाषा पर कौन मोहित नहीं हुआ । 

                भारतीय दर्शन जीवन की संपूर्णता में विश्वास करता है । श्वेताश्वतरोपनिषद(4/6) में वर्णन मिलता है कि दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है। हमारा शरीर एक पीपल के वृक्ष समान है । आत्मा तथा परमात्मा सनातन सखा अर्थात् दो पक्षी हैं जो शरीर रूपी वृक्ष पर हृदय रूपी घोसलें में एक साथ निवास करते हैं । उनमें से एक तो कर्मफल का भोग करता है और दूसरा भोग न करके केवल देखता रहता है।)

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥

 

मानवीय उदारता का श्रेष्ठ साहित्य महाभारत को माना जा सकता है । अलग-अलग भारतीय भाषाओं में भिन्नता के बाद भी कुछ सूक्ष्म सूत्र ज़रूर हैं जो इसे जोड़ता है । देवताओं और मनुष्यों के बीच पुल बनानेवाले भारतीय ऋषियों,मुनियों,संतों एवं कवियों ने दिव्य और पावन के अवतरण की संभावनाओं को हमेशा जिंदा रखा । राम, परशुराम और कृष्ण के रूप में इन्होंने समाज को एक आदर्श,प्रादर्श और प्रतिदर्श दिया । 

            ऐसे महान मानवीय आदर्शों के साथ हमें अपनीय मानवीय उदारता को और  विस्तार देना होगा,ताकि विस्तृत दृष्टिकोण हमारी थाती रहे ।  निरर्थकता में सार्थकता का रोपण ऐसे ही हो सकता है । स्वीकृत मूल्यों का विस्थापन और विध्वंश चिंतनीय है । विश्व को बहुकेंद्रिक रूप में देखना, देखने की व्यापक,पूर्ण और समग्र प्रक्रिया है । समग्रता के लिए प्रयत्नशील हर घटक राष्ट्रीयता का कारक होता है । जीवन की प्रांजलता, प्रखरता और प्रवाह को निरंतर क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है । वैचारिक और कार्मिक क्रियाशीलता ही जीवन की प्रांजलता के प्राणतत्व हैं । जीवन का उत्कर्ष इसी निरंतरता में है । भारतीय संस्कृति के मूल में समन्वयात्मकता प्रमुख है । सब को साथ देखना ही हमारा सही देखना होगा । अँधेरों की चेतावनी और उनकी साख के बावजूद हमें सामाजिक न्याय चेतना को आंदोलित रखना होगा । खण्ड के पीछे अख्ण्ड के लिये सत्य में रत रहना होगा । सांस्कृतिक संरचना में प्रेम, करुणा और सहिष्णुता को निरंतर बुनते हुए इसे अपना सनातन सत्य बनाना होगा । भगवान परशुराम के प्रति यही हमारी सच्ची श्रद्धा हो सकती है ।

              समग्रता के लिए प्रयत्नशील हर घटक राष्ट्रीयता का कारक होता है । ,सादृश्य मौलिकता का सिद्धांत यह बताता है कि ना किए हुए अनुभव को भी अपने अनुभव की सादृश्यता में व्यक्त करना,कोई कोरी कला नहीं अपितु वास्तविकता की तलाश है । सीखने से अधिक सीखने की क्षमता का विकास होना चाहिए । सार्वभौमिक प्रतीकों के लिए नए प्रयासों की आवश्यकता है । कुछ विद्वानों ने इतिहास को एक निर्मिति माना है । जिसमें समाज बोध के साथ-साथ इतिहासकार की अपनी दृष्टि भी समाहित है । यही कारण है कि एक ही समय के कई इतिहास होते हैं । किसी समय का कोई एक इतिहास नहीं होता । वस्तुपरक इतिहास की अवधारणा, इतिहास आलेखकारी का एक तत्व/ घटक मात्र है । तथ्यों की विरलता जितनी बड़ी समस्या है, उतनी ही उनकी बहुलता भी समसामयिक संदर्भों में समस्या बनती जा रही है ।

             परंपरा को सामान्य रूप में उस आधिकारिक या स्वीकृत व्यवहार के रूप में चित्रित किया जाता है जो कि समय विशेष में किसी समाज विशेष में हो । परंपरा क्या है ? यह समझना भी जरूरी है । परंपरा सामान्य रूप से उस आधिकारिक या स्वीकृत व्यवहार के रूप में चित्रित किया जाता है जो कि समय विशेष में किसी समाज विशेष में हो । लेकिन यह स्वीकृति बनती कैसे है ? कब बनती है ? कितने दिन के लिए बनती है ? और बनी हुई स्वीकृति बदलती कैसे है ? ये प्रश्न भी जरूरी हैं । अर्थात यह जानने का प्रयास कि परंपरा का उद्गम स्थान क्या होता है ? इस संदर्भ में रामाश्रय राय जी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि - कोई भी विश्वास या व्यवहार शून्य में अविर्भूत नहीं होता । इसलिए वे  किसी इतर तत्व को इसका स्रोत मानते हैं ।

                  मुझे लगता है कि समय और परिस्थितियों से प्राप्त अनुभव के आधार पर जीवन को अधिक सुरक्षित एवं सुगम बनाने के लिए समाज विशेष में आधिकारिक रूप से अथवा सामुदायिक स्वीकृति के आधार पर कुछ संकल्पना निर्धारित की जाती हैं । इन संकल्पनाओं के निर्धारण में पूर्व की वैचारिक एवं कार्मिक पद्धतियां नवाचार के प्रयोग का माध्यम बनते हुए, परिवर्तन की नई प्रक्रिया को आत्मसाथ करते हुए गतिशील होती हैं । इस गतिशीलता में सतत रूप से स्वीकृति और अस्वीकृति का द्वंद्व चलता रहता है । समय और परिस्थितियों के अनुरूप अनुकूलता की परिभाषा भी बदलती रहती है । ऐसे में परंपरा दरअसल एक निरंतरता है जिसमें एकदम से न तो कुछ छूट जाता है और न ही जुड़ जाता है, अपितु कुछ छूटने और कुछ जोड़ने की प्रक्रिया इस परंपरा की मूल चेतना का केंद्र है

               आज प्रौद्योगिकी के विकास से मानव जीवन की सभी आवश्यकताएं पूरा  करने का प्रयास हो रहा है । तकनीक हमारे जीवन का एक हिस्सा हो गया है । हमारा भविष्य हमारे तकनीकी विकास का ही प्रतिरूप होगा यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है । भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने हाल ही में जय जवान जय किसान जय विज्ञान के साथ जय अनुसंधान की बात कही । इस बात से हम यह समझ सकते हैं कि भविष्य की राह विज्ञान और अनुसंधान की रोशनी से जगमगायेगी ।  मौलिक चिंतन का वह स्वरूप जो समाज और देश की अपनी आवश्यकताओं के अनुसार हो, उनको प्रोत्साहित करना महत्वपूर्ण है । आवश्यकता आविष्कार की जननी है लेकिन वे आवश्यकताएं जो समाज और देश की सामाजिक, आर्थिक, सामरिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक जरूरतों से जुड़ी हों उन्हें पहचान कर उनके लिए अनुसंधान के माध्यम से नए रास्ते तलाशना अधिक तर्कसंगत एवं समीचीन है ।

              आज़ फेसबुक जैसे सोशल मीडिया ‘स्वपूर्ति’ (सेल्फ़ फुलफिलमेंट ) के नये केन्द्र बन गये हैं। इस आत्ममोह, आत्मकेन्द्रियता के बीच हम स्वयं को खोने की भयानक त्रासदी से जूझ रहे हैं, उस पर भी कमाल यह कि हमे यह पता ही नहीं। हमें यह भ्रम  है कि हम फेसबुक द्वारा असीमित लोगों के बीच पहुँच जाते है। जब कि सच्चाई यह है कि हम कहीं नही पहुँचते। बल्कि जहाँ पहुँच सकते हैं वहाँ की राह भी कठीन हो जाती है। मानव जीवन सीमाओं में बंधा है। यह उसकी मूल प्रकृति है। इसे हम क्यों भूल जाते हैं। प्रकृति ने हमें कई संदर्भों में अपूर्ण बनाकर हमारी सीमाओं को सुनिश्चित किया है। ऐसा इसलिए ताकि इस अपूर्णता में हम ‘पूर्णता’ के मर्म को समझ पायें और आपसी सहयोग, विचार-विनिमय इत्यादि के माध्यम से जीवन के विभिन्न संदर्भों  में सामजस्य की स्थितियों को लगातार तलाशते रहें । इसी से मानव जाति का परिष्कार एवं  परिमार्जन संभव है।

 

 

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

विजिटिंग प्रोफ़ेसर

ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज़

ताशकंद, उज्बेकिस्तान

संदर्भ सूची :

1.        Political deification of Lord Parshuram: tracing Brahminic masculinity in contemporary North India - Jigisha Bhattacharya.https://www.tandfonline.com/doi/full/10.1080/0048721X.2022.2094775?scroll=top&needAccess=true&role=tab

2.        https://www.britannica.com/topic/Parashurama

3.        https://ijcrt.org/papers/IJCRT2303503.pdf

4.        Collins, Brian. The Other Rama: Matricide and Genocide in the Mythology of Parasurama. State University of New York Press. 2020.

5.        Postcolonial Indian Literature Towards a critical framework – Satish C. Aikant, Indian Institute of Advanced Study, Shimla, first published 2018.

6.        Social Awareness in Modern Indian Literature – R.K.Kaul and Jaidev. Indian Institute of Advanced Study, Shimla, first published 1993.

7.        Literature and Infinity – Franson Manjali, Indian Institute of Advanced Study, Shimla, first published 2001. 

8.        Ethics of information Technologies in knowledge society – Jacob Dahi Rendtorft, Roskide University, Denmark. Journalism and Mass Communication April 2016, Vol 6, No. 04, 213-220.

9.        Impact of media on society: As sociological perspective Hakim Khalid Mehraj, Akhtar Neyaz Bhat, Hakeem Rameez Mehraj Govt. college Baramulla – International Journal of Humanities and social science invention ISSN (online) 2319-7722, ISSN (Print) 2319-7714. Volume 3, issue 06/June 2014 I P.P. 56-64.

10.     Indian literature – Edited by Arbinda Poddar – Indian Institute of Advanced Study, 1972.

11.     Understanding Itihasa – Sibesh Bhattacharya, IIAS, Shimla, 2010.

12.     Methodology of Socio-Historical Linguistic – D.D.Madhulkar, IIAS, Shimla, 1996.

13.     Postcolonial Indian Literature: Towards a Critical Framework – Satish C. Aikant, IIAS, Shimla, 2008.

14.     The Quest for Indian Sociology: Radhakamal Mukerjee and our Times – Manish Thakur, IIAS, Shimla, 2014.

 

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