Friday, 13 August 2010

पर अभी जिन्दा ये शहर है /

उदासी क्यूँ हैं बदहवासी क्यूँ है
खोया पूरा परिवार तुने सच है
पर अभी जिन्दा ये शहर है 

भोपाल क्या भुला है तू 
कोशी को क्या सोचा है तू 
वर्षों गुजरते रहते है 
नेतागिरी बड़ती रहती है 
कभी बहस कभी माफ़ी मिलती रहती है 
उदासी क्यूँ हैं बदहवासी क्यूँ है

खोया पूरा परिवार तुने सच है
पर अभी जिन्दा ये शहर है

कश्मीरी पंडितों का भविष्य
लातूर का भूकंप में जनहित
दिल्ली ले दंगों का सच 
गुजरात के कत्लों का सच 
नेताओं के काले पैसों का सच 
देश के भूखे नंगों का सच 
 देख रहा तू वर्षों से
इंसाफ जारी है
प्रयास जारी है
देश के श्रेष्ठतम नेता अफसर जुटे है
दिन महीने या दशक  हो गुजरे
प्रयास जारी है
पत्रकारों टी.वी न्यूज़ चैनल वालों की टी.आर.पी चालू है
देश की महानता नेताओं की दूरदर्शिता चालू है 
फिर उदासी क्यूँ हैं बदहवासी क्यूँ है

खोया पूरा परिवार तुने सच है
पर अभी जिन्दा ये शहर है /



Wednesday, 11 August 2010

ओमप्रकाश पांडे `नमन`


ओमप्रकाश पांडे `नमन ` की यह तीसरी कृति है /कवी  एवं संम्पादक श्री अलोक भट्टाचार्य ने अपनी भूमिका में लिखा है ``नमन की गजलें यदि कवी के कोमल मन को सहलाती हैं ,तो युगधर्म का निर्वहन भी करती हैं / ``

इसी कविता संग्रह की एक कविता प्रस्तुत है /

रात बेहद उदास थी उस दिन
मौत के आसपास थी उस दिन /

देख कर क़त्ल अपने बच्चों का
बूढी माँ बदहवास थी उस दिन /

शहर के सारे मकान खाली थे
भीड़ सड़कों के पास थी उस दिन /

बंद द्वार थे मंदिर मस्जिदों के
शमशानों पर बारात थी उस दिन/

कौम की खातिर हुए दंगों में
कौम बेबस लाचार थी उस दिन /
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ओमप्रकाश पांडे `नमन` के व्यक्तित्व उनकी ये कविता परिभाषित करती है /

जंग की बात जों जाहिल हैं किया करते हैं
दुवाएं हम तो मोहब्बत की किया करते हैं /


Monday, 9 August 2010

भाव बहुत हैं दिल में तेरे

भाव बहुत हैं दिल में तेरे
                    नाम है किनके ना जानी
छलके हैं तेरे दिल के प्याले
                   भाग्य थे किनके ना जानी
वर्षा का मौसम रिमझिम बारिश 
                  पास नदी और प्यासा मै 
तट पर प्यासा मै बैठा 
                  नैया किसकी पार हुई ना जानी  


रात तूफानी विकल अँधेरा 
                      साथ तेरे  था किसी का घेरा 
 आवाजों में कसक बहुत थी
                     हंसी में तेरी खनक बहुत थी
किनके संग वो लम्हे बांटे
                     साया था मै तेरा पर ना जानी
सुबह विहंगम चेहरे पे खुशियाँ औ गम
                    क्या खोया क्या पाया तुने ना समझा ना जानी


तुझमे दुविधावों का मंजर पाया
                           थमा हुआ समंदर पाया
आखों में खुशियों का रेला
                          दिल में मचा बवंडर पाया


आगे बढ तुझे थाम भी लेता
                             अपनापन और मान भी देता
साया बन तुझे छावं भी देता
                            अपने ख्वाबों को तेरा नाम भी देता
पर हर पल बदले फितरत तेरी 
                           कब बने प्यार कब नफ़रत तेरी 
कैसे मैं सम्मान को देता 
                           कैसे अपने ईमान को देता

Saturday, 7 August 2010

वक़्त मिले चाहत कहे तो आवाज दे देना

वक़्त मिले चाहत कहे तो आवाज दे देना
अपनापन,अतरंगता  मोहब्बत साथ दे देना

अपना कहने का अधिकार दे देना 
बाँहों में भर सीने में सिमट प्यार दे देना 
लबों को लबों का साथ दे देना 
मेरी जिंदगानी को कोई सार दे देना  

वक़्त मिले चाहत कहे तो आवाज दे देना
अपनापन,अतरंगता मोहब्बत साथ दे देना


बड़ा शौक था तेरी चाहत का

बड़ा शौक था तेरी चाहत  का
इक  जूनून था तेरी मोहब्बत  का 
खुद को न्योछावर करता तेरे  एक इशारे पे
पर तुझे यकीं  नहीं था मेरी शहादत  का









Wednesday, 4 August 2010

विषय-पीच.डी धारकों की नेट /सेट से छूट के सम्बन्ध में .



manish mishra 4 August 2010 22:09
To: vc@fort.mu.ac.in
Address:
M.G.Road, Fort,
Mumbai-400 032
Tel:   +91 22 2265 2825,Ext: 101
         +91 22 2265 2819,Ext: 101
Fax:
 +91 22 2267 3569
Email: vc@fort.mu.ac.in



सेवा में ,
    माननीय कुलपति जी
    मुंबई विद्यापीठ
    मुंबई 

                                       विषय-पीच.डी धारकों की नेट /सेट से छूट के सम्बन्ध में .
 
माननीय महोदय,
                    यु.जी.सी. के नियमावली के अनुसार जो पीच.डी. हैं उन्हें नेट /सेट से छूट दी गई है. इस सम्बन्ध में महाराष्ट्र के ही अमरावती विद्यापीठ ने तो नोटिफिकेसन भी निकाल दिया है.
                     लेकिन मुंबई विद्यापीठ ने इस सन्दर्भ में कोई पहल नहीं की है,इसका नुक्सान यहाँ के पीच.डी धारकों को हो रहा है. उन्हें पैनेल  इंटरविव के समय योग्य नहीं माना जा रहा है.
                                 आपसे अनुरोध है कि आप इसमें दखल देते हुवे कोई आदेश जल्द से जल्द देने की कृपा करें . जिससे विद्यार्थियों का नुक्सान ना हो .
  
  धन्यवाद 
                                                                                                                                                           आपका 
                                                                                                                                             डॉ.मनीष कुमार मिश्रा
                                                                                                                                             मो-९३२४७९०७२६
 संलग्न 
१-अमरावती विद्यापीठ का नोटिफिकेसन 
 

Tuesday, 3 August 2010

मोहब्बत न सही कोई तकरार तो दे दे

मोहब्बत न सही कोई तकरार तो दे दे 
दे सके तो मेरे सपनों को कोई आकार तो दे दे  
चाहत नहीं बची किसी चाह की कोई
मेरे बिखरे वजूद को कोई राह तो दे दे

सूखे ख्वाबों का पेड़ हूँ हरियाली के आँगन में

दे सके तो आहों की राख तो दे दे
जिंदगी बिताने को एक आस है बहुत
मेरी मोहब्बत को कोई विचार तो दे दे

गुजर रही तेरी जिंदगी बड़े सुखो  आराम से
इस जन्म का न सही अगले जन्म का होंकार तो दे दे
मोहब्बत न सही कोई तकरार तो दे दे
मेरे बिखरे वजूद को कोई राह तो दे दे










Sunday, 1 August 2010

क्या आप कभी मेरी मोहब्बत के पात्र रहे हैं

क्या आप कभी मेरी मोहब्बत के पात्र रहे हैं
क्या आप कई वर्ष मेरे आस पास रहे हैं

क्या आपने मेरी आखों में समुन्दर तलाशा था
क्या आपने मेरी जुल्फों में निशा के मंजर को ढाला था

क्या आपने चूमा था मेरा ललाट अधिकार से कभी 
क्या आपने सींचा था मुझे अपने प्यार से कभी 

क्या आपके ओठों ने मेरे लबों की लाली बडाई थी 
क्या मेरे उफनते सीने को अपने आलिगन में समायी थी 

क्या मेरी रातें तेरी बाँहों में महकी थी 
क्या तुम हो वही जिसकी आगोश में मेरी सुबहें बहकी थी 

जाने दो गुजरे वक़्त को अब याद क्या करना 
जाने दो तुम्हे पहचान के अब अहसान क्या करना 

जों गुजर गया वो भुत है अब नया मेरा मीत है 
भविष्य नया तलाश कर यादों का कभी ना साथ कर 
सीख दे गयी वो बात तो पते की थी 
कैसे बदलता दिल मेरा वो मेरे धड़कन में थी  


ठहरा हुआ जों वक़्त हो उससे निकल चलो

ठहरा हुआ जों वक़्त हो उससे निकल चलो
गम की उदासियों से हंस कर निपट  चलो


गमनीन जिंदगानी को खो कर निखर चलो
कठिनाई के दौर से डटकर निपट चलो


बिखर रहा हो लम्हा यादों में किसी के
सजों कर कुछ पल दिल से निकल चलो


जिंदगी गुजर रही जों उसकी तलाश में
जी भर के तड़प के मुस्कराते निकल चलो




Saturday, 31 July 2010

इम्तहान लेती रही जिंदगी मेरी

इम्तहान लेती रही जिंदगी मेरी
यूँ ही चलती रही जिदगी मेरी
कमियाँ तलाशते रहे लोग अपने
असफलताएं सजाती रही मेरी जिंदगी

व्यवहार बदलता रहा हर मोड़ पे लोंगों का
मेरी मुसीबतों पे मुस्कराती  रही मेरी जिंदगी
हर ठोकर के बाद लंगडाती रही मेरी जिंदगी
अपनो को यूँ  सुकूँ  पहुंचाती रही मेरी जिंदगी

कोई मरहम लगता नमक का कोई तिरस्कार की बातें
कोई अहसान की दवा देता कोई दया की बातें
कोई मुस्कराता हर तकलीफ पे कोई खिलखिलाता हर चोट पे
ऐसे  कितनो को सुख पहुंचाती रही मेरी जिंदगी  

Friday, 30 July 2010

एक दिवसीय हिंदी कार्यशाला का आयोजन


 
                                      बुधवार , दिनांक  १८ अगस्त  २०१० को महाविद्यालय के हिंदी विभाग और हिंदी अध्ययन मंडल,मुंबई विद्यापीठ के संयुक्त तत्वावधान में बी.ए. प्रथम वर्ष (वैकल्पिक ) पेपर-१ पर एक दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया है.
                         कार्यशाला के लिए पंजीकरण का समय सुबह ९.३० से १०.०० बजे तक रहेगा .१०.०० बजे से ११.०० बजे तक उदघाटन सत्र चलेगा .१११.०० बजे से १.३० बजे तक चर्चा सत्र चलेगा. १.३० बजे से २.३० तक भोजनावकाश रहेगा .२.३० बजे से ३.०० बजे तक समापन सत्र होगा .
                       महाविद्यालय का पता इस प्रकार है ------
 के.एम.अग्रवाल  कला,वाणिज्य और विज्ञान महाविद्यालय 
 पडघा रोड,गांधारी गाँव ,
कल्याण (पश्चिम )४२१३०१ 
          आप इस कार्यशाला में सादर आमंत्रित हैं. 
 http://maps.google.com/maps?f=d&source=s_d&saddr=Stationery+near+Kalyan,+Maharashtra,+India&daddr=19.262177,73.135728&geocode=%3BFeHqJQEdcPZbBA&hl=en&mra=ls&sll=19.261593,73.134763&sspn=0.001924,0.004823&ie=UTF8&ll=19.260894,73.134527&spn=0.007698,0.01929&z=16&lci=com.panoramio.अल  
     इस   मैप द्वारा  आप आसानी  से कॉलेज तक आ सकते हैं.

 

जिंदगानी भटकी हुई या खोया हुआ हूँ मै

 जिंदगानी भटकी  हुई या खोया हुआ हूँ मै 
राह चुनी थी सीधी चलता रहा हूँ मै 

रिश्तों में राजनीती थी या संबंधों में कूटनीति 
स्वार्थ था नातों में या नाता था स्वार्थ  का
बातें दुविधाओं की थी या दुविधाओं  की बातें  
भाव ले प्यार का सरल चलता रहा हूँ मै

उलझे हुए किस्से  सुने 
झूठे  फलसफे  सुने
मोहब्बत की खोटी कसमे सुनी
सच्चाई की असत्य रस्में सुनी
प्यार को सजोये दिल में
चलता रहा हूँ मै
इश्क के वादों को
 वफ़ा करता रहा हूँ मै

भटकी हुई जिंदगानी या खोया हुआ हूँ मै

राह चुनी थी सीधी चलता रहा हूँ मै










Thursday, 29 July 2010

बेवफा सनम मेरा

बेवफा सनम मेरा
झूठ है फितरत
सच ना कह सका कभी
मेरी सच्चाई से है उसे नफरत

बेवफा सनम मेरा

अपने रिश्तों की बानगी
क्या कहे बदलती उसके दिल की रवानगी
झूठ का बड़ता उसका अंबार है
झूठे प्यार का उसका व्यापार है

बेवफा सनम मेरा

गलती नहीं उसकी कोई
बदलती कहाँ आदत कोई
गोपनीयता का वो सरताज है
बेवफाई पे ही उसका संसार है

बेवफा सनम मेरा

Sunday, 25 July 2010

प्यास बुझा के प्यास बड़ाता पानी

जंगल का कोहरा और बरसता पानी
पेड़ के पत्तों से सरकता पानी

पहाड़ों पे रिमझिम बहकता पानी
सूरज  को बादलों  से ढकता पानी

चाँद तरसता तेरे बदन पे पड़ता पानी
प्यास बुझा के  प्यास बड़ाता पानी

Friday, 23 July 2010

ढहता रहा जहाँ , मेरा विश्वास देखते रहे /

कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे
ऐ जिंदगी तेरा खुमार देखते  रहे

जलजला गुजर रहा भूमि पे जहां हैं खड़े   
ढहता रहा जहाँ मेरा
विश्वास देखते  रहे  















Thursday, 22 July 2010

तेरे सिने में बुझी राख थी /

कल तक तो तू मेरा था
आज क्यूँ तेरी बातों में अँधेरा था
क्यूँ धुंध है दिल में वहां 
 जहाँ कल तक मेरा बसेरा था

चमकती चांदनी में कितनी आग थी
सुबह रक्तिम सूरज में भी छावं थी 
क्या खोया मन ने तेरे 
तेरे सिने में बुझी राख थी / 



Monday, 19 July 2010

बोझिल से कदमों से वो बाज़ार चला

बोझिल से कदमों से वो बाज़ार चला
बहु बेटो ने समझा कुछ देर के लिए ही सही अजार चला

कांपते पग चौराहे पे भीड़
वाहनों का कारवां और उनकी चिग्घाडती गूँज
खस्ताहाल  सिग्नल बंद पड़ा
रास्ता भी गड्ढों से जड़ा था

हवालदार कोने में कमाई में जुटा चाय कि चुस्किया लगा रहा
 छोर पे युवकों का झुण्ड जाने वालों कि खूबसूरती सराह रहा

 चौराहा का तंत्र बदहवाल  था
उसके कदमों में भी कहाँ सुर ताल था
तादात्म्यता जीवन कि बिठाते बिठाते
जीवन के इस मोड़ पे अकेला पड़ा था

लोग चलते रुकते दौड़ते थमते
एक मुस्तैद संगीतकार कि धुन कि तरह
अजीब संयोजन कि गान कि तरह
दाहिने हाथ के शातिर खिलाडी के बाएं हाथ के खेल की तरह
केंद्र और राज्य के अलग सत्तादारी पार्टियों के मेल की तरह
चौराहा लाँघ जाते फांद जाते

 उसके ठिठके पैरों कि तरफ कौन देखता
८० बसंत पार उम्रदराज को कौन सोचता
निसहाय सा खड़ा था
ह्रदय द्वन्द से भरा था

 मन में साहस भरा कांपते पैरों में जीवट
हनुमान सा आत्मबल और जीवन का कर्मठ
 युद्धस्थल में कूद पड़ा था वो
किसी और मिट्टी का बना था वो



हार्न  की चीत्कार
गाड़ियों की सीत्कार
परवा नहीं थी साहसी को
वो पार कर गया चौराहे की आंधी को

सहज सी मुस्कान लिए वो चला अगले युद्धस्थान के लिए
हर पल बदलती  जिंदगी के  नए फरमान के लिए /

विवेकी राय जी का नया उपन्यास -बनगंगी मुक्त है .भाग १


विवेकी राय जी का जन्म १९२७ में हुआ.आप हिंदी और भोजपुरी साहित्य में काफी प्रसिद्ध  रहे.आप उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के एक छोटे से गाँव  सोनवानी से हैं.आप ने ५० से अधिक पुस्तकें लिखीं .आप को कई पुरस्कार भी प्राप्त हुवे.सोनामाटी आप का मशहूर उपन्यास रहा.  महापंडित  राहुल  संकृत्यायन  अवार्ड  सन  २००१ में और   उत्तर  प्रदेश ' का यश  भारती  अवार्ड  सन  २००६ में आप को मिला . 
  आप क़ी प्रमुख कृतियाँ है 
  • मंगल  भवन 
  • नमामि  ग्रामं 
  • देहरी  के  पार 
  • सर्कस
  • सोनामाटी
  • कालातीत 
  • गंगा जहाज 
  • पुरुस  पुरान
  • समर  शेष  है 
  • फिर  बैतलवा  डार  पर 
  • आम  रास्ता  नहीं  है 
  • आंगन  के  बन्दनवार 
  • आस्था  और  चिंतन 
  • अतिथि 
  • बबूल 
  • चली  फगुनहट  बुरे  आम 
  • गंवाई  गंध  गुलाब 
  • जीवन  अज्ञान  का  गणित  है 
  • लौटकर  देखना 
  • लोक्रिन 
  • मनबोध  मास्टर  की  डायरी 
  • मेरे  शुद्ध  श्रद्धेय 
  • मेरी   तेरह  कहानियां 
  • नरेन्द्र  कोहली  अप्रतिम   कथा  यात्री 
  • सवालों  के  सामने 
  • श्वेत  पत्र 
  • यह  जो  है   गायत्री 
  • कल्पना  और  हिंदी  साहित्य , .
  • मेरी  श्रेष्ठ  व्यंग्य  रचनाएँ , 1984.
 २००१ में विश्विद्यालय प्रकाशन ,वाराणसी  से आपका एक नया उपन्यास प्रकाशित हुआ है -बनगंगी मुक्त है .
 बनगंगी मुक्त है -विवेकी राय 
 (ग्राम -जीवन के प्रति समर्पित एक अनुपम कृति )
                               विवेकी राय जी द्वारा लिखित उपन्यास ''बनगंगी मुक्त है '' ग्राम जीवन को समर्पित अपने आप में एक बेजोड़ रचना है .विवेकी राय जी ग्रामीण जीवन क़ी तस्वीर खीचने में महारत हासिल कर चुके हैं.प्रस्तुत उपन्यास नई खेती,चकबंदी ,ग्रामसभा,चुनाव और आजादी के बाद लगातार बढ़ रही मतलब परस्ती ,लालफीता शाही ,भाई-भतीजावाद  और अवसरवादिता को प्रमुखता से रेखांकित करता है .मूल्यों (  values) और कीमत (praize) के बीच के संघर्स को भी उपन्यास में सूत्र रूप में सामने रखा गया है.सहजता और सरलता के साथ-साथ  सजगता भी उपन्यास में बराबर  दिखाई पड़ती है .आंचलिक उपन्यासों क़ी तर्ज पर अनावश्यक विस्तार को महत्त्व नहीं दिया गया है. एक परिवार क़ी कथा को गाँव और उसी को पूरे देश क़ी तत्कालीन (१९७२)परिस्थितियों से जोड़ने का काम विवेकी राय जी ने बड़े ही सुंदर तरीके से किया है . 
                                ''बनगंगी मुक्त है '' क़ी पृष्ठभूमि १९७२ क़ी है .उपन्यास में उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिले बलिया और गाजीपुर का चित्रण अधिक हुआ है .हम जानते हैं क़ी १९४७ में आजादी मिलने के बाद ,इस देश क़ी आम जनता को सरकार से कई उम्मीदे थी.''सब क़ी आँखों के आंसूं पोछने का दावा'' लाल किले की प्राचीर से करने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरु देश के प्रधानमंत्री थे.जनता को विश्वाश था क़ि रोटी,कपडा और मकान का सपना हर एक का साकार हो  जाएगा .सब क़ी आँखों में सपने पूरे होने क़ी चमक थी.लेकिन ये सारी उम्मीदें आजादी के १० साल में ही दम तोड़ने लगी.जनता अपने आप को ठगा हुआ महसूस करने लगी .बढती फिरकापरस्ती,अवसरवादिता और कुंठा ने जनता को यह एहसास दिला दिया क़ि,'' १५ अगस्त १९४७ को आजादी के नाम पर जो कुछ भी हुआ वह सिर्फ सत्ता का हस्तांतरण (exchange of power) था .'' वास्तविक आजादी तो हमे अभी तक मिली ही नहीं.
                              जनता के बीच बढ़ रही इसी हताशा ,कुंठा,निराशा और आत्म-केन्द्रीयता (self-centralisation) ने हिंदी कथा साहित्य में ''नई कहानी आन्दोलन '' क़ि नीव रखी .कमलेश्वर,राजेन्द्र यादव ,मोहन-राकेश,मार्कण्डेय और अमरकांत जी जैसे कथाकार यंही से यथार्थ क़ि ठोस भाव-भूमि पर लिखना शुरू करते हैं.यंही से ''कथ्य '' और ''शिल्प'' दोनों ही स्तरों पर परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं.इस आन्दोलन क़ि उम्र यद्यपि  छोटी रही लेकिन सम-सामयिक परिस्थितियों के वास्तविक स्वरूप को कथा साहित्य में चित्रित करने क़ि जो परम्परा शुरू हुई वह  हिंदी साहित्य में लगातार किसी ना किसी रूप में बनी रही .
                             प्रस्तुत उपन्यास के केंद्र में रामपुर नामक एक गाँव है ,जो बलिया या गाजीपुर के आस-पास का हो सकता है.इसी गाँव में एक प्रतिष्ठित किसान परिवार है . परिवार में तीन भाई हैं.सबसे बड़े भाई धर्मराज हैं.मझले भाई त्रिभुवननाथ और छोटे गिरीश बाबू .इन तीन भाइयों के माध्यम से उपन्यासकार ने ३ अलग-अलग विचार धारावों को सामने लाया है .

अमरकांत : जन्म शताब्दी वर्ष

          अमरकांत : जन्म शताब्दी वर्ष डॉ. मनीष कुमार मिश्रा प्रभारी – हिन्दी विभाग के एम अग्रवाल कॉलेज , कल्याण पश्चिम महार...