हिंदी साहित्य के इतिहास की पूर्व प्रचलित मान्यताएँ
नित नवीन शोधों,
अनुसंधानों एवम् विचार धाराओं के आलोक में पुनर्मूल्यांकन एवम् पुनर्लेखन
की ओर हम सभी का ध्यान केन्द्रित करती हैं। हिंदी साहित्येतिहास लेखन की एक सुदृढ़
परंपरा इसी बात को बल प्रदान करती है। जब मैं बात हिंदी साहित्येतिहास लेखन की परंपरा
की करता हँू तो निश्चित रूप से यहाँ `परंपरा' का अर्थ ``आधुनिक मान्यताओं, विचारों
एवम् अवधारणाओं को आत्मसाथ कर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति से ही है।'' संक्षेप में मेरी `परंपरा' की कल्पना
में आधुनिकता (तथाकथित सम् सामायिक संदर्भो में) हमेशा परंपरा से जुड़ता चलती है। इसलिए नवीन शोधों, अनुसंधानों,
तथ्यों, विचारधाराओं एवम् अवधारणाओं के परंपरा
से जुड़ने पर मैं इसे `दुसरी परंपरा' या
`तीसरी परंपरा' नहीं मानता। पुनर्मूल्यांकन
व पुनर्लेखन वास्तव में आधुनिकता के ही परिचायक हैं। ये ही वो तत्व हैं जो परंपरा के
परिमल - विमल प्रवाह को गति प्रदान करते हैं। यही परंपरा व्यापक
स्वरूप में संस्कृति का निर्माण करती है। जोसेफ बी. कॉपर और जेम्स
एल. मैकगाह अपनी किताब -
यहाँ पर जिस की बात हो रही है, मेरे हिसाब से परंपरा और नवीन मान्यताओं की ही तरफ इशारा कर
रहे हैं।
पिछले कई दशकों से हिंदी साहित्यातिहास के जिन
बिंदुओं को लेकर व्यापक चर्चा हुई है, उनमें से कुछ की (`कुछ की' इसलिए कह रहा हँू क्योंकि मेरे अध्ययन की अपनी
सीमाएँ हैं और हिंदी का क्षेत्र बड़ा व्यापक।) चर्चा मैं अपने
तरीके से करना चाहूँगा। जब भी बात हिंदी साहित्येतिहास की चलती है तो पहला प्रश्न `इतिहास' और `साहित्येतिहास'
की अवधारणा को ही लेकर उठता है। ``साहित्यिक इतिहास
क्यों और कैसे?'' नामक अपने लेख में हिंदी के सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी
आलोचक डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं कि, ``साहित्यिक
इतिहास की विषय-सामग्री किसी भाषा की सर्जनात्मका और साहित्यिक-सृष्टि है, जिसकी गुणवत्ता का तारतमिक मूल्यांकन भी साहित्यिक
इतिहासकार का अतिरिक्त दायित्व है। यह आलोचना-धर्म साहित्यिक
इतिहास का ऐसा पक्ष है जो अन्य इतिहासों से उसे अलग करता है। इस दृष्टि से यदि एक ओर
इतिहास से साहित्य की होड़ है तो साहित्यिक इतिहास भी इस होड़ में उसका बगलगीर है।''
नामवर जी की इस `होड़ दृष्टि' पर विचार करना आवश्यक है। मुझे लगता है कि यह कोई होड़ न होकर विकास की अपनी
अलग-अलग स्थितियाँ हैं। जब कोई रचना बनती है या लिखी जाती है
तो वह अपने निर्माण के साथ ही `कालजयी' होने का दावा नहीं करने लगती। बल्कि एक लंबे अंतराल के बाद उस रचना विशेष की
लोकप्रियता, कथ्य, शिल्प, अलंकारिकता, काव्यगत तत्व, सम सामायिक
राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व ऐसे ही कई पक्षों
पर विचार करके उसकी `कालजयिता' का मूल्यांकन विद्ववानों द्वारा किया जाता है। काल वह कसौटी है जिस पर रचना
(साहित्य) जाने- अनजाने
लगातार घिसी जाती हैं। वह साहित्य जो काल परिवर्तन से प्रभावित हुए बिना अपनी प्रासंगिकता
बनाये रखने में सफल रहता है वही कालजयी कहलाता है।
काल सतत गतिशील है। (वृत्ताकार रूप
में या कि एक रेखीय रूप में? इस विवाद में मैं नहीं पड़ना चाहता।)
लेकिन साहित्य के बारे में ऐसा दावा नहीं किया जा सकता। साहित्य की गतिशीलता
कई अन्य पक्षों पर आधारित होती है। साहित्य की होड़ साहित्य से ही होती है,
काल से नहीं। जहाँ तक प्रश्न काल और कला का है तो, कला का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। काल विशेष की कला उस काल विशेष को ऐतिहासिक
गरिमा प्रदान करते हैं। काल विशेष की परिस्थितियों में ही कला का जन्म होता है। मुझे
तो ये परस्पर एक दूसरे के पूरक प्रतीत होते हैं। और अगर ना भी हों तो, कम से कम किसी होड़ में शामिल नहीं दिखते।
हिंदी साहित्येतिहास और इतिहास दर्शन को लेकर
भी बहुत सारे विचार चर्चा में रहे। इतिहास संबंधी भारतीय दृष्टिकोण प्राय: आदर्शमूलक
एवम् आध्यात्मवादी रहा। पाश्चात्य इतिहासकार यथार्थवादी दृष्टिकोण से अनुप्राणित रहे।
इसके अतिरिक्त मार्क्सवादियों का द्वंद्ववात्मक भौतिक विकासवाद, वर्ग संघर्ष और आर्थिक परिस्थितियों से संबंधित सिद्धांत। जर्मन चिंतकों द्वारा
प्रतिपादित `युग चेतना' का सिद्धांत। मनोविज्ञान,
मनोविश्लेषण और अर्थ विज्ञान के आधार पर, आई.
ए. रिचड्र्स, विलियम एम्पसन,
सी.एम.लेविस, डब्लू. पी. कर एवम् एफ्.
डब्लू. बैटसन का विशेषतया शैलीपक्ष से संबंधित
सिद्धांत। इन तमाम दृष्टियों के बीच इतिहास लेखन की समस्या पर प्रकाश डालते हुए डॉ.
विश्वंभरनाथ उपाध्याय जी ने अपने लेख `साहित्येतिहास
- दर्शन की समस्याएँ' (जो हिंदी साहित्य
का इतिहास : पुनर्लेखन की समस्याएं' नामक
पुस्तक में छपा है) में लिखते हैं कि, ``इतिहास लेखन में दृष्टि से भी अधिक महत्त्व मनोवृत्ति का है। यदि मनोवृत्ति
या नीयत खराब है तब इतिहास प्रामाणिक न होगा। हिंदी में विभिन्न वादों या दृष्टियों
के अनुरूप इतिहास लिखे जाने चाहिए। ये एक दूसरे के पूरक होंगे क्योंकि जो तथ्य या व्यक्ति
एक बाद के इतिहास में नहीं आएँगे वे दूसरी विचारधारा के इतिहास में आ जायेंगे।''
डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय जी का यह दृष्टिकोण
यथार्थवादी है। इसलिए इसे स्वीकार करने में किसी को कोई परेशानी भी नहीं होनी चाहिए।
लेकिन जो लोग यह सोचते हैं कि साहित्यातिहास लेखक के अंदन यह गुण होना चाहिए कि वह
अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं, पसंद-नापसंद
आदि से बचते हुए तथ्यों के आधार पर अपनी बात रखें। तो यहाँ पर यही कहना चाहँूगा कि
ये बातें सुनने में जरूर अच्छी लगती हैं पर व्यावहारिक दृष्टि से इसे निभा पाना मुश्किल
है। ऐसे विचार `उस फल की तरह हैं जो बाहर से देखने में बड़े सुंदर लगते हैं पर उन्हें काटने
पर पता चलता है की वे सड़े हुए हैं। तथा किसी भी तरह आहार के रूप में उसे ग्रहण नहीं
किया जा सकता है। इसलिए साहित्यातिहास और इतिहास दर्शन संबंधी अनेकानेक विचारधाराओं
एवम् मान्यताओं के बीच तथ्यगत व्यावहारिक पक्ष पर अधिक बल देते हुए, उसे स्वीकार करना चाहिए। इतिहास का अर्थ अगर हम ` ' मानते हैं तो साहित्यातिहास को
भी किसी एक निश्चित धारणा मे बाँधने के बदले बृहद रूप में एक अवधारणा के रूप में स्वीकार
किया जाना चाहिए।
साहित्य, इतिहास, साहित्यातिहास
और इतिहास दर्शन के संदर्भ में थोड़ी और चर्चा आवश्यक है। साहित्य समाज का आईना मात्र
नहीं है। समाज कैसा है? इससे आगे बढ़कर समाज कैसा होना चाहिए?
इस बात को भी साहित्य स्पष्ट करता है। साहित्य मनुष्यों द्वारा रचा जाता
है। हर व्यक्ति की अपनी विचारधारा, अपने आदर्श और उस क्षेत्र
विशेष की अलग-अलग परिस्थितियाँ होती हैं जहाँ पर वह निवास करता
है। इन परिस्थितियों का भी साहित्य के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए
जब साहित्यातिहास लेखन की बात होती है तो यहाँ पर भी मान लेना चाहिए कि साहित्यातिहास
लिखनेवाले अलग-अलग व्यक्तियों की विचारधाराएँ एवम् धारणाएँ अलग-अलग हो सकती हैं। इस प्रकार जिस तरह साहित्य रचना की अपनी अलग-अलग स्थितियाँ होती हैं, ठीक उसी तरह साहित्यातिहास लेखन
की भी अपनी अलग-अलग स्थितियाँ हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं निकाला
जाना चाहिए कि दोनों में कोई प्रतिस्पर्धा है। बल्कि ये दोनों के विकास एवम् मूल्यांकन
की अलग-अलग स्थितियाँ हैं।
इतिहासकार और साहित्यातिहासकार की भी अपनी अलग-अलग स्थितियाँ
हैं। क्योंकि इतिहास लिखना और साहित्य का इतिहास लिखने में बुनियादी अंतर है। इतिहास
अधिक तथ्यपरक है अपेक्षाकृत साहित्यतिहास के। साहित्यातिहास में इतिहास की अपनी दृष्टि
एवम् धारणाएँ भी उतनी ही आवश्यक हैं जितनी की `गवेषणा'
और इसके माध्यम से प्राप्त `तथ्य'। `हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास' की भूमिका में डॉ. बच्चन सिंह लिखते हैं कि, ``साहित्य के इतिहास को साहित्यिक बनाये रखना इतिहासकार का केंद्रीय धर्म है।
---- पूर्ववर्ती साहित्य तो वही रहता है पर उसे पढ़ने की दृष्टि
बदल जाती है। भक्तिकाल को शुक्लजी ने एक ढंग से पढ़ा और द्विवेदीजी ने दूसरे ढंग से।----''
जहाँ तक प्रश्न इतिहास दर्शन का है तो हमें यह
समझना होगा कि साहित्येतिहास के अंतर्गत `इतिहासदर्शन' के
सिद्धांतो का व्यावहारिक स्वरूप क्या हो? `दर्शन' शब्द संस्कृत के `दृश्य' शब्द से
बना है। कहा गया है कि ``दृश्यते यथार्थ तत्त्व मनने''
जिसका अर्थ है कि - ``जिसके द्वारा यथार्थ तत्त्व
की अनुभूति हो वही दर्शन है।ण'' अंग्रेजी भाषा में इसके लिए ``philosohpy'' शब्द प्रचलित
है। इसकी भी उत्पत्ति दो युनानी शब्दों से हुई है। ``philosohpy = Philos प्रेम + sophia (wisdom ज्ञान) ''इस तरह ``ज्ञान से प्रेम' या `सत्य की खोज'
ही दर्शन है। प्लेटो ने अपनी किताब `रिपब्लिक'
में दार्शनिक के बारे में लिखा कि, `` '' दर्शन
के संदर्भ में जॉन डेवी की यह परिभाषा भी महत्त्वपूर्ण है कि, ``'' दर्शन के संदर्भ में जॉन डेवी की यह परिभाषा महत्त्वपूर्ण है कि, ``
'' इतिहास के बारे में हम पहले ही देख चुके हैं कि ``'' जबकि साहित्य के बारे में कहा गया है कि, ``'' बल्कि
इससे भी कुछ अधिक। साहित्य इतिहास और समाजशास्त्र की संयुक्त प्रयोगशाला की उत्पत्ति
है। दुनियाँ के कई विश्वविद्यालयों में
` ' को ` ' कहा जाता है। और जब बात `संस्कृति' की आती है तो यह समझ लेना चाहिए की `समाज' और `संस्कृति' ये समानार्थी शब्द नहीं ह। `` '' यहाँ पर जिस `रिकार्डिंग' की बात है वह साहित्य व अन्य कलाओं के द्वारा
ही संभव है। इस तरह हम कह सकते हैं कि ``साहित्य समाज इतिहास दर्शन''
यह सब मिलकर ही साहित्यातिहास की आधारभूमि बनाते हैं।
कुछ विद्वानों ने जिस `इतिहास आलेखकारी'
की बात की है उसमें भी संस्कृति और समाज के महत्त्व को `साहित्यइतिहास' के संदर्भ में आसानी से समझा जा सकता
है। डॉ. रमेश कुंतल मेघजी ने `इतिहासआलेखकारी' की बड़े विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने आदर्श, प्रादर्श
एवम् प्रतिदर्श ( ) की विवेचना के साथ साहित्येइतिहास के व्यवहारिक
एवम् वैज्ञानिक स्वरूप को विवेचित किया है ( कुंतल जी के व्याख्यान
की स्मृति के आधार पर)। समग्ररूप से कहने का तात्पर्य यही है
कि परंपरा को उसके बृहद रूप में स्वीकार करते हुए इतिहास दर्शन के अनेकों सिद्धांतो
के बीच हर दृष्टिकोण से साहित्यातिहास लिखा जाय पर `साहित्य के
इतिहास को साहित्यिक' रहने दिया जाय। निश्चित धारणाओं की जगह
बुनियादी अवधारणाओं को प्रतिदर्श के रूप में स्वीकार किया जाय। इस तरह विचारों के फेनोच्छवास
से अध्ययन-अध्यापन की धूमिल स्थितियों को शायद एक स्पष्ट राह
मिल सके।
इन सब के अतिरिक्त साहित्यातिहास से संबंधित
एक और प्रश्न अक्सर उठता है। वह प्रश्न है कि, ``हिंदी साहित्य का आरंभ कब से माना
जाय?'' इस संबंध में डॉ. रामविलास शर्मा
जी के अध्ययन एवम् चिंतन को प्रणाम करने से (स्वीकार करने से)
एक तथ्यगत व तर्कगत उत्तर हमें प्राप्त हो जाता है। उन्होंने `हिंदी जाति' का विवेचन `यूरोप में
आधुनिक जातियों के अभ्युदय और उसके आरंभिक निर्माण काल के साहित्य के आधार पर किया।
उन्होंने सिद्ध किया कि किस तरह बाजार जातियों के निर्माण में सहायक होता है। उनके
अनुसार ``जाति का निर्माण सामंती अवस्था के अंतर्गत व्यापारिक
पूँजीवाद के विकास के साथ होता है, अत: यह विकास विषम गति से होता है और उसकी प्रक्रिया दीर्घकालीन होती है। (जाति और साहित्य - हिंदी साहित्य का इतिहास :
पुनर्लेखन की समस्याएँ, पृष्ठ नं. 28)। इसी लेख में
वे लिखते हैं कि, ``प्राचीन काल में यहाँ के एक प्रदेश में भरत
जन निवास करते थे। वे अपने कर्म से ऐसे विख्यात हुए कि सारे देश को ही भारतवर्ष कहा
जाने लगा। आगे चलकर यही
स्थिति हिंद और हिंदुस्तान शब्दों की हुई। ये शब्द पहले हिंदी प्रदेश के लिए,
फिर सारे देश के लिए प्रयुक्त होने लगे।...''
कहने का तात्पर्य यहाँ है कि `हिंदी'
शब्द काफी पुराना है। खड़ीबोली ही नहीं राजस्थानी, ब्रज, अवधी जैसी बोलियों में जो भी साहित्य लिखा गया,
उसे हिंदी ही मानना चाहिए। लेकिन यहीं पर एक और प्रश्न खड़ा हो जाता
है। वह यह कि `देशी भाषा' या `देश्य भाषा' कही जाने वाली बोलियों को अगर हिंदी साहित्य
में माना जाता है तो फिर अपभ्रंश साहित्य को इसमे शामिल किया जाय या नहीं? इस संबंध में डॉ. राम कृपाल पांडेय जी का स्पष्ट मत है
कि, ``--- संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश इत्यादि साहित्य की परिनिष्ठित भाषाएँ थीं जो अपने-अपने समय की देशी भाषाओं से भिन्न थीं। अत: उनमें से
किसी भी लोकभाषा या देशीभाषा समझना उपयुक्त नहीं। (`हिंदी साहित्य
का आरंभ कब से मानना चाहिए?')'' आगे अपनी बात को अधिक स्पष्ट
करते हुए वे लिखते हैं कि, ``.... साहित्यिक भाषा से देशी भाषा
नहीं उत्पन्न होती। अत: अपभ्रंश से हिंदी देश भाषा नहीं उत्पन्न
होती। अत: जिस प्रकार संस्कृत एवम् प्राकृत भाषाओं का साहित्य
हिंदी भाषा के साहित्य के अंतर्गत नहीं आ सकता, वैसे ही अपभ्रंश
भाषा का साहित्य भी हिंदी साहित्य के अंतर्गत नहीं आ सकता।''
अपनी किताब `हिंदी भाषा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य'
में डॉ. रामकिशोर शर्मा लिखते हैं कि, ``छठीं से बारहवीं शताब्दी तक देशी भाषा (संस्कृत से भिन्न
सामान्य काव्य भाषा) अपभ्रंश है। ---- `यह भाषा जनता के दिन रात के व्यवहार में आने वाली बोलियों में से उपज और प्राकृत
की अन्य भाषाओं की तरह थोड़ा बहुत हेर-फार के साथ साहित्यिक बन
गयी (प्रो. रिचर्ड पिशल)। अपभ्रंश के व्यापक प्रचार-प्रसार होने के कारण अनेक
क्षेत्रीय भेदों और उप-भेदों का होना स्वाभाविक है। रुद्रट ने
देश विशेष से अपभ्रंश के अनेक भेदों की ओर संकेत किया। उद्योतन सूरि ने देशी भाषा अपभ्रंश
की अठारह विभाषाओं का उदाहरण सहित उल्लेख किया है।...।''
उपर्युक्त दोनों विचारों से स्पष्ट है कि अपभ्रंश
साहित्य को हिंदी साहित्य में शामिल करने या न करने का प्रश्न जटिल है। इसमें वे सभी
भाषा वैज्ञानिक तत्त्व मिलते हैं जो इसके पूर्व की भाषाओं में थे। साथ ही साथ इसमें
वे नवीन तत्त्व भी समाहित मिलते हैं जो की नयी विकसित भाषाओं में परिलक्षित होते हैं।
एक तरह से हम कह सकते हैं कि अपभ्रंश भाषा नवीन आर्यभाषाओं के निर्माण के पूर्व की
संक्रमणकालीन भाषा थी। यह वही धरातल था जिसमें से आर्यभाषाओं का जन्म हुआ। लेकिन यह
आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक नहीं है। अत: हमें अपभ्रंश का मोह छोड़कर उसे हिंदी
साहित्य में शामिल करने से बचना चाहिए। वैसे इस बात को कहने का कोई ठोस तथ्यगत अधिकार
मेरे पास नहीं है। लेकिन इस संदर्भ में अध्ययन और अध्यापन की अपनी व्यक्तिगत समझ के
आधार पर मैं यह राय रखता हँू।
इसी तरह हिंदी साहित्यातिहास से जुड़े ऐसे कई
बिंदु हैं, जिनको लेकर लगातार चर्चा होती रही है। जैसे कि आदिकाल के काल निर्धारण का प्रश्न,
भक्तिकाल में भक्ति के उदय का प्रश्न, रीतिकाल
के अध्यापन के औचित्य का प्रश्न, भक्तिकाल की प्रासंगिकता का
प्रश्न, आधुनिकता की अवधारणा का प्रश्न, उत्तर-आधुनिकता की अवधारणा का प्रश्न, हिंदी उर्दू की समस्या का प्रश्न, और ऐसे ही न जाने कितने
और विषय हैं, जिन्हे लेकर हमेशा साहित्यिक चर्चा होती रहती है।
और ऐसी चर्चाओं के केन्द्र में जाते हैं, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
और उनके द्वारा लिखित साहित्य का इतिहास संगोष्ठियाँ आयोजित होती रहती है। लेकिन एक
लेख या प्रपत्र की अपनी सीमाएँ होती हैं। इसलिए इन सब विषयों पर चर्चा के लिए कुछ ठहराव
जरूरी हैं।
हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने की प्रक्रिया
एक तरह से परिमार्जन की प्रक्रिया है। यह लेखन कार्य सही दिशा में विकासशील है। जैसे-जैसे हिन्दी
साहित्य के इतिहास का परिष्कृत व विकासशील रूप सामने आता जायेगा वैसे-वैसे साहित्यातिहासकारों से नयी अपेक्षाएँ भी जुड़ती चली जायेंगी। इसलिए यह
जरूरी है कि `वाद-विवाद के बीच से ही संवाद'
की नयी स्थितियों पर कार्य सतत रूप से होता रहे।
मनीष कुमार मिश्र
हिंदी व्याख्याता
के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय,
कल्याण (प.) 421301.
जिला -
ठाणे, महाराष्ट्र
प्रस्तुत आलेख में डॉ.मनीष मिश्र जी का गहन अध्ययन-चिंतन दृष्टिगोचर होता है |
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