Sunday, 18 August 2013

भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का परिशोध, परिष्कार और निर्वाह करती डॉ. विद्या बिन्दु सिंह

     


डॉ. विद्या बिन्दु सिंह का जन्म 02 जुलाई सन 1945 . में उत्तर प्रदेश के जिले फैजाबाद के अंतर्गत जैतपुर, सोनावा में हुआ। आपकी माता प्राणदेवी और पिता देवनारायण सिंह जी थे। एक सामान्य और संस्कार संपन्न परिवार में जन्मी विद्या बिन्दु जी आज हिंदी साहित्य जगत के लिए एक सुपरिचित नाम हैं। शांत, सहज, सरल लेकिन साहित्य और लेखकीय जिम्मेदारियों के प्रति एकदम सजग। कविता, कहानी, निबंध, उपन्यास, संस्मरण और हाइकू तथा क्षणिकाएँ जैसी विधाओं में आपकी लेखनी सतत चल रही है। `बखरी के लोग' `अपनी जमीन', `बाघा बाबा का चौर' आपके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं। `वधूमेध' `अमरवल्लरी', `कॉटों का वन' `वापस लौटे नीड़' `पल नि' और `तुमसे ही कहना है' आपके प्रमुख कविता संग्रहों में से हैं। `अंधेरे के बीच' `वे बेटियाँ' और `फूल कली' आपके प्रमुख उपन्यास हैं। आपके द्वारा लिखित नाटकों में `काकी रोना मत' और `अपना सब संसार' प्रमुख है। आपकी कुल प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 70 से अधिक है। `दिन-दिन पर्व' नामक आपकी पुस्तक समीक्षकों के बीच चर्चा का विषय बनी रही। इधर `राम काव्य' नामक आपकी कुछ पुस्तकें `बुक-ट्रस्ट ऑफ इंडिया' द्वारा प्रकाशित हुई हैं। अवधी लोक साहित्य बाल साहित्य, प्रौढ़ साहित्य, नवसाक्षर साहित्य और बाल व्याकरण से संबद्ध आपकी दर्जनों पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं।
जीवन के तमाम उतार-चढ़ावो को पूरे धैर्य, साहस संबल के साथ आत्मसाथ करते हुए आपने साहित्य सृजन के परिमल-विमल-प्रवाह को निरंतरता प्रदान की है। आप का साहित्य राष्ट्रीयता एवम् मानवियता के भावों से ओत-प्रोत है। राष्ट्रीय-सामाजिक जागरण की चेतना को ही आपने अपने कथा एवम् काव्य साहित्य का विषय बनाया। वह काव्य या साहित्य जिसके अंतर्गत  जीवन की शक्ति क्षीण होती है, उसका आपने कभी भी समर्थन नहीं किया । आप ने अपने साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना के विकास को बल प्रदान किया। भारतीय परंपराएँ, तीज-त्योहार, रीति-रिवाज और धार्मिक मान्यताओं को आपने अपने साहित्य के माध्यम से सामने लाया। नारी मन की व्यथा, उसके सपने, उसकी आशाएँ और उसकी पीड़ा तथा घुटन को भी आपने विस्तारपूर्वक विवेचित किया है। अवधी लोक साहित्य पर भी आपने महत्त्वपूर्ण शोध-पूरक कार्य किया है। देश-विदेश की अनेकों पत्र-पत्रिकाओं से संबद्ध हैं।
कई महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रहते हुए, घर-परिवार की जिम्मेदारियों को कुशलतापूर्वक निभाते हुए आपने  अपनी साहित्यिक गतिविधियों को सतत जारी रखा हुआ है। दुख और अवसाद के क्षणों में भी साहित्य ही आपका संबल रहा। पति कृष्ण प्रताप सिंह की मृत्यु के बाद आप अंदर से टूट चुकी थीं। चारों तरफ निराशा के बादल ही छाये थे। इन दिनों जब मैं `विद्या दीदी' से मिला तो मेरी भी आँखें भर आयीं। `हिन्दी की बिन्दी' वाली अपनी `विद्या दीदी' को पहली बार बिना सिंदूर और बिन्दी के देखना बड़ा कष्टकर रहा। लखनऊ में उनके आवास से लौटते हुए मन भारी हो गया था। मैं उनसे कुछ कह नहीं पाया था, औपचारिकता वश दुख जताने वाली तो कोई बात ही नहीं थी, वैसे भी मेरे संबंध औपचारिक नहीं होते। मुंबई वापस आकर कई बार लगा की `विद्या दीदी' से बात करूँ, पर क्या बात करूँ? यही नहीं समझ पा रहा था। वैसे भी 2-3 महीने में कभी-कबार ही तो उनसे बात होती है। उनके स्वास्थ्य, नई रचनाओं और साहित्यिक यात्राओं के संबंध में ही। इसबार तो समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या बात करूँ? फिर एक दिन अचानक मोबाईल पर `दीदी' का ही फोन आया। मन हर्ष से भर गया। दीदी ने मेरे लेखन, नौकरी, परिवार और कल्याण में रह रही अपनी छोटी बहन `अन्नू' के बारे में देर तक बात करती रहीं। फिर उन्होंने अपनी नई किताबो  ो  बारे में बताया और बोलते-बोलते भावुक होकर बोली ``अब लिखना-पढ़ना ही मेरी दवा है। इनसे ही स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।.... और न कोई तो इनका ही बड़ा सहारा भी।'' दीदी की बात एकदम सच साबित हुई। अब जब दीदी से मिलता हँू तो लगता है कि सचमुच साहित्य ने ही `विद्या दीदी' को सँभाल लिया।
`विद्या दीदी' का समग्र साहित्य सच्चाई और ईनामदारी के लिए लड़नेवाले रचनाकारों के भावबोध को अपने अंदर समेटे हुए है। पंक्ति में सबसे अंत में, हाशिये पर खड़े आम आदमी की अभिव्यक्ति को आपने हमेशा ही महत्त्वपूर्ण माना है। आज के इस बाजारवाद, भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और भाई-भतीजावाद के युग में लोकतंत्र की जगह लूटतंत्र के खिलाफ खड़े होने का अदम्य साहस भी आपने अपने साहित्य के माध्यम से दिखाया है। मंच पर आपको बोलते हुए सुनना एक सुखद अनुभूति होती है। `सुभद्राकुमारी चौहन स्वर्ण पदक', साहित्य महोपाध्याय सम्मान', `साहित्य श्री सम्मान', `हिन्दी की बिन्दी सम्मान', `राष्ट्रभाषा रत्न' सम्मान, `महादेवी वर्मा सम्मान',`जायसी सम्मान' और `विश्वभारती सम्मान' जैसे न जाने कितने की सम्मान के स्मृति चिन्हों से आपका घर भरा हुआ है। जो इस बात का प्रमाण है कि आपकी साहित्यिक प्रतिभा को समय-समय पर साहित्य जगत ने स्वीकार करते हुए आपकी निष्ठा, ईमानदारी और कर्मठता को नमन किया है। गढ़वाल, लखनऊ और पूणे विद्यापीठ से आपके साहित्य पर कई शोध कार्य हुए भी हैं और वर्तमान में हो भी रहे हैं। पूण विद्यापीठ से संलग्न सी.टी. बोरा महाविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. ईश्वर पवार जी ने हाल ही मुझे बताया कि उनके मार्गदर्शन में उनकी दो छात्राएँ एम.फिल का कार्य बिछा दीदी के साहित्य पर कर रही है। देशभर के कई अन्य विश्वविद्यालयों से भी आपके साहित्य पर शोध कार्य किये जाने की जानकारी इंटरनेट के माध्यम से मिली है। लखनऊ और मुंबई आकाशवाणी से आपके साहित्य पर कई `लेख' भी ब्रॉडकास्ट हो चुके हैं। देश-विदेश की आपने अनेकों यात्राएँ की हैं। मॉरीशस, तूरीनामा, नार्वे, लंदन और कई खाड़ी एवम् पश्चिमी देशों में आयोजित होनेवाले साहित्यिक आयोजनों में आप सहभागी होती रही हैं।
आज की व्यवस्था में चापलूसी और जी हजूरी मानों भ्रष्ट व्यवस्था का एक अंग ही बन गया है। लेकिन `विद्या बिन्दु जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को देखकर साफ पता चलता है कि आपने न केवल पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर लिया अपितु अपनी सच्चाई और कर्मठता के दम पर कई मगरमच्छों को चारो खाने चित भी कर दिया। अभिव्यक्ति के अपने खतरे होते हैं, पर इन खतरों से आप कभी घबरायी नहीं। अपने आदर्शो, सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों के कारण जहाँ एक तरफ आपके विरोध में खेमा बना तो दूसरी तरफ आपके प्रशंसकों की तादाद भी लगातार बढ़ती रही। निम्न भाव के लोगों को तो शुद्ध दलाली में ही दिलचस्पी होती है ऐसे लोगों का आपके विरोध में खडा़ होना सहज भी था। संबंधों की बत्तीसी के बीच बाहरवाला कर्कश लगता ही है। फिर भ्रष्ट आचरण और नैतिक रूप से पतित लोगों की आज के इस आत्मकेन्द्रिय युग में कोई कमी भी तो नहीं है। लेकिन पंडित विद्यानिवास मिश्र जी जैसे विद््वानों के आशीष और मार्गदर्शन ने आपको हमेशा ही ऊर्जा और संबल दिया। पंडित जी आपके प्रशंसकों में प्रमुख रहे।
आपका साहित्य सहज-सरल-सरस और मधुर है। जहाँ-जहाँ जरूरत रही वहाँ पर आपने व्यंग्य का चाबुक भी चलाया। औरतों के अस्तित्त्व और अस्मिता की लड़ाई में भी आपने अपने साहित्य के माध्यम से भरपूर योगदान दिया। आज के समय में भले ही कुछ औरतों ने अपने अधिकारों को हालिस कर लिया हो, लेकिन उनका जीवन अभी भी तमाम मुश्किलों और यातनाओं से भरा हुआ है। खेल से बाहर रखकर उन्हें खेल में हराने की प्रथा अभी तक बनी हुई है। आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो औरतों को उनके उस लच्छे की तरह समझते हैं, जिसके बारे में यह विश्वास बना रहता है कि वह खुलने पर सिर्फ और सिर्फ उलझेगा। अत: उन्हें सुलझने का कभी मौका ही नहीं दिया जाता। आज भी औरतें उस आटे की तरह हैं जो आपने ही आसुओं और भावों में घुलती रहती हैं। स्त्री-विमर्श को लेकर जितना भी साहित्य लिखा जा रहा है, उसमें विद्या बिन्दुजी का साहित्य भी सहजता से शामिल किया जा सकता है। आपकी कई काव्य पुस्तकें, उपन्यास और नाटक नारी मन की वेदना और संघर्ष को ही लेकर लिखे गये हैं। अवधी लोक साहित्य में से अनेकों गीतों को खोजकर विद्या जी ने संग्रहित करने का कार्य है। इन गीतों में  नारी मन की पीड़ा को जिस तरह से चित्रित किया गया है। वह साहित्य में अनूठा है। आपके स्त्री विषयक लेखन की सबसे बड़ी विशेष्ता यह है कि आप स्त्रीवादी अति कटु और अति उग्र विमर्शो से बचते हुए उसके भारतीय परिप्रेक्ष्य को अधिक महत्त्व देती हुई दिखायी पड़ती है। यहाँ पर आप कथाकार अमरकांत की विचार शैली के बहुत करीब दिखायी पड़ती है। सड़ी-गली मान्यताओं और परंपराओं से अपने आप को काटते हुए राष्ट्रीयता की मूल चेतना से आप हमेशा जुड़ी रही है। यह आपकी प्रतिभा दृष्टि का ही परिणाम है कि आपने अपने साहित्य को एकतरफा या एकांगी नहीं बनने दिया। `विमर्शवाद' के तथाकथित चौह ी मं आपने अपनी लेखनी को संकुचित नहीं होने दिया। सहित के भाव के साथ आपने उदार रूप से उदात्त साहित्य की रचना को जो कि आपके व्यक्तित्व के सर्वथा अनुकूल भी है। हिन्दी साहित्य जगत में आप एक लोकप्रिय, ऊर्जावान, यशस्वी, तेजस्वी एवम राष्ट्रीय-सामाजिक मूल्यों को गति देनेवाली `प्रगतिशील' लेखिका मानी जाती हैं।
पूर्ण रूप से संपन्न, स्वतंत्र, उदार, संस्कारवान और विश्वबंधुत्व की भावना से भरे हुए भारतीय समाज का आपका सपना है। भारतीय संस्कृति के प्राचीन और समीचीन समीकरण के ताने-बाने में समन्वय, समता, समानता और मानवता को आप प्रमुखता देती हैं। भारत वर्ष को आज जिस विश्वास, आशा, आदर्श, धैय और जीवन-दर्शन की आवश्यकता है, उसकी झलक आपके साहित्य में मिलती है। निराशा, कुंठा, दैन्य, आत्मग्लानि, हिंसा, आत्महीनता इत्यादी भाव बोधों से समाज को जागृत कर सके। उसी चिंगारी की खोजना रहता है जो आज के सुप्त समाज को जागृत कर सके। उसी चिंगारी की खोज हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत, अपने अतीत, अपनी जड़ों में करना होता हैं। यही कारण है कि आप बार-बार लोक साहित्य की तरफ मुड़ती है। काम, क्रोध, मद, लोभ, और मात्सर्य जैसे विकार मानव मन को क्लुषित करते हैं। दया, प्रेम, करूणा इत्यादि भाव मानवीय गुणों का विकास करते हैं। आपके समग्र साहित्य को ध्यान से पढ़ने पर ही यह स्पष्ट होता है कि मानवीय संभावना के प्रसार के हर साहित्यिक आयाम में यज्ञ की आहुति की तरह दया और करूणा के भावों को आपने प्रेषित किया है। आप के साहित्य में भाषा परिष्कार साफ दिखायी पड़ता है। भाषा विज्ञान में दिलचस्पी रखनेवाले विद्ववान इस बात को आसानी से समझ लेंगे।
आप जहाँ व्यवस्था के नकारेपन पर चोट करती हैं, वहाँ भी तोष कम और होश अधिक दिखायी पड़ता है। आपके अभिव्यक्ति के केन्द्र और उसकी सीमा पर भी मानवीय वृत्ति ही है। ये वही वृत्तियाँ हैं जो आपके साहित्यिक सौंदर्यबोध को निखारती हैं भारत एक वैभवशाली राष्ट्र रहा है। ज्ञान-विज्ञान-कला-दर्शन-साहित्य-शिल्प लगभग सभी क्षेत्रों में हमारा कोई सानी नहीं रहा है। `मानवतावाद' और `राष्ट्रवाद' के जिस उदात्त स्वरूप को लेकर हमारे वेद-पुराण आगे बढ़ेउनका पूरी दुनिया की सभ्यता में कोई मुकाबला ही नहीं है। यह सही है कि समय के साथ-साथ कई तरह के आडंबर और शोषण धर्म के नाम पर होते रहे हैं, लेकिन हमारी अस्मिता की पहचान भी हमारे धर्म और राष्ट्र से जुड़ी है। हमें अपनी अस्मिता की अभिव्यक्ति और आत्मनिर्भरता को अपने मौलिक एवम जनउपयोगी रचना कर्म द्वारा बनाये रखना होगा। डॉ. विद्या बिन्दु सिंह जी का समग्र साहित्य उपर्युक्त बातों का ही जीवंत और ठोस प्रमाण है।
दूसरों के विचारों को यदि हम शिलाधर्मिता के रूप में स्वीकार करते रहेंगे तो हमारी मौलिकता कभी पनप ही नहीं पायेगी। शायद इसी बात को ध्यान में रखकर किसी ने लिखा है कि:
``अपनी तस्वीर में अपना रंग जरूरी है।
जैसा भी हो, अपना ढंग जरूरी है।''
``जो रचेगा, वही बचेगा वाली उक्ति एकदम सही लगती है। यहाँ बचने का अभिप्राय सिर्फ व्यक्ति से संबंधित न होकर पूरी की पूरी सभ्यता, संस्कृति और मानवता की तरफ इशारा कर रही है। परिवर्तन की इच्छा और नवीनता के आग्रह में कोई बुराई नहीं है, किन्तु एक खास विचारधारा के चश्मे से अपनी हजारों-लाखें वर्षो की सभ्यता और संस्कृति को झुठलाना किसी भी तरीके से आधुनिक बोध का परिचायक नहीं हो सकता। इस बात को विद्या बिंदु जी ने अच्छी तरह समझा है। आप का साहित्य सही मायनों में राष्ट्रीय एकता, अखंडता और समप्रभुता का परिचायक है। आपके विचारों में नये और पुराने का समन्वय है। आप का विचार ठहरा हुआ नहीं अपितु गतिशील जल की तरह है। इसी संदर्भ में मैंने आपको `प्रगतिशील' लेखिका भी कहा।
गर्हित कुत्सित परंपरागत मूल्यों की वर्तमान युग में अनुपयोगिता को भी डॉ. विद्या बिन्दु सिंह ने अच्छी तरह समझा। यही कारण है कि हम उनके साहित्य को पुराणपंथी या प्राचीनता के आग्रह व मोह से युक्त नहीं समझते। सामाजिक हित की प्रतिज्ञाओं और समसामयिक साहित्यिक प्रवृत्तियों के बीच ताल-मेल कर साहित्य रचने का कार्य आप करती रही हैं। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में आपने लेखन कार्य किया है। सामाजिकता की झंझा और आदर्शो की संध्या के संधिकाल में राष्ट्रीय-मानवीय-चेतना को जो शंखनाद आपने किया है वह आत्मिक शुद्धता, सहिष्णुता और मानवता की साहित्यिक गाथा है। आपके काव्य में अध्यांतरिकता, आवेग दीप्ति, सहजस्फुरण, रागात्मकता, संगीतात्मकता, हार्दिकता, तीऋाता तथा कलात्मकता साफ दिखायी पड़ती है। आपका गद्य साहित्य विश्वसनीय, लोकोन्मुखी, जनचेतना, राष्ट्रधर्म, मानवीय विचारों का वाहक है।
साहित्य के जिस यथार्थ को पाने, पहचानने, जानने, मानने, पकड़ने और समझने की कोशिश लगातार होती रही है, उसी कसौटी में हम डॉ. विद्या बिन्दु सिंह के समग्र साहित्य को रख सकते हैं। व्यक्तिगत संबंधों के कारण हो सकता है मैं `कुछ' अतिशयोक्तिपूर्ण कह गया हूँ, लेकिन `बहुत कुछ' वही सत्य है जो सर्व विदित है।



वैश्विक स्तर पर आपस में जुड़ी संगणकीय शृंखला जो `पैकेट स्विचिंग' व्यवस्था के माध्यम से आपस में सूचनाओं का आदान-प्रदान करती हैं, `इंटरनेट' के नाम से जानी जाती हैं। `पैकेट स्विचिंग' तंत्रीय शृंखलाओं के बीच का तंत्र है। विनटन सर्फ और राबर्ट कहन (Vinton cerf and Robert Kahad) 1973 में अपने एक शोध पत्र में पहली बार `इंटरनेट' इस शब्द का प्रयोग करते हैं। इंटरनेट की शुरूआत कब से हुई यह कहना मुश्किल है, लेकिन `इंटरनेट' के विकास से संबंधित धारणाएँ एवम् तकनीक का निर्माण 1946 के आप-पास हो जाता है। कई वर्षो तक वैज्ञानिक इस क्षेत्र में प्रयास करते रहे। अगस्त 1991 में वर्डवाइड वेब की शुरूआत से `इंटरनेट' के आम उपयोग से संबंधित धारणा को बल मिला। यह तो ठीक है कि आज इंटरनेट सीमाओं में बँधा हुआ नहीं है, पर इसका यह अर्थ भी नहीं है कि इंटरनेट सीमा विहीन है। शायद इसीकारण विद्ववान इसे `Border Land' कह कर संबोधित करते हैं। आम आदमी के लिए इंटरनेट वह क्षेत्र है जहाँ पर वे आपस में संवाद, व्यापार, मनोरंजन और ज्ञान से जुड़ी सकते हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध तमाम `सोशल नेटवर्किंग साइट्स' एक ऐसी व्यवस्था सामने लाती हैं, जहाँ अपने देश, समाज और परिवार से दूर रहकर भी आप इनसे जुड़ सकते हैं। देश विशेष के लोगों एवम् उनकी संस्कृति से जुड़ने और इस संदर्भ में जानकारी प्राप्त करने का सबसे सस्ता और सुलभ मार्ग इंटरनेट का है।
दरअसल उपनिवेशवाद ने पूरी दुनियाँ में पूँजीवाद को बढ़ावा दिया। जिसके फलस्वरूप औद्योगीकरण और तकनीकी विकास की गति तेज हुई। `सुदृढ आर्थिक व्यवस्था' वह नया मापदंड था जो किसी राष्ट्र को ताकतवर बनाने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। पूँजीवाद के सहायक के रूप में मीडिया ने बहुत बड़ी भूमिका अदा की। इसमें भी इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूमिका विशिष्ट थी। आज़ादी के बाद भारत स्वरूप सूचना और प्राद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांतिकारी प्रगति हुई। भारत दुनियाँ का दूसरा सबसे बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र है। जनसंख्या की दृष्टि से भी भारत दुनियाँ का दूसरा सबसे बड़ा देश है। विश्व किसी भी राष्ट्र की तुलना में यहाँ भाषायी और भौगोलिक विभिन्नता धर्म, जाति और संप्रदाय के लोग यहाँ रहते हैं। इसी कारण भारत को `विविधताओं से भरा देश' कहा जाता है। यह देश लंबे समय तक अंग्रेजों का उपनिवेश रहा। इसी कारण अंग्रेजी यहाँ `इंटर कम्युनल बिजनेस' की भाषा के रूप में उभरी। इस देश में जितने लोग रहते हैं उससे कहीं अधिक देवी-देवता पूजे जाते हैं। यह देश एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की 70  आबादी गाँवों में बसती है। आज भी इस देश की बहुत बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे रह रही है। जीवन यापन के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाओं से वह वंचित है। भ्रष्टाचार, गरीबी, अशिक्षा, अफसरशाही, अलगाववाद, आतंकवाद और मौका परस्ती की राजनीति ने इस देश का बहुत अहित किया और लगातार कर भी रही है। इन सारी परिस्थितियों के बीच हमनें सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विश्व में नाम कमाया है। लेकिन इस क्षेत्र में करने के लिए अभी बहुत कुछ है।
एक साधारण सी बात यह है कि अभी तक हम हिंदी में संगणक कुंजीपटल तक नहीं बना पायें हैं। आज भी किसी हिंदी फॉन्ट में डी.टी.पी. गंभीर समस्या है। कारण यह है कि अंग्रेजी में डी.टी.पी. की तकनीक जितनी विस्तृत और सुलभ है, उतनी हिंदी में नहीं। यह तो सच है कि `गूगल' जैसे सर्च मशीन पर हिंदी में `खोज की सुविधा' उपलब्ध है लेकिन इसके उपयोग में कई व्यवहारिक और तकनीकी कमियाँ हैं। `आर्कुट' और अड्डा डॉट काम' जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स में भी हिंदी में संदेश भेजन की व्यवस्था है, किंतु कई बार शब्दों का सही रूप लिखना या खोजना बड़ा ही उबाऊ काम हो जाता है। हाल ही में `गूगल' ने अनुवाद को लकर नई पहल की है। गूगल की इस नई व्यवस्था के अंतर्गत आप अपनी बात अंग्रेजी में टाईप करते जाइये और उसका हिंदी में अनुवाद अपने आप होता जायेगा। यह अपने आप होता जायेगा। यह अपने आप में बहुत बड़ी पहल है, लेकिन अभी इसमें कई खामियाँ हैं। अनुवादित हिंदी वाक्य कई बार हास्यास्पद स्थितियों में सामने आते हैं। यह बात कहने में मुझे बिलकुल संकोच नहीं है कि भारत में जिस तेजी से इंटरनेट का विकास और विस्तार हुआ, उतनी तेजी हिंदी के विकास, विस्तार और इसके प्रयोग को लेकर दिखायी नहीं पड़ती। यह तो सच है कि पूरी दुनियाँ में इंटरनेट का उपयोग करने वालों में भारत का स्थान दूसरी है, लेकिन अब भी भारत की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा इंटरनेट के ज्ञान एवम् उपयोग से वंचित है। सरकार इस संदर्भ में ठोस पहल कर रही है। कई योजनाएँ अमल में ला रही है। विशेष तौर पर भाषायी प्रौद्योगिकी के विकास से संबंधित परियोजनाएँ। भारत में प्रौद्योगिकी विकास और उसके साथ इंटरनेट एवम हिन्दी की प्रगति यात्रा का संक्षिप्त परिचय हम यहाँ प्राप्त करेंगे।
भारत में प्रौद्योगिकी विकास की योजनाएँ 1980 के दशक से ही प्रारंभ हो गयीं थी। लेकिन 1997 में भारतीय जनता पार्टी ने सूचना और प्रौद्योगिकी को चुनावी मु ा बनाया। मई 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री. अटल बिहारी बाजपेयी जी ने `नेशनल आई.टी.टास्क फोर्स' गठित की। उनका स्पष्ट मानना था कि - `सूचना और प्रौद्योगिकी ही भारत का भविष्य है।' यह एक नई दृष्टि थी जो इक्कीसवीं शती की दहलीज पर खड़े भारत को नई पहचान दिला रही थी। इस दूर दृष्टि में वह शक्ति थी जो दुनियाँ के अन्य देशों के साथ भारतीय संबंधो के समीकरण को भी बदल सके। इस दूर दृष्टि में भारतीय उद्योग के मूलभूत ढाँचे को बदलने की भी ताकत थी। सन 1998 से `आई.टी.ऍक्शन प्लान' कई संशोधनों एवम् परिवर्तनों के साथ कार्यानवयन के दौर से गुजरा। वर्ष 1999 में `द न्यु टेलीकम्युनिकेशन पॉलीसी' की शुरूआत हुई। वर्ष 2000 से इलेक्ट्रॉनिक ट्रान्जेक्शन' जैसी बातें संभव हो सकीं। इसी के फलस्वरूप कोर बैंकिग की सुविधा प्रारंभ हुई। इंटरनेट बैंकिंग और मोबाईल बैंकिंग की भी सुविधा सहज हो पायी। `प्लास्टिक मनी' और `प्लास्टिक क्रेडिट' ने हमारी जीवन शैली को प्रभावित किया। `कॉल सेंटर', `बी.पी..' `आउट सोर्सिंग' और इस तरह के अनेकों अवसर इस वर्ग को मिलने युवा वर्ग को आकर्षित किया। आमदनी और रोजगार के अनेकों अवसर इस वर्ग को मिलने लगे। इस वर्ग की `क्रय शक्ति' बढ़ गयी। परिणामस्वरूप भारत के छोटे-बड़े शहरों में मॉल और मल्टीप्लेक्स जैसी बातों का नया दौर सामने आया। `ब्रेन ड्रेन' जैसी बातों पर काफी हद तक रोक लगी। वैश्वीकरण और बाज़ारवादी युग में भारत सबसे बड़े बाज़ार के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुआ।
सन 1998 तक भारत में टेलीकॉम इंडस्ट्री की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस समय भारत में प्रति सौ व्यक्ति के बीच एक लैंडलाईन फोन उपलब्ध था। और हर एक हजार व्यक्ति के बीच दो व्यक्तिगत कंप्युटर। सन 1990 तक भारत सरकार का सभी प्रकार की संचार प्रणाली में एकाधिकार था। लेकिन धीरे-धीरे उदारीकरण की नीति अपनाते हुए इसमें बदलाव किया गया। `महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड' और `विदेश संचार निगम लिमिटेड' का गठन इसी दिशा में उठाया गया महत्त्वपूर्ण कदम था। इसके बाद से ही निजी टेलीकॉम कंपनियों को लाइसेंस प्रदान किया गया। इन सारी कंपनियो ने जो बुनियादी ढाँचा विकसित किया और जिस तरह से देशभर में विस्तार की योजना को कार्यान्वित करती रही; उससे इंटरनेट के विकास की पृष्ठभूमि अपने आप बनती गयी। इन्हीं कंपनियों के सूचनातंत्र को `ट्रान्समीशन कन्ट्रोल प्रोटोकॉल / इंटरनेट प्रोटोकॉल' में बदलकर इंटरनेट का हिस्सा बनाया गया। दरअसल सन 1986-87 में ही भारत सरकार ने `कंप्युटर नेटवर्किंग स्कीम' को कुछ हिस्सों में बाँटकर कार्यान्वय की योजना बना चुकी थी।  इसी के साथ `कंप्युटर मेंटीनेन्स कॉरपोरेशन (सीएमसी) का भी गठन किया गया। सन 1987 में ही `नेशनल इनफॉरमेटिक सेंटर' के माध्यम से `वास्ट' `वेरी स्मॉल अपॅरचर टरमिनल' नामक देश का पहला सेटलाईट नेटवर्क शुरू हुआ, जिसके माध्यम से सरकारी ऐजंसियों तक `डेटा' पहुँचाना संभव हो सका। इसी के माध्यम से देश की राजधानी सभी राज्यों व देशभर के 531 मुख्यालयों से जु़़ड सकी। इसी के फलस्वरूप `ईमेल', डेटा ब्रॉडकास्टिन्ग' `इलेक्ट्रानिक डेटा इंटर चेन्ज' और आपातकालीन संचार प्रणाली जैसी सेवाएँ प्रारंभ हो सकीं। व्हीएसएनएलने `ग्लोबल पैकेट स्विचड सर्विस (जीपीएसएस) की शुरूआत की जिसकी क्षमता 64 किलो बाईट पर सेकेन्ड (केबीपीएस) थी। इसके माध्यम से कलकत्ता, मुंबई और नई दिल्ली को `हाई स्पीड इंटरनेट कनेक्शन' से जोड़ा गया। व्हीएसएनएलने ही `गेटवे इलेक्ट्रानिक मेल सर्विस (जीइएमएस400) की शुरूआत की। इसी के माध्यम से आगे चलकर इलेक्ट्रानिक मेल (ईमेल) का रास्ता प्रशस्त हो पाया। डॉट नेटवर्क के माध्यम से देशभर में `पैकेट स्विच्ड सर्विस की शुरूआत हुई।
इसी तरह `द एज्युकेशन ऍन्ड रिसर्च नेटवर्क' (इआरएनइटी) की स्थापना 1986 में शिक्षा विभाग और सात सरकारी संस्थाओं की मदद से की गयी। इस परियोजना के लिए आर्थिक सहायता `यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेन्ट प्रोगाम (यूएनडीपी) के माध्यम से मिली। इस परियोजना का उ ेश्य ही था कि राष्ट्रीय स्तर पर संगणकों की एक शृंखला शैक्षणिक शोध कार्यो हेतु बनायी जाय। `एनसीएसटी' (नेशनल सेन्टर फॉर स्वाफ्टवेअर टेकनॉलजी) नामक एक निजी संस्थान ने भारत में इंटरनेट के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। यह भारत में पहली संस्था थी जिसने भारत को अंतर्राष्ट्रीय इंटरनेट सेवा से जोड़ा और प्रबंधन की पूरी जिम्मेदारी ली। फरवरी 1989 से `एनसीएसटी' और `यूयूएनइटी' (यूनिक्स टू यूनिक्स नेटवर्क टेक्नॉलजी इन यूनाइटेड स्टेट्स) के बीच 9.6 केबीपीएस के माध्यम से इंटरनेट सेवा प्रारंभ हुई। सन 1995 से `एनआयसीएनइटी' ने `व्हीएसएनएल' के माध्यम से सरकारी कार्यों से जुड़े लोगों के लिए `वेब पेजेस्' की सेवा प्रारंभ की।  जून 1998 में व्हीएसएनएल ने सीमलेस सर्विसेस लि. (व्हीएसएसएल) सेवा प्रारंभ की, इसके माध्यम से वीडिओ कॉनफ्रेनसिंग जैसी बातें भारत में संभव हो पायीं।
सन 1991 में ही सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने `स्वॉफ्टवेयर टेकनॉलजी पार्कस ऑफ इंडिया (एसटीपीआय) की स्थापना की। `द कम्युनिकेशन कनवरजेन्स बिल 2000' के माध्यम से ब्रॉडकास्ट, टेलीकम्युनिकेशन और इंटरनेट के विकास की योजनाओं को गति मिली। यद्यपि इस बिल के साथ कई विवाद भी जुुड़े रहे पर अंतत: यह संसद द्वारा पारित हो गया। ईमेल एन्ड इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडिंग असोसिएशन (इआयएसपीए) के माध्यम से भी कई कंपनियां ने भारत में इंटरनेट सेवा से जुड़कर इसके विकास को नये आयाम दिये। `सीजी फैक्स सर्विस' `एच.सी.एल.' `आयएसपी डिवीजन' `सत्यम इन्फो वे', `डेटा प्रो' `विप्रो कम्युनिकेशन डिवीजन' और `जी.. कम्युनिकेशन्स कुछ ऐसी ही कंपनियाँ है। ये सभी `इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर कंपनी के रूप में सामने आये। इनकी सेवाओं के फलस्वरूप वर्ष 2001 के बाद इंटरनेट का उपयो करनेवालों की संख्या में भारी वृद्धि हुई।
इसी तरह भाषायी प्रौद्योगिकी के विकास को लेकर भी कई कदम उठाये गये। सन 1990-91 में ही सरकार ने `टेकनॉलजी डेवलपमेंट ऑफ इंडियन लैंग्वेजेस! (टीडीआयएल) नामक परियोजना शुरू की। बाद में देश भर में 13 `रिसोर्स सेन्टर' स्थापित किए गये। जिनका काम ही है तकनीकी क्षेत्र में भारतीय भाषाओं की समस्याओं को हल करना। टीडीआयएल का उ ेश्य ही है, ``डीजिटल यूनिट एण्ड नॉलेज फॉर ऑल'' इसी उ ेश्य की पूर्ति के लिए भारतीय भाषाओं में कई पोर्टलस्, लैन्गवेज प्रोसेसिंग टूल्स और ट्रान्सलेशन मेमरी टूल्स बनाये जा चुके हैं। आज हिन्दी में अनेकों पोर्टल्स, ब्लॉग, सोशल नेटवर्किंग साईट्स, -मेल भेजने और पाने की सुविधा इंटरनेट पर उपलब्ध है। इतना ही नहीं हिन्दी भाषा, साहित्य, व्याकरण और अनेकों शब्दकोश इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। हिन्दी प्रिन्ट मीडिया का अधिकांश कार्य ही इंटरनेट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से हो रहा है। एक ही समाचार पत्र के कई संस्करण इंटरनेट की मदद से ही अलग-अलग स्थानों से सुनियोजित तरीके से निकल रहे हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि इंटरनेट पर उपलब्ध 80  से अधिक जानकारी अंग्रेजी भाषा में है, जब कि दुनियाँ की सिर्फ 8  आबादी अंग्रेजी बोलती है। इससे साबित होता है कि अन्य किसी भी भाषा में प्रौद्योगिकी का विकास उतना नहीं हुआ जितना की अंग्रेजी में। जहाँ तक प्रश्न हिन्दी का तो इस क्षेत्र में सरकारी और निजी संस्थाओं द्वारा कई प्रयास हो रहे हैं। कारण यह है कि भारत इस समय दुनियाँ के लिए सबसे बड़े बाज़ार के रूप में उभरा है। इस बाज़ार में उसी का सिक्का चलेगा जो इस बाज़ार की भाषा बोलेगा। हिंदी भारत के एक बड़े भू भाग पर बोली जाती हैं। पूरे देश की 41.6  आबादी हिन्दी ही बोलती है। अत: हिन्दी को नजर अंदाज करना अब संभव नहीं है। शायद यही कारण है कि पिछले दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश ने अपने नागरिकों को हिन्दी सीखने की सलाह दी।
हिन्दी भाषा से संबंधित जो प्रौद्योगिकीय विकास हुए हैं और हो रहे हैं; उनमें से कुछ की चर्चा हम यहाँ करेंगे। `कन्टेन्ट क्रियेशन इन इलेक्ट्रानिक फार्म', `टैम्ड कॉरपस ऑफ हिन्दी', `हिन्दी विश्वकोश', `भारत भाषाकोश' जैसी चीजों का निर्माण हो चुका है। इनके अतिरिक्त मुंबई युनाइटेड नेशन की आर्थिक सहायता से `वर्ड नेट फार हिन्दी' परियोजना पर कार्य कर रही है। मशीनी अनुवाद के लिए यह परियोजना काफी सहायक होगी। लिनेक्स के माध्यम से हिन्दी सर्च मशीन की शुरूआत हो ही गयी है। आयआयटी कानपुरद्वार `हिन्दी बुलटेन बोर्ड सिस्टम' पर काम हो रहा है। यह बोर्ड मनपसंद विषयों पर हिन्दी में लेख लिखने, संवाद करने और उन्हें सुनियोजित तरीके से सँभालकर रखने की व्यवस्था प्रदान करेगा। इसी तरह हिन्दी में ई-मेल भेजने और प्राप्त करने की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए `मल्टी लिन्गुअल ई-मेल क्लाइन्ट' का विकास किया जा चुका है। हिन्दी और कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के संदर्भ में `स्पेल चेकर्स'' विकसित किये जा चुके हैं। `लीप ऑफिस 2000' पूरी तरह भारतीय भाषाओं से संबंधित स्वाफ्टवेयर है जिसका ऑफिस 2000' पूरी तरह भारतीय भाषाओं से संबंधित स्वाफ्टवेयर है जिसका प्रयोग `विन्डोस्'' पे किया जा सकता है। `आयलिप' इंटरनेट के लिए तैयार किया गया भारतीय भाषाओं का `वर्ड प्रोसेसर' है। `अनुसारका' नामक `लैन्गवेज असेसर' की मदद से एक भारतीय भाषा से दूसरी भारतीय भाषा में अनुवाद आसान हो गया है। `मात्रा' नामक `मशीन एडेड ट्रान्सलेशन सिस्टम' विकसित किया गया है। अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद के लिए इसका उपयोग ज्यादा तर समाचार एजन्सियों द्वारा किया जाता है। सूचना और प्रौद्योगिकी से संबंधित प्रयोजन एजन्सियों द्वारा किया जाता है।  सूचना और प्रौद्योगिकी से संबंधित प्रयोजन मूलक हिन्दी का बी..एवम् एम. .का पाठ्यक्रम बनाया जा चुका है। इसी को हम `आयटी-इनरिचड् करीकुला' के नाम से जानते हैं।
ठीक इसी तरह Computational linguistic और Language Engineering के पाठ्यक्रमों की भी ठोस योजना बनायी जा चुकी है। इतना ही नहीं www.tdil.gov.in अपितु नामक वेबसाइट पर जाकर आप हिन्दी से संबंधित कई तकनीकी सुविधाएँ मुफ्त में `डाउन लोड' कर सकते हैं। जैसे कि भारतीय भाषाओं से संबंधित कुंजीपटल एवम् फॉन्ड्स, स्पेल चेकर, आयलिप और ऐसी ही कई अन्य सुविधाएँ। www.epatra.com; www.mailjol.com; www.langoo.com; www.cdacindia.com और www.vishwahindi.com कुछ ऐसी ही वेबसाइट्स हैं जो इंटरनेट पर हिन्दी से संबंधित जानकारी एवम् तकनीक उपलब्ध कराती हैं।
समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि भारत में सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांतिकारी प्रगति हुई है। इंटरनेट के विस्तार ने इस विकासशील राष्ट्र की प्रगति को गति प्रदान की है। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं से संबंधित कई तरह की तकनीक विकसित हो रही है। इन सारी स्थितियों के बीच आवश्यकता है और अधिक सुनियोजित, व्यवस्थित और व्यवहारिक प्रौद्योगिकी के विकास की। जिससे हिन्दी में कामकाज इंटरनेट पर अत्याधिक सरलता और सहजता के साथ किया जा सके। साथ ही हिन्दी के माध्यम से इंटरनेट और इंटरनेट के माध्यम से हिन्दी और अधिक व्यापक रूप में फैले तथा राष्ट्र की प्रगति में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दें। इंटरनेट और हिन्दी की यह प्रौद्योगिकीय सापेक्ष विकास यात्रा पूरे भारत वर्ष के लिए मंगलमय हो।
                               
                                     डॉ मनीष कुमार मिश्रा 


संदर्भ ग्रंथ:-
1) Language Technology Development of India Dr. Om Vikas
2) Internet (from wikipedia, the free encyclopedia)
3) Global diffusion of the Internet - Peter wolcott, seymour Goodman
4) Google search machine
5) Globlisation and the Internet : A Research Report - Rohitashya Chattopadhyay
6) Understanding Languge as Communication - T. Pandey



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