Tuesday, 6 January 2009

क्या है दलित साहित्य ?

मुंबई मे एक सेमिनार मे भाग लेने का अवसर मिला ,वहा चर्चा के दौरान किसी विद्वान ने यह प्रश्न उठाया की आख़िर जिस दलित साहित्य की आज इतनी चर्चा है , वह है क्या ?
इसके लिये उन्होने कुछ विकल्प भी दिये , जो की निम्नलिखित हैं ।
१- वह साहित्य जो दलितों द्वारा लिखा गया हो ?
२-वह साहित्य जो दलित के बारे मे लिखा गया हो ?
३-वह साहित्य जो दलित के बारे मे किसी दलित द्वारा ही लिखा गया हो ?
या की ''वह साहित्य जो ख़ुद दलित हो वह दलित साहित्य है । ''
विषय पर आगे चर्चा नही हो सकी । वाद-विवाद बढ़ता गया । मगर मैं परेशां हो गया । आज जब इस के बारे मे सोचता हूँ तो लगता है की हम कब तक दूसरो की भावनावो के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे ? दलित साहित्य का प्रारंभिक समय आक्रोश का रहा अतः इन दिनों आक्रोश का साहित्य सामने आया । यह स्वाभाविक भी था । सदियों के शोषण के खिलाफ पहले आक्रोश ही दिखाई पड़ेगा । लेकिन फ़िर यह आन्दोलन आज गंभीर साहित्य की ओर अग्रसर हो रहा है । अब इस आन्दोलन के द्वारा भी लोक मंगल , समन्वय और मानवता का संदेश दिया जा रहा है । केवल विरोध के साहित्य को ख़ुद इस आन्दोलन के अंदर समर्थन नही मिल रहा है । आज बहुत बड़ा हिन्दी समाज इस आन्दोलन से जुड़कर बड़ा ही सकारात्मक साहित्य सामने ला रहा है । आदिवाशी समाज की तरफ़ से भी लोकधर्मी साहित्य सामने आ रहा है ।
इन सभी सकारात्मक स्थितियों मे अनावश्यक बातो को सामने ला कर समाज के बीच अन्तर पैदा करने का प्रयास अच्छा नही है । दलित बनाम सवर्ण साहित्य की आग इस देश के लिये अच्छी नही है , यह बात हमे समझनी होगी । प्रश्न यह नही है की हम किसका समर्थन करते हैं, बल्कि प्रश्न यह है की हम ख़ुद कौन सा समाज हित का काम साहित्य के द्वारा कर रहे हैं । रहा सवाल दलित साहित्य का तो मेरा मानना है की
'' दलित साहित्य हिन्दी साहित्य के प्रमुख साहित्यिक आन्दोलनों मे से एक है । इसकी शुरुवात यद्यपि आक्रोश और विरोध के रूप मे हुई , लेकिन आज इसका लोकधर्मी स्वरूप सामने आ रहा है । दलित साहित्य स्वतंत्रत भारत के विकास की मुख्य धारा मे शोषितों के सामिल होने का इतिहास है .दलित साहित्य समानता के अधिकारों की लडाई का साहित्य है । दलित साहित्य संघर्स , संगठन और प्रगति का साहित्य है ।''

वैसे आप की इस पर क्या राय है ?

3 comments:

  1. 'वह साहित्य जो दलित के बारे मे लिखा गया हो !'
    मुझे यही विकल्प सही लग रहा है!... वैसे दलितों की परिभाषा सही मायने में नही हो रही,यही वास्तविकता है!.. लेख प्रशंसनीय है.... धन्यवाद!

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  2. सही बात कही आपने पोस्ट के माध्यम से !
    मेरी नजर में व्यर्थ की बहस है !
    कुछ साल पहले यहाँ लखनऊ में कथा क्रम आयोजन
    में इस विषय पर गरमा-गर्म बहस हो चुकी है !

    दलित साहित्य, महिला साहित्य, अभिजात्य साहित्य....... इत्यादि वर्गीकरण करके हम क्या साबित करना चाहते हैं ?
    साहित्य सिर्फ साहित्य होता है !
    दलित साहित्य के लेखक कहते हैं की दलित लेखन
    महज वही कर सकता है जो स्वयं दलित हो !
    यह तो वही बात हुयी कि कैंसर के रोगी पर लिखने के
    लिए लेखक का स्वयं कैंसर से रोग ग्रस्त होना आवश्यक है ,,,,,,,,,,, और अगर कोई लेखक किसी हत्यारे
    पर कुछ लिखना चाहे तो दो-चार हत्याएं कर ले फिर लिखे !
    अजीब बेवकूफी की बात है !

    इतिहास गवाह है कि अनुभूतियों के आधार पर
    अनेकानेक श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुयी !
    इस तरह हम साहित्य को खांचों में बांटकर
    न तो साहित्य का हित कर रहे हैं और न समाज का !

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  3. Aisa nhi h Prakash Govind ji,, Ye bekar ka mudda nhi h balki ye vastvikta h, hum isko kisi bhi surat me nakar nhi skte h, jo sahitiye barso se Swarno ke haatho me rha h, sahitiye ke madhyam se jo humko dikhaya gaya wahi sirf humne dekha or dalito ke vishye me kisi ne socho tak nhi ye to anyaye hi h,,, magar aaj DALIT SAHITIYE apni alag pehchan bana chuka h to swarn sahitiyekaro ko kya problem h,,, waise bhi kai vertman me kai swarn sahitiyekar bhi dalito ke vishye me apne sahitye ki rachna kar rhe h jo kabil-e-tarif h, jinme Manager Panday, Ramnika Gupta aadi ka naam pramukh h... mai to yhi kehna chaunga ki abhi to Dalit Sahitiye matra ek baccha h use badhne to do,,,,, fir iske chamtakar hamare sammunkh prastut honge......


    from
    Ram Bharose (Asstt. Professor)
    B.S.M.P.G. College, Roorkee,
    Haridwar (Uttrkahand)

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