Saturday, 3 June 2023

जहां तक संभव हो।

 जहां तक संभव हो।


शायद यह एक

संरचनात्मक दुर्बलता ही है कि हम

भाषा के स्तर पर

इतने अभागे हो रहे हैं

लगातार ।


परंपरा का संवर्धन

अनिवार्य आवश्यकता के रूप में

कुछ सिद्धांत गढ़ती है

जो

प्रशंसात्मक रूप में

अंतिम जन तक

स्वीकार किया जाता है

लेकिन

बिना मौलिकता के

बिना प्रतिकारात्मक साहस के

क्या सिर्फ अनुवाद से

कोई हल निकलेगा ?


संभवतः नहीं 

अतः 

एक कोशिश के तौर पर ही सही

स्वयं में समाहित करने हेतु

भाषा के 

समावेशी संघर्ष को

आशा भरी संभावनाएं तलाशनी होंगी

जहां तक संभव हो सके।

Dr Manish Kumar Mishra

Assistant professor 

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