Thursday, 6 May 2010

सुन्नर पांडे की पतोह / amerkant

सुन्नर पांडे की पतोह :-
      112 पृष्ठों का यह छोटा सा उपन्यास सन् 2005 में 'राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.` द्वारा प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास अपने पति द्वारा परिव्यक्त राजलक्ष्मी नामक स्त्री की कहानी है जो अपने ही ससुर की बुरी नीयत को ताड़कर घर छोड़कर निकल जाती है। घर से बाहर निकलकर वह समाज के नर-भेडियों से न केवल अपनी इज्जत की रक्षा करती है बल्कि कुछ ऐसे कार्य भी करती है जो उसके जैसी समाज की स्त्रियों के लिए एक सबक, एक प्रेरणा स्त्रोत का काम करता है।
      रविवार दिनांक 27 नवंबर 1988 को 'जनसत्ता` में अमरकांत का एक साक्षात्कार छपा। उनसे यह साक्षात्कार कुमुद शर्मा ने लिया था। इस साक्षात्कार में उन्होंने बतलाया कि, ''जीवन की कई घटनाओं को देखने-सुनने से ही इस रचना को लिखने की प्रेरणा हुई थी। कभी एक कहानी लिखी थी 'सुहागिन` नाम से जो छपी नहीं। छपने के लिए कहीं भेजी ही नहीं। बाद में सोचा कि इस पर विस्तार से लिखना ठीक होगा। इसमें एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो अशिक्षित है, जिसका पति उसे छोड़कर चला जाता है। लेकिन वह बिना सहारे के अपनी जिंदगी काट देती है। वह काफी संवेदनशील और संघर्षशील स्त्री है। उसे उपयुक्त परिवेश मिला होता तो एक अधिक क्षमतावान स्त्री के रूप में उसका विकास हो सकता था।``38
      यह पूछे जाने पर कि इस उपन्यास के पीछे उनकी मानवीय, सामाजिक और राजनीतिक चिंता क्या है? तो अमरकांत कहते हैं कि, ''समाज में स्त्रियां जो विडंबनापूर्ण जीवन व्यतीत कर रही हैं, उसी से संबंधित रचना है। हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि नारी की क्षमताओं को पूरी अभिव्यक्ति नहीं मिल पाती। जिस सामाजिक परिवेश और मान्यताओं में वह जीती है, उसकी तात्कालिक जिंदगी और उसकी क्षमताओं में वह जीती है, उसकी तात्कालिक जिंदगी और उसकी क्षमताओं के बीच काफी चौड़ी खाई नजर आती है। इसलिए वह समाज में कारगर भूमिका अदा नहीं कर पाती। उसका सारा जीवन नारी जीवन की व्यर्थता की ओर ही संकेत करता है। इस तरीके से आप सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को भी समझ सकते हैं कि यह कितनी पिछड़ी हुई है।``39
      अमरकांत के उपर्युक्त वक्तव्य से स्पष्ट है कि वे सामाजिक मान्यताओं और स्त्रियों की क्षमताओं के बीच निहित खाई से अच्छी तरह परचित हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी मान-मर्यादा, प्रतिष्ठा और स्त्रित्व की रक्षा में ही उसका सारा श्रम लग जाता है। ऐसी ही स्त्री की जिजीविषाओं का लेखा-जोखा अमरकांत ने इस उपन्यास 'सुन्नर पांडे की पतोह` के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
      राजलक्ष्मी का विवाह झुल्लन पांडे से होता है। पर सास यह नहीं चाहती कि राजलक्ष्मी और झुल्लन के बीच पति-पत्नी जैसे घनिष्ठ संबंध इतने जल्दी बने। वह इन दोनों के प्रेम के बीच दीवार की तरह खड़ी हो जाती है। माता के इस तरह के व्यवहार और घरेलू परिस्थितियों से तंग आकर आखिर एक दिन झुल्लन घर छोड़ कर कहीं चला जाता है।
      सास अतिराजी का व्यवहार राजलक्ष्मी के प्रति हमेशा ही कठोर रहा। उसका मन में राजलक्ष्मी के प्रति इतनी घृणा भरी रहती है कि यह अपने पति सुन्नर पांडे को उकसाती है कि वह राजलक्ष्मी के साथ सोने जाये। वह सुन्नर पांडे से कहती है कि, ''आप जाइए न - कहने पर दरवाजा खोल देगी। पता नहीं कौन-कौन तो आते रहते हैं दिन रात। मैं कहाँ तक देखती रहूँगी? जाइए, जाइए - अभी जवान है - आसानी से गोद में आ जाएगी - जाइए, उठिए।..... मैं क्या कहूँगी - मैं तो उसकी जवानी मिट्टी में मिला देना चाहती हूँ।``40
      अतिराजी की बातों से स्पष्ट है कि वह राजलक्ष्मी को बिलकुल पसंद नहीं करती है। कारण यह था कि उसने अतिराजी की इच्छा के विरूद्ध अपने पति से संबंध बनाये और माँ बनी। हलाँकि उसका बच्चा कुछ दिनों बाद मर जाता है। सास-ससुर की बातें सुनकर राजलक्ष्मी का खून खौल जाता है। वह उनके सामने आकर कहती है कि, ''मैं आप दोनों की बातें सुन चुकी हूँ। मैं नहीं जानती थी कि आप लोग इतना गिर जाएँगे। पर मैं कहे देती हूँ - मुझमें सती का तेज है। जिनके हाथों में मैंने अपना हाथ दिया था, उन्हीं के लिए मैं अभी जिन्दा हूँ। मैं अपने तेज से आप दोनों को भस्म कर सकती हूँ। और कुछ नहीं तो मैं अपनी जान दे सकती हूँ।``41
      इस तरह मन में असीम पीड़ा के साथ सुन्नर पांडे की पतोह घर छोड़ देती है और अनजानी-अनदेखी राह पर निकल देती है। निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में निहित अभाव, आक्रोश, पीड़ा, दीनता और पारिवारिक परिस्थितियों के चित्रण में अमरकांत को महारत हासिल है। यह उपन्यास भी इसी का एक सुंदर उदाहरण है। जीवन की सच्चाई को पूरी ईमानदारी से चित्रित करते हुए अमरकांत कभी-कभी अक्सर खुद बड़ी जड़ स्थिति पैदा कर देते हैं। इसलिए उनकी कई कहानियों और उपन्यासों को पढ़ते समय अक्सर यह लगता है कि कथानक कुछ अलग होता है तो अधिक अच्छा होता। पर ऐसा सोचते समय हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि अमरकांत जीवन को जीवन में रहते हुए ही चित्रित करना पसंद करते हैं। कहानी को कलात्मक रूप से सजाना अच्छा है पर सिर्फ सजावट में यथार्थ की बुनियाद से उखड़ जाना उन्हें पसंद नहीं है।
      अमरकांत के संदर्भ में मार्कण्डेय जी लिखते हैं कि, ''अमरकांत उन्हीं लेखकों में से एक हैं, जो निकट के छूटे हुए जीवन की ओर बार-बार लौटते हैं, इसलिए जहाँ उनकी उचनाओं के चरित्र समसामयिक मालूम होते हैं, वहीं इस बात का भी संकेत देते हैं कि लेखक की चेतना में इन चरित्रों के बाद एक खालीपन आना शुरू हो गया है। जीवन के संबंध में एक अपरिवर्तनशील दृष्टि का जो आभास अमरकांत के एक रूपी कथानकों ने शुरू में देना शुरू किया था, वह अब एक तरह से ठहरा हुआ अनुभव-बोध-सा लगने लगा है।``42
      मार्कण्डेय ने यह बात बहुत पहले लिखी है। पर अमरकांत के पूरे साहित्य पर हम आज भी नजर डालें तो यह बात सही ही लगती है। उनकी यह 'अपरिवर्तनशील दृष्टि` ही सही अर्थो में उनकी सबसे बड़ी शक्ति है। यहाँ 'अपरिवर्तन` किसी ठहराव का प्रतीक न होकर लेखक की अपने समाज, साहित्य और लेखन के प्रति की गई प्रतिबद्धता का प्रतीक है। बहुत संभव है कि 'सुन्नर पांडे की पतोह` राजलक्ष्मी अपना घर छोड़ने के बाद कभी न कभी किसी अच्छे पुरूष का स्नेह व आसरा पाकर अपनी गृहस्थी फिर से बसा लेती। या फिर जीवन की सच्चाई को स्वीकार करते हुए अपनी देह को ही अपने जीवन यापन का सबसे सशक्त हथियार बनाती। लेकिन अमरकांत के यहाँ यह संभव नहीं है। उनके पात्र सिर्फ रचना की गुणवत्ता के लिए अपने स्वभाव का परित्याग नहीं करते। वे वैसे ही जीवन को स्वीकार करते हैं और संघर्ष करते हैं।
      समग्र रूप से अमरकांत के इस उपन्यास के संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि इस उपन्यास के माध्यम से वे निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की विडम्बनाओं, उनकी सामाजिक राजनीतिए एवम् आर्थिक स्थिति के बीच परिव्यक्त स्त्री के जीवन, संघर्ष को पूरी सहजता और मार्मिकता के साथ चित्रित करते हैं। स्त्री संघर्ष से जुड़ा यह उपन्यास एक छोटी परिधि का बड़ा उपन्यास है। क्योंकि अपने छोटे से कथानक के दायरे में इस उपन्यास ने समाज में व्याप्त कई बुनियादी सवालों को उठाने की कोशिश की है। 
 

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