Saturday, 22 April 2023

युगपुरुष स्‍वामी विवेकानंद डॉ० चमन लाल बंगा

 युगपुरुष स्‍वामी विवेकानंद


डॉ० चमन लाल बंगा

सह-आचार्य

शिक्षा विभाग

हिमाचल प्रदेश विश्‍वविद्यालय

ज्ञानपथ समरहिल शिमला

profchamanlalabanga@gmail.com


स्‍वामी विवेकानंद भारतीय इतिहास की गौरवशाली परम्‍परा के एक युगान्‍तरकारी महान विभूति हैं। इन्‍होंने भारत के अध्‍यात्‍म ज्ञान, इतिहास एवं परम्‍परा का दिव्‍य प्रकाश सारे संसार में फैलाया और मानवीय गुणों से अलंकृत विश्‍व बंधुत्‍व की भावना का सशक्‍त आधार प्रदान किया। स्‍वामी विवेकानंद जी का वेदांत वाणी में अभिव्‍यक्‍त यह आह्वान कर्मपथपर लक्ष्‍य प्राप्ति का प्रशस्‍त मार्ग है-

उतिष्‍ठत! जाग्रत!! प्राप्‍यवरान्निबोधत!!!

अर्थात् उठो जागो और तब तक नहीं रूको जब तक लक्ष्‍य ना प्राप्‍त हो जाए 

– स्‍वामी विवेकानंद 

किसी भी राष्‍ट्र के अभ्‍युदय के लिए उसके पास एक आदर्श होना आवश्‍यक है। असल में वह आदर्श है निर्गुण ब्रह्मा। लेकिन क्‍योंकि हम सब लोग किसी निराकार आदर्श से प्ररेणा नहीं प्राप्‍त कर सकते, इसीलिए हमें साकार आदर्श चाहिए। विवेकानंद को श्री रामकृष्‍ण के व्‍यक्तित्‍व के रूप वह स्‍वरूप मिला। किसी भी महापुरुष को अगर जाननाहो तो उनकेद्वारा लिखित या मुख द्वारा नि: सृत वाणियों को आत्‍मसात कर लेना चाहिए। पूरे विश्‍व के लिए गुरु और शिष्‍य का लाजवाब उदाहरण श्री रामकृष्‍ण परमहंस तथा स्‍वामी विवेकानंद जी का है। विवेकानंद भारतीय चेतना के मंदिर के शिखर है तो उनकी नींव का पत्‍थर उनके गुरु श्री रामकृष्‍ण परमहंस जी हैं। इस जहान में जब-जब स्‍वामी विवेकानंद को याद किया जाता है तब-तब श्री रामकृष्‍ण परमहंस भी याद किए जाते हैं।

आधुनिक भारत के आदर्श पुरुष के रूप में स्‍वामी विवेकानन्‍द जी 

स्‍वामी विवेकानन्‍द जी भारत व विश्‍व में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। स्‍वामी विवेकानन्‍द ने भारतवासियों को बताया कि राष्‍ट्र सर्वोपरि है तथा स्‍वदेश प्रेम ही सबसे बड़ा धर्म है। बचपन की प्रारम्भिक अवस्‍था में नरेन्‍द्र नाथ बड़े चुलबुले और उत्‍पाती थे किन्‍तु आ‍ध्‍यात्मिक बातों के प्रति उनका विशेष आकर्षण था। इन्‍हीं गुणों के चलते नरेन्‍द्र नाथ का एक परम ओजस्‍वी नवयुवक के रूप में विकास हुआ।1

स्‍वामी विवेकानन्‍द विगत वर्षों में एक सन्‍यासी हैं जो दरिद्र, अस्‍पृश्‍य, अशिक्षित एवं रोगी बंधुओं के वेदना से दुखी होकर हिन्‍दू समाज का आह्वान करते हैं कि इनकी समस्‍याएं कौन दूर करेगा? इनकी इस स्थिति के लिए कौन जिम्‍मेदार है? स्‍वामी विवेकानन्‍द ने हिन्‍दू समाज की सुप्‍त भावनाओं को जगाया। उन्‍होंने कहा, ‘‘मत भूल कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, अपढ़, चमार, मेहतर सब तेरे रक्‍त-मांस के हैं, वे तेरे भाई हैं। बोल! अज्ञानी भारतवासी सभी मेरे भाई है। सभी ईश्‍वर के रूप हैं, समझ ले, दरिद्र जो तेरे दरवाजे पर आया है नारायण का स्‍वरूप है, बीमार-नारायण है, भूखा-नारायण है। सभी ईश्‍वर के ही रूप हैं। स्‍वामी विवेकानन्‍द ने हिन्‍दू समाज की दु:खपूर्ण स्थिति देखकर लाखों युवकों को मातृभूमि के सेवा हेतु आगे आने के लिए आह्वान किया। हजारों युवक आगे आए तथा इनकी सहायता से उन्‍होंने दीन-दुखियों की सेवा तथा शिक्षा के लिए रामकृष्‍ण मिशन की स्‍थापना की।2

यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ये स्‍वामी विवेकानन्‍द ही थे, जिन्‍होंने अद्वैत दर्शन के श्रेष्‍ठत्‍व की घोषणा करते हुए कहा था कि इस अद्वैत में यह अनुभूति समाविष्‍ट है, जिसमें सब एक हैं, जो एकमेवाद्धितीय है; पर साथ-साथ उन्‍होंने हिन्‍दू धर्म में यह सिद्धान्‍त भी संयोजित किया कि द्वैत, विशिष्‍टाद्वैत और अद्वैत एक ही विकास के तीन सोपान या स्‍तर हैं, जिसमें अंतिम अद्वैत ही लक्ष्‍य है। यह एक और भी महान तथा अधिक सरल, इस सिद्धांत का अंग है कि अनेक और एक, विभिन्‍न्‍ समयों पर विभिन्‍न समयों पर विभिन्‍न वृतियों में मन के द्वारा देखे जाने वाला एक ही तत्‍व है; अथवा जैसा कि रामकृष्‍ण ने उसी सत्‍य को इस प्रकार व्‍यक्‍त किया है, ‘‘ईश्‍वर साकार और निराकार, दोनों ही है। ईश्‍वर वह भी है, जिसमें साकार और निराकार, दोनों ही समाविष्‍ट हैं।’’ यही-वह वस्‍तु है, जो हमारे गुरुदेव के जीवन को सर्वोच्‍च महत्‍व प्रदान करती है, क्‍योंकि यहां वे पूर्व और पश्चिम के ही नहीं, भूत और भविष्‍य के भी संगम-बिंदु बन जाते हैं। स्‍वामी विवेकानन्‍द की यही अनुभूति है, जिसने उन्‍हें उस कर्म का महान उपदेष्‍टा सिद्ध किया, जो ज्ञान-भक्ति से अलग नहीं, वरन उन्‍हें अभिव्‍यक्‍त करने वाला है।3

स्‍वामी विवेकानन्‍द ने मातृभूमि की महिमा का गान पुण्‍य भूमि के रूप में किया है। स्‍वामी जी ने कहा है, ‘‘यदि इस पृथ्‍वी पर कोई ऐसा देश है, जिसे हम मंगलमयी पुण्‍यभूमि कह सकते हैं, यदि कोई ऐसा स्‍थान है जहां पृथ्‍वी के समस्‍त जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना ही पड़ता है, जहां भगवान की ओर उन्‍मुख होने के प्रत्‍यन में संलग्‍न रहने वाले जीवमात्र को अन्‍तत: आना होगा, यदि ऐसा कोई देश है, जहां मानव जाति की क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सद्वृत्तियों का सर्वाधिक विकास हुआ है और यदि ऐसा कोई देश है जहां आध्‍यात्मिकता तथा सर्वाधिक आत्‍मान्‍वेषण का विकास हुआ है, तो वह भूमि भारत ही है।’’ यह वह समय था जब स्‍वामी जी भारतीय अध्‍यात्‍म की धूम दुनिया में फेराकर आ रहे थे। जनता स्‍वामी जी की चरण रज को लेने के लिए लालायित थे तो स्‍वामी जी मातृभूमि की।4

स्‍वामी विवेकानन्‍द ने अध्‍यात्‍म, धर्म एवं संस्‍कृति के आधार ग्रन्‍थ वेद तथा वेदान्‍त दर्शन का अपना गहन अध्‍ययन अपने साधनामय अनुभव से व्‍यवहार सिद्ध किया तथा भारतवर्ष का व्‍यापक भ्रमण करके उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अन्तिम चरण के दुर्दशाग्रस्‍त भारत के चित्र को अपनी आंखों से देखा।

स्‍वामी विवेकानन्‍द ने भारत का सर्वांगीण दर्शन, विवेचन एवं विश्‍लेषण किया है। उनके अनुसार ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्मा’-जगत में सब कुछ ब्रह्मा है, की सांस्‍कृतिक अवधारणा का स्रोत वेदप्रणीत भारत का अध्‍यात्‍म एवं धर्म है। भारत का मेरुदण्‍ड धर्म है। उन्‍होंने कहा, ‘‘हे आधुनिक हिन्‍दुओं! तुम अपने को और प्रत्‍येक व्‍यक्ति को अपने सच्‍चे स्‍वरूप की शिक्षा दो और घोरतम निद्रा में पड़ी हुई जीवात्‍मा को इस नींद से जगा दो। जब तुम्‍हारी जीवात्‍मा प्रबुद्ध होकर सक्रिय हो उठेगी, तब तुम आप ही शक्ति का अनुभव करोगे। तभी तुम में साधुता और पवित्रता आएगी।

हम सब लोग मनुष्‍य अवश्‍य हैं, किन्‍तु हम लोगों में कुछ पुरुष और कुछ स्त्रियां हैं; कोई काले हैं और कोई गोरे-किन्‍तु सभी मनुष्‍य हैं, सभी एक मनुष्‍य जाति के अनतर्गत हैं। हम लोगों को चेहरा भी कई प्रकार का है। दो मनुष्‍यों का मुँह ठीक एक तरह का हम नहीं देख सकते, तथापि हम सब लोग मनुष्‍य हैं। मनुष्‍य रूपी सामान्‍य तत्‍व कहां है? मैंने जिस किसी काले या गोरे स्‍त्री या पुरुष को देखा, उन सबमें मुँह पर सामान्‍य रूप से मनुष्‍यत्‍व का एक अमूर्त भाव है, मैं उसे पकड़ या इन्द्रियगोचर भले ही न कर सकूं, फिर भी मैं निश्‍चयपूर्वक जानता हूं कि वह है। विश्‍व धर्म के सम्‍बन्‍ध में भी यही बात है, जो ईश्‍वर रूप से पृथ्‍वी के सभी धर्मों में विद्यमान है। यह अनन्‍त काल से वर्तमान है, और अनन्‍त काल तक रहेगा।

मयि सर्वामिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।

अर्थात ‘‘मैं इस जगत में प्राणियों के भीतर सूत्र की भान्ति वर्तमान हूं।’’5

जाति के साथ अनुष्‍ठानों पर स्‍वामी विवेकानन्‍द कहते हैं कि ‘‘जाति निरंतर बदल रही है, अनुष्‍ठान निरन्‍तर बदल रहे हैं, यही दिशा विधियों की है। यह केवल सार है, सिद्धान्‍त है, जो नहीं बदलता। हमें अपने धर्म का अध्‍ययन वेदों में करना है, वेदों को छोड़कर अन्‍य सब ग्रन्‍थों में परिवर्तन अनिवार्य है। वेदों की प्रामाणिकता सदा के लिए है; उनके अतिरिक्‍त हमारे दूसरे ग्रन्‍थों की प्रामाणिकता केवल विशिष्‍ट समय के लिए है। हमें सामाजिक सुधारों की आवश्‍यकता है। समय-समय पर महान पुरुष प्रगति के नये विचारों का विकास करते हैं और राजा उन्‍हें कानून का समर्थन देते हैं। पुराने समय में भारत में समाज-सुधार इसी प्रकार किये गये हैं और वर्तमान समय में ऐसे प्रगतिशील सुधार करने के लिए हमें पहले एक ऐसी अधिकारीसता का निर्माण करना होगा। इसलिए, उन आदर्श सुधारों पर, जो कभी व्‍यावहारिक नहीं होंगे, अपनी शक्ति व्‍यर्थ नष्‍ट करने के स्‍थान पर, यह अच्‍छा होगा कि हम इस समस्‍या की जड़ तक पहुंचे और एक व्‍यवस्‍थापिका संस्‍था का निर्माण करें; तात्‍पर्य यह कि लोगों को शिक्षित करें, जिससे कि वे स्‍वयं अपनी समस्‍यओं का समाधान करने में समर्थ हो सके।6

प्रत्‍येक मनुष्‍य का कर्तव्‍य है कि वह अपना आदर्श लेकर उसे चरितार्थ करने का प्रयत्‍न करे। दूसरों को ऐसे आदर्शों को लेकर चलने की अपेक्षा, जिनको वह पूरा ही नहीं कर सकता, अपने ही आदर्श का अनुसरण करना सफलता का अधिक निश्चित मार्ग है। किसी समाज के सब स्‍त्री-पुरुष न एक मन के होते हैं, न ही एक ही योग्‍यता के और न एक ही शक्ति के। अतएव, उनमें से प्रत्‍येक का आदर्श भी भिन्‍न-भिन्‍न होना चाहिए; और इन आदर्शों में भी एक का भी उपहास करने का हमें कोई अधिकार नहीं। अपने आदर्श को प्राप्‍त करने के लिए प्रत्‍येक को जितना हो सके, यत्‍न करने दो। फिर यह भी ठीक नहीं कि मैं तुम्‍हारे अथवा तुम मेरे आदर्श द्वारा जांजे जाओ। सेब के पेड़ की तुलना ओक से नहीं होनी चाहिए और न ओक की सेब से। बहुत्‍व में एकत्‍व की सृष्टि का विधान है। प्रत्‍येक स्‍त्री-पुरुष में व्‍यक्तिगत रूप से कितना भी भेद क्‍यों न हो, उन सबकी पृष्‍ठभूमि में एकत्‍व विद्यमान है।7

भारत खंडहरों में ढेर हुई पड़ी एक विशाल इमारत के सदृश है। पहले देखने पर आशा की कोई किरण नहीं मिलती। वह एक विगतऔर भग्‍ना वशिष्‍ट राष्‍ट्र है। पर थोड़ा और रूको, रूककर देखो, जान पड़ेगा कि इनके परे कुछ और भी है। सत्‍य यह है कि वह तत्‍व, वह आदर्श, मनुष्‍य जिसकी बाह्य व्‍यंजना मात्र है, जब तक कुण्ठित अथवा नष्‍ट-भ्रष्‍ट नहीं हो जाता, जब तक मनुष्‍य भी निर्जीव नहीं होता, तब तक उसके लिए आशा भी अस्‍त नहीं होती। यदि तुम्‍हारे कोट को कोई बीसों बार चुरा ले, तो क्‍या उससे तुम्‍हारा अस्तित्‍व भी शेष हो जायेगा? तुम नवीन कोट बनवा लोगे-कोट तुम्‍हारा अनिवार्य अंग नहीं। सारांश यह कि यदि किसी धनी व्‍यक्ति की चोरी हो जाय, तो उसकी जीवन शक्ति का अंत नहीं हो जाता, उसे मृत्‍यु नहीं कहा जा सकता। मनुष्‍य तो जीता ही रहेगा। ये तमाम वि‍भीषकाएं, ये सारे दैन्‍य-दारिद्रय और दु:ख विशेष महत्‍व के नहीं-भारत-पुरुष अभी भी जीवित है, और इसलिए आशा है।8

स्‍वामी विवेकानन्‍द ने ब्रुकलिन एथिकल एसोसिएशन के तत्‍वावधान में लोग आइलैंड हिस्‍टोरिकल सोसाइटी के हाल में बहुसंख्‍यक श्रोताओं के सम्‍मुख 21 फरवरी, 1895 ई० में ‘‘संसार को भारत की देन’’ भाषण में कहा ‘‘जहां सबसे पहले आचार शास्‍त्र, कला, विज्ञान और साहित्‍य का उदय हुआ और जिसके पुत्रों की सत्‍यप्रियता और जिसकी पुत्रियों की पवित्रता की प्रशंसा सभी यात्रियों ने की है।’’ यही बात विज्ञानों के संबंध में भी सत्‍य है। भारत ने पुरातन काल में सबसे पहले वैज्ञानिक चिकित्‍सक उत्‍पन्‍न किये थे। दर्शन में तो, जैसा कि महान जर्मन दार्शनिक शापेन हॉवर ने स्‍वीकार किया है, हम अब भी दूसरे राष्‍ट्रों से बहुत ऊंचे हैं। संगीत में भारत ने संसार को सात प्रधान स्‍वरों और उनके मापनक्रम सहित अपनी वह अंकन पद्धति प्रदान की है, जिसका आनन्‍द हम ईसा से लगभग तीन सौ वर्ष पहले से ले रहे थे, जब कि वह यूरोप में केवल ग्‍यारहवीं शताब्‍दी में पहुंची। भाषा-विज्ञान में अब हमारी संस्‍कृत भाषा सभी लोगों द्वारा इस समस्‍त यूरोपीय भाषाओं की आधार स्‍वीकार की जाती है, जो वास्‍तव में अनर्गलित संस्‍कृत के अपभ्रंशों के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं है। साहित्‍य में हमारे महाकाव्‍य तथा कविताएं और नाटक किसी भी भाषा की ऐसी सर्वोच्‍च रचनाओं के समकक्ष है। जर्मनी के महानतम कवि ने शकुंतला के सार का उल्‍लेख करते हुए कहा है कि यह ‘स्‍वर्ग और धरा का सम्मिलन है’।9

धर्म महासभा में विवेकानन्‍द जी ने अपने उद्बोधन में कहा था, हे अमेरिकावासी बहनों और भाइयों! आज आप लोगों ने हम लोगों की जैसी आंतरिक और सादर अभ्‍यर्थना की है, उसके उतर-दान के लिए मैं दंडायमान हुआ हूं और इससे आज मेरा हृदय आनंद से उच्‍छ्वसित हो उठा है। पृथ्‍वी पर सबसे प्राचीनतम सन्‍यासी समाज की तरफ से मैं आप लोगों को धन्‍यवाद ज्ञापित करता हूं। सर्वधर्म के उद्भव स्‍वरूप जो सनातन हिंदू धर्म है, उसका प्रतिनिधि होकर आज मैं आप लोगों को धन्‍यवाद देता हूं और क्‍या कहूं-पृथ्‍वी की विभिन्‍न हिन्‍दू जाति और विभिन्‍न हिंदू-संप्रदायों के कोटि-कोटि हिंदू नर-नारियों की तरफ से आज मैं आप लोगों को हृदय से धन्‍यवाद देता हूं।10

स्‍वामी जी ने जन-जन का आह्वान करते हुए उन्‍हें भारतीय संस्‍कृति के गौरव की शक्ति बताया और उन्‍हें राष्‍ट्र के पुनर्निर्माण में भागीदारी करने का सन्‍देश दिया। स्‍वामी विवेकानन्‍द को अब अपनावह संकल्‍प पूर्ण करना था, जो उन पर गुरुकृपा के रूप में था अर्थात् गुरुदेव के स्‍मृतिचिन्‍ह भस्‍मावशेष को सम्‍मान प्रदान करना। उन्‍होंने इसकी रूपरेखा तैयार कर ली थी। इसी उद्देश्‍य की पूर्ति हेतु उन्‍होंने ‘रामकृष्‍ण मिशन’ की स्‍थापना की और इसका संविधान बनाया।11

मनुष्‍य पहले यह जान ले कि आसक्तिरहित होकर उसे किस प्रकार कर्म करना चाहिए, तभी वह दुराग्रह और मतान्‍धता से परे हो सकता है। यदि संसार में यह दुराग्रह, यह कट्टरता न होती, तो अब तक यह बहुत उन्‍नति कर लेता। यह सोचना भूल है कि धर्मान्‍धता द्वारा मानव-जाति की उन्‍नति हो सकती है? बल्कि उलटे, यह तो हमें पीछे हटाने वाली शक्ति है, जिससे घृणा और क्रोध उत्‍पन्‍न होकर मनुष्‍य एक-दूसरे से लड़ने-भिड़ने लगते है और सहानुभूति शून्‍य हो जाते हैं। हम सोचते हैं कि जो कुछ हमारे पास है अथवा जो कुछ हमारे पास नहीं है, वह एक कौड़ी मूल्‍य का भी नहीं।12

इस प्रकार सारांश यह है कि संसार की सहायता करने से हम वास्‍तव में स्‍वयं अपना ही कल्‍याण करते हैं। विवेकानन्‍द ने हिन्‍दू समाज को संकट काल में उसका आत्‍म गौरव लौटाया। विवेकानन्‍द समाज की दलित और कालबाहर हो चुकी परमपराओं को समाप्‍त कर देनेके समर्थक थे। वे हिन्‍दू समाज में ऊंच-नीच के भेद को समाप्‍त करना चाहते थे जिसके कारण हिन्‍दू समाज निर्बल हो रहा था। स्‍वामी विवेकानन्‍द ने केवल एक वाक्‍य कहा ‘‘गुलाम का कोई धर्म नहीं होता है। जाओ अपनी मां को पहले स्‍वतन्‍त्र करो।’’

स्‍वामी जी कहते थे, ‘‘हमारे पूर्वजों ने महान कार्य किया है हमें और भी महान कार्य करना है।’’

स्‍वामी विवेकानन्‍द प्रतयेक रूप में प्राचीन और आधुनिक भारत के सेतु थे। प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष रूप से उन्‍होंने आधुनिक भारत को अपनी विलक्षण क्षमताओं से अत्‍यधिक प्रभावित किया है।

सन्‍दर्भ ग्रंथ सूची

1. स्‍वामी ब्रह्मस्‍थानन्‍द (2007), विवेकानन्‍द राष्‍ट्र को आह्वान, भारतीय साहित्‍य संग्रह, प्रकाशक-रामकृष्‍ण मठ, नेहरूनगर, कानपुर, उ०प्र०, पृ० 2-3

2. आचार्य विवेकानन्‍द तिवारी (2022), सामाजिक समरसता और संत समाज, लुमिनस बुक्‍स इंडिया, वाराणसी (उ०प्र०), पृ० 132

3. विवेकानन्‍द साहित्‍य (2021), प्रथम खंड, अद्वैतआश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्‍टाली रोड, कोलकाता-14

4. चेत राम गर्ग (2013), इतिहास दिवाकर, राष्‍ट्र प्रणेता युग द्रष्‍टा, त्रैमासिक अनुसंधान पत्रिका, ठाकुर जगदेव चंद स्‍मृति शोध संस्‍थान, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश, पृ० 29

5. विवेकानन्‍द साहित्‍य (2016), तृतीय खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्‍टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 145

6. विवेकानन्‍द साहित्‍य (2017), चतुर्थ खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्‍टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 245

7. विवेकानन्‍द साहित्‍य (2016), तृतीय खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्‍टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 15

8. विवेकानन्‍द साहित्‍य (2019), दशम खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्‍टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 3-5

9. विवेकानन्‍द साहित्‍य (2019), दशम खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्‍टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 183

10. शंकर एवं सुशील गुप्‍ता (2009), विवेकानन्‍द की आत्‍मकथा, प्रभात पेपर बैक्‍स, नई दिल्‍ली-110002, पृ० 133

11. एम०आई० राजस्‍वी (2019), विश्‍वगुरु विवेकानन्‍द, प्रकाश बुक्‍स इण्डिया प्राईवेट लिमिटेड, नई दिल्‍ली, पृ० 162-163

12. डॉ० विद्या चन्‍द ठाकुर (2013), इतिहास दिवाकर, त्रैमासिक अनुसंधान पत्रिका, ठाकुर जगदेव चंद स्‍मृति शोध संस्‍थान, गांव नेरी, हमीरपुर, हि०प्र०, पृ० 7


युगपुरुष कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद

 युगपुरुष कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद


डॉ. सत्यवती चौबे 

अध्यक्ष, हिन्दी विभाग

विल्सन कॉलेज, मुंबई   


  युगपुरुष स्वामी विवेकानंद एक ओजस्वी महापुरुष थे। वे बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने सर्वोच्च सत्य का ज्ञान प्राप्त किया था। वे देश के तमाम राष्ट्र भक्तों से भिन्न एक सर्वश्रेष्ठ देशभक्त थे। वे दैवीय शक्ति से अनुप्राणित एक अद्भुत वक्ता थे। वे नितांत भिन्न प्रकार के समाज सुधारक थे। इसके साथ ही अलौकिक सद्गुणों से युक्त तीन भाषाओं मसलन; संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी कविताओं के प्रणेता थे तथा सुरीली कंठ से समृद्ध थे।


आधुनिक युग के विश्वव्यापी विघटनशील परिवेश में हिंदू धर्म को एक ऐसे चट्टान की आवश्यकता थी, जहाँ वह लंगर डाल सके, हिंदू समाज को ऐसे मुखरित स्वर की आवश्यकता थी, जिसमें वह स्वयं को पहचान सके। ऐसे में स्वामी विवेकानंद समग्र हिंदू धर्म ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय सभ्यता, संस्कृति को एक वरदान के रूप में मिले, जिनसे शीर्ष के देशभक्त, राजनेता, योगी, तपस्वी से लेकर साधारण जनता सांगोपांग रूप से प्रभावित हुई। भारत सरकार ने भी यह महसूस किया कि स्वामी जी ने अपने सिद्धांतों और आदर्शों के लिए जीवन जिया, उनको फलीभूत करने के लिए मरणांतक कार्य करते रहे। वे समस्त विश्व को अपने वशीभूत कर चुके हैं और वे भारत के तमाम नवयुवकों-नवयुवतियों के लिए महत्त्वपूर्ण प्रेरणास्रोत बन सकते हैं। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु सन 1984 में भारत सरकार ने देश में प्रति वर्ष 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने का आदेश दिया। सरकार का यह निर्णय वाकई प्रशंसनीय है क्योंकि इस देश को स्वामी विवेकानंद जैसे महान विभूतियों की नितांत आवश्यकता है, स्वामी विवेकानंद द्वारा बताए गए कर्तव्य पथ पर चलने की आवश्यकता है। 


स्वामी जी यह मानते थे कि कर्मयोग का तत्व समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि कर्तव्य क्या है? किसी कार्य के करने से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि यह मेरा कर्तव्य है, तभी उस कार्य के साथ न्याय होगा। स्वामी जी के अनुसार कर्तव्य को परिभाषित कर सकना नितांत असंभव है। कर्तव्य एक आत्मनिष्ठ पक्ष है। जिस कर्म द्वारा हम ईश्वरीय तत्व से जुड़ते हैं, उन्नतशील होते हैं वह शुभ कार्य है और वही हमारा कर्तव्य है लेकिन जिस कर्म से हम नीचे गिरते हैं, पशुवत बनते हैं वह अशुभ कार्य है वह कार्य हमारा कर्तव्य नहीं हो सकता है। सभी युगों में समस्त संप्रदायों और देशों के मनुष्य द्वारा मान्य यदि कर्तव्य का कोई एक सार्वभौमिक भाव रहा है तो वह है 'परोपकार: पुण्याय पापाय प्रयोजनम' अर्थात परोपकार ही पुण्य है एवं दूसरे को दु:ख पहुंचाना ही पाप है। स्वामी जी उन्नति का एक मात्र उपाय कर्तव्य को मानते हैं कि पहले हम वह कर्तव्य करें, जो हमारे हाथ में है और शनै: शनै शक्ति संचित करते हुए क्रमश: हम सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। स्वामी जी ने सभी के लिए ध्यानयोग, राजयोग, कर्मयोग  का मूल मंत्र दिया।


स्वामी विवेकानंद जी ने चरित्र की शुद्धता को स्त्री के साथ-साथ पुरुषों के लिए भी नितांत अनिवार्य माना। उनकी दृष्टि में पवित्रता ही स्त्री और पुरुष का प्रथम धर्म है। प्रत्येक पुरुष को अपनी पत्नी को छोड़कर अन्य सभी स्त्रियों को माता-बहन या पुत्री के समान देखना चाहिए और प्रत्येक स्त्री को अपनी चारित्रिक शुद्धता, पवित्रता को बनाए रखते हुए आचरण करना चाहिए। उनके अनुसार इस संसार में मातृपद ही सर्वश्रेष्ठ पद है क्योंकि मातृपद से ही नि:स्वार्थता की महत्त्वपूर्ण शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। केवल भगवत प्रेम ही माता के प्रेम से उच्च है।


निस्वार्थ भाव रखकर ही हमें कर्मयोग के मार्ग पर अग्रसरित होना चाहिए। स्वामी जी के अनुसार कर्मयोग के रहस्य का ज्ञान मुक्ति लाभ और स्वाधीनता के लिए आवश्यक है। सूर्य, चंद्रमा पृथ्वी समेत सभी ग्रह-नक्षत्र, पदार्थ निरंतर स्वाधीनता पाने के लिए प्रयासरत हैं। कर्मयोग, निरंतर अनासक्त होकर या आसक्ति त्यागकर कर्म करने पर बल देता है, जीवन के समस्त दुख-क्लेश संसार के अपरिहार्य व्यापार हैं। क्लेश, आसक्ति से ही उत्पन्न होता है कर्म से नहीं। स्वामी जी का कहना है कि 'मैं' और 'मेरा' अर्थात स्वार्थपरता की भावना ही समस्त क्लेश की जड़ है। स्वार्थपरता का प्रत्येक कार्य और विचार हमें किसी न किसी वस्तु का आसक्त बना देता है, हम उसके दास बन जाते हैं। 'मैं', 'मेरा' या स्वार्थपरता का भाव जितना अधिक होगा, आसक्ति भी उतनी ही गहरी होगी, दासत्व का भाव भी उतना ही बढ़ता जाएगा। परिणामस्वरूप, जीवन में क्लेश, दुख भी उसी अनुपात में बढ़ेगा। अतएव कर्मयोग कहता है कि स्वार्थपरता के अंकुर बढ़ने की प्रवृत्ति को नष्ट कर देना चाहिए और इसे रोके रखने की क्षमता रखनी चाहिए, मन की स्वार्थपरता को वीथियों में नहीं जाने देना चाहिए। स्वामी जी एक उदाहरण के माध्यम से समझाते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार पानी में रहते हुए पद्मपत्र को पानी स्पर्श नहीं कर सकता और न ही उसे भिगो सकता है, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में निर्लिप्त भाव से रहना चाहिए। इसी को वैराग्य कहते हैं, इसी को कर्मयोग की नींव 'अनासक्ति' कहते हैं। इस अनासक्ति के बिना किसी भी तरह की योग साधना नहीं हो सकती क्योंकि अनासक्ति ही समस्त योग साधना की नींव है।

स्वामी विवेकानंद ने निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा देते हुए इस तथ्य को पुष्टि प्रदान की है कि "इस विशाल भभकती भट्ठी में जिसमें कर्तव्य रूपी अग्नि सभी को झुलसाती रहती है, तुम अमृत के इस प्याले का पान करो और प्रसन्न रहो। हम सब केवल उस प्रभु की इच्छा का पालन कर रहे हैं और किसी प्रकार के पुरस्कार अथवा दंड से हमारा कोई संबंध नहीं।"1  


स्वामी जी ने इस संदर्भ में विस्तार से समझाया है कि यदि हम पुरस्कार के लिए इच्छुक हैं तो हमें दंड को भी स्वीकार करना होगा। दंड से छुटकारा पाने के लिए पुरस्कार पाने की भावना का त्याग करना होगा। दुखों से, क्लेश से मुक्त होने का यही उपाय है कि सुख की भावना का त्याग किया जाए। जीवन में जो कुछ भी किया जाए उसके लिए कभी किसी प्रकार की प्रशंसा या पुरस्कार की आशा न रखा जाए। मनुष्य की फितरत ऐसी हो गई है कि वह चंद रुपए चंदा में दान करके भी अखबार के माध्यम से नाम, यश पाना चाहता है। थोड़ा सा सत्कर्म करके प्रशंसा या पुरस्कार की आशा रखने लगता है जबकि विश्व के अनगिनत महापुरुष सत्कर्म करते हुए अज्ञात ही चले गए। प्रत्येक देश में सैकड़ों हजारों ऐसे महापुरुष हुए जो चुपचाप अपना काम करते हुए, शांति से अपना जीवन व्यतीत करते हुए इस संसार से चले गए। सर्वश्रेष्ठ महापुरुष अपने ज्ञान से किसी प्रकार की यश प्राप्ति की कामना नहीं करते। वे संसार की भलाई के लिए बिना कुछ दावा किए, अपने विचार छोड़ कर चले जाते हैं। वे अपने नाम से कोई संप्रदाय या धर्मप्रणाली नहीं स्थापित करते हैं। ऐसे महापुरुष सच्चे कर्मयोगी होते हैं। 


अतएव कर्मयोग, स्वार्थपरता और सत्कर्म द्वारा मुक्ति लाभ करने का एक धर्म और नीतिशास्त्र है। कर्मयोगी को किसी प्रकार के सिद्धांत में विश्वास करने की आवश्यकता नहीं होती। उसे अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए संसार का भला करना चाहिए, दूसरों की सहायता करनी चाहिए, हम संसार का उपकार करके भी अपना ही भला कर रहे हैं। कार्य करने से हमारा सर्वोच्च उद्देश्य परोपकार, संसार का कल्याण ही होना चाहिए। वाणी मधुर होनी चाहिए क्योंकि शब्द शक्ति, कर्म के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 


स्वामी विवेकानंद ने अपने अनेक अनेक व्याख्यानों में कर्मयोग, शब्द शक्ति, कर्तव्य  परायणता को विभिन्न दृष्टांतों के माध्यम से व्याख्यायित किया है। उनकी दृष्टि में कर्म एक विज्ञान है। कर्मविज्ञान के अनेक पहलुओं में एक है विचार और शब्द के संबंध को जानना और यह ज्ञान प्राप्त करना कि शब्द शक्ति से क्या अर्जित किया जा सकता है। प्रत्येक धर्म, शब्द शक्ति की महत्ता को स्वीकारता है। किसी धर्म ने यह भी माना है कि समस्त सृष्टि ‘शब्द’ से ही निकली है। ईश्वर के संकल्प का वाह्य आकार ‘शब्द’ है और चूँकि ईश्वर ने सृष्टि रचना के पहले संकल्प एवं इच्छा की थी, इसलिए सृष्टि ‘शब्द’ से ही निकली है। शब्द के उच्च दार्शनिक एवं धार्मिक महत्त्व होने के साथ ही जीवन में शब्द प्रतीकों का अहम स्थान है। उदाहरणस्वरूप बिलख बिलख कर रोने वाली स्त्री सांत्वना भरे शब्द सुनकर शांत हो जाती है, मुस्कुरा देती है। इसी तरह कोई किसी को अपशब्द कह दे, तो सामने वाला व्यक्ति उसे मारने के लिए हाथ उठा लेता है। यह सबकुछ शब्द शक्ति के कारण ही होता है। इसलिए उच्च दर्शन के साथ-साथ हमारे साधारण जीवन में शब्द शक्ति की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अतः शब्द शक्ति के संबंध में विशेष विचार और अनुसंधान न करते हुए भी हम रात-दिन इस शब्द शक्ति का उपयोग करते हैं। इस शक्ति के स्वरूप को जानना तथा इसका उत्तम रूप से उपयोग करना भी कर्मयोग का अंग है। शब्द शक्ति का हमारे कर्म पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक सच्चा कर्मयोगी शब्द शक्ति की ताकत को बहुत बेहतरीन तरीके से समझा है।

 

कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के विश्व धर्म महासभा में 20 सितंबर, 1893 में ‘धर्म : भारत की प्रधान आवश्यकता नहीं’ विषय पर व्याख्यान दिया था। इसमें उन्होंने इस बात पर बल दिया था कि भारत की आवश्यकता कोई धर्म विशेष नहीं, अपितु रोटी है। उनका यह व्याख्यान कर्म, धर्म, कर्तव्य के साथ ही उनकी शब्द शक्ति, उनके कहन की प्रभावशाली शैली को भी व्याख्यायित करता है। उदाहरणस्वरूप, "ईसाइयों को सत्य आलोचना सुनने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए और मुझे विश्वास है कि यदि मैं आप लोगों की कुछ आलोचना करूँ, तो आप बुरा न मानेंगे। आप ईसाई लोग जो मूर्तिपूजकों की आत्मा का उद्धार करने के निमित्त अपने धर्म-प्रचारकों को भेजने के लिए इतने उत्सुक रहते हैं, उनके शरीरों को भूख से मर जाने से बचाने के लिए कुछ क्यों नहीं करते? भारतवर्ष में जब भयानक अकाल पड़ा था, तो सहस्त्रों और लाखों हिंदू क्षुधा से पीड़ित होकर मर गए; पर आप ईसाइयों ने उनके लिए कुछ नहीं किया। आप लोग सारे हिंदुस्तान में गिरजे बनाते हैं; पर पूर्व का प्रधान अभाव धर्म नहीं है, उनके पास धर्म पर्याप्त है जलते हुए हिंदुस्तान के लाखों दुखार्त्त भूखे लोग सूखे गले से रोटी के लिए चिल्ला रहे हैं। वे हमसे रोटी माँगते हैं, और हम उन्हें देते हैं पत्थर! क्षुधातुरों को धर्म का उपदेश देना उनका अपमान करना है, भूखों को दर्शन सिखाना उनका अपमान करना है। भारतवर्ष में यदि कोई पुरोहित द्रव्य प्राप्ति के लिए धर्म का उपदेश करे, तो वह जाति से च्युत कर दिया जाएगा और लोग उस पर थूकेंगे। मैं यहाँ पर अपने दरिद्र भाइयों के निमित्त सहायता माँगने आया था, पर मैं यह पूरी तरह समझ गया हूँ कि मूर्तिपूजकों के लिए ईसाई धर्मावलंबियों से, और विशेषकर उन्हीं के देश में, सहायता प्राप्त करना कितना कठिन है।"2


स्वामी जी का यह व्याख्यान दर्शाता है कि कर्म में ही धर्म निहित है। भूख से व्याकुल अवस्था में मरते हुए समुदाय के लिए किसी भी धर्मोपदेश या दर्शनोपदेश से अधिक महत्त्वपूर्ण है उन्हें भूख से मरने से बचाना, उन्हें रोटी खिलाना और ऐसा करना ही उनका प्रधान कर्म है और उनके इस कर्म में ही उनका धर्म सन्निहित है। 

स्वामी जी निरंतर कर्मयोगी बने रहने की प्रेरणा देते हुए भगवान बुद्ध का दृष्टांत देते हैं। उनका मानना था कि महात्मा बुद्ध ने कर्मयोग की शिक्षाओं को कार्यरूप में परिणित किया था। उन्होंने पूर्ण साधना की थी। महात्मा बुद्ध के अलावा संसार में जितने भी पैगंबर आए, उनकी नि:स्वार्थ कर्म प्रवृति के पीछे कोई न कोई वाह्य उद्देश्य अवश्य था। इन पैगंबरों की दो श्रेणियाँ  थीं। एक वर्ग स्वयं को संसार में अवतीर्ण ईश्वर का अवतार मानता था, तो दूसरा वर्ग स्वयं को ईश्वर का दूत मानता था। वे अपनी आध्यात्मिक बातों से जनमानस को प्रभावित करके बहिर्जगत से पुरस्कार की आशा रखते थे। परंतु एकमात्र महात्मा बुद्ध ऐसे थे जिन्होंने कहा था- "मैं ईश्वर के बारे में तुम्हारे मत-मतान्तरों को जानने की परवाह नहीं करता। आत्मा के बारे में विभिन्न सूक्ष्म मतों पर बहस करने से क्या लाभ? भला करो और भले बनो। बस, यही तुम्हें निर्वाण की ओर अथवा जो कुछ भी सत्य है, उसकी ओर ले जाएगा”।3    


  स्वामी जी का मानना था कि महात्मा बुद्ध का दर्शन जितना उन्नत था, उतनी ही व्यापक उनमें सहानुभूति की भावना थी। सर्वश्रेष्ठ दर्शन का प्रचार-प्रसार करते हुए भी इन महान दार्शनिक के मन में संसार के क्षुद्रतम प्राणी के प्रति अत्यंत गहरी सहानुभूति थी। इसलिए वास्तव में वे ही संसार के आदर्श कर्मयोगी हैं क्योंकि उन्होंने पूर्णरूपेण हेतुशून्य होकर कर्म किया है। हृदय और मस्तिष्क के पूर्ण सामंजस्य के वे सर्वोत्कृष्ट दृष्टांत हैं।

 

स्वामी विवेकानंद जी, भगवान बुद्ध के दृष्टांत के माध्यम से कर्मयोग पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि इस संसार में सिर्फ वही व्यक्ति सबकी अपेक्षा उत्तम रूप से कार्य कर सकता है जो पूरी तरह से नि:स्वार्थी हो, जिसके मन में किसी प्रकार के धन-दौलत, यश-कीर्ति या अन्य किसी वस्तु के प्रति कोई लालसा न हो, इच्छा न हो। ऐसा करने में सक्षम और समर्थ होने वाला व्यक्ति स्वयं बुद्ध बन जाएगा और उसके अंतर्मन में एक ऐसी शक्ति प्रकट होगी जो संसार की अवस्था को पूरी तरह से बदल सकती है और यही व्यक्ति कर्मयोग के चरम आदर्श का प्रतीक बन सकता है।

 

स्वामी जी गीता के श्लोक ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ को सोदाहरण समझाया है कि मनुष्य का कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं। इसलिए मनुष्य को फल पाने के उद्देश्य से कर्म नहीं करना चाहिए। उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि फल की आशा के बिना कर्म क्यों करूँ। उन्होंने यह भी बताया है कि कर्मयोग का अर्थ है कुशलता से अर्थात वैज्ञानिक प्रणाली से कर्म करना। कर्मानुष्ठान की विधि भली-भांति समझ कर ही व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ कार्य कर सकता है और अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है, अपनी आत्मा को जाग्रत कर सकता है। 


अंततोगत्वा, निष्कर्ष के रूप में शत-प्रतिशत यह द्रष्टव्य है कि स्वामी विवेकानंद युगचेता, युगद्रष्टा और महान युगपुरुष थे और महान कर्मयोगी के रूप में उन्होंने आजीवन नि:स्वार्थ भाव से कार्य करने के लिए समस्त विश्व को उद्बुद्ध किया, संपूर्ण संसार को कर्मयोगी बनने की ओर अग्रसरित किया, प्रोत्साहित किया। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को बताया कि कर्मयोग के माध्यम से कैसे इस संसार की तस्वीर बदल सकती है, हमारे कर्मों का हमारे चरित्र पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है, कर्म और कर्तव्य में क्या अंतर है और हम किस प्रकार नि:स्वार्थ भाव, अनासक्त भावना से संसार का भला करते हुए अपना उद्धार कर सकते हैं। कर्म करते हुए हमारे मन में किसी के प्रति किसी तरह का दुराग्रह नहीं होना चाहिए, क्योंकि दुराग्रही व्यक्ति मूर्ख और सहानुभूतिशून्य होता है। दुराग्रह प्रेम का विरोधी है। हम जितने अधिक प्रेम संपन्न होंगे, हमारा कार्य उतना ही अधिक उत्तम होगा। जीवन के किसी भी अवस्था में, कर्मफल में बिना आसक्ति रखे हुए यदि उचित रूप से कर्तव्य किया जाए, तो उससे हमें आत्मा की पूर्णता का सर्वोच्च अनुभव प्राप्त होता है, आत्म संतुष्टि होती है। हमें चाहिए कि हम निरंतर कार्य करते रहें, जो कुछ भी हमारा कर्तव्य है उसे करते रहें, अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन में सदैव डटे रहें, जुड़े-भिड़े रहें, इसी में हमारे जीवन की सार्थकता और पूर्णता है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए इस बात की आवश्यकता और अधिक बलवती हो चुकी है कि स्वामी विवेकानंद द्वारा विवेचित कर्मयोग को समग्र भारतवासियों द्वारा आत्मसात किया जाय, इसे देश के हर गाँव गाँव, शहर शहर में विभिन्न जनसंचार माध्यमों के जरिये अधिक से अधिक संख्या पहुंचाया जाय, देशवासियों को उनके विचारों से अवगत कराया जाय क्योंकि स्वामी विवेकानंद द्वारा बताए गये कर्मयोग के मार्ग पर चलकर भारत पुनः विश्व गुरु बन सकता है, सर्वश्रेष्ठ देश बन सकता है।     


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संदर्भ ग्रंथ: 

1. विवेकानंद साहित्य, भाग 3, अद्वैत आश्रम, कलकत्ता, 2000, पृष्ठ-78

2. विवेकानंद साहित्य, भाग 1, अद्वैत आश्रम, कोलकाता, 2000, पृष्ठ 22

3. विवेकानंद साहित्य, भाग 1, अद्वैत आश्रम, कोलकाता, 2000, पृष्ठ 89 


स्वामी विवेकानन्द का ‘ज्ञानयोग’

 


स्वामी विवेकानन्द का ‘ज्ञानयोग’

  डॉ. संदीप कदम

 साठये कॉलेज, मुंबई, महाराष्ट्र 


  प्राचीन काल से ही भारत विश्व में ज्ञान की भूमि के रूप में जाना जाता रहा है।  आधुनिक काल में स्वामी विवेकानन्द के कार्य ने इस विषय को और अधिक प्रमुख बना दिया।  विद्वान स्वामी विवेकानंद ने देश विदेश के विद्वानों, विचारकों और युवाओं को भारतीय संस्कृति, साहित्य, दर्शन, इतिहास का ज्ञान प्रदान करने का महान कार्य किया है। उन्होंने 'योग', 'राजयोग', 'भक्तियोग', 'ज्ञानयोग' के माध्यम से युवाओं को नई दृष्टि दी। उनकी दूरदृष्टि का प्रभाव आज भी आम लोगों पर है। कन्याकुमारी में उनका स्मारक इस महान कार्य का प्रमाण है। स्वामी विवेकानंद ने आध्यात्मिक, धार्मिक ज्ञान के आधार पर मानव जगत को एक विशिष्ट जीवन शैली प्रदान की। स्वामी विवेकानंद आध्यात्मिक प्रेरणा के स्रोत हैं। उन्होंने कई शास्त्रों का अध्ययन किया और खुद को सार्वजनिक सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने विश्व को भारतीय दर्शन का भी परिचय दिया। स्वामी विवेकानंद ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान, सांस्कृतिक अनुभव और महान सोच के कारण बहुतों का दिल जीत लिया।

  मन की शक्तियों को एकाग्र करना ज्ञान प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका है।  मन की यह एकाग्रता 'योग' के रूप में है। इस प्रकार मन को एकाग्र करके योगी मनुष्य ज्ञान प्राप्त करता है। दुनिया में आपको जो ज्ञान मिलता है। इसे एकाग्रता से लेना और ब्रह्मांड के रहस्य को समझना आवश्यक हो जाता है। जैसे-जैसे हम निरंतर अध्ययन करते हैं, मन का धैर्य स्थिर होता जाता है और मन की एकाग्रता बढ़ती जाती है। अथवा मन को एकाग्रता की शक्ति प्राप्त होती है। ज्ञान प्राप्ति के लिए मन की एकाग्रता निरन्तर आवश्यक है। मन की एकाग्रता ही ज्ञान का आधार है। हमें इसे ध्यान में रखना चाहिए।

अमेरिका यात्रा के दौरान जब एक शिष्य ने स्वामी विवेकानंद से कुछ सवाल पूछे तो उन्होंने जवाब देते हुए उन्हें योग के बारे में बताया। वे कहते हैं, "मुक्ति, यह हमारी अगली समस्या है, इसलिए हम तब तक मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते जब तक हम यह महसूस नहीं करते कि 'मैं ब्रह्म हूं। उनमें से प्रत्येक उपयुक्त है लेकिन ब्रह्म-साक्षात्कार के लक्ष्य की ओर अप्रत्यक्ष रूप से ले जाने वाला केवल एक मार्ग है। और इसलिए ये विभिन्न योग मार्ग विभिन्न स्वभाव के व्यक्तियों के लिए उपयुक्त हैं।“१ इन योगों में 'ज्ञानयोग' एक महत्वपूर्ण योग पथ है। 

  ज्ञान योग का अभ्यास एक बहुत ही कठिन विषय है। क्‍योंकि इससे कई तरह की समस्‍याएं हो सकती हैं। ज्ञान योग में तत्त्व के प्रति निष्ठावान रहना महत्वपूर्ण है। यह सभी के अनुरूप नहीं हो सकता है। इस योग में उच्च तत्वज्ञान निहित है। ज्ञान योग एक महान और श्रेष्ठ मार्ग है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि तत्वचिंतन ज्ञान योग की आत्मा है। 'जीवात्मा' एक वृत्त है, जिसका केंद्र शरीर है। शरीर का केंद्र 'आत्मा' है और 'मृत्यु' इसी केंद्र का अवतरण है। स्वामी कहते हैं कि ज्ञान योग प्रबल साधकों के लिए है। क्योंकि यह योग बुद्धिजीवियों के लिए है। शुद्ध बुद्धि की सहायता से ज्ञान प्राप्त करना। ज्ञान मुक्ति लाता है। मुक्ति का अर्थ है जन्म और मृत्यु और भय से परे होना। आत्म-साक्षात्कार महत्वपूर्ण बात है।

गुरु, गुरु की कृपा और गुरु द्वारा दिया गया ज्ञान, ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञान प्राप्त करना आत्मा का स्वभाव है। और यह हर जगह है। आत्मा ज्ञान प्राप्ति का मंत्र है। आज हम वह ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं जो हम नहीं जानते हैं। और हम ऐसे सर्वोच्च न्याय से परे कुछ बातें नहीं जान सकते। यह एक शाश्वत सत्य है। और हमें इसे स्वीकार करना चाहिए।

 स्वामी विवेकानंद ध्यान को महत्व देते हैं।  मूलतः 'ध्यान' महत्वपूर्ण है। प्रत्येक बाब  विचार के अधीन है। इसलिए मन में जो आए उसका विश्लेषण करना चाहिए और उसके स्वरूप को ध्यान में रखकर मन पर अंकित करना चाहिए। और हमें अपने मन को दृढ़ता से बांध लेना चाहिए कि हम सत-चित-आनंद हैं। यहीं से हमारे ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया शुरू होती है। ध्यान ज्ञाता और ज्ञेय के बीच एकता का साधन है। मैं 'सत्-चित-आनन्द' हूँ। इसका मानसिक रूप से ध्यान रखें। क्योंकि यही ज्ञान का सार है। स्वामी विवेकानंद ने दो प्रकार के ध्यान का उल्लेख किया है।

 “१) जो हमारा नहीं है, उसकी निंदा करना और सोच-समझकर उसे एक तरफ धकेलना।

  २) अद्वितीय सच्चिदानंद आत्मा, हमारे वास्तविक स्वरूप पर दृढ़ता से मन को स्थिर करें”२ 

कुल मिलाकर एक विवेकशील व्यक्ति को बुद्धि के बल पर निडर होकर आगे बढ़ना चाहिए।  मूल रूप से योग के अभ्यास से प्राप्त; और योग से ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्ञानयोगी बनना आवश्यक है। उसे 'संसार में रहने और संसार का न होने' में सक्षम होना चाहिए। उसके पास सामान्य ज्ञान होना चाहिए। यह अपनी किताब होनी चाहिए। स्वामी विवेकानंद एक सच्चे ज्ञानयोग की विशेषताओं का वर्णन करते हुये कहते है - 


"(१) वह ज्ञान के अलावा और कुछ नहीं चाहता।  (२) उसकी सभी इंद्रियाँ पूरी तरह से उसके नियंत्रण में हैं।  वह बिना कुड़कुड़ाए सब कुछ सह लेता है।  चाहे उसे आसमान के नीचे खुले फर्श पर सोना पड़े या किसी राजा के महल में सोना पड़े, दोनों एक ही थे। वह कष्टों को टालता नहीं, शांति से सहता है। उन्होंने आत्मा को छोड़कर सब कुछ त्याग दिया है।  (३) वह जानता है कि उनमें से एक को छोड़कर सभी झूठे हैं।  (४) वह मुक्ति के लिए तरसता है, दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ वह अपने मन को उच्च चीजों पर केंद्रित करता है और इस तरह शांति प्राप्त करता है।“३ 

  मूल रूप से समस्त ज्ञान 'प्रक्त्यक्ष' पर आधारित है। इसी तरह हम तर्क और मंथन करते हैं। इसी ज्ञान से अनुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है। आप जो ज्ञान प्राप्त करते हैं वह आपके अपने अनुभव का संश्लेषण है।

  स्वामी विवेकानंद के भाषण, उनके पत्र, लेख सभी मे उनके विचार हैं। उनकी प्रबुद्ध दृष्टि धर्म, विज्ञान पर उनके लेखन से स्पष्ट होती है। उदाहरण के लिए उनका निम्नलिखित कथन इस संबंध में कहा जा सकता है। "यदि अनुभवजन्य विज्ञान धर्म द्वारा पारलौकिक ज्ञान या तर्क के आधार पर किए गए प्रस्ताव को गलत ठहराता है, तो उस प्रस्ताव को अस्वीकार करें और इंद्रियों की अनुभवजन्य पद्धति का उपयोग करके विज्ञान द्वारा किए गए प्रस्ताव को स्वीकार करें।"४ 

गुरुथायी 'ज्ञान' और 'सत्य' प्रमुख हैं। होना चाहिए। हम उन्हें सर्वश्रेष्ठ जगद्गुरु, महापुरुष कह सकते हैं। आपको अंतर्ज्ञान द्वारा गुरु को पहचानने में सक्षम होना चाहिए। ज्ञान, दृढ़ता के लिए शिष्य की इच्छा। काया-वाचा-मन शुद्ध होना चाहिए। आपको वह मिलता है जो आप पाना चाहते हैं या जो आप अपनी आत्मा से चाहते हैं। यह एक शाश्वत सत्य है।  हमें निरंतर अभ्यास, प्रयास, विषयवार चिंता रखनी चाहिए। गुरु को धन और प्रसिद्धि जैसे उद्देश्यों से दूर रहना चाहिए और शुद्ध ज्ञान प्रदान करना चाहिए। उसे पवित्र और प्रेममय होना चाहिए।  उच्चतम ज्ञान, उच्चतम ज्ञान धार्य है। वह उसके साथ चाहता है। एक 'बुद्धिमान' व्यक्ति किसी से भी घृणा नहीं करता। वह सबकी मदद करता है।

  स्वामी विवेकानंद ने विभिन्न स्थानों पर व्याख्यान दिए। उस व्याख्यान से कर्म योग, भक्ति योग, ज्ञान योग की सुव्यवस्थित व्यवस्था की गई है। हिन्दू धर्म में वेद, उपनिषद, गीता जैसे दार्शनिक ग्रन्थों के आधार पर उन्होंने इन योगों की विस्तृत व्यवस्था की है।

 स्वामी विवेकानंद ने ज्ञान योग के तीन विभाग बनाए हैं।

1.  इस सत्य को स्वीकार किया कि आत्मा एक वास्तविकता है और बाकी सब माया है।

  2.  उपरोक्त दर्शन की चर्चा अनेक पक्षों से करते हैं।

  3.  सच्चाई का एहसास कराने के लिए। और सत्य का निरंतर चिंतन।

  दर्शन, धर्म, इतिहास, विज्ञान, कला और साहित्य के निरंतर अध्ययन के कारण उन्होंने कई स्थानों पर योग पर गहन व्याख्यान दिया। इन व्याख्यानों से जीवन के बारे में ज्ञान बहुतों के लिए मार्गदर्शक बन गया। उपर्युक्त तीन विभाग इस ज्ञान योग के अभ्यास के सही तरीके हैं। यह योग सर्वोच्च और अभ्यास करने में कठिन है।

संदर्भ

१.  स्वामी शिवतत्वानंद, स्वामी व्योमरूपानंद (संपादक), १९९७, स्वामी विवेकानंद ग्रंथावली, खंड १०, रामकृष्ण मठ, नागपुर, पृष्ठ २६

२.  स्वामी शिवतत्वानंद, स्वामी व्योमरूपानंद (संपादक), १९९७, स्वामी विवेकानंद ग्रंथावली, खंड ९, रामकृष्ण मठ, नागपुर, पृष्ठ ९६

३.  स्वामी शिवतत्वानंद, स्वामी व्योमरूपानंद (संपादक), १९९७, स्वामी विवेकानंद ग्रंथावली, खंड ९, रामकृष्ण मठ, नागपुर, पृष्ठ १०१

४.  दाभोलकर डॉ.  दत्ताप्रसाद, २००९, स्वामी विवेकानंद की खोज, मनोविकास प्रकाशन, पुणे,  पृष्ठ ९३


डॉ. रमेश पोखरियाल'निशंक' का स्वामी विवेकानंद चिन्तन

 डॉ. रमेश पोखरियाल'निशंक' का स्वामी विवेकानंद चिन्तन


डॉ. रवि कुमार गोंड़

सहायक प्रोफेसर

हिंदी विभाग, हंसराज कॉलेज,

 दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

 मोबा. 7807111737

 e-mail-ravigoan86@gmail.com


 डॉ. निशंक जी का अध्यात्म से काफी लगाव रहा है | वह एक दार्शनिक आचार्य हैं | उन पर स्वामी विवेकानंद, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त, अटल बिहारी बाजपेयी, डॉ. कलाम आदि का प्रभाव बड़ा गहरा है | गीता महाकाव्य का उन्होंने बड़े ही सूक्ष्म ढंग से अवलोकन किया है | स्वामी विवेकानंद जी से प्रभावित हो करके उन्होंने सन् 2013 में 'संसार कायरों के लिए नहीं' नाम से एक पुस्तक लिखी थी | यह पुस्तक राजकमल प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुई | स्वामी विवेकानंद के आदर्श, विचारों तथा संदेशों को इस पुस्तक में देखा जा सकता है | अमरनाथ डोगरा अपनी पुस्तक 'स्वामी विवेकानंद का सामाजिक-आर्थिक चिंतन' में स्वामी विवेकानंद जी के पत्रा. 1, 83-84 का जिक्र किया है "ऊंचे पद वालों या धनिकों का भरोसा न करना | उनमें जीवनी शक्ति नहीं है- वे तो जीते हुए भी मुर्दे के समान हैं | भरोसा तुम लोगों पर है; गरीब, पद-मर्यादा रहित किंतु विश्वास है तुम्हीं लोगों पर | ईश्वर का भरोसा रखो | किसी चालबाजी की आवश्यकता नहीं; उससे कुछ भी नहीं होता | दुखियों का दर्द समझो और ईश्वर के पास सहायता की प्रार्थना करो-चाहता अवश्य मिलेगी | ....मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊं, परंतु मेरे नव युवकों, मैं गरीब, भूखों और उत्पीड़ितों के लिए सहानुभूति और प्राण प्रण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ |......  अपना सारा जीवन इन 30 करोड़ लोगों के उद्धार के लिए अर्पण कर देने का व्रत लो, जो दिनोंदिन डूबते जा रहे हैं |"

 डॉ. निशंक जीलिखते हैं कि-"स्वामी जी जानते थे कि जब भी कोई अच्छा काम शुरू किया जाए तो पहले लोग उसका मजाक उड़ाते हैं। फिर वे उसका विरोध करते हैं और आखिर में उस काम के लिए अपनी मंजूरी दे देते हैं।

जब वे सितंबर 1893 में वेदांत के सिद्धांत को पूरी दुनिया में फैलाने के लिए शिकागो जाना चाहते थे तो अनेक संकट सामने आए। वे बड़े कष्ट सहने के बाद किसी तरह वहां पहुंचे। वहां वे सनातन धर्म के बारे में लोगों को जानकारी देना चाहते थे ताकि दूसरे देशों के लोग भी भारत की महान सभ्यता व संस्कृति के बारे में जान सकें।"

     'संसार कार्यों के लिए नहीं' पुस्तक में डॉ. निशंक जी ने स्वामी विवेकानंद जी की शिक्षाओं का सूक्ष्म अवलोकन किया है | उनके व्यावहारिक वेदांत का कुशलता पूर्वक वर्णन किया है | स्वामी विवेकानंद जी की कर्मठता और निर्णय लेने की कला का भी अनुशीलन डॉ. निशंक जी ने सूक्ष्म ढंग से इस पुस्तक में किया है | 'सफलता के सोपान' पुस्तक में लिखा गया है कि "हम क्यों न लक्ष्य की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करें ! असफलताओं से ही ज्ञान का उदय होता है | अनंत काल हमारे सम्मुख है - फिर हम हताश क्यों हों ! दीवार को देखो | क्या वह कभी मिथ्या भाषण करती है? पर उसकी उन्नति भी कभी नहीं होती - वह दीवार की दीवार ही रहती है | मनुष्य मिथ्या भाषण करता है, किंतु उसमें देवता बनने की भी क्षमता है | इसलिए हमें सदैव क्रियाशील-प्रयत्नशील बने रहना चाहिए |" डॉ. निशंक जी स्वामी विवेकानंद जी से प्रेरित हो करके अपनी पुस्तक में यह बताने का प्रयास किया गया है कि चाहे जीवन में जटिल से जटिल कठिनाईयाँ क्यों न आएं उसका सामना धैर्य और संयम से करना चाहिए | समाज में जीने के लिए उसे जीवन के नियोजन का हल ढूंढना चाहिए | मन, कर्म और वचन से उसे दृढ़ प्रतिज्ञ होना चाहिए | डॉ. निशंक जी लिखते हैं कि - "स्वामी विवेकानंद जी का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ। वे एक महान देशभक्त, विचारक, लेखक, वक्ता व संत थे। उन्होंने शिकागो की विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया और वेदांत दर्शन को विदेशों तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस जी के शिष्य थे। उन्होंने ही रामकृष्ण मिशन की स्थापना भी की। स्वामी जी ने अपना पूरा जीवन गुरुदेव के दिए हुए लक्ष्य के लिए अर्पित कर दिया। वे एक संन्यासी के रूप में देश-विदेश में भ्रमण करते रहे और भारत की चहुंमुखी उन्नित के लिए प्रयत्नशील रहे। वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते थे, जिसमें छोटे-बड़े या जांति-पांति का कोई भेद न हो। स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि देश का युवा वर्ग देश सेवा के लिए आगे आए। धर्म व अध्यात्म को सच्चे अर्थो में अपनाए । स्वामी जी स्वयं को गरीबों का सेवक कहते थे और गरीबों की सेवा का कोई भी अवसर हाथ से जाने नहीं देते थे। उनका मानना था कि देश के भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोग ही वास्तव में देवी-देवता हैं इसलिए उनकी ही सेवा की जानी चाहिए। स्वामी विवेकानंद ने केवल विदेशों में वेदांत दर्शन का डंका बजाया बल्कि विदेशियों को भी भारत में आकर देशवासियों की सेवा करने की प्रेरणा दी। यहां हम उनकी शिष्या भगिनी निवेदिता को कैसे भूल सकते हैं। जिन्होंने भारतीय स्त्रियों की शिक्षा के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। यह सब उनके गुरु विवेकानंद जी की प्रेरणा का ही फल था। स्वामी जी धार्मिक कुरीतियों व अंधविश्वासों के विरुद्ध थे। उन्होंने सदा दरिद्रनारायण की सेवा को ही सबसे बड़ी पूजा माना। देश के नवयुवकों के लिए उनका संदेश था- 'उठो, जागो व दूसरों को जगाओ। अपने मनुष्य जीवन को सफल कर लो। लक्ष्य प्राप्ति से पहले कहीं रुको नहीं।

4 जुलाई 1902 को वे महासमाधि में लीन हो गए। भले ही उनका पार्थिव देह हमारे बीच नहीं रही किंतु आज भी आज भी स्वामी जी के वे ओजपूर्ण व्याख्यान हमारे लिए किसी प्रेरणास्त्रोत से कम नहीं हैं।"

डॉ. निशंक जी के जीवन में स्वामी विवेकानंद जी का काफी प्रभाव है । वह स्वामी जी के अध्यात्मिक चिंतन में समाज की प्रगति को देखते हैं। वह जीवन की सत्यता को समझने का प्रयत्न करते हैं। डॉ. निशंक जी दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चिंतन के अध्येता हैं । वह स्वामी विवेकानंद जी के संदर्भ में लिखते हैं की - "उन्होंने संसार को दिखा दिया कि भारत भी विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता रखता है। अपने महान गुणों के कारण वे शिकागो की धर्मसभा में भारतीय दर्शन का डंका बजाने में सफल रहे। उस सभा में उन्हें एक गुलाम देश का प्रतिनिधि माना गया, इसलिए उन्हें मंच पर सबसे आखिर में निमंत्रित किया गया, लेकिन उनकी वक्तव्य शैली इतनी ओजपूर्ण थी कि सभी श्रोता वाह-वाह कर उठे । स्वामी विवेकानंदजी के शब्दों ने उन पर जादू सा कर दिया। उन्होंने कुछ ही पलों में सभा को अपने सम्मोहन में बांध लिया। अपने पहले ही भाषण द्वारा स्वामीजी ने श्रोताओं के दिलों में अपनी जगह बना ली थी।"

      'विवेकानंद : राष्ट्र को आह्वान' पुस्तक में स्वामी विवेकानंद जी की सार्थक पंक्तियां उद्धृत हैं "यह संसार कायरों के लिए नहीं है | पलायन की चेष्टा मत करो | सफलता अथवा असफलता की चिंता मत करो |पूर्ण निष्काम संकल्प में अपने को लय कर दो और कर्तव्य करते चलो | समझ लो कि सिद्धि पाने के लिए जन्मी बुद्धि अपने आप को दृढ़ संकल्प में लय करके सतत कर्मरत रहती है | ........जीवन संग्राम के मध्य डटे रहो | सुप्तावस्था में अथवा एक गुफा के भीतर तो कोई भी शांत रह सकता है | कर्म के आवर्त और उन्मादम के बीच दृढ़ रहो और केंद्र तक पहुँचो | और यदि तुम केंद्र पा गए तो फिर तुम्हें कोई विचलित नहीं कर सकता |" डॉ. निशंक जी स्वामी विवेकानंद जी के दार्शनिक चिंतनों के माध्यम से युवाओं को जगाने का कार्य करते नजर आते हैं | उन्होंने जीवन मूल्यों की महत्ता और उसकी गुणवत्ता से सबको परिचित करवाने का कार्य किया है | युवाओं के अंदर आत्मविश्वास जगाने का कार्य किया है | कर्म और रहस्य पुस्तक में स्वामी विवेकानंद जी के दार्शनिक विचारों पर प्रकाश डाला गया है "हमारे भीतर एक दिव्य तत्व है, जो ना तो चर्चों के मतवादों से पराजित किया जा सकता है, न भर्तस्ना से | जहाँ कहीं भी सभ्यता है, वहीँ मुट्ठी भर यूनानियों का प्रभाव प्रकट है | कुछ ना कुछ भूलें तो सर्वदा होंगी ही | उस पर खेद मत करो | महान अंतर्दृष्टि प्राप्त करो | यह ना सोचो: 'जो हो गया, हो गया | कितना अच्छा होता, यदि यह और सुंदर ढंग से संपन्न हुआ होता |' यदि मनुष्य स्वयं ब्रह्म न होता तो, मानव जाति अब तक प्रार्थनाओं और प्रायश्चितों के मारे पागल हो गई होती |"

डॉ. निशंक जी लिखते हैं कि - "स्वामी विवेकानंद भले ही रामकृष्ण परमहंस जी के शिष्य थे। परंतु वे अपना एक अलग व्यक्तित्व भी रखते थे। वे कभी सच्ची बात कहने से पीछे नहीं हटते थे। कई बार उनकी बातें सुनने वालों को अजीब भी लगती थीं पर उन बातों में गहरा सार छिपा होता था।

स्वामी जी बहुत बलशाली थे। उन्हें कुश्ती, मुक्केबाजी, तैराकी व घुड़दौड़ आदि का अच्छा शौक था। उन्हें घोड़े पर सवारी करनी अच्छी लगती थी। वे

यही मानते थे एक बलशाली शरीर में ही बलशाली दिमाग का वास हो सकता है इसलिए हमें अपने शरीर की स्वास्थ्य रक्षा करनी चाहिए।"

इस प्रकार से हम देखते हैं कि डॉ. निशंक जी  के लेखकीय चिंतन में स्वामी विवेकानंद के सभी ध्येय सूत्र वाक्यों को देखा जा सकता है, जो समाज को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं और साथ ही साथ एक नई राह दिखाती हैं | 


 संदर्भ :

1. अमरनाथ डोगरा - स्वामी विवेकानंद का सामाजिक-आर्थिक चिंतन, सूरज प्रकाशन दिल्ली, संस्करण-2018

2. स्वामी विवेकानंद - सफलता के सोपान, रामकृष्ण मठ नागपुर, संस्करण-2018

3. विवेकानंद : राष्ट्र को आह्वान, रामकृष्ण मठ प्रकाशन नागपुर, संस्करण-2018

4. स्वामी विवेकानंद और उसका रहस्य, रामकृष्ण मठ प्रकाशन नागपुर, संस्करण-2018

5. डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक' - संसार कायरों के लिए नहीं, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, संस्करण-2013

5. डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक' - शिकागो में स्वामी विवेकानंद, डायमंड बुक्स, नई दिल्ली, 2013 

6. डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक' - आगे बढ़ो स्वामी विवेकानंद, डायमंड बुक्स, नई दिल्ली, 2012

7. डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक' - कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद, डायमंड बुक्स, नई दिल्ली, 2013 

8. डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक' - सकारात्मक सोच स्वामी विवेकानंद, डायमंड बुक्स, नई दिल्ली, 2012


युवा सोच को साकार करते स्वामी विवेकानंद

 युवा सोच को साकार करते स्वामी विवेकानंद


“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ” अर्थात उठो जागो और ध्येय की प्राप्ति तक मत रुको |स्वामी विवेकानंद द्वारा कही गयी उपरोक्त कथन की प्रासंगिकता आज के दौर के युवाओ के पथ आलोकन हेतु अत्यंत मार्मिक और सहायक हैं|विश्व के सबसे युवा देश होने के नाते भारत भूमि पर विश्व कल्याण करने की दिशा में हमारे हर प्रयासों पर सम्पूर्ण विश्व का ध्यान केन्द्रित हैं|जब हम इस बात पर विचार करते हैं की “ कैसा युवा भारत के यशोवर्धन में सहायक होगा?”, “युवाओ के कौनसे प्रयास से वसुधेव कुटुंबकम का संकल्प चरितार्थ होगा ?”, “युवाओ के उदार चरित्र  से कैसे नारी शक्ति के स्वावलंबन और सशक्तिकरण के द्वार खुलेंगे ?” , “युवाओ के सृजनात्मक- रचनात्मक दक्षता से भारत विकसित देशो का सिरमौर कैसे होगा?” “ तमाम झंझावाट के बावजूद भी युवाओ के आध्यात्मिक शक्ति कैसे सुदृढ़ होगी ?” इन सभी प्रश्नों सहित युवाओ संबंधित हर समस्या,संशय व संदेह के निराकरण हेतु एक प्रेरक नाम या यू कहे उत्प्रेरक जो सबके मन – मस्तिष्क  पर आच्छादित  होता हैं , वह  हैं  “ स्वामी विवेकानंद”|

एक साधारण परिवार में जन्मे स्वामी विवेकानंद ने विषम परिस्थितियों के हर दस्तक पर मुस्कुराकर  विजय पाई| बाल्यावस्था में  आर्थिक विषमता ने उन्हें दिग्भ्रमित करने का भरपूर प्रयास किया पर वो हर पथ पर दिग्विजयी रहें |युवावस्था में जब पश्चिमी सभ्यता ने प्रश्नों की बौछार से भारतीय सभ्यता को लहुलुहान करने का दुस्साहस किया तब अपनी “ मेरे अमेरिकी भाई- बहनों “ के शब्द भेदी आगाज से विश्व समुदाय को मौन कर दिया |नारी सम्मान में हम भारतीयों का मानवर्धन के दिशा में उनके कृत्य का स्मरण आज भी आता है की “ कैसे एक विदेशी महिला के विवाह प्रस्ताव और विवेकानंद जैसे पुत्र की प्राप्ति वाले इच्छा  पर उनके उत्तरने उनका  हृदय जीत लिया”| स्वामी विवेकानंद के सम्पूर्ण जीवन से युवाओ को एक बात जो पूरी तरह समझ आनी  चाहिए कि “चरित्र निर्माण एक सतत साधना है तथा व्यक्तित्व विकास एक आध्यात्मिक यात्रा” | 

               स्वामी विवेकानंद की निस्वार्थता उनके आध्यात्मिकता को समझने का प्रथम सोपान है |जब वर्तमान दौर मे पूजन पद्धति पर जातीय,धार्मिक हिंसाओं मे युवाओ की लिप्तता मिलती हैं  तो उनके कथन कि “ अगले ५० वर्षो  तक के लिए सभी देवी देवताओं  को ताक पर रख दो,पूजा करो तो केवल अपनी मातृभूमि की,सेवा करो अपने देशवासियों की,वही तुम्हारे जाग्रत देवता हैं” की  महता और अधिक प्रभावी हो जाती है |युवाओ के प्रेमी परिभाषा को भी स्वामी विवेकानंद ने शिकागो धर्म सम्मेलन मे चरितार्थ किया की अपनी जन्मभूमि,सभ्यता या व्यक्ति का प्रेम देहिक नही दैविक हो , प्रेम ऐसा हो जो व्यक्ति का हृदय परिवर्तन करे ना कि धर्म परिवर्तन | शिकागो धर्म सम्मेलन के भाषण के पश्चात भारतीय सभ्यताओं और व्यक्तियों के प्रति घृणा भरे अवधारणाएं प्रेम रूप में परिवर्तित हो गई|

स्वामी विवेकानंद से प्रभावित होकर वीर सावरकर,महात्मा गाँधी,सरदार भगत सिंह,बाल गंगाधर तिलक,महर्षि अरविन्द,रविंद्रनाथ टैगोर,नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ,विपिन चंद्रपाल ,जमशेद जी टाटा ,विनोबा भावे ,ब्रह्मबांधव उपाध्याय जैसे आदि महापुरुषों ने भारत भूमि के यशोवर्धन हेतु अतुलनीय योगदान दिया | आज के युवाओं का अधिक झुकाव आधुनिकता के नाम पर फैलाई जा रही  विदेशी षडयंत्रो के पीछे फसे समाज की  नग्नता, कामुकता और पशुता ने इस प्रकार जकड लिया हैं की आर्थिक हमलों से भ्रमित होकर ये समझने लगा है कि “ अर्थ ही जीवन का सार तत्त्व है”  और आध्यात्म,नैतिकता,सभ्यता,धर्म,राजनीती सभी कुछ अर्थ के अधीन हैं तब ऐसे मे जब युवा सबकुछ बेचने के लिए आतुर हो गया हो तब स्वामी विवेकानंद के “ व्यवहार और सिद्धांत का संतुलन” , “भौतिक और आध्यात्मिकता का समन्वय “, “प्राचीनता और आधुनिकता का सामंजस्य” ही  “ अच्छे संस्कार,अच्छे  विचार व अच्छा व्यवहार” वाले युवा मस्तिष्क को पोषित,संवर्धित  और संरक्षित कर सकता है |

             विज्ञान के बढ़ते प्रभाव से विश्व मे व्याप्त वैमनस्यता पर स्वामी विवेकानंद ऐसे  युवाओ की फौज चाहते हैं जो “ आध्यातम और विज्ञान का समन्वय करके आणविक युग में सुरक्षा प्रदान कर विकास और शांति की ओर उन्मुख कर सके”| आज युवाओ के मन – मस्तिष्क मे  पुराना सब श्रेष्ठ हैं और आधुनिक सब गलत हैं या पुराने को कूड़े में डालो और आधुनिकता अपनाओ इस प्रकार की अंतिमवादी मानसिकता सर्वथा अनुचित हैं | युवाओ को संस्कृत और संगडक समावेश के साथ तालमेल बिठाना होगा | आधुनिक गणित के साथ वैदिक गणित के महत्व को भी समझना होगा| स्वामी विवेकानंद जी द्वारा युवाओ से कहे गये कथन कि “ एक विचार के बारे मे सोचें,सपना देखें और इसी विचार पर जियें|आपके मस्तिष्क और रगों में इन्हीं विचारों का समावेश हो ,यही सफलता का रास्ता हैं” आज भी यह विचार हर अंधकार में प्रकाश देता हैं| 

भारत की युवा विश्वस्तरीय संस्थानों से निकलकर जिस प्रकार सृजनात्मक कार्य कर रहें हैं, वह भारत को विश्व गुरु की प्राचीनतम प्रतिष्ठा दिलाने में सफल होगा | पिछले कुछ वर्षो से जिस तरह से भारतीय युवा स्टार्टअप की ओर से तेजी से आकर्षित हो रहे हैं ,वह विकसित भारत की बुनियाद रखने मे सहायक सिद्ध होगा| भारतीय युवाओ को प्रकृति,पर्यावरण और मानवता के प्रति और आधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है | आधुनिकता (तकनीक) के क्षेत्र मे आज भारतीय युवाओं  ने अंतरिक्ष,कंप्यूटर नेटवर्क,डाटा बैंक ,डिजिटल करेंसी,पोर्टेबल डिवाइस,वायरलेस कम्युनिकेशन,आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस,मशीन लर्निंग और ड्रोन टेक्नोलॉजी मे उल्लेखनीय प्रगति की हैं| वही दूसरी ओर प्राचीनता(आध्यात्मिकता) के क्षेत्र मे वेद,उपनिषद,रामचरित्रमानस आदि धार्मिक पुस्तक पढ़कर पूर्व,वर्तमान व भविष्य मे तारतम्यता लाने के दिशा मे अपने प्रयास से विश्व को अपने ओर आकर्षित कर रहा हैं | भारत का हर युवा  आज भी स्वामी विवेकानंद जी को आदर्श मानकर ,उनके कृतित्व का अनुसरण कर जीवन के उच्च आदर्शो पर चलने में ही गौरव की अनुभूति करता है|

 डॉ आशुतोष वर्मा

असिस्टेंट प्रोफेसर

सैम ग्लोबल यूनिवर्सिटी,भोपाल 

       9889532699

        Ashutoshv31@gmail.com


स्वामी विवेकानन्द के विचारों की प्रासंगिकता और मानवीय संवेदना

 स्वामी विवेकानन्द के विचारों की प्रासंगिकता और मानवीय संवेदना


डॉ. हिमानी सिंह

सह आचार्य ’हिन्दी’

राजकीय कला कन्या महाविद्यालय

कोटा (राज.)-324001

मो. 9414392801

Email:- hihrsh1@gmail.com


‘हमारे व्यक्तित्व की उत्पत्ति हमारे विचारों में है; इसे ध्यान रखें कि आप क्या विचारते हैं, शब्द गौण हैं, विचार मुख्य हैं, और उनका प्रभाव दूर तक होता है।’ - स्वामी विवेकानन्द 

आध्यात्मिक, ओजस्वी और प्रभावशाली व्यक्तित्व से ओत-प्रोत स्वामी विवेकानन्द ने मात्र उनतालीस वर्ष के अल्पकालीन जीवन में न केवल भारत को बल्कि सम्पूर्ण विश्व को एक सूत्र में पिरोने का अतुलनीय कार्य किया। एक ओजस्वी वक्ता होने के साथ-साथ वे सशक्त नेतृत्व, कुशल प्रबंधक और करुण हृदय से आप्लावित थे। वे व्यक्ति को मनुष्य बनाने को पक्षधर थे। भारत भ्रमण के समय उन्होंने मातृभूमि की दुर्दशा देखी, दरिद्रता, पिछड़ापन, भुखमरी, स्त्रियों की दीन अवस्था उनका तिरस्कार, समाज में जातिगत भेदभाव, अमीर और गरीब के बीच में बढ़ती खाई को देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठा और सामाजिक न्याय के प्रति उनकी धारणा दृढ़ होती गयी। देश की अवनति का सबसे बड़ा कारण बताते हुए स्वामी जी कहते हैं “मैं समझता हूँ, हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय पाप जन समुदायों की उपेक्षा है। भारत में दो बड़ी बुरी बातें हैं। स्त्रियों का तिरस्कार और गरीबों को जाति-भेद द्वारा पीसना। इस भारतभूमि के उन समुदायों को भी अपनी आत्मस्वत्व बुद्धि को उद्दीप्त करने का मौका नहीं दिया गया। हिंदू, मुसलमान या ईसाई के पैरों से रौंदे ये लोग यह समझ बैठे हैं कि जिस किसी के पास पैसा है, वे उसी के पैरों से कुचले जाने के लिए ही पैदा हुए हैं।"1 भारतीयों की इस दुर्दशा और अमानवीय स्थिति से आहत विवेकानन्द जी ने ओजस्वी वाणी में चेतावनी देते हुए युवाओं से कहा - “याद रखो कि राष्ट्र झोंपड़ी में बसा हुआ है, परन्तु शोक! उन लोगों के लिए कभी किसी ने कुछ नहीं किया। क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो? क्या उनका खोया हुआ व्याक्तित्व बिना उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक तृप्ति नष्ट किए, उन्हें वापस दिला सकते हो? यह काम करना है और हम इसे करेंगे ही।"2 किन्तु विडम्बना देखिए की विवेकानन्द जी के समय के भारत और 160 वर्ष पश्चात् आज के भारत में, व्यक्ति की सोच में कोई परिवर्तन नहीं आया है। जातिगत उन्माद, धार्मिक कट्टरता, अमीर-गरीब के बीच गहरा अन्तर, स्त्रियों की दुर्दशा, युवाओं की विलासिता और अनाचार, पारिवारिक संस्थाओं की टूटन, सामाजिक व्यभिचार में बढ़ोतरी ही हुई है और इसका सबसे बड़ा कारण है स्वार्थ, केवल स्वयं के बारे में सोचना, सामाजिक और नैतिक उत्थान प्राथमिकता नहीं है। व्यक्ति यह भूल जाता है कि सामाजिक उत्थान में ही निज विकास संभव है। क्षुद्र मानसिकता को त्यागने की आवश्यकता है। इसलिए वर्तमान समय में विवेकानंद जी के ये विचार आन्दोलित करते हैं - “मनुष्य! केवल मनुष्य ही हमें चाहिए। फिर हर एक वस्तु हमें प्राप्त हो जाएगी। हमें चाहिए केवल दृढ़, तेजस्वी, आत्मविश्वासी तरुण, सही और सच्चे हृदय वाले युवक! यदि सौ भी ऐसे पुरुषार्थी हमें मिल जाएं तो संसार आन्दोलित हो उठेगा - उनमें आमूल परिवर्तन हो जाएगा। इसलिए दृढ़-प्रतिज्ञा और प्रतिष्ठावान होकर भारतीयता के गर्व से ओतप्रोत बनो और सगर्व घोषणा करो: “मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है।"3  

वैदिक आध्यात्मिक चिन्तन और भौतिक कल्याणकारी विचारों का अद्भुत समन्वय विवेकानन्द जी के आचरण और क्रियान्वयन में स्पष्ट देखा जा सकता है। वे मानते हैं कि मनुष्य की सफलता तभी है जब “एक विचार लो। उस विचार को अपना जीवन बना लो - उसका चिंतन करो, उसके स्वप्न देखो एवं उस विचार के अनुसार जीवन जियो। अपने शरीर के प्रत्येक अंग, मस्तिष्क, मांसपेशियाँ, स्नायु-तंत्र सभी को उस विचार से पूर्णतः आप्लावित कर अन्य सभी विचारों का तत्समय परित्याग कर दो। सफलता का यही मार्ग है।"4 यही कारण है कि अत्यन्त अल्प समय में भी उन्होंने रामकृष्ण मिशन द्वारा मानव मूल्यों के प्रतिपादन तथा समाज व व्यक्ति के हित में किये जा रहे कार्यों को विश्व के कोने-कोने में पहुँचाया! इस मिशन की सफलता स्वामी जी के मस्तिष्क में उत्पन्न वह विचार ही है जो मानवीय संवेदना से परिपूर्ण है। उनका मानना था कि मंदिरों में दान देने की अपेक्षा भूखे लोगों को खाना खिलाना जरूरी है। प्रत्येक मनुष्य में सेवा की भावना होनी चाहिए। मानव जाति की सेवा करना ईश्वर की सेवा करना है। सेवा ‘जागृत देवता’ की होनी चाहिए जो सृष्टि के घट-घट में समाया हुआ है। कर्मयुक्त पौरुष ही सत्य है इसके अतिरिक्त जो है, वह भ्रम है उन सब भ्रमित प्रतिमाओं को तोड़ देना चाहिए। विवेकानंद कहते है कि -

वह, जो तुममें है और तुमसे परे भी,

जो सबके हाथों में बैठकर काम करता है, 

जो सबके पैरों में समाया हुआ चलता है,

जो तुम सबके घट में व्याप्त है,

उसी की आराधना करो और

अन्य प्रतिमाओं को तोड़ दो!

जो एक साथ ही ऊँचे पर और नीचे भी है,

पापी और महात्मा, ईश्वर और निकृष्ट कीट,

एक साथ ही है, 

उसी का पूजन करो -

जो दृश्यमान है,

ज्ञेय है,

सत्य है,

सर्वव्यापी है,

अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो!5

स्त्रियों को उनके अधिकारों से वंचित करना आज के भारत की विचारणीय समस्या है। भारतीय संस्कृति के एक-एक सूत्र में विश्वास करने वाले विवेकानंद जी भारतीय स्त्री को मंगलमयी, कल्याणकारी भूमिका के रूप में देखते हैं। राष्ट्र निर्माण में स्त्रियों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसीलिए वे स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक है। स्त्रियों की समस्याओं, समाज में उनका स्थान, स्त्री का सामर्थ्य, उनकी उन्नति इत्यादि पर गम्भीरता से चिन्तन करते हैं - “स्त्रियों में यह क्षमता अवश्य होनी चाहिए कि वे अपनी समस्याएं अपने ढंग से हल कर सकें। उनका यह कार्य न दूसरा कोई कर सकता है, न किसी दूसरे को करना ही चाहिए। हमारे देश की महिलाएं संसार के किसी भी देश की अन्य महिलाओं के समान यह कार्य करने की क्षमता रखती है।"6 विवेकानन्द जी महिलाओं को केवल शिक्षित ही नहीं देखना चाहते थे वरन उनके लिए आत्मरक्षा की शिक्षा भी अनिवार्य मानते थे। तत्कालीन समाज में महिलाओं की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनैतिक स्थिति से वे बहुत चिंतित थे। देश में महिलाओं और पुरुषों के मध्य इतना भेद क्यों है, इसे समझाते हुए वे कहते हैं “इस देश में महिला और पुरुष के बीच इतना अंतर क्यों है - यह समझना बहुत मुश्किल है। वेदों का यह स्पष्ट कहना है कि सभी में एक ही और एक जैसी ही चेतना मौजूद है। आप हमेशा महिलाओं की आलोचना करते हैं, पर आपने उनके उत्थान के लिए क्या किया है, सिवाय उन्हें कड़े नियमों में बाँधने के ? पुरुषों ने औरतों को बस बच्चा पैदा करने की मशीन में बदल दिया है। महिला को ऊपर उठाए बिना आपके खुद के आगे बढ़ने का और कोई रास्ता नहीं हो सकता।"7 महिला भी शिक्षा की अधिकारिणी है। वे कहते हैं कि “कौन से शास्त्र हैं, जिनमें आपको लिखा मिलेगा कि नारी ज्ञान एवं भक्ति के लायक नहीं है ? पतन के दौर में जब धर्माचार्यों ने दूसरी जातियों को वेद पढ़ने के लिए अक्षम धोषित किया तभी उन्होंने महिलाओं को भी उनके अधिकारों से वंचित कर दिया। नहीं तो आप पाएँगे वैदिक और उपनिषद् काल में मैत्रेयी एवं गार्गी जैसी स्त्रियों ने ऋषि-मुनियों के बराबर स्थान प्राप्त किया था। एक हजार ब्राह्मणों की उपस्थिति में, जो वेदों के बड़े विद्वान थे, गार्गी ने बड़े साहस से याज्ञवल्क्य को ब्रह्मज्ञान के ऊपर शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी। स्त्रियाँ यदि उस समय ज्ञान की अधिकारी थीं तो आज के समय में यह अधिकार उन्हें क्यों न मिले?"8 विवेकानन्द शिक्षा का ध्येय मानव सेवा में निहित मानते हैं। वे कहते हैं कि “जब तक लाखों लोग भूखे हैं और अज्ञान में डूबे हैं, तब तक मैं ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ जिसने लाखों लोगों की कीमत पर शिक्षा पाई हो लेकिन उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया हो। शिक्षा उन विचारों की अनुभूति कर लेने का नाम है जो जीवन-निर्माण, ‘मनुष्य’ निर्माण तथा चरित्र निर्माण में सहायक हों।"9 

वर्तमान भारत में जिस प्रकार धर्म का बाजारीकरण और राजनीतिकरण हुआ है। उसमें विभिन्न संतो, संन्यासियों, मत-धर्मावलम्बियों की यशलिप्सा, स्त्रीकामना, धन आकांक्षा, राजनैतिक पद लोलुपता, वैभव वासनायुक्त जीवन शैली को उघाड़ कर रख दिया है। प्राचीन काल से ही भारत एक धर्मप्रधान आध्यात्मिक मान्यताओं वाला देश रहा है। वर्तमान भारत के बहरूपिये साधु संतों ने मनुष्य की भावनाओं से खिलवाड़ करते हुए विश्व में ही नहीं वरन् भारत में भी संन्यासियों की गरिमा को ठेस पहुँचायी है। संन्यासी की जीवन कैसा होना चाहिए। “संन्यास धर्म की दीक्षा लेने पर प्रथम अनुष्ठान यह होता है कि व्यक्ति का पुतला जलाया जाता है, जिसका अभिप्राय यह होता है कि उसका पुराना शरीर, पुराना नाम और जाति सब नष्ट हो गये। तब उसका नया नामकरण होता है और उसे बाहर जाने तथा धर्मोपदेश करने या परिव्राजक बनने की अनुमति मिलती है, किन्तु वह जो भी कर्म करे, उसके लिए पैसा नहीं ले सकता।"10 उसके क्या कर्तव्य है इस ओर स्वामी विवेकानन्द ने ‘संन्यासी के गीत’ नामक अपनी रचना में बहुत स्पष्ट बताया है। ‘संन्यासी दूसरे मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति जगाता है, अपने कर्मों से गरीबों, असहायों और बीमारों की सेवा में तत्पर रहता है। आत्मिक शुचिता पर बल देता है। अध्यात्म सत्य को जन-जन तक पहुँचाने का काम करता हैं। मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरूप से साक्षात्कार करवाता है। वे कहते हैं उन पाखंड़ी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उनके हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकड़ों वर्षों के अंधविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को जड़-मूल से निकाल फेंको। आओं, मनुष्य बनो।" मानवता का आध्यात्मिक उत्थान करना ही स्वामी जी की सबसे बड़ी प्रेरणा थी। धर्म, शिक्षा और कर्म का समन्वय ही समाज सेवा है। जुलाई, 1895 न्यूयार्क के थाउजे़ंड आइलैंड पार्क में ‘संन्यासी का गीत’ रचते हुए वे लिखते है-

सत्य न आता पास, जहाँ यश-लोभ-काम का वास,

पूर्ण नही वह, स्त्री में जिसको होती पत्नी भास,

अथवा वह जो किंचित् भी संचित रखता निज पास!

वह भी पार नहीं कर पाता है माया का द्वार

क्रोधग्रस्त जो अतः छोड़कर निखिल वासना-भार

गाओ धीर-वीर संन्यासी, गूंजे मन्त्रोच्चार,

.............    ओम् तत्सत् ओम्!

विरले ही तत्वज्ञ! करेंगे शेष अखिल उपहास,

निन्दा भी नरश्रेष्ठ, ध्यान मत दो, निर्बन्ध, अयास

यत्र-तत्र निर्भय विचरो तुम, खोलो मायापाश

अंधकार पीड़ित जीवों के! दुःख से बनो न भीत,

सुख में भी मत चाह करो, जाओ हे, रहो अतीत

द्वन्द्वो से सब, रटो वीर संन्यासी, मंत्र पुनीत,

.............    ओम् तत्सत् ओम्!11

मानव हित, समाजहित और भलाई के मार्ग पर चलना सरल नहीं है। सच्चे देशभक्त और संन्यासी को इस मार्ग पर चलना ही होगा तभी मानव का उद्धार संभव है। वे कहते हैं कि - “भलाई का मार्ग संसार में सबसे अधिक ऊबड़-खाबड़ तथा कठिन है। इस मार्ग पर चलने वालों की सफलता आश्चर्यजनक होती है। किन्तु इस मार्ग में गिर पड़ना भी कोई आश्चर्यजनक नहीं है। हजारों ठोकरें खाते-खाते हमें चरित्र को दृढ़ बनाना होगा।"12 दृढ़ इच्छाशक्ति ही सभी समस्याओं का समाधान है। भोगवाद से मुक्त होकर दूसरे मनुष्यों के प्रति संवेदना और सद्भावना ही मुक्ति का द्वार है। “जब पड़ोसी भूखा मरता हो, तब मंदिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं, पाप है। जब मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो तब हवन में घृत जलाना अमानुषिक कर्म है।"13

वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के इस युग में समस्त विश्व एक हथेली पर सिमट गया है जिसे हम स्मार्टफोन कहते है। इसके द्वारा विश्व की समस्त संस्कृतियों, आचार-व्यवहार, विभिन्न भाषाओं संस्कारों, परम्पराओं में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। पुनः पश्चिम जगत की भौतिक चकाचौंध ने भारतीयों के ऊपर अपना गहरा प्रभाव डाला है। सामाजिक बन्धन टूटने लगे है। नैतिकता और मूल्यों में जबरदस्त गिरावट आयी है। पारिवारिक संस्थायें बिखरने लगी हैं। प्रकृति दोहन अपने चरम पर है। युवाओ ने मातृभाषा, राजभाषा को छोड़कर पाश्यात्य भाषा को भावाभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया है। इंटरनेट की सुविधा के कारण हथेली में समाने वाले इस छोटे से यंत्र ने मनुष्यों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है। अपने भारतीय होने पर लज्जा का अनुभव करना, अपनी भाषा को दृष्टि से देखना आज के युवा की कमजोरी है क्योंकि वह अपने गौरवमयी अतीत और संस्कृति से अनभिज्ञ है। इन ऐसे समय में भारतीय युवाओं को पुनः विवेकानन्द को जानने और समझने की आवश्यकता है। ऐसे आधुनिक नवयुवकों के लिए विवेकानन्द जी की यह सलाह अवश्य प्रेरणा जागृत करेगी। वे कहतें है “तुम गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबाल के द्वारा ही स्वर्ग के अधिक समीप पहुँच सकोगे। ये कुछ कड़े शब्द हैं, पर मैं उन्हें कहना चाहता हूँ, क्योंकि मैं उन्हें प्यार करता हूँ। मैं जानता हूँ कि काँटा कहाँ चुभता है। मुझे इसका कटु अनुभव है। तुम्हारे स्नायु और मांसपेशियाँ अधिक मजबूत होनें पर तुम गीता अधिक अच्छी तरह समझ सकोगे। तुम, अपने शरीर में शाक्तिशाली रक्त प्रवाहित होने पर, श्रीकृष्ण के तेजस्वी गुणों और उनकी अपार शक्ति को अधिक समझ सकोगे। जब तुम्हारे शरीर मजबूती से तुम्हारे पैरों पर खड़ा रहेगा और तुम अपने को ‘मनुष्य’ अनुभव करोगे, तब तुम उपनिषद् और आत्मा की महानता को अधिक अच्छा समझ सकोगे।"14 इसलिए आत्मज्ञान, आत्मशक्ति के द्वारा स्वयं की पहचान करो और गर्व करो की तुम भारतीय हो। जिन आध्यात्मिक विचारों को लेकर हम विश्व में सबसे आगे हैं उन विचारों पर पुनः चिन्तन करो, आगे बढ़ो और संसार से कहो -

“जागो, उठो, सपनों में मत खोये रहो,

यह सपनों की धरती है, जहाँ कर्म

विचारों की सूत्रहीन मालाएँ गूँथता है,.....

साहसी बनो और सत्य के दर्शन करो,

उससे तादात्म्य स्थापित करो,

छायाभासों को शांत होने दो;

यदि सपने ही देखना चाहो तो

शाश्वत प्रेम और निष्काम सेवाओं के ही सपने देखो!"15

“स्वामी जी ने अपनी वाणी और कर्तव्य से भारतवासियों में यह अभिमान जगाया कि हम अत्यन्त प्राचीन सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं, हमारे धार्मिक ग्रंथ संसार में सबसे उन्नत हैं और हमारा इतिहास सबसे महान है। हमारी संस्कृत भाषा विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है और हमारा साहित्य सबसे उन्नत साहित्य है। यही नहीं, प्रत्युत हमारा धर्म ऐसा है, जो विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरा है।.... स्वामी जी की वाणी से हिंदुओं में यह विश्वास उत्पन्न हुआ कि उन्हें किसी के भी सामने मस्तक झुकाने अथवा लज्जित होने की आवश्यकता नहीं है। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रीयता पहले उत्पन्न हुई, राजनीतिक राष्ट्रीयता बाद को जनमी है। इस सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के पिता स्वामी विवेकानन्द थे।"16 मानव सेवा और मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति स्वामी विवेकानन्द का अवदान बहुआयामी है। सर्वधर्म समभाव की चेतना उन्होंने अखिल विश्व में अंकित की। आज का भारत अपने गौरव, अपनी स्मृति का पुनरावलोकन करें। अपने मानवीय मूल्यों को पहचानें। ऊपरी भौतिक चम-दमक से दूर होकर आत्मचिन्तन में लीन हों, तभी स्वामीजी द्वारा सहिष्णुता, विश्वबंधुत्व और मानवजाति के समत्व का धर्म प्रतिफलित होगा। मानव सेवा को ही ईश्वरीय सेवा स्वीकार करने वाले विवेकानन्द आजीवन विश्व मानवता के कल्याण में लगे रहे। उनकी प्रगतिशील विचारधारा आज भी प्रासंगिक है। आज भारतवासियों को आवश्यकता है स्वामी विवेकानन्द के बताए मार्ग पर आगे बढ़ने की। उनका प्रखर और प्रेरक व्यक्तित्व हमें निर्भीकता से आलोक में सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।

ओ देवता, निर्बाध बढ़ो, अपने पथ पर,

तब तक,

जब तक कि यह सूर्य आकाश के मध्य में न आ जाय-

जब तक तुम्हारा आलोक विश्व में प्रत्येक देश में प्रतिफलित न हो;

जब तक नारी और पुरुष सभी उन्नत मस्तक हो कर यह नहीं देखें 

कि उनकी जंजीरे टूट गयी

और नवीन सुखों के बसन्त में (उन्हें) नवजीवन मिला!17


संदर्भ ग्रंथ -

1. विवेकानन्द साहित्य - स्वामी स्वानन्द, अध्यक्ष अद्वैत आश्रम, पिथौरागढ़, पृष्ठ - 216, अंक - 10

2. विवेकानन्द चरित - श्री सत्येन्द्रनाथ मजूमदार, रामकृष्ण मठ, नागपुर, पृष्ठ - 449

3. स्वामी विवेकानन्द, मुंशी प्रेमचन्द, साहित्यागार, जयपुर, पृष्ठ - 16, 

4. विवेकानन्द साहित्य - स्वामी स्वानन्द, अध्यक्ष अद्वैत आश्रम, पिथौरागढ़, पृष्ठ - 121

5. विवेकानन्द साहित्य: स्वामी स्वानन्द अध्यक्ष अद्वैत आश्रम, पिथौरागढ़, हिमालय, पृष्ठ - 193 (अल्मोड़े से एक अमेरिकन मित्र को लिखित, जुलाई 9, 1897 ई.) भाग-10

6. स्वामी विवेकानन्द, मुंशी प्रेमचन्द, साहित्यागार जयपुर - पृष्ठ - 06, 

7. विवेकानन्द साहित्य- स्वामी स्वानन्द, पिथौरागढ़, पृष्ठ – 134 (दशम अंक)

8. विवेकानन्द साहित्य - चिंतनीय बातें, पृष्ठ - 38

9. स्वामी विवेकानन्द, मुंशी प्रेमचन्द, पष्ठ – 8

10. विवेकानन्द साहित्य - 17 मई 1894 ई. में हॉर्वर्ड क्रिमसन अंग्रेजी समाचार पत्र में प्रकाषित भाषण, पृष्ठ-283

11. विवेकानन्द साहित्य- स्वामी स्वानन्द, पिथौरागढ़, पृष्ठ – 175 (दशम अंक)

12. स्वामी विवेकानन्द, मुंशी प्रेमचन्द, साहित्यागार जयपुर, पष्ठ - 10

13. विवेकानन्द साहित्य - सुभाषित, पृष्ठ 215, दशम खण्ड

14. स्वामी विवेकानन्द, मुंशी प्रेमचन्द, साहित्यागार जयपुर, पष्ठ - 34

15. विवेकानन्द साहित्य: स्वामी स्वानन्द, अद्वैत आश्रम, पिथौरागढ़, हिमालय, पृष्ठ - 191-192 (अगस्त 1898 में ‘प्रबुद्ध भारत’ पत्रिका मद्रास से)

16. संस्कृति के चार अध्याय - रामधारीसिंह दिनकर, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ - 509

17. विवेकानन्द साहित्य - स्वामी स्वानन्द अद्वैत आश्रम, पिथौरागढ़, हिमालय, पृष्ठ - 204 (4 जुलाई, 1898 में कुछ अमेरिकन शिष्यों के साथ काश्मीर पर्यटन पर गये। वहाँ ‘मुक्ति’ कविता की रचना की।)


स्वामी विवेकानन्द और शिक्षा का स्वरूप

 स्वामी विवेकानन्द और शिक्षा का स्वरूप

स्वामी विवेकानंद जी भारतीय और विश्व इतिहास के उन महान व्यक्तियों में से हैं जो राष्ट्रीय जीवन को एक नई दिशा प्रदान करने में एक अमृतधारा के समान हैं| विवेकानंद जी के व्यक्तित्त्व और विचारों में भारतीय साँस्कृतिक परंपरा के सर्वश्रेष्ठ तत्व निहित थे| उनका जीवन भारत के लिए एक वरदान की तरह था| स्वामी विवेकानंद जी का संपूर्ण जीवन माँ भारती और भारतवासियों की सेवा हेतु ही समर्पित था, उनका व्यक्तित्त्व भी विशाल समुद्र की तरह था| वे आधुनिक भारत के एक आदर्श प्रतिनिधि होने के अतिरिक्त वैदिक धर्म एवं संस्कृति के समस्त स्वरूपों के उज्जवल प्रतीक थे| प्रखर बुद्धि के स्वामी और तर्क विचारों से सुसज्जित जलते हुए दीपक की भांति वे प्रकाशमान थे| उनके अंतःकरण में आलोकित प्रस्फुटित ज्वाला प्रज्ज्वलित होती है| “उनके विचार शिक्षा और दर्शन इतने प्रभावी हैं कि स्वामी जी के द्वारा दिए गए सैकड़ों वक्तव्यों में से कोई एक वक्तव्य महान क्रान्ति करने के लिए व्यक्ति के जीवन में आमूल परिवर्तन करने में समर्थ है|”1

विवेकानंद जी क्रांति की नई छवि को गढ़ने वाले एक महान विचारक थे| वे समाजोद्वार को आत्मोद्वार से जोड़कर देखने के हिमायती थे| यही उनकी क्रान्ति को भी एक नया आयाम देता है| “जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुँचा दे, और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें| हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है,यह सर्वसाधारण को जानने दो| विशेषकर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं, और तब उन्हें अपना निर्णय करने दें|”2

उठो, साहसी बनो और वीर्यवान होओ| सारे उत्तरदायित्त्व अपने कन्धों पर लो| यह याद रखो कि तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो| तुम जो कुछ भी बल या सहायता चाहो, सबकुछ तुम्हारे ही भीतर विद्यमान है| अतः इस ज्ञान रुपी शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो और अपने ही हाथों अपना भविष्य गढ़ डालो| स्वामी विवेकानंद जी का यह मानना है कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं सिखाता, प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही सीखता है| बाहरी शिक्षक तो अपना सुझाव मात्र ही प्रस्तुत करते हैं, जिनसे भीतरी शिक्षक को सीखने और समझने में प्रेरणा मिलती है| स्वामी जी ने उस समय की शिक्षा को निरर्थक बताते हुए कहा है कि “आप उस व्यक्ति विशेष को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएँ पास कर ली हों तथा अच्छे भाषण दे सकता हो| पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं कर सकती वो चरित्र निर्माण नहीं कर सकती, जो समाज सेवा की भावना को पैदा नहीं कर सकती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से भला हमें क्या लाभ है?”3

स्वामी विवेकानंद जी के इस कथन से यह स्पष्ट है कि शिक्षा के प्रति उनका व्यापक दृष्टिकोण रहा है| अतः स्वामी जी सैधांतिक शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, वे व्यावहारिक शिक्षा को ही व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे| व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिए तैयार करती है| इसलिए शिक्षा में उन तत्त्वों का होना आवश्यक है जो उसके भविष्य के लिए भी महत्त्वपूर्ण हो| इस संदर्भ में स्वामी जी ने भारतीयों को समय-समय पर सजग करते हुए यह कहा है कि “तुमको कार्य के प्रत्येक क्षेत्र को व्यावहारिक बनाना पड़ेगा| सिद्धांतों के ढेरों ने संपूर्ण देश का विनाश कर दिया है|”4

स्वामी विवेकानंद जी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के लिए सबको तैयार करना चाहते हैं| लौकिक दृष्टि से शिक्षा के संबंध में उन्होंने यह स्पष्ट ही कहा है कि हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलंबी बने| परलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा है कि शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है| स्वामी विवेकानंद जी ऐसे परंपरागत व्यावसायिक तकनीकी शिक्षा शास्त्री न थे जिन्होंने शिक्षा का क्रमबद्ध सुनिश्चित विवरण दिया हो| वह मुख्यतः एक दार्शनिक, देशभक्त, समाज सुधारक और दिव्यात्मा थे| जिनका लक्ष्य अपने देश और समाज की खोई हुई जनता को जगाना तथा उसे नवनिर्माण के पथ पर अग्रसर करना था| शिक्षा दर्शन के क्षेत्र में विवेकानंद जी की तुलना विश्व के महानतम शिक्षा शास्त्रियों प्लेटो और रूसो तथा ब्रैटलैंड रसेल से की जा सकती है| क्योंकि उन्होंने शिक्षा के कुछ सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं जिनके आधार पर विशाल ज्ञान का भवन निर्माण तकनीकी रूप से भी कर सकते हैं|

विवेकानंद जी की रग-रग में भारतीयता तथा आध्यात्मिकता कूट-कूट कर भरी हुई थी| अतः उनके शिक्षा के स्वरूप का आधार भी भारतीय वेदांत या उपनिषद ही रहे| उनका प्रमुख उद्देश्य था मानव का नव निर्माण क्योंकि व्यक्ति ही समाज का मूल आधार है| व्यक्ति के सर्वांगीण उत्थान से समाज का भी सर्वांगीण उत्थान होता है, और व्यक्ति के पतन से ही समाज का भी पतन होता है| स्वामी जी ने अपने शिक्षा स्वरूप में व्यक्ति और समाज दोनों के समरस संतुलित विकास को ही शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य माना| स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार वेदांत दर्शन में प्रत्येक बालक में असीम ज्ञान और विकास की संभावना है परन्तु उन शक्तियों का पता नहीं है| शिक्षा द्वारा उसे इनकी प्राप्ति करवाई जाती है तथा उनके उत्तरोत्तर विकास में छात्र की सहायता की जाती है|स्वामी विवेकानन्द जी वेदांती थे इसलिए वे मनुष्य को जन्म से पूर्ण मानते थे और इस पूर्णता की अभिव्यक्ति को ही शिक्षा कहते थे| स्वामी जी के ही शब्दों में “मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को व्यक्त करना ही शिक्षा है|”5

स्वामी विवेकानंद जी शिक्षा के संबंध में कहते हैं कि सच्ची शिक्षा वह है जिससे मनुष्य की मानसिक शक्तियों का ऐसा विकास है जिससे वह स्वयमेव स्वतंत्रतापूर्वक विचार कर सही निर्णय कर सकें| आज की इक्कीसवीं शताब्दी के इस बदलते परिवेश जहाँ सूचना एवं प्रौद्योगिकी का युग चल रहा है, ऐसे में स्वामी विवेकानन्द जी के चिन्तन को अपनाना आवश्यक हो जाता है| स्वामी जी ने शिक्षा के वर्तमान स्वरूप को अभावात्मक बताते थे जिनके विद्यार्थियों को अपनी संस्कृति का ज्ञान नहीं, उन्हें जीवन के वास्तविक मूल्यों का पाठ नहीं पढ़ाया जा सकता है तथा उनमें श्रद्धा का भाव भी नहीं पनपता है| उनके अनुसार भारत के पिछड़ेपन के लिए वर्तमान शिक्षा पद्वति ही उत्तरदायी है, यह शिक्षा न तो उत्तम जीवन जीने की तकनीक प्रदान करती है और न ही बुद्धि का नैसर्गिक विकास करने में सक्षम हैं| स्वामी विवेकानन्द जी ने आधुनिक शिक्षा पद्वति की आलोचना करते हुए यह लिखा है कि “ऐसा प्रशिक्षण जो नकारात्मक पद्वति पर आधारित हो मृत्यु से भी बुरा है|”6

स्वामी जी भारतीयों के लिए पाश्चात्य दृष्टिकोण से प्रभावित शिक्षा पद्वति के स्थान पर भारतीय गुरुकुल पद्वति को श्रेष्ठ मानते थे जिसमें विद्यार्थियों तथा शिक्षकों में निकटता के संबंध तथा संपर्क रह सके और विद्यार्थियों में श्रद्धा, पवित्रता, ज्ञान, धैर्य, विश्वास, विनम्रता, आदर इत्यादि गुणों का भी विकास हो सके| स्वामी विवेकानन्द भारतीय शिक्षा पाठ्यक्रम में दर्शनशास्त्र एवं धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन को भी आवश्यक मानते थे| वे एक ऐसी शिक्षा के समर्थक थे जो संकीर्ण मानसिकता तथा भेदभाव साम्प्रदायिकता के दोषों से मुक्त हो| विवेकानंद के अनुसार शिक्षा का मूल उद्देश्य जिसमें व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो| उत्तम चरित्र, मानसिक शक्ति और बौद्धिक विकास हो, जिससे व्यक्ति पर्याप्त मात्रा में धन भी अर्जित कर सके और आपात कल के लिए धन का संचय भी कर सके| स्वामी विवेकानन्द के हृदय में गरीबों तथा पददलितों के प्रति असीम संवेदना भी थी| उन्होंने कहा भी राष्ट्र का गौरव महलों में सुरक्षित नहीं रह सकता, झोपड़ियों की दशा भी सुधारनी होगी| विवेकानन्द की समाजवादी अंतरात्मा ने चीत्कार कर कहा कि “मै उस भगवान या धर्म पर विश्वास नहीं कर सकता जो न तो विधवाओं के आँसू पोछ सकता है और न तो अनाथों के मुँह में एक टुकड़ा रोटी ही पहुँचा सकता है| “7

विवेकानन्द जी ने खुद पर विश्वास करने की प्रेरणा दी| आत्मविश्वास रखने पर ही व्यक्ति में कुछ करने की क्षमता विकसित होती है और आत्मविश्वासी समाज ही समस्त बाधाओं को लाँघकर ऊपर उठता है| विवेकानन्द जी ने कहा लोग कहते हैं इस पर विश्वास करो, उस पर विश्वास करो, मै कहता पहले अपने आप पर विश्वास करो| सर्वशक्ति तुममे है कहो हम सब कर सकते हैं| स्वामी विवेकानन्द जी ने नारी उत्थान के लिए स्त्री शिक्षा पर वल देते हुए कहा कि “पहले अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो, तब वे आपको बताएँगे कि उनके लिए कौन से सुधार आवश्यक हैं, उनके मामले में बोलने वाले तुम कौन होते हो| समाज स्त्री-पुरुष दोनों से मिलकर बना है| दोनों की शिक्षा पर ही देश का पूर्ण विकास संभव है| पक्षी आकाश में एक पंख से नहीं उड़ सकते, उसी प्रकार देश का सम्यक उत्थान मात्र पुरुषों की शिक्षा से ही संभव नहीं है| स्त्रियों को पुरुषों के समान ही शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर सुलभ होना चाहिए|”8

भारत एक निर्धन देश है और यहाँ की अधिकाँश जनता मुश्किल से ही अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाती है| स्वामी विवेकानन्द जी ने इस तथ्य एवं सत्य को हृदयंगम किया तथा यह भी अनुभव किया कि कोरे आध्यात्म से ही जीवन नहीं चल सकता जीवन चलाने के लिए कर्म आवश्यक है| इसके लिए उन्होंने शिक्षा के द्वारा मनुष्य को उत्पादन एवं उद्योग कार्य तथा अन्य व्यवसायों में प्रशिक्षित करने पर बल दिया| स्वामी विवेकानंद का विचार, दर्शन और शिक्षा अत्यंत उच्चकोटि की है| जीवन के मूल सत्यों रहस्यों और तथ्यों को समझने की कुंजी है| उनके द्वारा कहे गये एक-एक शब्द इतने असरदार हैं कि एक मुर्दे भी जान फूंक सकते हैं| वे मानवता के सच्चे प्रतीक थे, हैं और मानव जाति के अस्तित्त्व को जनसाधारण के पास पहुँचाने का अभूतपूर्व कार्य किया| वे अद्वैत वेदांत के बहुत ही प्रबल समर्थक थे| उन्होंने अपनी संस्कृति को जीवित रखने हेतु भारतीय संस्कृति के मूल अस्तित्त्व को बनाए रखने का आह्वान किया ताकि आने वाली भावी पीढ़ी पूर्ण पूर्ण संस्कारिक नैतिक गुणों से युक्त न्यायप्रिय, सत्यधर्मी और आध्यात्मिक तथा भारतीय आदर्श के सच्चे प्रतीक के रूप में विश्व में अपना वर्चस्व बनाये रखे| 

इस दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि स्वामी विवेकानन्द जी युग द्रष्टा और युग स्रष्टा दोनों ही थे| युगद्रष्टा की दृष्टि से उन्होंने अपने समय की स्थिति को देखा और समझा था और युगस्रष्टा उस द्रष्टि की उन्होंने नव भारत की नीव रखी थी| वे भारतीय धर्म दर्शन की व्यवस्था आधुनिक परिप्रेक्ष्य में करने वेदांत को व्यावहारिक रूप देने एवं उसका प्रचार करने और समाज सेवा एवं समाज सुधार करने के लिए बहुत प्रसिद्ध है, परन्तु इन्होने शिक्षा की आवश्यकता पर बहुत बल दिया और नवभारत के निर्माण के लिए तत्कालीन शिक्षा हेतु अनेकों सुझाव दिए| हमारे राष्ट्र की आत्मा झुग्गी-झोपडी में निवास करती है अतः शिक्षा के दीपक को घर-घर ले जाना होगा| तभी जाकर सारा जन समाज प्रबुद्ध हो सकेगा| शिक्षा मन्दिर के द्वार सभी व्यक्तियों के लिए खोल दिया जाएँ,जिससे समाज का कोई भी व्यक्ति अनपढ़ न रहे| शिक्षा आज़ाद हो| दृढ लगन और कर्म की शिक्षा ही जनसमूह को उचित शिक्षा दिला सकती है| शिक्षा के द्वारा देश के विकास को चरम पर ले जाए और सर्व धर्म के द्वारा सच्ची मानवता को अपनाकर ईश्वर की सेवा करे|

संदर्भ ग्रन्थ:

1- विवेकानन्द साहित्य, खंड-05 पृष्ठ-138-139

2- विवेकानन्द साहित्य, खंड-02 पृष्ठ-321

3- शिक्षा दर्शन एवं पाश्चात्य तथा भारतीय शिक्षा शास्त्री, सक्सेना एन.आर. स्वरूप, पृष्ठ-344 संस्करण-2009

4- वही

5- भारतीय राजनीतिक विचारक, जैन पुखराज, पृष्ठ-148, साहित्य पब्लिकेशन आगरा, संस्करण-2002

6- शोध समीक्षा और मूल्यांकन, संपादक-कृष्ण वीर सिंह, नवंबर-जनवरी-2009 राजस्थान

7- स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक चिंतन प्रासंगिकता, कुमार भावेश, जनवरी-2010 वर्ष-30 अंक-03 पृष्ठ-46

8- वही, पृष्ठ-48

 

 

                                                                                                                                  डॉ.महात्मा पाण्डेय

    सहायक आचार्य एवं शोध निर्देशक

हिन्दी विभाग,साठेय महाविद्यालय

विले पार्ले (पूर्व),मुंबई-४०००५७

मो.नंबर-८४५४०२८१८५

ईमेल-mahatmapandey1982@gmail.com


ताशकंद – एक शहर रहमतों का” : सांस्कृतिक संवाद और काव्य-दृष्टि का आलोचनात्मक अध्ययन

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