बिखरी संस्कृतियाँ हैं ;
अवमाननावों की संकुचित राजनीती है ;
तड़पती इंसानो की स्मृति है ;
धर्मान्धता तर्क की आहुति बनी है ;
सज्जनता मौन की वाहक बनी है ;
क्यूँ न मरे हम तुम इस महफ़िल में ;
चिल्लाहट ,तोड़ फोड़ ,खून खराबा ,
सच्चाई की मानक बनी हैं /
किन जज्बातों को मानू ;
किन अरमानो को जानू ;
क्या नही बदला तुझमे ;
जो तुझे अपना मानू ?
क्या भावों में सत है ;
क्या आखों में तप है ;
क्या बाकी है तुझमे ;
जो तुझे अपना जानू ?
कब यादों को तुने साधा ;
मेरी यादों से है तू भागा;
भुला रोई आखों के वादे भी ;
कैसे तुझे अपना मानू ?
अक्स आखों से दिल में उतर गया ;
आंसू दिल का आखों से गुजर गया ;
तेरी अदावत का लुत्फ़ भी ले लेते लेकिन ;
न जाने क्यूँ तेरा दिल बाँहों में पिघल गया ;
तू गैर की है यकीं है मुझे ;
मुझे देख के तेरा आंसू निकल गया ;
तेरी मोहब्बत से गुरेज करूँ कैसे ;
मेरे पास आते ही तेरा अरमां मचल गया ;
क्या करूँ अपने भावों का मै ;
मेरा हर लम्हा तुझमे सिमट गया /
अमरकांत : जन्म शताब्दी वर्ष डॉ. मनीष कुमार मिश्रा प्रभारी – हिन्दी विभाग के एम अग्रवाल कॉलेज , कल्याण पश्चिम महार...