Monday, 8 May 2023

सृजनात्मकता

 अब अक्सर 

अपनों के बीच 

वह लावारिस स्थिति में 

पड़ी रहती है चुपचाप

हालांकि उसका संबंध

संकल्पों, विकल्पों की मनोदशा से

बहुत ही पुराना है।


उसका विनम्र चेहरा 

कितनी ही उलझनों को

सुलझाता रहा है

उसके पास होने की शर्त 

बस इतनी है कि

आप 

अधिक से अधिक

सहिष्णु, संवेदनशील 

और मानवीय हों।


लेकिन आज 

सत्ता, अर्थतंत्र और धर्म की तिकड़ी 

वैचारिक रीढ़ के अभाव में

उन्माद से भरे हुए हैं

परिणामतः

समाज की परिधि से

वह लगातार

निर्वासित हो रही है।


प्रचारित विज्ञापन

प्रचलित किए गए सिद्धांत

छलाओं का मायाजाल 

मिलकर बुन रहे हैं

एक ऐसी संस्कृति

जो दरअसल

विकृत एवं विभत्स का

समुच्चयात्मक कूड़ा है 

जिसके नीचे 

उसे 

खोदकर गाड़ने की 

तैयारी भी जारी है।


संवादहीनता, आत्मकेंद्रियता

बिखराव, कलह 

और मनोरंजक विवादों के बीच

उसकी सादगी

उसके मूल्य 

इस नई व्यवस्था में

लगभग सभी को

असहनीय लग रहे हैं ।


जड़ताओं के बीच

उसकी जगह 

छोटी होती जा रही है

वैचारिक सतहीकरण के बीच

नगण्य सी स्थिति में

वह कमतर आंकी जा रही है

उन चमकीले, चिकने मुखौटों की तुलना में

जो 

बाजार की ताकत से

कमजर्फी से फूले हुए, फूले नहीं समा रहे 

इन सब के बीच 

किसी अंधेरे कोने में धकियाई हुई 

वह चुप है

अपनी उपेक्षा पर

लेकिन क्रोध से

लाल हो रही हैं, उसकी आंखें ।


बाजार को भरोसा है

कि धीरे - धीरे 

सब उसके अनुकूल होगा

जल, जंगल और ज़मीन ही नहीं

विचार और सपने भी

उनके गुलाम होंगे।


दुनियां की गतिशीलता में

साझी ज़मीन

असहमतियों से पनपी

 सहमति के बिना

अंततः ख़ारिज हो जायेगी

और वह 

एक अचरज भरी पहेली की तरह

बिना सही पते की

कोई चिट्ठी हो जायेगी।


उसके पास

व्यथा की

कितनी कथाएं होंगी ?

कितना कुछ

बचाने का रक्षा सूत्र भी !!

लेकिन

इस नई व्यवस्था में

उसपर भरोसा किसे है ?


वह

किसी भी तरह

बिकाऊ नहीं है

यही उसकी अंतर्निहित शक्ति है

पर चतुर लोग

उसे समझाते हैं कि

भ्रम तोड़ो !!

अपनी कब्र

ख़ुद मत खोदो !!


मनुष्य होने की आग

अपने अंतर्निहित स्रोतों में ही

मद्धिम हो चली है

मनुष्य का अस्तित्व

भ्रम का 

एक मकड़जाल सा हो गया है

ऐसे में

एकमुश्त सच यही है कि

उसकी चुप्पी

उसका निर्वासन

कानों में पिघलते

गर्म शीशे की तरह

पीड़ादायक एवं असहनीय है ।


मनुष्यता की हत्या के लिए

उसपर यह बेरहमी 

बेहद जरूरी है

जरूरी है उसे इतनी यातना देना

कि उसकी आत्मा छिल जाए 

ताकि उसकी आखों से

आंसू नहीं रक्त बहे।


मैं

उसके खिलाफ नहीं

पर साथ भी कहां हूं ?

लेकिन

अपनी तटस्थता को तोड़ते हुए

मैं पहुंच रहा हूं उस तक 

हर संभव

अतिक्रमण के साथ।


उसकी तमाम पीड़ाएं

अपने आप में

एक युद्ध है 

जो लड़ा जा रहा है

इस ध्येय वाक्य के साथ कि -

डरो मत ।


इस स्याह रात की 

निस्तब्धता में भी

उसकी चेतना की 

निष्कम्प लौ

परिमार्जन, परिष्कार की

उम्मीद को 

बचाए हुए है ।


विज्ञापित मूल्योंवाला

यह छिन्न -भिन्न समय

एक दिन

अपने तिलिस्म में ही

दरकने लगेगा

फिर उसकी चुप्पी 

सिसकी में बदलते हुए

झरने की तरह

फूट पड़ेगी  ।


उसपर

मेरा विश्वास पुख्ता है 

इस निरीह समय में

मुझे अब भी

उसी से उम्मीद है

क्योंकि उसका अतीत

विराट संकल्पों के 

आस्था का इतिहास है । 


            डॉ मनीष कुमार मिश्रा 






Sunday, 7 May 2023

विवेकपूर्ण चुप्पियों के बीच

 












12. विवेकपूर्ण चुप्पियों के बीच 


ख़ारिज करने की प्रवृत्तियों के साथ

अपनी आत्मकेंद्रियता

अपने स्व के

संकुचन के साथ

तथाकथित सभ्यता में

सभ्य हो रहे हैं

अपनी कूपमंडूकता में

 सभी के पास

अपने मनपसंद झूठ हैं

झूठ से भी बड़े 

झूठ के दावे हैं।


इन अंधों के बीच

एक हाँथी भी है

जिसकी व्याख्या करने में

केशकंबली के उच्छेदवाद की

बड़ी सहायता होती

बुद्ध के मध्यम मार्ग की

यहां झलक भी नहीं है

भेड़ियों का हुजूम 

हिकारत भरी नज़र से

मनुष्यता को

लहूलुहान कर रहा है।


मुखौटे की ओट में

दमनमूलक सत्ता

सहअस्तित्व और 

आत्मा की सत्ता को नकार कर

देह के शिकार में

पूरी तरह व्यस्त है

डरा सहमा विवेक

सबकुछ खोकर

अपनी चुप्पी बचाने में

कामयाब है।


इन बची हुई

विवेकपूर्ण चुप्पियों के बीच

चित्कार व आक्रोश का

ज्वाला फूटना चाहिए

अन्यथा

चुप्पी की नई सभ्यता में

सभ्य

क्या कुछ होगा ?

                डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

तेरे व्हाट्सअप डीपी को

 











मैं सब की नज़रे बचाकर छुपाकर देखता हूं 

तेरे व्हाट्सअप डीपी को कई बार देखता हूं ।


तुम्हारे साथ वाली उस पुरानी ग्रुप फ़ोटो को 

ज़ूम करके मोबाईल को घुमाकर देखता हूं।


फेसबुक प्रोफ़ाइल लॉक है जानता हूं मगर

तेरा नाम लिख सर्च बटन दबाकर देखता हूं।


यूं तो सालों से तुम्हारा कोई कॉल नहीं आया

मैं मिस्ड कॉल में तेरा नाम जाकर देखता हूं ।


कभी कभी तो मैं इतना बेचैन हो जाता हूं कि

सोचता हूं सारे गिले शिकवे मिटाकर देखता हूं।


जब कभी बात मेरे बरदाश के बाहर होने लगी 

तब ये सोचा कि अब फ़ोन लगाकर देखता हूं।


मिल जाओगी कहीं अचानक ही जब कभी भी

सोचा यह भी कि तुम्हें गले से लगाकर देखता हूं। 


ठीक है मेरी भी गलती थी तो सह लूंगा थोड़ा सा

सोचा तुम्हारे हांथ के दो थप्पड़ खाकर देखता हूं ।


                 डॉ मनीष कुमार मिश्रा 




Saturday, 6 May 2023

जुदा सबसे मेरे यार के अंदाज़ हैं

 











जुदा सबसे मेरे यार के अंदाज़ हैं 

नए नए परिंदों के नए परवाज हैं ।


तुफानों से बचकर निकले थे जो

साहिल पे डूबे ऐसे कई जहाज हैं ।


अभी चुप ही रहो कुछ भी ना कहो

कि बड़े गरम अभी उनके मिजाज़ हैं ।


सुन सको तो कभी सुनना ध्यान से 

चुप्पियों से भरी कितनी ही आवाज़ हैं । 


मैंने कहा कि प्यार है तुमसे बेइंतहां

बस इतनी सी बात पर हुज़ूर नाराज़ हैं।

               डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

Friday, 5 May 2023

मगर वो भी तो

 


















वैसे मेरी ये आदत अच्छी नहीं है

मगर वो भी तो कोई बच्ची नहीं है।


होना था तो इश्क हो गया क्या है

वैसे भी हमारी उम्र कच्ची नहीं है। 


एतबार उसका भला करता कैसे 

जानता हूं वो मुझसी सच्ची नहीं है।


मुझे सुना दो जो भी चाहो लेकिन

जो झेला नहीं उसकी जलती नहीं है।


वो फरेबी है ये मैं जानता हूं मगर

आरजू उसकी दिल से मिटती नहीं है ।

                 डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

कल रात ख़्वाब में

 




कल रात ख़्वाब में तुझसे मिलना हुआ

सितारों ने चादर समेटी सब सपना हुआ ।


मेरे कमरे से तेरी भीनी खुशबू आ रही है

कल तुझसे कितना कहना - सुनना हुआ । 


अगर तुम सच में जो मिलने आओ कभी

यह ख़्वाब का हकीकत में बदलना हुआ ।


बस एक नज़र भर के जो देखा तुझे तो

मेरे अंदर कई अरमानों का मचलना हुआ ।


राह चिकनी थी बड़ी सो संभल नहीं पाए

फिर क्या कि इश्क में बस फिसलना हुआ ।

          डॉ मनीष कुमार मिश्रा 








अभी चुप भी रहो ।

 











जुदा सबसे मेरे यार के अंदाज़ हैं 

नए नए परिंदों के नए परवाज हैं ।


तुफानों से बचकर निकले थे जो

साहिल पे डूबे ऐसे कई जहाज हैं ।


अभी चुप ही रहो कुछ भी ना कहो

कि बड़े गरम अभी उनके मिजाज़ हैं ।


सुन सको तो कभी सुनना ध्यान से 

चुप्पियों से भरी कितनी ही आवाज़ हैं । 


मैंने कहा कि प्यार है तुमसे बेइंतहां

बस इतनी सी बात पर हुज़ूर नाराज़ हैं।

              डॉ मनीष कुमार मिश्रा 


अमरकांत : जन्म शताब्दी वर्ष

          अमरकांत : जन्म शताब्दी वर्ष डॉ. मनीष कुमार मिश्रा प्रभारी – हिन्दी विभाग के एम अग्रवाल कॉलेज , कल्याण पश्चिम महार...