Monday, 9 April 2018

मुझे आदत थी ।



मुझे आदत थी
तुम्हें रोकने की
टोकने की
बताने और
समझाने की ।

मुझे आदत थी
तुम्हें डाँटने की
सताने की
रुलाने और
मनाने की ।

मुझे आदत थी
तुम्हें कहने की
बिगड़ने की
तुम्हारा हूँ
यह जताने की ।

लेकिन
यह सब करते हुए
भूल गया कि
तुम
इनसब के बदले
नाराज़ भी हो सकती हो
वो भी इतना कि
छोड़ ही दो
मुझे
मेरी आदतों के साथ
हमेशा के लिए ।

अब
जब नहीं हो तुम
तो इन आदतों को
बदल देना चाहता हूँ
ताकि
शामिल हो सकूँ
तुम्हारे साथ
हर जगह
तुम्हारी आदत बनकर ।

      ------  मनीष कुमार मिश्रा ।

Tuesday, 6 March 2018

तुम्हारी एक मुस्कान के लिए ।


तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
कितना बेचैन रहता ?
मन का बसंत 
मनुहारों की लंबी श्रृंखलाओं में
समर्पित होते
न जाने कितने ही
निर्मल,निश्छल भाव ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
गाता
अनुरागों का राग
बुनता सपनों का संसार
और छेड़ता
तुम्हारे हृदय के तार ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
अनगिनत शब्दों से
रचता रहता महाकाव्य
अपनी चाहत को
देता रहता धार ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
जनवरी में भी
हुई झमाझम बारिश और
अक्टूबर में ही
खेला गया फ़ाग ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
उतर जाता इतना गहरा
कि डूब जाता
उस रंग में जिसमें
कि निखर जाता है प्यार ।
तुम्हारी हर एक मुस्कान
मानों प्रमाणित करती
मेरे किसी कार्य को
ईश्वर के
हस्ताक्षर के रूप में ।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए
मेरे अंतिम शब्दों में भी
एक प्रार्थना होगी
जो तुम सुन सकोगी
अपने ही भीतर
मौन के उस पर्व में
जब तुम खुद से मिलोगी
कभी जब अकेले में ।
--------- मनीष कुमार मिश्रा

यूँ तो संकीर्णताओं को वहन कर रहे हैं

यूँ तो संकीर्णताओं को वहन कर रहे हैं
और शोर है परिवर्तन गहन कर रहे हैं ।
हम आसमान की ओर बढ़ तो रहे हैं
पर अपनी जड़ों का हवन कर रहे हैं ।
रावण के पक्ष में खुद को खड़ा कर के
ये हर साल किसका दहन कर रहे हैं ?
जब कुछ करने का वक़्त है आज तो
हम हाँथ पर हाँथ धरे मनन कर रहे हैं ।
देश के घायल सैनिकों पर आरोप है कि
वे मानवाधिकारों का हनन कर रहे हैं ।
ग़ुलामी की जंज़ीरें जब तोड़ दी गई हैं तो
ये किस मानसिकता का जतन कर रहे हैं ?
उन मजदूरों के हिस्से में क्यों कुछ भी नहीं
जो मेहनत से एक धरा और गगन कर रहे हैं ।
भगौड़े भाग रहे हैं विदेश,देश को लूटकर
हमारे रहनुमा हैं कि भाषण भजन कर रहे हैं ।
------------- मनीष कुमार ।

पिछली ऋतुओं की वह साथी ।


पिछली ऋतुओं की वह साथी
मुझको कैसे तनहा छोड़े
स्मृतियों में तैर-तैर कर
वो तो अब भी नाता जोड़े ।
सावन की बूंदों में दिखती
जाड़े की ठंडक सी लगती
अपनी सांसों का संदल
मेरी सांसों में भरती ।
मेरे सूखे इस मन को
अपने पनघट पर ले जाती
मेरी सारी तृष्णा को
तृषिता का भोग चढ़ाती ।
इस एकाकी मौसम में
वह कितनी अकुलाहट देती
मेरे प्यासे सपनों को
अब भी वो सावन देती ।
पिछली ऋतुओं की वह साथी
आँखों का मोती बनती
मेरी सारी झूठी बातों को
केवल वो ही सच्चा कहती ।
----------मनीष कुमार मिश्रा ।

रंग-ए-इश्क़ में

वह सर्दियों की धूप सी भली लगती
मुझे मेरे रंग-ए-इश्क़ में ढली लगती ।
जहाँ बार-बार लौटकर जाना चाहूँ
वह प्यार वाली ऐसी कोई गली लगती ।
कहने को कोई रिश्ता तो नहीं था पर
मेरे अंदर मेरी रूह की तरह पली लगती ।
जब बंद दिखायी पड़ते सब रास्ते तब
वह उम्मीद की खिड़की सी खुली लगती ।
दुनियादारी की सारी उलझनों के बीच
वही एक थी कि जो हमेशा भली लगती ।
कोई अदा थी या कि मासूमियत उसकी
मौसम कोई भी हो वह खिली खिली लगती ।
जितना भी पढ़ पाया उसकी आँखों को
वो हमेशा ही मुझे मेरे रंग में घुली लगती ।
--------- मनीष कुमार ।

Wednesday, 28 February 2018

इस दौर ए निज़ाम में ।


तेरी आँखों से मेरा एक ख़ास रिश्ता है
एक सपना है जो यहीं से हौंसला पाता है ।
शिकार हो जायेंगे हर हाल में सवाल सारे
इस दौर ए निज़ाम में यह व्यवस्था पुख्ता है ।
तोड़ दिये गये हैं सब दाँत निरर्थक बताकर
क्योंकि चाटने की परंपरा में काटना समस्या है ।
विश्व के इस सबसे बड़े सियासी लोकतंत्र में
आवाम की कोई भी मजबूरी सिर्फ़ एक मौक़ा है ।
अपराधियों की श्रेणी में अब वो सब शामिल हैं
जिनका कि खून व्यवस्था के ख़िलाफ़ खौलता है ।
जब कोई आख़री पायदान से चीख़ता-चिल्लाता है
तो यक़ीनन वह उम्मीद की नई मशाल जलाता है ।
तुम्हें अब तक जितनी भी शिकायत रही है मुझसे
वो तेरे इश्क़ का अंदाज़ है जो मुझे बहुत भाता है ।
----------------- मनीष कुमार मिश्रा

Tuesday, 27 February 2018

जब तुम्हें लिखता हूँ ।

जब तुम्हें लिखता हूँ
तो मन से लिखता हूँ
तुम्हारे मन में
बैठकर लिखता हूँ  ।

जब तुम्हें लिखता हूँ
तो जतन से लिखता हूँ
हर शब्दों को
चखकर लिखता हूँ ।

जब तुम्हें लिखता हूँ
तो बसंत लिखता हूँ
होली के रंग में
तुम्हें रंगकर लिखता हूँ ।

जब तुम्हें लिखता हूँ
तो पुरवाई लिखता हूँ
तुम्हारी आस में
अपनी प्यास लिखता हूँ ।

जब तुम्हें लिखता हूँ
तो दिल खोलकर  लिखता हूँ
न जाने कितने सारे
बंधन तोड़कर लिखता हूँ ।

जब तुम्हें लिखता हूँ
तो खुशी लिखता हूँ
आँख की नमी को
तेरी कमी लिखता हूँ ।

              -------मनीष कुमार मिश्रा ।











ताशकंद – एक शहर रहमतों का” : सांस्कृतिक संवाद और काव्य-दृष्टि का आलोचनात्मक अध्ययन

✦ शोध आलेख “ताशकंद – एक शहर रहमतों का” : सांस्कृतिक संवाद और काव्य-दृष्टि का आलोचनात्मक अध्ययन लेखक : डॉ. मनीष कुमार मिश्र समीक्षक : डॉ शमा ...