Tuesday, 6 March 2018

रंग-ए-इश्क़ में

वह सर्दियों की धूप सी भली लगती
मुझे मेरे रंग-ए-इश्क़ में ढली लगती ।
जहाँ बार-बार लौटकर जाना चाहूँ
वह प्यार वाली ऐसी कोई गली लगती ।
कहने को कोई रिश्ता तो नहीं था पर
मेरे अंदर मेरी रूह की तरह पली लगती ।
जब बंद दिखायी पड़ते सब रास्ते तब
वह उम्मीद की खिड़की सी खुली लगती ।
दुनियादारी की सारी उलझनों के बीच
वही एक थी कि जो हमेशा भली लगती ।
कोई अदा थी या कि मासूमियत उसकी
मौसम कोई भी हो वह खिली खिली लगती ।
जितना भी पढ़ पाया उसकी आँखों को
वो हमेशा ही मुझे मेरे रंग में घुली लगती ।
--------- मनीष कुमार ।

No comments:

Post a Comment

Share Your Views on this..

डॉ मनीष कुमार मिश्रा अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सेवी सम्मान 2025 से सम्मानित

 डॉ मनीष कुमार मिश्रा अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सेवी सम्मान 2025 से सम्मानित  दिनांक 16 जनवरी 2025 को ताशकंद स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज ...