मन क़ी वीणा के तारों को,
टूटे उतने ही साल हुए हैं .
जितने सालों से तुमने,
ना क़ी कोई भी बात प्रिये .
इन सालों को उम्र में मेरी ,
शामिल बिलकुल मत करना .
इनका तो मेरे दिल से,
नहीं कोई सम्बन्ध प्रिये.
-----अभिलाषा
Thursday, 25 February 2010
वो जब पास होती है,
वो जब पास होती है,
धडकन तेज होती है.
लब खामोश होते हैं,
आँखों से सारी बात होती है ..
वो सबसे मिलती है ,
हंस कर बातें करती है.
पर आकर मेरे पास,
जाने क्यों घबराई होती है.
धडकन तेज होती है.
लब खामोश होते हैं,
आँखों से सारी बात होती है ..
वो सबसे मिलती है ,
हंस कर बातें करती है.
पर आकर मेरे पास,
जाने क्यों घबराई होती है.
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वो जब पास होती है
होली का त्यौहार है.

प्यार क़ी फुहार है.
गले लग जाओ यारों,
होली का त्यौहार है .
टोली में निकलो ,
सब संग खेलो .
बुरा मत मानों यारों,
होली का त्यौहार है .
कजरी भी गाओ,
फगुआ भी गाओ.
झूमो,नाचो,गाओ यारों,
होली का त्यौहार है.
चोली भिगाओ,
चुनरी भिगाओ.
भर लो बाँहों में यार याँरो,
होली का त्यौहार है.
(इस कविता के साथ लगे फोटो पर मेरा कोई अधिकार नहीं है. यह मुझे मेल के रूप में मिला है.इसका लिंक egreetings.india.gov.in.page-archive.org/user. है. )
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होली का त्यौहार है.
Wednesday, 24 February 2010
रीति काल पर दो दिन का राष्ट्रीय सेमिनार :डॉ.शशि मिश्रा
रीति काल पर दो दिन का राष्ट्रीय सेमिनार
आप को जान कर ख़ुशी होगी कि मुंबई के महर्षि दयानंद महाविद्यालय ,परेल में आगामी ०३ और ०४ मार्च २०१० को महाविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा दो दिनों का राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया जा रहा है. यु.ज़ी.सी. द्वारा प्रायोजित इस सेमिनार में देश के कई जाने-माने विद्वान सहभागी हो रहे हैं.
आप यदि इस सेमिनार में सहभागी होना चाहते हैं तो आप का स्वागत है. आप अधिक जानकारी के लिए महाविद्यालय क़ी हिंदी विभाग प्रमुख श्रीमती डॉ.शशि मिश्रा जी से उनके मोबाइल -०९८३३६२१९३८ पे सम्पर्क कर सकते हैं.महाविद्यालय तक पहुँचने के लिए ttp://maps.google.com/maps?f=d&source=sh_d&saddr=महार्ष इस गूगल मैप लिंक का सहारा लिया जा सकता है .महाविद्यालय का पता निम्नलिखित है-
Maharshi Dayanand College,Parel, Dr SS Rao Rd, Parel, Mumbai, Maharashtra, India
आपका सेमिनार में स्वागत है ***
डॉ.शशि मिश्रा
आप को जान कर ख़ुशी होगी कि मुंबई के महर्षि दयानंद महाविद्यालय ,परेल में आगामी ०३ और ०४ मार्च २०१० को महाविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा दो दिनों का राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया जा रहा है. यु.ज़ी.सी. द्वारा प्रायोजित इस सेमिनार में देश के कई जाने-माने विद्वान सहभागी हो रहे हैं.
आप यदि इस सेमिनार में सहभागी होना चाहते हैं तो आप का स्वागत है. आप अधिक जानकारी के लिए महाविद्यालय क़ी हिंदी विभाग प्रमुख श्रीमती डॉ.शशि मिश्रा जी से उनके मोबाइल -०९८३३६२१९३८ पे सम्पर्क कर सकते हैं.महाविद्यालय तक पहुँचने के लिए ttp://maps.google.com/maps?f=d&source=sh_d&saddr=महार्ष इस गूगल मैप लिंक का सहारा लिया जा सकता है .महाविद्यालय का पता निम्नलिखित है-
Maharshi Dayanand College,Parel, Dr SS Rao Rd, Parel, Mumbai, Maharashtra, India
आपका सेमिनार में स्वागत है ***
डॉ.शशि मिश्रा
प्यार के रंग में गोरी भीगी.


होली जब भी आती है
नई सौगात लाती है .
उसे बाँहों में भरने का,
वही एहसास लाती है.
ले के प्यार का गुलाल,
मन में थोड़े से सवाल .
वो आ के मेरे पास,
मुझको छेड़ जाती है .
नजर सब क़ी बचाती है
नजर मुझसे मिलाती है .
इशारों ही इशारों में,
हँसी पैगाम देती है .
हमजोली क़ी टोली आती .
साथ में नखरे वाली आती .
छू के मेरे गालों को,
वो हलके से शरमाती है .
चोली भी भीगी ,चुनरी भी भीगी
प्यार के रंग में गोरी भीगी.
देख के उसका ऐसा रूप,
मुझको बेचैनी होती है .
( इस पोस्ट के साथ लगे सभी फोटो मुझे मेल के रूप में मिले हैं,इनपे मेरा कोई अधिकार नहीं है.)
होली जब भी -----------------------------------------
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holi poem,
प्यार के रंग में गोरी भीगी.holi
Tuesday, 23 February 2010
सच्चाई का जीना हितकर ,अच्छाई का जीना पुण्य है /
अनुदान की बेला जब आई , आख्यान हमेशा काम आई ;
दान की नीयत बन आई ,जब सम्मान की सूरत दिख पाई;
बिना किये जो मिल जाये ,वो सबको सुख कर होती है
है दौर दिखावे का ये लेकिन , अच्छाई कब खुद को खोती है ;
बंदिश से हो हासिल क्या , स्वतंत्रता से हो गाफिल क्या ?
बिना कर्म कब शांति मिली है ,वासनाओं से कब क्रांति मिली है /
देने से सुख कर कब क्या है ,लेने से दुःख कर कब क्या है ;
बंद हथेली लाख की अब भी ,खुली हथेली ख़ाक की है ;
बिना स्वार्थ के दान पुण्य है ,अपनो का मान पुण्य है /
सच्चाई का जीना हितकर ,अच्छाई का काम पुण्य है /

फिर किसी मोड़े पर :लोकार्पण समारोह
फिर किसी मोड़े पर :लोकार्पण समारोह ****************
आगामी २ मार्च २०१० को कल्याण पश्चिम के बैलबजार स्थित गुरु हिम्मत गुरुद्वारे के प्रांगण में शाम ८.०० बजे भाई विजय नारायण पंडित के ग़ज़ल संग्रह ''फिर किसी मोड़ पर '' का भव्य लोकार्पण समारोह आयोजित किया गया है.इस समारोह क़ी रूप-रेखा इस प्रकार है ---
लोकार्पण कर्ता-श्री गोविन्द राठोड जी
(आयुक्त क.डो.म.पा.)
अध्यक्ष -डॉ.नरेश चन्द्र जी
(प्राचार्य,बिरला कॉलेज ,कल्याण)
स्वागताध्यक्ष -श्री.नन्द कुमार सोनावने जी
(अध्यक्ष एल.डी.सोनावने कॉलेज ,)
प्रास्ताविकी-श्री .अलोक भट्टाचार्य जी
(प्रख्यात साहित्यकार )
मुख्य अतिथि-श्री.प्रेम शुक्ल जी
(कार्यकारी संपादक,दोपहर का सामना )
आशीर्वचन -डॉ.सतीश पाण्डेय जी
(अध्यक्ष हिंदी अध्ययन मंडल )
डॉ.सुनील शर्मा जी
(उप प्राचार्य -मॉडल कॉलेज )
डॉ.राजू वारसी जी
आप सब इस समारोह में सादर आमंत्रित हैं. इसी दिन भाई विजय पंडित जी का जन्म दिन भी है.
आगामी २ मार्च २०१० को कल्याण पश्चिम के बैलबजार स्थित गुरु हिम्मत गुरुद्वारे के प्रांगण में शाम ८.०० बजे भाई विजय नारायण पंडित के ग़ज़ल संग्रह ''फिर किसी मोड़ पर '' का भव्य लोकार्पण समारोह आयोजित किया गया है.इस समारोह क़ी रूप-रेखा इस प्रकार है ---
लोकार्पण कर्ता-श्री गोविन्द राठोड जी
(आयुक्त क.डो.म.पा.)
अध्यक्ष -डॉ.नरेश चन्द्र जी
(प्राचार्य,बिरला कॉलेज ,कल्याण)
स्वागताध्यक्ष -श्री.नन्द कुमार सोनावने जी
(अध्यक्ष एल.डी.सोनावने कॉलेज ,)
प्रास्ताविकी-श्री .अलोक भट्टाचार्य जी
(प्रख्यात साहित्यकार )
मुख्य अतिथि-श्री.प्रेम शुक्ल जी
(कार्यकारी संपादक,दोपहर का सामना )
आशीर्वचन -डॉ.सतीश पाण्डेय जी
(अध्यक्ष हिंदी अध्ययन मंडल )
डॉ.सुनील शर्मा जी
(उप प्राचार्य -मॉडल कॉलेज )
डॉ.राजू वारसी जी
आप सब इस समारोह में सादर आमंत्रित हैं. इसी दिन भाई विजय पंडित जी का जन्म दिन भी है.
वो आ जाये तो बेचैनी ,
वो आ जाये तो बेचैनी चली जाये तो बेचैनी
हालत पे अपने ,
होती है हैरानी .
वो चाँद सी सुंदर ,
हिरनी सी है चंचल.
एक रोज उसको तो,
मेरी ही है होनी .
वो फूल सी कोमल ,
गंगा सी है निर्मल .
आएगी वो एक रोज देखो,
बन मेरी सजनी .
हालत पे अपने ,
होती है हैरानी .
वो चाँद सी सुंदर ,
हिरनी सी है चंचल.
एक रोज उसको तो,
मेरी ही है होनी .
वो फूल सी कोमल ,
गंगा सी है निर्मल .
आएगी वो एक रोज देखो,
बन मेरी सजनी .
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वो आ जाये तो बेचैनी
Monday, 22 February 2010
कोई ख्वाबों में आता है
कोई ख्वाबों में आता है
कोई नीदें चुराता है .
चुरा के चैन वो मेरा,
मुझे बेचैन करता है .
वहां पे वो अकेली है
यहाँ पे मैं अकेला हूँ .
उसे मुझसे मोहब्बत है,
मुझे उससे मोहब्बत है .
खामोश रहती है,
कभी वो कुछ नहीं कहती .
यहाँ पे मैं तड़पता हूँ,
वहां पे वो तड़पती है .
बादल जब बरसते हैं,
हम कितना तरसते हैं ?
यहाँ पे मैं मचलता हूँ,
वहां पे वो मचलती है .
सर्दी क़ी रातों में,
अकेले ही कम्बल में .
यहाँ पे मैं सिकुड़ता हूँ,
वहां पे वो सिकुड़ती है .
कोई ख्वाबों में ---------------------------------------
कोई नीदें चुराता है .
चुरा के चैन वो मेरा,
मुझे बेचैन करता है .
वहां पे वो अकेली है
यहाँ पे मैं अकेला हूँ .
उसे मुझसे मोहब्बत है,
मुझे उससे मोहब्बत है .
खामोश रहती है,
कभी वो कुछ नहीं कहती .
यहाँ पे मैं तड़पता हूँ,
वहां पे वो तड़पती है .
बादल जब बरसते हैं,
हम कितना तरसते हैं ?
यहाँ पे मैं मचलता हूँ,
वहां पे वो मचलती है .
सर्दी क़ी रातों में,
अकेले ही कम्बल में .
यहाँ पे मैं सिकुड़ता हूँ,
वहां पे वो सिकुड़ती है .
कोई ख्वाबों में ---------------------------------------
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कोई ख्वाबों में आता है
Saturday, 20 February 2010
एक वादा जो निभाने की कोशिस की --------------------
एक वादा जो निभाने की कोशिस की --------------------
अपनी दूसरी पुस्तक ''मन के सांचे की मिट्टी को पिछले साल आप लोंगो को सौपते हुए ,मैंने ये वादा किया था की जल्द ही अपनी गजलों की पुस्तक आप लोगों के सामने लाऊंगा .यह काम मेरे लिए मुश्किल था क्योंकि मुक्त कविताओं की तरह यंहा स्वतंत्रता नहीं थी .रदीफ़ और काफिये का ध्यान रखना था। मैंने अपनी तरफ से इस बात का पूरा ख्याल रखा किमैं ग़ज़ल क़ी कसौटी पे अपनी रचनाओं को सही तरह से रख सकूं.इसमें मैं कहाँ तक सफल हो सका ये तो अब आप लोग ही बता सकते है।
इस काम को करने में पूरे एक साल का वक्त लगा.इन गजलों को लिखने में बड़ा मजा भी आया.कभी-कभी तो ग़ज़ल के एक शेर के आगे दूसरा लिख भी नहीं सका.मशीनों क़ी तरह ग़ज़ल लिखना मेरे बस क़ी बात भी नहीं थी । आज हम जिस समाज में रह रहे हैं,वहां संवेदनाएं कितनी कमजोर पड़ रही हैं ये हम सब देख ही रहे हैं.इन सब के बीच दुःख और बेचैनी से निकलने के लिए कलम उठा लेता था। जो भी समझ सका उसे ग़ज़ल क़ी शक्ल में आप के सामने ला कर अभिव्यक्ति के खतरे उठा रहा हूँ।
किसी ने जिन्दगी क़ि परिभाषा देते हुए लिखा क़ि-''जिन्दगी विकल्पों के बीच से चुनाव का नाम है.''लेकिन आज हालत यह है क़ि -''जिन्दगी प्रायोजित और प्रचारित विकल्पों के बीच आर्थिक क्षमता का प्रदर्शन मात्र है.''हम ऐसी कठपुतली बन गए हैं क़ि जिसकी डोर बड़े-बड़े पूंजीपतियों के हाथ में है.मीडिया और इस मीडिया को चलाने वाला पैसा समाज के सरोंकारों से कोसों दूर जा चुका है. लाभ-हानि के गणित में मानवीयता क़ि कीमत कुछ नहीं है.संवेदनाएं मीडिया का हथियार हैं.मुनाफा कमाने का हथियार .इस मुनाफे के आगे कोई दूसरी बात मायने नहीं रखती. मूल्यों और कीमत क़ि लड़ाई में मानवीय मूल्यों का जो पतन हो रहा है,उसे जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना अच्छा है.
इन सारी स्थितियों के बीच मैंने ग़ज़ल लिखी. ग़ज़ल को लेकर एक बहस हमेशा चलती है कि हम हिंदी वालों को अधिक से अधिक हिंदी के शब्दों का इस्तमाल कर के ग़ज़ल लिखनी चाहिए.लेकिन मैंने कोई कोशिस इस सन्दर्भ में नहीं क़ी.बात जब उर्दू की होती है तो अक्सर लोंगो को यह भ्रम होने लगता है कि बात किसी ऐसी भाषा की हो रही है जो हिंदी से अलग है ,जबकि मेरा यह मानना है कि हिंदी और उर्दू की संस्कृति गंगा-जमुनी संस्कृति है ।जिसका संगम स्थान यही हमारा महान भारत देश है। अगर हम भाषा विज्ञानं की दृष्टि से देखे तो भी यह बात साबित हो जाती है. जिन दो भाषाओँ की क्रिया एक ही तरह से काम करती है ,उन्हें दो नहीं एक ही भाषा के दो रूप समझने चाहिए. हिंदी और उर्दू की क्रिया पद्धति भी एक जैसी ही हैं ,इसलिए इन्हें भी एक ही भाषा के दो रूप मानना चाहिए. हिन्दुस्तानी जितनी संस्कृत निष्ठ होती गयी वह उतनी ही हिंदी हो गयी और इसी हिन्दुस्तानी में जितना अरबी और फारसी के शब्द आते गए वह उतना ही उर्दू हो गई.अंग्रेजों ने इस देश में भाषा को लेकर जो जहर बोया ,वही सारी विवाद की जड़ है. इसलिए हमे हिंदी-उर्दू का कोई भेद किये बिना ,दोनों को एक ही समझना चाहिए,तथा इन भाषाओँ में जो भी अच्छा लिखा जा रहा है,उसकी खुल के तारीफ भी करनी चाहिए.
जंहा तक बात गजलों की है तो ,यह तो साफ़ है की इस देश की फिजा गजलों को बहुत पसंद आयी. हमारे यहाँ गजलों का एक लम्बा इतिहास है,जो की बहुत ही समृद्ध है. ग़ज़ल प्राचीन गीत -काव्य की एक ऐसी विधा है,जिसकी प्रकृति सामान्य रूप से प्रेम परक होती है. जो अपने सीमित स्वरूप तथा एक ही तुक की पुनरावृत्ति के कारण पूर्व के अन्य काव्य रूपों से भिन्न होती है.ग़ज़ल मूलरूप से एक आत्म निष्ठ या व्यक्तिपरक काव्य विधा है.ग़ज़ल का शायर वही ब्यान करता है जो उसके दिल पे बीती हो.इसीलिए तो कहा जाता है क़ि ''उधार के इश्क पे शायरी नहीं होती.''
''फिर किसी मोड़ पे '' ग़ज़ल संग्रह को आप के सामने सही समय पे प्रकाशक और अपने अनुज डॉ.मनीष कुमार मिश्र क़ी वजह से ला सका .आशा है आप लोंगो को यह संग्रह जरूर पसंद आएगा।
आपका
विजयनारायण पंडित
जोशीबाग,कल्याण -पश्चिम
अपनी दूसरी पुस्तक ''मन के सांचे की मिट्टी को पिछले साल आप लोंगो को सौपते हुए ,मैंने ये वादा किया था की जल्द ही अपनी गजलों की पुस्तक आप लोगों के सामने लाऊंगा .यह काम मेरे लिए मुश्किल था क्योंकि मुक्त कविताओं की तरह यंहा स्वतंत्रता नहीं थी .रदीफ़ और काफिये का ध्यान रखना था। मैंने अपनी तरफ से इस बात का पूरा ख्याल रखा किमैं ग़ज़ल क़ी कसौटी पे अपनी रचनाओं को सही तरह से रख सकूं.इसमें मैं कहाँ तक सफल हो सका ये तो अब आप लोग ही बता सकते है।
इस काम को करने में पूरे एक साल का वक्त लगा.इन गजलों को लिखने में बड़ा मजा भी आया.कभी-कभी तो ग़ज़ल के एक शेर के आगे दूसरा लिख भी नहीं सका.मशीनों क़ी तरह ग़ज़ल लिखना मेरे बस क़ी बात भी नहीं थी । आज हम जिस समाज में रह रहे हैं,वहां संवेदनाएं कितनी कमजोर पड़ रही हैं ये हम सब देख ही रहे हैं.इन सब के बीच दुःख और बेचैनी से निकलने के लिए कलम उठा लेता था। जो भी समझ सका उसे ग़ज़ल क़ी शक्ल में आप के सामने ला कर अभिव्यक्ति के खतरे उठा रहा हूँ।
किसी ने जिन्दगी क़ि परिभाषा देते हुए लिखा क़ि-''जिन्दगी विकल्पों के बीच से चुनाव का नाम है.''लेकिन आज हालत यह है क़ि -''जिन्दगी प्रायोजित और प्रचारित विकल्पों के बीच आर्थिक क्षमता का प्रदर्शन मात्र है.''हम ऐसी कठपुतली बन गए हैं क़ि जिसकी डोर बड़े-बड़े पूंजीपतियों के हाथ में है.मीडिया और इस मीडिया को चलाने वाला पैसा समाज के सरोंकारों से कोसों दूर जा चुका है. लाभ-हानि के गणित में मानवीयता क़ि कीमत कुछ नहीं है.संवेदनाएं मीडिया का हथियार हैं.मुनाफा कमाने का हथियार .इस मुनाफे के आगे कोई दूसरी बात मायने नहीं रखती. मूल्यों और कीमत क़ि लड़ाई में मानवीय मूल्यों का जो पतन हो रहा है,उसे जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना अच्छा है.
इन सारी स्थितियों के बीच मैंने ग़ज़ल लिखी. ग़ज़ल को लेकर एक बहस हमेशा चलती है कि हम हिंदी वालों को अधिक से अधिक हिंदी के शब्दों का इस्तमाल कर के ग़ज़ल लिखनी चाहिए.लेकिन मैंने कोई कोशिस इस सन्दर्भ में नहीं क़ी.बात जब उर्दू की होती है तो अक्सर लोंगो को यह भ्रम होने लगता है कि बात किसी ऐसी भाषा की हो रही है जो हिंदी से अलग है ,जबकि मेरा यह मानना है कि हिंदी और उर्दू की संस्कृति गंगा-जमुनी संस्कृति है ।जिसका संगम स्थान यही हमारा महान भारत देश है। अगर हम भाषा विज्ञानं की दृष्टि से देखे तो भी यह बात साबित हो जाती है. जिन दो भाषाओँ की क्रिया एक ही तरह से काम करती है ,उन्हें दो नहीं एक ही भाषा के दो रूप समझने चाहिए. हिंदी और उर्दू की क्रिया पद्धति भी एक जैसी ही हैं ,इसलिए इन्हें भी एक ही भाषा के दो रूप मानना चाहिए. हिन्दुस्तानी जितनी संस्कृत निष्ठ होती गयी वह उतनी ही हिंदी हो गयी और इसी हिन्दुस्तानी में जितना अरबी और फारसी के शब्द आते गए वह उतना ही उर्दू हो गई.अंग्रेजों ने इस देश में भाषा को लेकर जो जहर बोया ,वही सारी विवाद की जड़ है. इसलिए हमे हिंदी-उर्दू का कोई भेद किये बिना ,दोनों को एक ही समझना चाहिए,तथा इन भाषाओँ में जो भी अच्छा लिखा जा रहा है,उसकी खुल के तारीफ भी करनी चाहिए.
जंहा तक बात गजलों की है तो ,यह तो साफ़ है की इस देश की फिजा गजलों को बहुत पसंद आयी. हमारे यहाँ गजलों का एक लम्बा इतिहास है,जो की बहुत ही समृद्ध है. ग़ज़ल प्राचीन गीत -काव्य की एक ऐसी विधा है,जिसकी प्रकृति सामान्य रूप से प्रेम परक होती है. जो अपने सीमित स्वरूप तथा एक ही तुक की पुनरावृत्ति के कारण पूर्व के अन्य काव्य रूपों से भिन्न होती है.ग़ज़ल मूलरूप से एक आत्म निष्ठ या व्यक्तिपरक काव्य विधा है.ग़ज़ल का शायर वही ब्यान करता है जो उसके दिल पे बीती हो.इसीलिए तो कहा जाता है क़ि ''उधार के इश्क पे शायरी नहीं होती.''
''फिर किसी मोड़ पे '' ग़ज़ल संग्रह को आप के सामने सही समय पे प्रकाशक और अपने अनुज डॉ.मनीष कुमार मिश्र क़ी वजह से ला सका .आशा है आप लोंगो को यह संग्रह जरूर पसंद आएगा।
आपका
विजयनारायण पंडित
जोशीबाग,कल्याण -पश्चिम
मीडिया और समाज
मीडिया और समाज **************************************
मीडिया का मतलब या अर्थ अगर आप अब भी -माध्यम समझते हैं,तो इसे आप क़ी नादानी ही नहीं भोलापन भी समझना होगा .आज हम और जिस समय में जी रहे हैं,वह समय पूँजी और मानवीयता के संघर्ष का समय है. आम आदमी इतना अधिक कमजोर ,मजबूर ,जकड़ा हुआ और भ्रमित है क़ि वह यह ही नहीं समझ पा रहा है क़ि वह क्या है ? कौन है ?क्यों है ? और किसका है ? उसकी पूरी क़ी-पूरी जिन्दगी एक अंधी दौड़ बन गई है . वह तो बस भाग रहा है,जब तक भाग सकता है भाग रहा है.जिस दिन वह भागते हुवे गिर जायेगा ,सभी उसे कुचलते हुवे आगे निकल जायेंगे . जाना कंहा है ?किसी को नहीं मालूम .
आज से ८-९ साल पहले जब मैं इस तरह क़ी बात सोचता था,तो मुझे लगता था क़ी -हम भारतीय कितने पिछड़े हुवे हैं.हमे समय के साथ चलना नहीं आता . अपना विकास करना नहीं आता .हम लोग ईमोस्न्ल फूल हैं. हमे जिन्दगी में प्रेक्टिकल होना चाहिए. पैसा कमाना चाहिए.सबसे आगे रहना चाहिए. ये धर्म और दर्शन क़ी बातों से कुछ नहीं होता.लेकिन आज जब इन सब बातों पे सोचता हूँ,आज के हालात देखता हूँ तो अपनी गलती का एहसास हो जाता है. बाजारवाद और मंडीकरन क़ी इस दुनिया ने रिश्तों क़ी कीमत का एहसास करा दिया. जीवन में संतुष्टि का महत्व समझा दिया. साथ ही साथ अपने धर्म और दर्शन के प्रति सम्मान भी इसी बाजारवाद ने ही मुझे समझाया .हमसब आज जिस तनाव और स्पर्धा के युग में जी रहे हैं,उससे बचने के सभी रास्ते भारतीय धर्म और दर्शन में है.बात सिर्फ इतनी सी है क़ी हम इस बात को समझने में वक्त कितना लेते हैं.
अपनों से दूर अकेले किसी शहर में लाखों के पैकेज पे काम करने वाले लगभग सभी दोस्त कहते हैं क़ि-''-कुत्ता बना के रख दिया है यार.इतना तनाव रहता है क़ि क्या बताऊँ .पैसा है लेकिन उसका करना क्या है .बस कमाओ और उडाओ,यही जिन्दगी बन गई है .कोई सोसल लाइफ नहीं रह गई है.अलग ही दुनिया है .''इन सब बातों को सुनता हूँ तो समझ में आता है क़ि जिन्दगी वो नहीं है जो आज कल सभी तरह के विज्ञापनों के माध्यम से प्रचारित और प्रसारित किया जा रहा है .इसमें मुख्य भूमिका निभाने वाली मीडिया आज सिर्फ माध्यम नहीं रह गई है,बल्कि वो हमारा ही एक विस्तृत अंग बन गई है.वो हमारा एक ऐसा हिस्सा बन गई है ,जिसे हम चाहें तो भी अपने से काट के अलग नहीं कर सकते.ऐसा हम कर भी नहीं सकते क्योंकि हम जिस समय में रह रहे हैं वह समय इन्मध्य्मिन के द्वारा नियंत्रित और व्यवस्थित किया जा रहा है.हमारी सोच और समझ पर इन माध्यमों का हमसे जादा ध्यान है. अपने निर्णय हमे लेन हैं लेकिन विकल्पों क़ि सूची ये माध्यम प्रदान करेंगे .साथ ही साथ हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा यह भी वे ही हमे बतायेंगे .हमे सिर्फ अपनी हैसियत के अनुसार किसी को चुन लेना है.वैसे यह चुनाव भी कितना हमारा होगा यह कहना मुश्किल है.
किसी ने जिन्दगी क़ि परिभाषा देते हुए लिखा क़ि-''जिन्दगी विकल्पों के बीच से चुनाव का नाम है.''लेकिन आज हालत यह है क़ि -''जिन्दगी प्रायोजित और प्रचारित विकल्पों के बीच आर्थिक क्षमता का प्रदर्शन मात्र है.''हम ऐसी कठपुतली बन गए हैं क़ि जिसकी डोर बड़े-बड़े पूंजीपतियों के हाथ में है.मीडिया और इस मीडिया को चलाने वाला पैसा समाज के सरोंकारों से कोसों दूर जा चुका है. लाभ-हानि के गणित में मानवीयता क़ि कीमत कुछ नहीं है.संवेदनाएं मीडिया का हथियार हैं.मुनाफा कमाने का हथियार .इस मुनाफे के आगे कोई दूसरी बात मायने नहीं रखती. मूल्यों और कीमत क़ि लड़ाई में मानवीय मूल्यों का जो पतन हो रहा है,उसे जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना अच्छा है.
मीडिया का मतलब या अर्थ अगर आप अब भी -माध्यम समझते हैं,तो इसे आप क़ी नादानी ही नहीं भोलापन भी समझना होगा .आज हम और जिस समय में जी रहे हैं,वह समय पूँजी और मानवीयता के संघर्ष का समय है. आम आदमी इतना अधिक कमजोर ,मजबूर ,जकड़ा हुआ और भ्रमित है क़ि वह यह ही नहीं समझ पा रहा है क़ि वह क्या है ? कौन है ?क्यों है ? और किसका है ? उसकी पूरी क़ी-पूरी जिन्दगी एक अंधी दौड़ बन गई है . वह तो बस भाग रहा है,जब तक भाग सकता है भाग रहा है.जिस दिन वह भागते हुवे गिर जायेगा ,सभी उसे कुचलते हुवे आगे निकल जायेंगे . जाना कंहा है ?किसी को नहीं मालूम .
आज से ८-९ साल पहले जब मैं इस तरह क़ी बात सोचता था,तो मुझे लगता था क़ी -हम भारतीय कितने पिछड़े हुवे हैं.हमे समय के साथ चलना नहीं आता . अपना विकास करना नहीं आता .हम लोग ईमोस्न्ल फूल हैं. हमे जिन्दगी में प्रेक्टिकल होना चाहिए. पैसा कमाना चाहिए.सबसे आगे रहना चाहिए. ये धर्म और दर्शन क़ी बातों से कुछ नहीं होता.लेकिन आज जब इन सब बातों पे सोचता हूँ,आज के हालात देखता हूँ तो अपनी गलती का एहसास हो जाता है. बाजारवाद और मंडीकरन क़ी इस दुनिया ने रिश्तों क़ी कीमत का एहसास करा दिया. जीवन में संतुष्टि का महत्व समझा दिया. साथ ही साथ अपने धर्म और दर्शन के प्रति सम्मान भी इसी बाजारवाद ने ही मुझे समझाया .हमसब आज जिस तनाव और स्पर्धा के युग में जी रहे हैं,उससे बचने के सभी रास्ते भारतीय धर्म और दर्शन में है.बात सिर्फ इतनी सी है क़ी हम इस बात को समझने में वक्त कितना लेते हैं.
अपनों से दूर अकेले किसी शहर में लाखों के पैकेज पे काम करने वाले लगभग सभी दोस्त कहते हैं क़ि-''-कुत्ता बना के रख दिया है यार.इतना तनाव रहता है क़ि क्या बताऊँ .पैसा है लेकिन उसका करना क्या है .बस कमाओ और उडाओ,यही जिन्दगी बन गई है .कोई सोसल लाइफ नहीं रह गई है.अलग ही दुनिया है .''इन सब बातों को सुनता हूँ तो समझ में आता है क़ि जिन्दगी वो नहीं है जो आज कल सभी तरह के विज्ञापनों के माध्यम से प्रचारित और प्रसारित किया जा रहा है .इसमें मुख्य भूमिका निभाने वाली मीडिया आज सिर्फ माध्यम नहीं रह गई है,बल्कि वो हमारा ही एक विस्तृत अंग बन गई है.वो हमारा एक ऐसा हिस्सा बन गई है ,जिसे हम चाहें तो भी अपने से काट के अलग नहीं कर सकते.ऐसा हम कर भी नहीं सकते क्योंकि हम जिस समय में रह रहे हैं वह समय इन्मध्य्मिन के द्वारा नियंत्रित और व्यवस्थित किया जा रहा है.हमारी सोच और समझ पर इन माध्यमों का हमसे जादा ध्यान है. अपने निर्णय हमे लेन हैं लेकिन विकल्पों क़ि सूची ये माध्यम प्रदान करेंगे .साथ ही साथ हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा यह भी वे ही हमे बतायेंगे .हमे सिर्फ अपनी हैसियत के अनुसार किसी को चुन लेना है.वैसे यह चुनाव भी कितना हमारा होगा यह कहना मुश्किल है.
किसी ने जिन्दगी क़ि परिभाषा देते हुए लिखा क़ि-''जिन्दगी विकल्पों के बीच से चुनाव का नाम है.''लेकिन आज हालत यह है क़ि -''जिन्दगी प्रायोजित और प्रचारित विकल्पों के बीच आर्थिक क्षमता का प्रदर्शन मात्र है.''हम ऐसी कठपुतली बन गए हैं क़ि जिसकी डोर बड़े-बड़े पूंजीपतियों के हाथ में है.मीडिया और इस मीडिया को चलाने वाला पैसा समाज के सरोंकारों से कोसों दूर जा चुका है. लाभ-हानि के गणित में मानवीयता क़ि कीमत कुछ नहीं है.संवेदनाएं मीडिया का हथियार हैं.मुनाफा कमाने का हथियार .इस मुनाफे के आगे कोई दूसरी बात मायने नहीं रखती. मूल्यों और कीमत क़ि लड़ाई में मानवीय मूल्यों का जो पतन हो रहा है,उसे जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना अच्छा है.
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mediyaand society,
मीडिया और समाज
Friday, 19 February 2010
डॉ.बच्चन सिंह का साहित्य
डॉ.बच्चन सिंह का साहित्य :**********
डॉ.बच्चन सिंह हिंदी के उन समीक्षकों में रहे जिन्हें उतनी सफलता साहित्य कि दुनिया में नहीं मिली ,जितनी मिलनी चाहिए थी. आज बच्चन सिंह जी हमारे बीच नहीं रहे,लेकिन उनका काम हमारे सामने है.आश्चर्य होता है कि उनसे कही कम मेहनतवाले लोग साहित्य जगत में जिस तरह जाने -पहचाने जा रहे हैं,वो सब बड़ा अजीब है. निश्चित ही बच्चन सिंह जी साहित्यिक षड्यंत्रों और गुटबाजी का शिकार हुवे हैं.
मै यंहा डॉ.बच्चन सिंह कि पुस्तकों क़ी सूची दे रहा हूँ,जिसका फायदा शोध छात्र उठा सकेंगें .साथ ही साथ आप उनकी समग्र रचना धर्मिता से परिचित भी हो सकेंगे .
डॉ.बच्चन सिंह का साहित्य ;
इतना बड़ा लेखन और समीक्षा का काम करने के बाद भी, डॉ.बच्चन सिंह इस तरह उपेक्षित क्यों हैं ?
डॉ.बच्चन सिंह हिंदी के उन समीक्षकों में रहे जिन्हें उतनी सफलता साहित्य कि दुनिया में नहीं मिली ,जितनी मिलनी चाहिए थी. आज बच्चन सिंह जी हमारे बीच नहीं रहे,लेकिन उनका काम हमारे सामने है.आश्चर्य होता है कि उनसे कही कम मेहनतवाले लोग साहित्य जगत में जिस तरह जाने -पहचाने जा रहे हैं,वो सब बड़ा अजीब है. निश्चित ही बच्चन सिंह जी साहित्यिक षड्यंत्रों और गुटबाजी का शिकार हुवे हैं.
मै यंहा डॉ.बच्चन सिंह कि पुस्तकों क़ी सूची दे रहा हूँ,जिसका फायदा शोध छात्र उठा सकेंगें .साथ ही साथ आप उनकी समग्र रचना धर्मिता से परिचित भी हो सकेंगे .
डॉ.बच्चन सिंह का साहित्य ;
- हिंदी पत्रकारिता के नए प्रतिमान
- रीति कालीन कवियों क़ी प्रेम व्यंजना
- उपन्यास का काव्य शास्त्र
- साहित्य का समाज शास्त्र
- आचार्य शुक्ल का इतिहास पढ़ते हुवे
- आधुनिक हिंदी आलोचना के बीजशब्द
- हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास
- क्रन्तिकारी कवि निराला
- बिहारी का नया मूल्यांकन
- कविता का शुक्ल पक्ष
- पांचाली (उपन्यास )
- सूतो वा सूतपुत्रो वा (उपन्यास )
- हिंदी नाटक
- निराला का काव्य
- साहित्यिक निबंध:आधुनिक दृष्टि कोण
- आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास
- निराला काव्य शब्दकोष
- समकालीन हिंदी साहित्य :आलोचना क़ी चुनौती
- आलोचक और आलोचना
- कथाकार जैनेन्द्र
- कई चेहरों के बाद (कहानी संग्रह )
- लहरें और कगार (उपन्यास )
- भारतीय और पाश्चात्य काव्य शास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन
- महाभारत क़ी कथा (अनुवाद -बुद्ध देव बसू क़ी किताब का )
- नागरी प्रचारणी पत्रिका का संपादन
इतना बड़ा लेखन और समीक्षा का काम करने के बाद भी, डॉ.बच्चन सिंह इस तरह उपेक्षित क्यों हैं ?
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डॉ.बच्चन सिंह का साहित्य
Thursday, 18 February 2010
नयनो से नयनो की बातें ,
नयनो से नयनो की बातें ,
काजल से गहराती रातें,
तिल आखों पे नूर बडाता ,
आखों आखों में तू इतराता ,
मुस्कान तेरी कितनी व्याकुल है ,
आन तेरी मन का कातिल है ,
चेहरे पे तेरी दुविधा रहती है ,
दिल में प्यास छिपी मरती है ,
चंचल चितवन से सपने झरते ,
उलझे दिल से ख्वाब ठहरते ;
आखों में तेरे प्यार की गंगा ,
फिर क्या सोचे और क्यूँ रुकना ,
क्यूँ खुद के अरमानो से लड़ना ,
प्यार के लम्हे कितने मिलतें है ,
हम उनमे भी क्यूँ रुकते है ,
मोहब्बत भी पूजा है यारों ,
ये भी भाव अजूबा है प्यारो /
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आखें,
हिन्दी कविता hindi poetry

Wednesday, 17 February 2010
दहेज एक समस्या
वर्तमान समय मे भी दहेज बड़ी समस्या के रूप मे हमारे सामने है । यह समस्या केवल अशिक्षित के परिवालो की नहीं है, बल्कि पढ़े लिखे लोगो की भी यही समस्या है। क्योकि समाज को दीखाने के चक्कर मे हम यह भूल जाते है की हम पढ़े लिखे है। उस वक़्त बस यही ख्याल रहता है की हम कितना समाज को दिखाए ,की हमें कितना मिला है और हमने कितना खर्च किया है। मुझे यह बात अब तक नहीं समझ आयी की हम ऐसा क्यों करते है ।
सबसे बड़ी तकलीफ की बात ये लगती है की जो जितना शिक्षित है वो उतना ही डिमांड करता है । जो गुरु हमे सिखाते है की दहेज लेना और देना दोनों ही बुरी बात है वो भी दहेज लेने और देने मे भी पीछे नहीं हटते।
जो जितना पढ़ा लिखा है वो उतना ही डिमांड करता है। पढने लिखने का क्या मतलब फिर ... जब हम आज भी इतनी छोटी सोच rakhte है। apni सोच को badhao na की apni income को...kam se kam शिक्षित लोगो se to ये umid की ja sakti है।
सबसे बड़ी तकलीफ की बात ये लगती है की जो जितना शिक्षित है वो उतना ही डिमांड करता है । जो गुरु हमे सिखाते है की दहेज लेना और देना दोनों ही बुरी बात है वो भी दहेज लेने और देने मे भी पीछे नहीं हटते।
जो जितना पढ़ा लिखा है वो उतना ही डिमांड करता है। पढने लिखने का क्या मतलब फिर ... जब हम आज भी इतनी छोटी सोच rakhte है। apni सोच को badhao na की apni income को...kam se kam शिक्षित लोगो se to ये umid की ja sakti है।
Tuesday, 16 February 2010
अगस्त ऋषि का आश्रम :एक सुखद अनुभूति
अगस्त ऋषि का आश्रम :एक सुखद अनुभूति********************
मैं जिस महाविद्यालय में काम करता हूँ,वँही के बाटनी विभाग के अध्यक्ष डॉ.विरेंद्र मिश्र जी मेरे प्रति एक सहज आत्मियता रखते हैं. एक दिन अचानक उन्होंने कहा कि-''चलो अगस्त ऋषि के आश्रम घूम आते हैं. '' इस पर मेरा पहला सवाल था कि ''अगस्त ऋषि कौन थे ?''मेरी बात के जवाब में उन्होंने जवाब दिया कि-
१-अगस्त ऋषि दुनियां के सबसे बड़े वैज्ञानिक थे .
२-अगस्त ऋषि वो थे जिन्होंने पूरे समुद्र को एक घोट में पी लिया था.
३-अगस्त ऋषि से मिलने महादेव खुद उनके पास जाते थे .
४-अगस्त ऋषि राम के सहायक भी रहे .
५-अगस्त ऋषि के आश्रम में शेर,हिरन,सांप और नेवले एक साथ रहते थे,पर कोई किसी पर हमला नहीं करता था.
६-उत्तर के विन्ध्य पर्वत का घमंड चूर कर,उसे बढ़ने से रोकने के लिए ही अगस्त ऋषि वापस उत्तर दिशा में नहीं गए.
७-महाराष्ट्र का इगतपुरी नामक स्थान वास्तव में अगस्तपुरी है.अपभ्रंस के कारण अगस्तपुरी से अगतपुरी और अगतपुरी से इगतपुरी हो गया है .
डॉ.साहब क़ी बातें सुनने के बाद,मुझे भी लगा क़ी मुझे भी अगस्त ऋषि के आश्रम जाना चाहिए. पूरी तैयारी हो गई. १४ फरवरी क़ी सुबह ५.३४ क़ी लोकल ट्रेन से मैं,डॉ.वीरेंद्र मिश्र जी और महाविद्यालय के ही श्री कुलकर्णी सर हम लोग कसारा स्टेशन पहुंचे .करीब ७.०० बजे कसारा से हमने अकोले के लिए बस पकड़ी. इस जगह का मानचित्र आप इस मैप लिंक पे क्लिक कर के प्राप्त कर सकते हैं.http://maps.google.com/maps/ms?hl=en&ie=UTF8&oe=UTF8&msa=0&msid=108595931755292321391.00047fb79336248d0fe36&
ll=19.534554,73.787613&spn=0.245259,0.617294&z=११
कसारा-घोटी-राजुर -अकोले इस तरह बस से लगभग ३.३० घंटे क़ी यात्रा कर के हम अकोले बस स्टॉप पे आ गए. पूरा रास्ता पहाड़ी है.आस-पास का वातावरण मोहक है.वंहा पहुँच कर हमने वहां क़ी मशहूर भेल खाई.और चाय -नाश्ते के बाद पैदल ही आश्रम क़ी तरफ चल पड़े.हम प्रवरा नदी पे बने पूल को पार कर १० मिनट में आश्रम पर पहुँच गए.
आश्रम को अब मंदिर का रूप दे दिया गया है. पास ही शिव जी का मंदिर भी है.इमली के कई पेड़ आश्रम के पास हैं. आस-पास गन्ने,आलू,टमाटर,बाजरी और केले के खेत भी दिखे .आश्रम के आस-पास बस्ती भी आ गई है. पास में ही एक गुफा का रास्ता है,जिसके बारे में कहा जाता है क़ी राम और सीता इसी गुफा से अगस्त ऋषि के पास आये थे.उस गुफा के बगल में पानी के दो कुण्ड भी हैं,जिनमे अब कृतिम रूप से पानी छोड़ा जाता है.
आश्रम के अंदर मुख्य स्थल पे अगस्त ऋषि क़ी जागृत समाधि है. जंहा अब उनकी मूर्ति भी स्थापित कर दी गई है. उसी के आस-पास अगस्त ऋषि से सम्बन्धित कई बातों का उल्लेख चित्रों के माध्यम से किया गया है.आस-पास काफी शांति है. उस स्थल पे जाकर एक आंतरिक सुख क़ी अनुभूति हुई,जिसे शब्दों में ,कह पाना मुश्किल है.
वंहा से वापस आने का मन तो नहीं कर रहा था,लेकिन कसारा के लिए अंतिम बस शाम ४.०० बजे क़ी थी.हम लोग वापस अकोले बस स्टॉप पे आ गए.चाय-नास्ता किया.फिर ४.०० बजे क़ी बस से वापस हो लिए.मन में कई सवाल थे,लेकिन चित्त शांत था.मानों हमने कोई बहुत ही मूल्यवान वस्तु प्राप्त कर ली हो.
आप को भी मौका मिले तो इस आश्रम में एक बार अवस्य जाएँ .अकोले में कई होटल और लाज हैं,जंहा आप रुक भी सकते है.
मैं जिस महाविद्यालय में काम करता हूँ,वँही के बाटनी विभाग के अध्यक्ष डॉ.विरेंद्र मिश्र जी मेरे प्रति एक सहज आत्मियता रखते हैं. एक दिन अचानक उन्होंने कहा कि-''चलो अगस्त ऋषि के आश्रम घूम आते हैं. '' इस पर मेरा पहला सवाल था कि ''अगस्त ऋषि कौन थे ?''मेरी बात के जवाब में उन्होंने जवाब दिया कि-
१-अगस्त ऋषि दुनियां के सबसे बड़े वैज्ञानिक थे .
२-अगस्त ऋषि वो थे जिन्होंने पूरे समुद्र को एक घोट में पी लिया था.
३-अगस्त ऋषि से मिलने महादेव खुद उनके पास जाते थे .
४-अगस्त ऋषि राम के सहायक भी रहे .
५-अगस्त ऋषि के आश्रम में शेर,हिरन,सांप और नेवले एक साथ रहते थे,पर कोई किसी पर हमला नहीं करता था.
६-उत्तर के विन्ध्य पर्वत का घमंड चूर कर,उसे बढ़ने से रोकने के लिए ही अगस्त ऋषि वापस उत्तर दिशा में नहीं गए.
७-महाराष्ट्र का इगतपुरी नामक स्थान वास्तव में अगस्तपुरी है.अपभ्रंस के कारण अगस्तपुरी से अगतपुरी और अगतपुरी से इगतपुरी हो गया है .
डॉ.साहब क़ी बातें सुनने के बाद,मुझे भी लगा क़ी मुझे भी अगस्त ऋषि के आश्रम जाना चाहिए. पूरी तैयारी हो गई. १४ फरवरी क़ी सुबह ५.३४ क़ी लोकल ट्रेन से मैं,डॉ.वीरेंद्र मिश्र जी और महाविद्यालय के ही श्री कुलकर्णी सर हम लोग कसारा स्टेशन पहुंचे .करीब ७.०० बजे कसारा से हमने अकोले के लिए बस पकड़ी. इस जगह का मानचित्र आप इस मैप लिंक पे क्लिक कर के प्राप्त कर सकते हैं.http://maps.google.com/maps/ms?hl=en&ie=UTF8&oe=UTF8&msa=0&msid=108595931755292321391.00047fb79336248d0fe36&
ll=19.534554,73.787613&spn=0.245259,0.617294&z=११
कसारा-घोटी-राजुर -अकोले इस तरह बस से लगभग ३.३० घंटे क़ी यात्रा कर के हम अकोले बस स्टॉप पे आ गए. पूरा रास्ता पहाड़ी है.आस-पास का वातावरण मोहक है.वंहा पहुँच कर हमने वहां क़ी मशहूर भेल खाई.और चाय -नाश्ते के बाद पैदल ही आश्रम क़ी तरफ चल पड़े.हम प्रवरा नदी पे बने पूल को पार कर १० मिनट में आश्रम पर पहुँच गए.
आश्रम को अब मंदिर का रूप दे दिया गया है. पास ही शिव जी का मंदिर भी है.इमली के कई पेड़ आश्रम के पास हैं. आस-पास गन्ने,आलू,टमाटर,बाजरी और केले के खेत भी दिखे .आश्रम के आस-पास बस्ती भी आ गई है. पास में ही एक गुफा का रास्ता है,जिसके बारे में कहा जाता है क़ी राम और सीता इसी गुफा से अगस्त ऋषि के पास आये थे.उस गुफा के बगल में पानी के दो कुण्ड भी हैं,जिनमे अब कृतिम रूप से पानी छोड़ा जाता है.
आश्रम के अंदर मुख्य स्थल पे अगस्त ऋषि क़ी जागृत समाधि है. जंहा अब उनकी मूर्ति भी स्थापित कर दी गई है. उसी के आस-पास अगस्त ऋषि से सम्बन्धित कई बातों का उल्लेख चित्रों के माध्यम से किया गया है.आस-पास काफी शांति है. उस स्थल पे जाकर एक आंतरिक सुख क़ी अनुभूति हुई,जिसे शब्दों में ,कह पाना मुश्किल है.
वंहा से वापस आने का मन तो नहीं कर रहा था,लेकिन कसारा के लिए अंतिम बस शाम ४.०० बजे क़ी थी.हम लोग वापस अकोले बस स्टॉप पे आ गए.चाय-नास्ता किया.फिर ४.०० बजे क़ी बस से वापस हो लिए.मन में कई सवाल थे,लेकिन चित्त शांत था.मानों हमने कोई बहुत ही मूल्यवान वस्तु प्राप्त कर ली हो.
आप को भी मौका मिले तो इस आश्रम में एक बार अवस्य जाएँ .अकोले में कई होटल और लाज हैं,जंहा आप रुक भी सकते है.
Saturday, 13 February 2010
बात जिद की नहीं है यार मेरे ,
बात जिद की नहीं है यार मेरे ,
वो अहसास है दिल के खास मेरे ;
जो रग रग में बसता खूं में बहता ,
वो प्यार है तेरा दिलदार मेरे ,
प्यार तेरा खुशियाँ हैं मेरी ,
साथ तेरा दुनिया है मेरी ,
प्यार मेरा ही जिद है मेरी ,
कैसे त्यागूँ तू सांसे है मेरी ,
कैसे ना मांगू साथ तेरा ,
कैसे ना चाहूँ प्यार तेरा ,
मेरे आखों की दृष्टि तू है ,
मेरे जीवन की सृष्टी तू है ,;
बात जिद की नहीं है प्यार मेरे ,
तुझसे मेरी खुशियाँ हैं दिलदार मेरे /
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mohabbat,
हिन्दी कविता hindi poetry

,वेलेंटाइन वही है
जो याद आता है तन्हाई में,वेलेंटाइन वही है
जो चुराता है नीदें मेरी,वेलेंटाइन वही है .
दूर हो के भी जो पास रहे,वेलेंटाइन वही है
जो लगे सब से प्यारा हमेशा,वेलेंटाइन वही है .
जिसे मैं कहता अपना खुदा,वेलेंटाइन वही है
सजाता जिसके लिए सपने,वेलेंटाइन वही है .
जिसकी आँखों में डूब जाऊं,वेलेंटाइन वही है
जिसकी जुल्फों तले सो जाऊं,वेलेंटाइन वही है .
जिसका साथ चाहूं जिन्दगी भर,वेलेंटाइन वही है
जो बने हमसफ़र हर राह में,वेलेंटाइन वही है .
जिसकी खुसबू हो साँसों में ,वेलेंटाइन वही है
जो गीतों सी मीठी हो,वेलेंटाइन वही है .
जो हो सौन्दर्य की परिभाषा,वेलेंटाइन वही है
जो लगे मुझे मेरी राधा सी ,वेलेंटाइन वही है
जो चुराता है नीदें मेरी,वेलेंटाइन वही है .
दूर हो के भी जो पास रहे,वेलेंटाइन वही है
जो लगे सब से प्यारा हमेशा,वेलेंटाइन वही है .
जिसे मैं कहता अपना खुदा,वेलेंटाइन वही है
सजाता जिसके लिए सपने,वेलेंटाइन वही है .
जिसकी आँखों में डूब जाऊं,वेलेंटाइन वही है
जिसकी जुल्फों तले सो जाऊं,वेलेंटाइन वही है .
जिसका साथ चाहूं जिन्दगी भर,वेलेंटाइन वही है
जो बने हमसफ़र हर राह में,वेलेंटाइन वही है .
जिसकी खुसबू हो साँसों में ,वेलेंटाइन वही है
जो गीतों सी मीठी हो,वेलेंटाइन वही है .
जो हो सौन्दर्य की परिभाषा,वेलेंटाइन वही है
जो लगे मुझे मेरी राधा सी ,वेलेंटाइन वही है
Friday, 12 February 2010
उससे क्यों ये हाल छुपायें ?
इस दुनिया की हम क्यों माने?
गुनाह इश्क को क्यों जाने ?
दिल की बातो को आखिर ,
क्यों कर सब से हम छुपायें ?
अपनी मर्जी से अपना जीवन ,
बोलो क्यों ना जी पायें ?
लगी लगी है दिलमे जो ,
आखिर उसको क्यों न बुझाएँ ?
जिसको प्यार किया है मैंने ,
उससे क्यों ये हाल छुपायें ?
गुनाह इश्क को क्यों जाने ?
दिल की बातो को आखिर ,
क्यों कर सब से हम छुपायें ?
अपनी मर्जी से अपना जीवन ,
बोलो क्यों ना जी पायें ?
लगी लगी है दिलमे जो ,
आखिर उसको क्यों न बुझाएँ ?
जिसको प्यार किया है मैंने ,
उससे क्यों ये हाल छुपायें ?
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हिंदी में संचालन का शौख/part 2
अपने पहले पोस्ट --- हिंदी में संचालन का शौख/part 1 के माध्यम से कुछ उम्दा काव्य पंक्तियाँ और शेर पहुचाने की जो जिम्मेदारी मैंने ली थी ,उसी कड़ी में कुछ और शेर और काव्य पंक्तियाँ यंहा दे रहा हूँ. आशा और विश्वाश है की आप को ये पसंद आएँगी .
सच की राह पे बेशक चलना ,पर इसमें नुकसान बहुत है
उन राहों पे ही चलना मुश्किल,जो राहें आसन बहुत हैं.
***********************
मेरा दुःख ये है की मैं अपने साथियों जैसा नहीं हूँ,
मैं बहादुर तो हूँ लेकिन,हारे हुए लश्कर में हूँ .
******************
हमे खबर है की हम हैं चिरागे-आखिरी -शब्,
हमारे बाद अँधेरा नहीं उजाला है.
*********************
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते,
जब सवाल ही गलत थे तो जवाब क्या देते .
**********************
बीते मौसम जो साथ लाती हैं
वो हवाएं कंहा से आती हैं
*****************
कोई सनम तो हो ,कोई अपना खुदा तो हो
इस दौरे बेकसी में ,कोई अपना आसरा तो हो
****************
क्यों न महके गुलाब आँखों में,
हम ने रखे हैं ख़्वाब आँखों में .
**********************
हम तेरी जुल्फों के साए को घटा कहते हैं
इतने प्यासे हैं की क्या कहना था ?क्या कहते हैं ?
******************
मेरी ख्वाइश है की फिर से फ़रिश्ता हो जाऊं
माँ से इस तरह लिपट जाऊं की बच्चा हो जाऊं
*****************
आदमी खोखले हैं पूस के बदल की तरह ,
सहर मुझे लगते हैं आज भी जंगल की तरह .
*********************
जिन्दगी यूं भी जली ,जली मीलों तक
चांदनी चार कदम,धूप चली मीलों तक
*******************
कोई ऐसा जंहा नहीं होता
दोस्त-दुश्मन कंहा नहीं होता
*****************
आगे भी ये सिलसिला जारी रखूँगा .आप को ये संकलित शेर कैसे लगे ?
सच की राह पे बेशक चलना ,पर इसमें नुकसान बहुत है
उन राहों पे ही चलना मुश्किल,जो राहें आसन बहुत हैं.
***********************
मेरा दुःख ये है की मैं अपने साथियों जैसा नहीं हूँ,
मैं बहादुर तो हूँ लेकिन,हारे हुए लश्कर में हूँ .
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हमे खबर है की हम हैं चिरागे-आखिरी -शब्,
हमारे बाद अँधेरा नहीं उजाला है.
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किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते,
जब सवाल ही गलत थे तो जवाब क्या देते .
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बीते मौसम जो साथ लाती हैं
वो हवाएं कंहा से आती हैं
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कोई सनम तो हो ,कोई अपना खुदा तो हो
इस दौरे बेकसी में ,कोई अपना आसरा तो हो
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क्यों न महके गुलाब आँखों में,
हम ने रखे हैं ख़्वाब आँखों में .
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हम तेरी जुल्फों के साए को घटा कहते हैं
इतने प्यासे हैं की क्या कहना था ?क्या कहते हैं ?
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मेरी ख्वाइश है की फिर से फ़रिश्ता हो जाऊं
माँ से इस तरह लिपट जाऊं की बच्चा हो जाऊं
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आदमी खोखले हैं पूस के बदल की तरह ,
सहर मुझे लगते हैं आज भी जंगल की तरह .
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जिन्दगी यूं भी जली ,जली मीलों तक
चांदनी चार कदम,धूप चली मीलों तक
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कोई ऐसा जंहा नहीं होता
दोस्त-दुश्मन कंहा नहीं होता
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आगे भी ये सिलसिला जारी रखूँगा .आप को ये संकलित शेर कैसे लगे ?
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