Thursday, 11 April 2019
11. हाँ मैं भी चिराग़ हूँ पर ।
कुछ सवालात हैं
कि जिनमें
उलझा सा हूँ
मैं भी एक चिराग़ हूँ
बस
बुझा- बुझा सा हूँ ।
अब भी उम्मीद है
कि वो आयेगी ज़रूर
सो प्यार की राह में
ज़रा
रुका- रुका सा हूँ ।
न जाने
कितनी उम्मीदों को
ढोता हूँ पैदल
अभी चल तो रहा हूँ
पर
थका - थका सा हूँ ।
यूँ तो आज भी
इरादे
वही हैं फ़ौलाद वाले
बस वक्त के आगे
थोड़ा
झुका- झुका सा हूँ ।
.............Dr. Manishkumar C.Mishra
कि जिनमें
उलझा सा हूँ
मैं भी एक चिराग़ हूँ
बस
बुझा- बुझा सा हूँ ।
अब भी उम्मीद है
कि वो आयेगी ज़रूर
सो प्यार की राह में
ज़रा
रुका- रुका सा हूँ ।
न जाने
कितनी उम्मीदों को
ढोता हूँ पैदल
अभी चल तो रहा हूँ
पर
थका - थका सा हूँ ।
यूँ तो आज भी
इरादे
वही हैं फ़ौलाद वाले
बस वक्त के आगे
थोड़ा
झुका- झुका सा हूँ ।
.............Dr. Manishkumar C.Mishra
10. बीते हुए इस साल से ।
बीते हुए इस साल से
विदा लेते हुए
मैंने कहा -
तुम जा तो रहे हो
पर
आते रहना
अपने समय का
आख्यान बनकर
पथराई आँखों और
खोई हुई आवाज़ के बावजूद
आकलन व पुनर्रचना के
हर छोटे-बड़े
उत्सव के लिए ।
त्रासदिक
दस्तावेजों के पुनर्पाठ
व
संघर्ष के
इकबालिया बयान के लिए
तुम्हारी करुणा का
निजी इतिहास
बड़ा सहायक होगा ।
बारिश की
बूँदों की तरह
तुम आते रहना
पूरे रोमांच और रोमांस के साथ
ताकि
लोक चित्त का इंद्रधनुष
सामाजिक न्याय चेतना की तरंगों पर
अनुगुंजित- अनुप्राणित रहे ।
अंधेरों की चेतावनी
उनकी साख के बावजूद
प्रतिरोधी स्वर में
सवालों के
शब्दोत्सव के लिए
तुम्हारा आते रहना
बेहद जरूरी है ।
तुम जा तो रहे हो
पर
आते रहना
ताकि
ये दाग - दाग उजाले
विचारों की
नीमकशी से छनते रहें
संघर्ष और सामंजस्य से
प्रांजल होते रहें
जिससे कि
सुनिश्चित रहे
पावनता का पुनर्वास ।
----- मनीष कुमार मिश्रा ।
विदा लेते हुए
मैंने कहा -
तुम जा तो रहे हो
पर
आते रहना
अपने समय का
आख्यान बनकर
पथराई आँखों और
खोई हुई आवाज़ के बावजूद
आकलन व पुनर्रचना के
हर छोटे-बड़े
उत्सव के लिए ।
त्रासदिक
दस्तावेजों के पुनर्पाठ
व
संघर्ष के
इकबालिया बयान के लिए
तुम्हारी करुणा का
निजी इतिहास
बड़ा सहायक होगा ।
बारिश की
बूँदों की तरह
तुम आते रहना
पूरे रोमांच और रोमांस के साथ
ताकि
लोक चित्त का इंद्रधनुष
सामाजिक न्याय चेतना की तरंगों पर
अनुगुंजित- अनुप्राणित रहे ।
अंधेरों की चेतावनी
उनकी साख के बावजूद
प्रतिरोधी स्वर में
सवालों के
शब्दोत्सव के लिए
तुम्हारा आते रहना
बेहद जरूरी है ।
तुम जा तो रहे हो
पर
आते रहना
ताकि
ये दाग - दाग उजाले
विचारों की
नीमकशी से छनते रहें
संघर्ष और सामंजस्य से
प्रांजल होते रहें
जिससे कि
सुनिश्चित रहे
पावनता का पुनर्वास ।
----- मनीष कुमार मिश्रा ।
15. सबसे पवित्र वस्तु ।
महीनों बाद
जब तुम्हारे ओठ
चूम रहे थे
मेरे ओठों को
कि तभी
तुम्हारे गालों से
लुढ़कते हुए
आँसू की एक गर्म बूँद
मेरे गालों पर
आकर ठहर गई
और
आज तक
वहीं ठहरी हुई है
मेरे लिए
दुनियां की सबसे पवित्र
वस्तु के रूप में
तुम्हारे प्रेम का
यह उपहार
मेरे साथ रहेगा
हमेशा ।
................ Dr ManishkumarC.Mishra
जब तुम्हारे ओठ
चूम रहे थे
मेरे ओठों को
कि तभी
तुम्हारे गालों से
लुढ़कते हुए
आँसू की एक गर्म बूँद
मेरे गालों पर
आकर ठहर गई
और
आज तक
वहीं ठहरी हुई है
मेरे लिए
दुनियां की सबसे पवित्र
वस्तु के रूप में
तुम्हारे प्रेम का
यह उपहार
मेरे साथ रहेगा
हमेशा ।
................ Dr ManishkumarC.Mishra
14. अमलतास के गालों पर ।
अपने एकांत में
अपनी ही खामोशियाँ सुनता हूँ
सुबह की धूप से
जब आँखें चटकती हैं
तो महकी हुई रात के ख़्वाब पर
किसी रोशनी के
धब्बे देखता हूँ ।
धुंधलाई हुई शामों में
कुछ पुराने मंजरों का
जंगल खोजता हूँ
फ़िर वहीं
ख़्वाबों की धुन पर
अमलतास के गालों पर
शब्दों के ग़ुलाल मलता हूँ ।
तुम्हारी दी हुई
सारी पीड़ाओं के बदले
मैं
प्रार्थनाएं भेज रहा हूँ
करुणा के घटाओं से बरसते
उज्ज्वल और निश्छल
काँच से कुछ ख़्वाब हैं
जिन्हें फ़िर
तुम्हारे पास भेज रहा हूँ ।
हाँ !!
यह सच है कि
तुम्हारे बाद
मेरे कंधों पर
सिर्फ़ और सिर्फ़ समय का बोझ है
फ़िर भी
किसी अकेले दिग्भ्रमित
नक्षत्र की तरह
मैं समर्पण से प्रतिफलित
संभावनाएं भेज रहा हूँ ।
----- डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।
अपनी ही खामोशियाँ सुनता हूँ
सुबह की धूप से
जब आँखें चटकती हैं
तो महकी हुई रात के ख़्वाब पर
किसी रोशनी के
धब्बे देखता हूँ ।
धुंधलाई हुई शामों में
कुछ पुराने मंजरों का
जंगल खोजता हूँ
फ़िर वहीं
ख़्वाबों की धुन पर
अमलतास के गालों पर
शब्दों के ग़ुलाल मलता हूँ ।
तुम्हारी दी हुई
सारी पीड़ाओं के बदले
मैं
प्रार्थनाएं भेज रहा हूँ
करुणा के घटाओं से बरसते
उज्ज्वल और निश्छल
काँच से कुछ ख़्वाब हैं
जिन्हें फ़िर
तुम्हारे पास भेज रहा हूँ ।
हाँ !!
यह सच है कि
तुम्हारे बाद
मेरे कंधों पर
सिर्फ़ और सिर्फ़ समय का बोझ है
फ़िर भी
किसी अकेले दिग्भ्रमित
नक्षत्र की तरह
मैं समर्पण से प्रतिफलित
संभावनाएं भेज रहा हूँ ।
----- डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।
13. पागलपन ।
उस पागलपन के आगे
सारी समझदारी
कितनी खोखली
अर्थहीन
और निष्प्राण लगती है
वह पागलपन
जो तुम्हारी
मुस्कान से शुरू हो
खिलखिलाहट तक पहुँचती
फ़िर
तुम्हारी आँखों में
इंद्रधनुष से रंग भरकर
तुम्हारी शरारतों को
शोख़ व चंचल बनाती ।
वह पागलपन
जो मुझे रंग लेता
तुम्हारे ही रंग में
और ले जाता वहाँ
जहाँ ज़िन्दगी
रिश्तों की मीठी संवेदनाओं में
पगी और पली है ।
तुम्हारे बाद
इस समझदार दुनियाँ के
बोझ को झेलते हुए
लगातार
उसी पागलपन की
तलाश में हूँ ।
---------- मनीष कुमार मिश्रा ।
सारी समझदारी
कितनी खोखली
अर्थहीन
और निष्प्राण लगती है
वह पागलपन
जो तुम्हारी
मुस्कान से शुरू हो
खिलखिलाहट तक पहुँचती
फ़िर
तुम्हारी आँखों में
इंद्रधनुष से रंग भरकर
तुम्हारी शरारतों को
शोख़ व चंचल बनाती ।
वह पागलपन
जो मुझे रंग लेता
तुम्हारे ही रंग में
और ले जाता वहाँ
जहाँ ज़िन्दगी
रिश्तों की मीठी संवेदनाओं में
पगी और पली है ।
तुम्हारे बाद
इस समझदार दुनियाँ के
बोझ को झेलते हुए
लगातार
उसी पागलपन की
तलाश में हूँ ।
---------- मनीष कुमार मिश्रा ।
12. सपनों पर नींद के सांकल।
विरोध के
अनेक मुद्दों के बावजूद
आवाजों के अभाव में
तालू से चिपके शब्द
तमाम क्रूरताओं के बीच
क़स्बे की संकरी गलियों में
सहमे, सिहरे
भटक रहे हैं ।
अकुलाहट का
अनसुना संगीत
घुप्प अँधेरी रात में
विज्ञापनों की तरह
हवा में बिखर गया है
किसी की
आख़िरी हिचकी भी
आकाश की उस नीली गहराई में
न जाने कहाँ
खो गई ।
तुम्हारे सपनों पर
नींद के सांकल थे
परिणाम स्वरूप
उम्मीदें टूट चुकीं
तितली, चिड़िया और गौरैया
सब
अपराध में लिप्त पाये गये हैं
नई व्यवस्था में
सारी व्याख्याएँ
दमन की बत्तीसी के बीच
चबा-चबा कर
शासकों के
अनुकूल बन रही हैं ।
---- डॉ मनीष कुमार ।
अनेक मुद्दों के बावजूद
आवाजों के अभाव में
तालू से चिपके शब्द
तमाम क्रूरताओं के बीच
क़स्बे की संकरी गलियों में
सहमे, सिहरे
भटक रहे हैं ।
अकुलाहट का
अनसुना संगीत
घुप्प अँधेरी रात में
विज्ञापनों की तरह
हवा में बिखर गया है
किसी की
आख़िरी हिचकी भी
आकाश की उस नीली गहराई में
न जाने कहाँ
खो गई ।
तुम्हारे सपनों पर
नींद के सांकल थे
परिणाम स्वरूप
उम्मीदें टूट चुकीं
तितली, चिड़िया और गौरैया
सब
अपराध में लिप्त पाये गये हैं
नई व्यवस्था में
सारी व्याख्याएँ
दमन की बत्तीसी के बीच
चबा-चबा कर
शासकों के
अनुकूल बन रही हैं ।
---- डॉ मनीष कुमार ।
16. अपनी अनुपस्थिति से
अपनी अनुपस्थिति से
उपस्थित रहा
तुम्हारे ज़श्न में
और तुम्हें
लज्जित होने से
बचा पाया ।
अपने मौन से
भेज पाया
अपनी शुभकामनाएं
तुम्हारे लिए
प्रेम के कुछ अक्षत
तुम्हारी ज़िद्द को
बिना तोड़े ।
इसतरह
मिलता रहता हूँ
बिना मिले
कई सालों से
और
निभाता हूँ
कभी तुमसे
किया हुआ वादा ।
.................................... Dr Manishkumar C. Mishra
उपस्थित रहा
तुम्हारे ज़श्न में
और तुम्हें
लज्जित होने से
बचा पाया ।
अपने मौन से
भेज पाया
अपनी शुभकामनाएं
तुम्हारे लिए
प्रेम के कुछ अक्षत
तुम्हारी ज़िद्द को
बिना तोड़े ।
इसतरह
मिलता रहता हूँ
बिना मिले
कई सालों से
और
निभाता हूँ
कभी तुमसे
किया हुआ वादा ।
.................................... Dr Manishkumar C. Mishra
19.प्रज्ञा अनुप्राणित प्रत्यय
किसी प्रज्ञावान व्यक्ति का
शब्दबद्ध वर्णन
उसके सद्गुणों की
यांत्रिक व्याख्या मात्र है
या फ़िर
शब्दाडंबर ।
जबकि
उसकी वैचारिक प्रखरता
उसके लंबे
अध्यवसाय की
अंदरुनी खोह में
एक आंतरिक तत्व रूप में
कर्म वृत्तियों को
पोषित व प्रोत्साहित करती हैं ।
उच्च अध्ययन कर्म
एक ज्ञानात्मक उद्यम है
जो कि
प्रज्ञा की साझेदारी में
पोसती हैं
एक आभ्यंतर तत्व को
जो कि
अपने संबंध रूप में
ईश्वर का प्रत्यय है ।
लेकिन ध्यान रहे
घातक संलक्षणों से ग्रस्त
छिद्रान्वेषी मनोवृत्ति
आधिपत्यवादी
मानदंडों की मरम्मत में
प्रश्न से प्रगाढ़ होते रिश्तों की
जड़ ही काट देते हैं
और इसतरह
अपने सिद्धांतों के लिए
पर्याय बनने /गढ़ने वाले लोग
अपनी तथाकथित जड़ों में
जड़ होते -होते
जड़ों से कट जाते हैं ।
-- डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।
शब्दबद्ध वर्णन
उसके सद्गुणों की
यांत्रिक व्याख्या मात्र है
या फ़िर
शब्दाडंबर ।
जबकि
उसकी वैचारिक प्रखरता
उसके लंबे
अध्यवसाय की
अंदरुनी खोह में
एक आंतरिक तत्व रूप में
कर्म वृत्तियों को
पोषित व प्रोत्साहित करती हैं ।
उच्च अध्ययन कर्म
एक ज्ञानात्मक उद्यम है
जो कि
प्रज्ञा की साझेदारी में
पोसती हैं
एक आभ्यंतर तत्व को
जो कि
अपने संबंध रूप में
ईश्वर का प्रत्यय है ।
लेकिन ध्यान रहे
घातक संलक्षणों से ग्रस्त
छिद्रान्वेषी मनोवृत्ति
आधिपत्यवादी
मानदंडों की मरम्मत में
प्रश्न से प्रगाढ़ होते रिश्तों की
जड़ ही काट देते हैं
और इसतरह
अपने सिद्धांतों के लिए
पर्याय बनने /गढ़ने वाले लोग
अपनी तथाकथित जड़ों में
जड़ होते -होते
जड़ों से कट जाते हैं ।
-- डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।
20. नैतिक इतिहास ।
समुच्चय में निबद्ध
श्रेष्ठता के
आदर्शों का बोझ
नैमित्तिक स्तर पर
हमारे
नैतिक इतिहास को
अनुप्राणित करते हुए
बदलता है
शक्ति के
उत्पाद रूप में ।
सत्ता प्रयोजन से
संकुचित
परिवर्तन का लहज़ा
किसी विसम्यकारी
तकनीक से
हमारे सत्ता व ज्ञान सिद्धांत
हमेशा लोगों को
संरचनात्मक स्तर पर
एक लहर में
निगल जाती है
और हम
अपनी संकल्पनाओं से दूर
प्रस्थान करते हैं
जड़ताओं में
जड़ होते हैं ।
................ Dr Manishkumar C. Mishra
श्रेष्ठता के
आदर्शों का बोझ
नैमित्तिक स्तर पर
हमारे
नैतिक इतिहास को
अनुप्राणित करते हुए
बदलता है
शक्ति के
उत्पाद रूप में ।
सत्ता प्रयोजन से
संकुचित
परिवर्तन का लहज़ा
किसी विसम्यकारी
तकनीक से
हमारे सत्ता व ज्ञान सिद्धांत
हमेशा लोगों को
संरचनात्मक स्तर पर
एक लहर में
निगल जाती है
और हम
अपनी संकल्पनाओं से दूर
प्रस्थान करते हैं
जड़ताओं में
जड़ होते हैं ।
................ Dr Manishkumar C. Mishra
Thursday, 28 March 2019
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