Tuesday 30 July 2013

राष्ट्रीय सेमिनार दलित कविता: अस्मिता और प्रतिरोध की संस्कृति

राष्ट्रीय सेमिनार
दलित कविता: अस्मिता और प्रतिरोध की संस्कृति  
(23-24 जुलाई 2013)
बीज-वक्तव्य (Concept Note)
       समकालीन कविता ने अपना एक विशिष्ट मुकाम हासिल किया है जिसे देख कर यह कहा जा सकता है कि भारतीय परिदृश्य पर दलित कविता ने अपनी उपस्थिति दर्ज करके सामाजिक संवेदना में बदलाव की प्रक्रिया तेज की है। दलित कविता के इस स्वरूप ने निश्चित ही भारतीय मानस की सोच को बदला है।                           
       दलित कविता आनन्द या रसास्वादन की चीज नहीं है। बल्कि कविता के माध्यम से मानवीय पक्षों को उजागर करते हुए मनुष्यता के सरोकारों और मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना है। मनुष्य और प्रकृति, भाषा और संवेदना का गहरा रिश्ता है, जिसे दलित कविता ने अपने गहरे सरोकारों के साथ जोडा है।
       दलित कविता ने अपनी एक विकास – यात्रा तय की है, जिसमें वैचारिकता, जीवन-संघर्ष, विद्रोह ,आक्रोश, नकार, प्रेम, सांस्कृतिक छदम, राजनीतिक प्रपंच,वर्ण- विद्वेष, जाति के सवाल ,साहित्यिक छल आदि विषय बार –बार दस्तक देते हैं, जो दलित कविता की विकास –यात्रा के विभिन्न पड़ाव से होकर गुजरते हैं।
       दलित कवि के मूल में मनुष्य होता है, तो वह उत्पीड़न और असमानता के प्रति अपना विरोध दर्ज करेगा ही। जिसमें आक्रोश आना स्वाभाविक परिणिति है। जो दलित कवि की अभिव्यक्ति को यथार्थ के निकट ले जाती है। उसके अपने अंतर्विरोध भी हैं, जो कविता में छिपते नहीं हैं, बल्कि स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त होते हैं। दलित कविता का जो प्रभाव और उसकी उत्पत्ति है, जो आज भी जीवन पर लगातार आक्रमण कर रही है। इसी लिए कहा जाता है कि दलित कविता मानवीय मूल्यों और मनुष्य की अस्मिता के साथ खडी है।
       जिस विषमतामूलक समाज में एक दलित संघर्षरत हैं, वहां मनुष्य की मनुष्यता की बात करना अकल्पनीय लगता है। इसी लिए सामाजिकता में समताभाव को मानवीय पक्ष में परिवर्तित करना दलित कविता की आंतरिक अनुभूति है, जिसे अभिव्यक्त करने में गहन वेदना से गुजरना पडता है। भारतीय जीवन का सांस्कृतिक पक्ष दलित को उसके भीतर हीनता बोध पैदा करते रहने में ही अपना श्रेष्ठत्व पाता है। लेकिन एक दलित के लिए यह श्रेष्ठत्व दासता और गुलामी का प्रतीक है। जिसके लिए हर पल दलित को अपने ‘स्व’ की ही नहीं समूचे दलित समाज की पीड़ादायक स्थितियों से गुजरना पड़ता है।
      हिन्दी आलोचक कविता को जिस रूप में भी ग्रहण करें और साहित्यिक मापदंडों से उसकी व्याख्या करें, लेकिन दलित जीवन की त्रासद स्थितियां उसे संस्पर्श किये बगैर ही निकल जाती हैं। इसी लिए वह आलोचक अपनी बौद्धिकता के छदम में दलित कविता पर कुछ ऎसे आरोपण करता है कि दलित कविता में भटकाव की गुंजाईश बनने की स्थितियां  उत्पन्न होने की संभावनायें दिखाई देने लगती हैं। इसी लिए दलित कविता को डा.अम्बेडकर के जीवन-दर्शन, अतीत की भयावहता और बुद्ध के मानवीय दर्शन को हर पल सामने रखने की जरूरत पडती है, जिसके बगैर दलित कविता का सामाजिक पक्ष कमजोर पडने लगता है।
      समाज में रचा- बसा ‘विद्वेष’ रूप बदल–बदल कर झांसा देता है। दलित कवि के सामने ऎसी भयावह स्थितियां निर्मित करने के अनेक प्रमाण हर रोज सामने आते हैं, जिनके   बीच अपना रास्ता ढूंढना आसान नहीं होता है। सभ्यता ,संस्कृति के घिनौने सड़यंत्र लुभावने शब्दों से भरमाने का काम करते हैं। जहां नैतिकता, अनैतिकता और जीवन मूल्यों के बीच फर्क करना मुश्किल हो जाता है,फिर भी नाउम्मीदी नहीं है। एक दलित कवि की यही कोशिश होती है कि इस भयावह त्रासदी से मनुष्य स्वतंत्र होकर प्रेम और भाईचारे की ओर कदम बढाये, जिसका अभाव हजारों साल से साहित्य और समाज में दिखाई देता रहा है।
      दलित कविता निजता से ज्यादा सामाजिकता को महत्ता देती है। इसी लिए दलित कविता का समूचा संघर्ष सामाजिकता के लिए है। दलित कविता का सामाजिक यथार्थ ,जीवन संघर्ष और उसकी चेतना की आंच पर तपकर पारम्परिक मान्यताओं के विरुद्ध विद्रोह और नकार के रूप में अभिव्यक्त होता है। यही उसका केन्द्रीय भाव भी है, जो आक्रोश के रूप में दिखाई देता है। क्योंकि दलित कविता की निजता जब सामाजिकता में परिवर्तित होती है, तो उसके आंतरिक और बाहय द्वंद्व उसे संश्लिष्टता प्रदान करते हैं। यहां यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हिन्दी आलोचक अपने इर्द-गिर्द रचे–बसे संस्कारिक मापदंडो, जिसे वह सौन्दर्यबोध कहता है, से इतर देखने का अभ्यस्त नहीं है। इसी लिए उसे दलित कविता कभी अपरिपक्व लगती है, तो कभी सपाट बयानी, तो कभी बचकानी भी। दलित कविता की अंत:धारा और उसकी वस्तुनिष्ठता को पकड़ने की वह कोशिश नहीं करना चाहता है। यह कार्य उसे उबाऊ लगता है। इसी लिए वह दलित कविता से टकराने के बजाए बचकर निकल जाने में ही अपनी पूरी शक्ति लगा देता है।
      दलित चेतना दलित कविता को एक अलग और विशिष्ट आयाम देती है। यह चेतना उसे डा. अम्बेडकर जीवन–दर्शन और जीवन संघर्ष  से मिली है। यह एक मानसिक प्रक्रिया है जो इर्द-गिर्द फैले सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक छदमों से सावधान करती है। यह चेतना संघर्षरत दलित जीवन के उस अंधेरे से बाहर आने की चेतना है जो हजारों साल से दलित को मनुष्य होने से दूर करते रहने में ही अपनी श्रेष्ठता मानता रहा है। इसी लिए एक दलित कवि की चेतना और एक तथाकथित उच्चवर्णीय कवि की चेतना में गहरा अंतर दिखाई देता है। सामाजिक जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक घटना से मनुष्य प्रभावित होता है। वहीं से उसके संस्कार जन्म लेते हैं और उसकी वैचारिकता, दार्शनिकता ,सामाजिकता, साहित्यिक समझ प्रभावित होती हैं। कोई भी व्यक्ति अपने परिवेश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। इसी लिए कवि की चेतना सामाजिक चेतना का ही प्रतिबिम्ब बन कर उभरती है। जो उसकी कविताओं में मूर्त रूप में प्रकट होती है। इसी लिए दलित जीवन पर लिखी गयी रचनाएं जब एक दलित लिखता है और एक गैर दलित लिखता है तो दोनों की सामाजिक चेतना की भिन्नता साफ–साफ दिखाई देती है। जिसे अनदेखा करना हिन्दी आलोचक की विवशता है। यह जरूरी हो जाता है कि दलित कविता को पढते समय दलित–जीवन की उन विसंगतियों, प्रताडनाओं, भेदभाव, असमानताओं को ध्यान में रखा जाये, तभी दलित कविता के साथ साधारणीकरण की स्थिति उत्पन्न होगी।
       हिन्दी के कुछ विद्वानों, आलोचकों को लगता है कि दलित का जीवन बदल चुका है। लेकिन दलित कवि और साहित्यकार अभी भी अतीत का रोना रो रहे हैं और उनकी अभिव्यक्ति आज भी वहीं फुले, अम्बेडकर, पेरियार के समय में ही अटकी हुई है। यह एक अजीब तरह का आरोप है। आज भी दलित उसी पुरातन पंथी जीवन को भोग रहा है जो अतीत ने उसे दिया था। हां चन्द लोग जो गांव से निकल शहरों और महानगरों में आये ,कुछ अच्छी नौकरियां पाकर उस स्थिति से बाहर निकल आये हैं, शायद उन्हीं चन्द लोगों को देख कर विद्वानों ने अपनी राय बनाली है कि दलितों के जीवन में अंतर आ चुका है। लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है। महानगरों में रहने वालों की वास्तविक स्थिति वैसी नहीं है जैसी दिखाई दे रही है। यदि स्थितियां बदली होती तो दलितों को अपनी आईडेंटीटी छिपा कर महानगरों की आवासीय कालोनियों में क्यों रहना पडता। वे भी दूसरों की तरह स्वाभिमान से जीते, लेकिन ऎसा नहीं हुआ। समाज उन्हें मान्यता देने के लिए आज भी तैयार नहीं है।
       शहरों और महानगरों से बाहर ग्रामीण क्षेत्रों में दिन रात खेतों, खलिहानों, कारखानों में पसीना बहाता दलित जब थका-मांदा घर लौटता है, तो उसके पास जो है वह इतना कम है कि वह अपने पास क्या जोड़े और क्या घटाये, कि स्थिति में होता है। ऊपर से सामाजिक विद्वेष उसकी रही सही उम्मीदों पर पानी फेर देता है। इसी लिए अभावग्रस्त जीवन से उपजी विकलताओं, जिजिविषायें दलित कवि की चेतना को संघर्ष के लिए उत्प्रेरित करती हैं, जो उसकी कविता का स्थायी भाव बनकर उभरता है। और दलित कविता में दलित जीवन और उसकी विवशतायें बार-बार आती हैं। इसी लिए कवि का ‘मैं ‘हम’ बनकर अपनी व्यक्तिगत, निजी चेतना को सामाजिक चेतना में बदल देता है। साथ ही मानवीय मूल्यों को गहन अनुभूति के साथ शब्दों में ढालने की प्रवृत्ति भी उसकी पहचान बनती है।
       दलित कविता को मध्यकालीन संतों से जोड़कर देखने की भी प्रवृति इधर दिखाई देती है। जिस पर गंभीर और तटस्थ विवेचना की आवश्यकता है। संत काव्य की अध्यात्मिकता, सामाजिकता और उनके जीवन मूल्यों की प्रासंगिकता के साथ डॉ॰ अंबेडकर के मुक्ति –संघर्ष से उपजे साहित्य की अंत:चेतना का विश्लेषण करते हुए ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। जो समकालीन सामाजिक संदर्भो के लिए जरूरी लगता है, जिस पर गहन चिंतन की आवश्यकता है।
      दलित कविता में आक्रोश, संघर्ष, नकार, विद्रोह, अतीत की स्थापित मान्यताओं से है। वर्तमान के छदम से है, लेकिन मुख्य लक्ष्य जीवन में घृणा की जगह प्रेम, समता, बन्धुता, मानवीय मूल्यों का संचार करना ही दलित कविता का लक्ष्य है।

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