Tuesday, 31 January 2012
मुंबई में राष्ट्रीय संगोष्ठी
मुंबई के प्रतिष्ठित के. सी . कालेज के हिन्दी विभाग द्वारा 17-18 फरवरी 2012 को एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है । संगोष्ठी का विषय है -
साहित्य,समाज और मीडिया
इस संगोष्ठी में शामिल होने के लिए 200 रूपये पंजीकरण शुल्क है ।
आवास की व्यवस्था आप को स्वयं करनी होगी ।
रात्रि के भोजन की भी व्यवस्था आप को स्वयं करनी होगी ।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें
डॉ . शीतला प्रसाद दुबे
अध्यक्ष - हिन्दी विभाग
के . सी. कालेज
Address:
124, Dinshaw Wachha Road,
Churchgate,
Mumbai - 400 020.
Email:
mjnichani@kccollege.org.in
vp_dabholkar@kccollege.org.in
vp_bagla@kccollege.org.in
vp_padhi@kccollege.org.in
vp_gvalani@kccollege.org.in
info@kccollege.org.in
Tel: 91-22-2285 5726, 2202 0132.
Fax: 91-22-2202 9092
Google Maps

चर्चगेट , मुंबई
फोन - 91-22-2285 5726
साहित्य,समाज और मीडिया
इस संगोष्ठी में शामिल होने के लिए 200 रूपये पंजीकरण शुल्क है ।
आवास की व्यवस्था आप को स्वयं करनी होगी ।
रात्रि के भोजन की भी व्यवस्था आप को स्वयं करनी होगी ।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें
डॉ . शीतला प्रसाद दुबे
अध्यक्ष - हिन्दी विभाग
के . सी. कालेज
Address:
124, Dinshaw Wachha Road,
Churchgate,
Mumbai - 400 020.
Email:
mjnichani@kccollege.org.in
vp_dabholkar@kccollege.org.in
vp_bagla@kccollege.org.in
vp_padhi@kccollege.org.in
vp_gvalani@kccollege.org.in
info@kccollege.org.in
Tel: 91-22-2285 5726, 2202 0132.
Fax: 91-22-2202 9092
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चर्चगेट , मुंबई
फोन - 91-22-2285 5726
Monday, 30 January 2012
एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन
मित्रों, दिल्ली विश्वविद्यालय के पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज (सांध्य) द्वारा एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है. यह गोष्ठी 21 मार्च 2012 को होगी.
इस गोष्ठी का विषय है --- 'पत्रकारिता का बदलता स्वरुप और न्यू मीडिया'.
आप सभी से इस संगोष्ठी के लिए आलेख आमंत्रित हैं. आलेखों का प्रकाशन पुस्तक रूप में किया जायेगा. अध्यापकों के अतिरिक्त शोधार्थी, पत्रकार और ब्लॉगर भी इस संगोष्ठी के लिए अपने आलेख प्रेषित कर सकते हैं. कुछ चयनित आलेखों के सार को संगोष्ठी के दौरान पदने का अवसर भी दिया जायेगा जिसके उपरांत विशेषज्ञ विद्वान अपने विचार रखेंगे. स्वीकृत आलेखों पर लेखकों को आलेख प्रस्तुतिकरण का प्रमाण पत्र भी दिया जायेगा.
इस संगोष्ठी की सूचना के प्रकाशन के साथ ही हमें न्यूजीलैंड और मोरिशस से कुछ मित्रों के ईमेल प्राप्त हुए है जो अपने आलेख संगोष्ठी के लिए देना चाहते हैं. यह हमारे लिए खुशी की बात है कि इस राष्ट्रीय संगोष्ठी का स्वरुप अंतर्राष्ट्रीय हो गया है. यदि विदेश में रहने वाले मित्र इस संगोष्ठी में अपने आगमन की सूचना हमें 10-15 दिनों में दे देते हैं तो हम संगोष्ठी को 'राष्ट्रीय' के स्थान पर 'अंतर्राष्ट्रीय' स्वरुप प्रदान कर देंगे.
संगोष्ठी में भाग लेने वाले प्रतिभागियों से किसी भी प्रकार का पंजीकरण शुल्क नहीं लिया जायेगा. प्रतिभागियों को अपने रहने और रात्रि भोजन की व्यवस्था स्वयं करनी होगी तथा उन्हें किसी भी प्रकार का मार्गव्यय प्रदान नहीं किया जायेगा.
आपके आलेख drharisharora@gmail.com, davseminar@gmail.com पर भेजे जा सकते हैं. 29 फरवरी, 2012 तक प्राप्त होने वाले आलेखों को पुस्तक में स्थान मिलना संभव हो पायेगा. शेष आलेखों के लिए पुस्तक के पुनर्प्रकाशन पर विचार किया जायेगा.
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें :-
drharisharora@gmail.com
+919811687144
डॉ हरीश अरोड़ा
अध्यक्ष, हिंदी विभाग
पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज (सांध्य)
दिल्ली विश्वविद्यालय
नेहरु नगर, नयी दिल्ली-११००६५
Sunday, 29 January 2012
'पत्रकारिता का बदलता स्वरुप और न्यू मीडिया'. राष्ट्रीय संगोष्ठी
मित्रों, जल्दी ही दिल्ली विश्वविद्यालय के पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज (सांध्य) द्वारा एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है. यह गोष्ठी मार्च के मध्य में होगी. इस गोष्ठी का विषय है --- 'पत्रकारिता का बदलता स्वरुप और न्यू मीडिया'. आप सभी से इस संगोष्ठी के लिए आलेख आमंत्रित हैं. आलेखों का प्रकाशन पुस्तक रूप में किया जायेगा. अध्यापकों के अतिरिक्त शोधार्थी, पत्रकार और ब्लॉगर भी इस संगोष्ठी के लिए अपने आलेख प्रेषित कर सकते हैं. २-३ दिनों में संगोष्ठी की तिथि तय होते ही फेसबुक पर सूचना प्रेषित कर दी जायेगी. कुछ चयनित आलेखों के सार को संगोष्ठी के दौरान पदने का अवसर भी दिया जायेगा जिसके उपरांत विशेषज्ञ विद्वान अपने विचार रखेंगे. स्वीकृत आलेखों पर लेखकों को आलेख प्रस्तुतिकरण का प्रमाण पत्र भी दिया जायेगा.
आपके आलेख drharisharora@gmail.com, davseminar@gmail.com पर भेजे जा सकते हैं. २९ फरवरी, २०१२ तक प्राप्त होने वाले आलेखों को पुस्तक में स्थान मिलना संभव हो पायेगा. शेष आलेखों के लिए पुस्तक के पुनर्प्रकाशन पर विचार किया जायेगा.
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें :-
drharisharora@gmail.com
डॉ हरीश अरोड़ा
अध्यक्ष, हिंदी विभाग
पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज (सांध्य)
दिल्ली विश्वविद्यालय
नेहरु नगर, नयी दिल्ली-११००६५
आगरा में राष्ट्रीय संगोष्ठी
राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं कार्यशाला
प्रिय महानुभाव,
यह सूचित करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है कि
हिन्दी विभाग, आगरा कॉलेज, आगरा
‘विश्व विद्यालय अनुदान आयोग’ के
सौजन्य से ‘श्रमिक जन-विसर्जन, जन
भाषायें और भाषा विकास’ विषय पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी और
कार्यशाला का आयोजन कर रहा है। हिन्दुस्तान की तारीख में यह बात दर्ज है कि लोगों
का हिन्दुस्तान आने का सिलसिला बहुत पुराना और लम्बे समय तक चलने वाला रहा है।
कितनी की भाषाओं, संस्कृतियों और स्मृतियों के साथ लोग
यहाँ आये और अन्य भाषाओं, संस्कृतियों के साथ सम्पर्क- सम्मिलन
की तरह तरह की प्रक्रियाओं के अधीन नई भाषा- संस्कृतियों के सूत्रधार बने। आज जो
हिन्दी भाषा और संस्कृति हमारे सरोकारों का विषय है वह ऐसी ही कथाओं की देन है।
जन-विसर्जन लोगों के मिलने- बिछड़ने का सांस्कृतिक पक्ष है जिसका फैलाव लोगों के
पहली बार के प्राकृतिक कारकों से बिखरने से लेकर वर्तमान वैश्विक दुनियां के
श्रमिक समूहों तक जाता है। इतिहास के तमाम पक्ष बारबार ऐसे जन-विसर्जनों पर वज़न
देते आते हैं जिन्होंने सदियों के इतिहास को प्रभावित किया. भाषा की तमाम अनसुलझी
गुत्थियाँ जो कि इतिहास के तमाम पहलुओं पर नई रोशनी डालने में सक्षम होने की
सम्भावना से भरी हैं, ऐसे जन-विसर्जनों के भीतर झाँकने को
आवश्यक शर्त के रूप में हमारे सामने रखती हैं.
जन विसर्जन का भी एक विशेषीकृत
पक्ष श्रमिक जन- विसर्जन है. भाषा किसी भी सभ्यता के इतिहास को जानने का सबसे
प्रामाणिक आधार है. श्रमिक जनों की भाषा में अभी भी भाषा के आदिम तथ्य मिलने की
सम्भावना अपेक्षाकृत रूप से अधिक है. जन-विसर्जनों ने इस आदिमता को बिल्कुल अलग
तरह से प्रभावित किया है. श्रमिक जनों की भाषा से यह आदिमता चली नहीं गयी है, वरन्
इसने आधुनिक भाषाओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
हिन्दी भाषा का वर्तमान भाषाई रूप हिन्दी भाषी
क्षेत्र की भिन्न-भिन्न बोलियों और भाषाओं के साथ किस सम्बन्ध संरचना में खड़ा है
यह एक विचारणीय मुद्दा रहा है और आज भी है. इन भिन्न-भिन्न बोलियों और भाषाओं के
बोलने वाले श्रमिक-जन जीवन संघर्ष और विकास प्रक्रियाओं के दबाव में हमेशा इन
क्षेत्रों से बाहर जाते और धकेले जाते रहे हैं. वे अपनी भाषा, अपनी
संस्कृति साथ लेकर जाते हैं और एक मेजबान
(host) भाषा और संस्कृति के साथ समंजन प्रक्रिया से
गुजरते है, परिणामतः एक नई भाषा जन्म लेती है और
कई माइनों में यह सत्ता के केन्द्रों की भाषा ही होती है. हिन्दी के विकास में इस
प्रक्रिया का बड़ा और महत्वपूर्ण योगदान है.
इस कार्यशाला का उद्देश्य हिन्दी क्षेत्र की
भिन्न भिन्न बोलियों और भाषाओं से हुई जन-विसर्जन की पूरी प्रक्रिया को एक व्यापक
धरातल पर सामने लाना, भाषाई तथ्यों को सभी जन भाषाओं के
परिप्रेक्ष्य में एक मंच पर सामने रखते हुए हिन्दी के विकास के कुछ महत्वपूर्ण
आयामों को शेयर करना है ताकि एक अधिक स्पष्ट तस्वीर सामने आ सके. कोई भी भाषा अपने
इतिहास में तमाम ऐसे सन्दर्भों को समाहित रखती है कि उनके सामने आने से समाज, संस्कृति
और इतिहास के बारे पहले से निर्धारित धारणाओं में कई बार बड़े परिवर्तन की दरकार
कायम हो जाती है. इस कार्यशाला के पीछे जो प्राक्कल्पना काम कर रही है वह यह है कि
यदि हिन्दी क्षेत्र की भिन्न भिन्न बोलियों और भाषाओं के विसर्जन पक्ष से निकलने
वाले तमाम तथ्यों को एक मंच पर सामने रखा जाय तो निश्चत रूप से भाषा के विकास के
सम्बन्ध में जो निर्णय हम लेने की स्थिति में होंगे वे महत्वपूर्ण और नये होंगे.
इस राष्ट्रीय संगोष्ठी और कार्यशाला में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए आप सादर आमन्त्रित हैं।
इस संगोष्ठी और कार्यशाला में निम्न उपविषयों
का समावेश किया गया है
श्रमिक-जन विसर्जन और भाषा विकास
जन-विसर्जनः साहित्य, स्मृति
और इतिहास
जन-विसर्जनः परिघटना और प्रारूप
जन-विसर्जनः भाषा और संस्कृति का परिप्रेक्ष्य
विस्थापन, सांस्कृतिक
सम्पर्क और भाषाई सम्भावनायें-
मानसिक विस्थापन और सांस्कृतिक प्रश्न
वैश्विक विस्थापन, बहुसांस्कृतिक
केन्द्र और भाषा विकास
भाषाई भिन्नतायें और राष्ट्र का विकास
निजभाषाभिमान, विभाषा
और वैश्विकव्यवस्था
मानकीकरण, जनअधिकार
और भाषा का विकास
लोकभाषा, जन
भाषा और साहित्य भाषा
हिन्दी क्षेत्र से राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय
जन विसर्जन और हिन्दी भाषा का विकास
आप्रवासी भारतीय श्रमिक जन और हिन्दी के
विविधरूप
जन भाषायें, श्रमिक
जन विसर्जन और आधुनिक हिन्दी भाषा का विकास (ब्रज भाषा, बुन्देली, बाँगरू, भोजपुरी,अवधी,
छत्तीसगढ़ी)
दलितों की भाषा- स्वरूप और बदलाव
हिन्दी भाषा और जन जातीय भाषायें
भाषाई अस्मिता, साम्प्रदायिकता
और जन-विसर्जन
आधुनिक भारत के श्रमिक संकेन्द्रण केन्द्र और
हिन्दी भाषा
शहरीकरण और हिन्दी भाषा के विविध रूप
स्त्री श्रमिक भाषा का सन्दर्भ
महत्वपूर्ण तिथियाँ
पूर्ण शोध पत्र जमा करने की तिथि- 15
फरवरी 2012
पंजीकरण की अन्तिम तिथि- 05
मार्च 2012
पंजीकरण
संकाय सदस्य- 800
रु.
शोधार्थी- 400
रु.
तत्काल पंजीकरण शुल्क
संकाय सदस्य 1000
रु.
शोधार्थी 500
रु.
(तत्काल
पंजीकरण केवल सहभागिता के लिए ही सम्भव हो सकेगा।)
आयोजन स्थल
ऑडीटोरियम हॉल,
आगरा कॉलेज, आगरा
Organizing secretary
Dr. Bhoopal Singh
Assistant Professor,
Hindi Department, Agra College, Agra
Mob. (+91)9557000177
Contact:
Saturday, 28 January 2012
आखिर प्यार पे इतनी पैनी नजर क्यों होती है
सोचता हूँ कि आखिर प्यार पे इतनी पैनी नजर क्यों होती है ।
इच्छाओं के बीच इतने नियम कहाँ से आ जाते हैं ?
अनुराग को व्यभिचार की चार दिवारी क्यों दे दी जाती है ?
एक जन्म बमुश्किल निभा पानेवाले ,
सात जन्मों की कसम कैसे खा लेते हैं ?
सम्बन्धों का समीकरण प्रेम से ज्यादा ,
खोखली समाजिकता का मोहताज क्यों है ?
इच्छाओं के बीच इतने नियम कहाँ से आ जाते हैं ?
अनुराग को व्यभिचार की चार दिवारी क्यों दे दी जाती है ?
एक जन्म बमुश्किल निभा पानेवाले ,
सात जन्मों की कसम कैसे खा लेते हैं ?
सम्बन्धों का समीकरण प्रेम से ज्यादा ,
खोखली समाजिकता का मोहताज क्यों है ?
दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का दूसरा दिन
दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय
संगोष्ठी का दूसरा दिन
आज मुंबई के एस..आई .ई.एस.
महाविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वार आयोजित दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का
दूसरा दिन है । संगोष्ठी का विषय है- प्रवासी हिंदी साहित्य ;
उपलब्धियाँ और अपेक्षाएँ ।
संगष्ठी के दूसरे दिन का पहला प्रारम्भ हुआ ।
डॉ शीतला प्रसाद दुबे, डॉ. एम . विमला , स्नेह ठाकुर ,
डॉ. अनीता कपूर और मधु अरोड़ा मंच पर है । डॉ रेखा संचालन कर रही है । डॉ शीतला
प्रसाद दुबे जी ने पुष्पा जी की प्रेम की कहानियों पर आलेख प्रस्तुत किया। डॉ एम
विमला अपना पर्चा पढ़ रही हैं। सुधा ढींगरा की कहानियों पर उनका पर्चा है । क्षितिज
से परे कहानी की चर्चा कर रही हैं। उसका आकाश ध्ंधला है कहानी की भी बात की ।
स्त्री से संबन्धित उनकी कहानियों की चर्चा हुई । आ
Wednesday, 25 January 2012
INDIA FLAG - SHORT HISTORY & MEANING OF TRICOLOUR IN INDIAN FLAG
INDIA FLAG - SHORT HISTORY & MEANING OF TRICOLOUR IN INDIAN FLAG
The National Flag of India was adopted in its present form during an ad hoc meeting of the Constituent Assembly held on the 22 July 1947, a few days before India's independence from the British on 15 August, 1947.
The flag is a horizontal tricolour of "deep saffron" at the top, white in the middle, and green at the bottom. In the centre, there is a navy blue wheel with twenty-four spokes, known as the Ashoka Chakra, taken from the Ashoka pillar at Sarnath. The diameter of this Chakra is three-fourths of the height of the white strip. The ratio of the width of the flag to its length is 2:3 Each colour in the flag represents something different. the saffron stands for purity and spirituality, white for peace and truth, green for fertility and prosperity and the wheel for justice.
"Bhagwa or the saffron colour denotes renunciation of disinterestedness. Our leaders must be indifferent to material gains and dedicate themselves to their work. The white in the centre is light, the path of truth to guide our conduct. The green shows our relation to (the) soil, our relation to the plant life here, on which all other life depends. The "Ashoka Chakra" in the centre of the white is the wheel of the law of dharma. Truth or satya, dharma or virtue ought to be the controlling principle of those who work under this flag. Again, the wheel denotes motion. There is death in stagnation. There is life in movement. India should no more resist change, it must move and go forward. The wheel represents the dynamism of a peaceful change."
- Sarvepalli Radhakrishnan
- Sarvepalli Radhakrishnan
Tuesday, 24 January 2012
पहला प्यार
पहला प्यार पहला प्यार होता है ।
आखिर यह जब भी होता है,
पहला ही होता है ।
शायद यही कारण है कि
यह इतना आकर्षक और मोहक होता है ।
शाश्वत भी यह ,
इसी कारण होता है ।
नव पर नव की अभिलाषा,
प्यार में ही संभव है ।
आगे बढ़ना ही,प्यार है ।
नया ही प्यार है ।
पहला प्यार ,
दरअसल भ्रम है
प्यार हमेशा ही ,
पहला ही होता है ।
आखिर यह जब भी होता है,
पहला ही होता है ।
शायद यही कारण है कि
यह इतना आकर्षक और मोहक होता है ।
शाश्वत भी यह ,
इसी कारण होता है ।
नव पर नव की अभिलाषा,
प्यार में ही संभव है ।
आगे बढ़ना ही,प्यार है ।
नया ही प्यार है ।
पहला प्यार ,
दरअसल भ्रम है
प्यार हमेशा ही ,
पहला ही होता है ।
Monday, 23 January 2012
वेब मीडिया और हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य
वेब मीडिया और हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य - इस विषय पर अगले वर्ष11-12 जनवरी 2013 को दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय कान्फ्रेंस का आयोजन करने जा रहा हूँ। आप सभी के सहयोग की आवश्यकता पड़ेगी।
आप सभी के सुझाओं का स्वागत है ।
श्री रामचरण (सुंदर ) पंडित मेमोरियल बैडमिंट्न टूर्नामेंट -2012
प्रेस विज्ञप्ति
श्री रामचरण9 (सुंदर ) पंडित मेमोरियल बैडमिंट्न टूर्नामेंट -2012 का आयोजन रविवार दिनांक 22जनवरी 2012 से मंगलवार 24 जनवरी 2012 तक किया जा रहा है । यह टूर्नामेंट यशोसुंदर ,सौ.एम.जे.पंडित चेरीबल ट्रस्ट और के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय के संयुक्त
तत्वावधान में किया जा रहा है ।
स्वर्गीय
रामचरण (सुंदर ) पंडित स्वयं एक अच्छे खिलाड़ी थे। इस टूर्नामेंट में अलग-अलग आयु
वर्ग के 200 से अधिक खिलाड़ी कल्याण और आस-पास के विद्यालयों और महाविद्यालयों से
सहभागी हो रहे हैं। श्री विजय पंडित जी के कुशल मार्ग दर्शन में यह आयोजन विगत कई
वर्षों से सफलता पूर्वक आयोजित किया जा रहा है ।
खिलाड़ियों
को हर संभव मदद संस्था की तरफ से इस आयोजन को लेकर दी जा रही है । के.एम .अग्रवाल
महाविद्यालय के उप-प्राचार्य डॉ. राजबहादुर सिंह जी की देख –रेख में यह कार्यक्रम
आयोजित हो रहा है । स्पोर्ट्स शिक्षक श्री विजय सिंह, श्री सालवे जी, श्री कुमार
पंडित, श्री जितेंद्र पांडे एवं आयोजन समिति के कई लोग कार्यक्रम को सफल
बनाने के लिए मेहनत कर रहे हैं ।
डॉ. मनीष
कुमार मिश्रा
Saturday, 21 January 2012
Friday, 20 January 2012
Wednesday, 18 January 2012
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शैक्षणिक दृष्टिकोण
रवीन्द्रनाथ ठाकुर
का शैक्षणिक दृष्टिकोण
डॉ.मनीष कुमार मिश्रा
डॉ. अनिता मन्ना
कोलकाता
के जोड़ासांको के प्रिन्स द्वारकानाथ ठाकुर के तीन पुत्र थे – देवेन्द्रनाथ, गिरिन्द्रनाथ और नगेन्द्रनाथ। महर्षि
देवेन्द्रनाथ ठाकुर और शारदादेवी के समृद्ध, शिक्षित और धर्म-परायण परिवार में 7 मई
1861, मंगलवार को प्रातः तीन बजे रवीन्द्रनाथ
ठाकुर का जन्म हुआ। ‘मेरे बचपन
के दिन’ नामक पुस्तक में उन्होंने अपने
बाल्यकाल की घटनाओं का बड़ा मनोरंजक वृत्तांत लिखा है। वे अपने 14 भाइयों में सबसे छोटे थे।
रवीन्द्र ठाकुर अपने शैशव में बहुत अनोखे थे।
जमींदार के नौकरों का शासन उन पर चलता था, जो खड़िया से एक रेखा खींचकर उसके अंदर
ही बने रहने का निर्देश देते थे अन्यथा वह रवीन्द्र को आतंकित करते कि उन्हे भूत-प्रेत
आकर परेशान करेगे। रवीन्द्रनाथ अपनी माता शारदा देवी से नौकरो की जब शिकायत करते तो
वह भी उन्हें आदेश का पालन करना उनके हित में बतातीं। रवीन्द्र को पढ़ाने के लिए अंग्रेजी, गणित, संगीत आदि के शिक्षकों के समय अलग-अलग
थे। दिन भर उनके आते-जाते रहने के कारण रवीन्द्र को अपना समय बिताने की स्वतंत्रता
नहीं थी।
उनकी आरंभिक शिक्षा ‘बंगाल एकेडमी’ में हुई पर
वहां का वातावरण रास नहीं आने के कारण स्कूल जाने से मना कर दिया। आगे की पढ़ाई घर पर
ही हुई। टैगोर ने बैरिस्टर बनने की
चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने
लंदन कॉलेज विश्वविद्यालय में क़ानून का अध्ययन किया लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल
किए ही वापस आ गए। रबीन्द्रनाथ टैगोर को बचपन से ही कविताऐं और कहानियाँ लिखने का शौक़
था। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर एक जाने-माने समाज सुधारक थे। वे चाहते थे कि रबीन्द्र
बडे होकर बैरिस्टर बनें। इसलिए उन्होंने रबीन्द्र को क़ानून की पढ़ाई के लिए लंदन भेजा।
लेकिन रबीन्द्र का मन साहित्य में ही रमता था। उन्हें अपने मन के भावों को काग़ज़ पर
उतारना पसंद था। आख़िरकार, उनके पिता ने पढ़ाई के बीच में ही उन्हें
वापस भारत बुला लिया और उन पर घर-परिवार की ज़िम्मेदारियाँ डाल दीं।
13 वर्ष की अवस्था में 8 मार्च, 1874 को उनके सिर से मां का साया हट गया।
अंग्रेज़ी की पढ़ाई के लिए 1878 में इंगलैंड भेजे गए। वहां से लौटे तो 9 दिसम्बर
1883 को कुमारी मृणालिनी के साथ उनका विवाह हुआ। दुर्भाग्य कि 1902 से 1907 के बीच
पत्नी (नवम्बर,
1902), पुत्री (1903), पुत्र एवं पिता (1905) एक-एक कर संसार
से विदा हो गए। इस विकट दुख ने उनके जीवन की धारा ही बदल दी और वे पूरे संसार को ही
अपना परिवार समझने लगे।
भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ रूप से पश्चिमी देशों
का परिचय और पश्चिमी देशों की संस्कृति से भारत का परिचय कराने में टैगोर की बड़ी भूमिका
रही तथा आमतौर पर उन्हें आधुनिक भारत का असाधारण सृजनशील कलाकार माना जाता है। बचपन
से ही उनकी कविता, छन्द
और भाषा में प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की
उम्र में लिखी थी और 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई
थी। भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूँकने वाले युग दृष्टा टैगोर के सृजन संसार
में गीतांजलि,
पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि शामिल
हैं। देश और विदेश के सारे साहित्य, दर्शन,
संस्कृति आदि उन्होंने
आहरण करके अपने अन्दर समेट लिए थे। पिता के ब्रह्म-समाजी के होने के कारण वे भी ब्रह्म-समाजी
थे। पर अपनी रचनाओं व कर्म के द्वारा उन्होंने सनातन धर्म को भी आगे बढ़ाया।
टैगोर को बचपन से ही प्रकृति का सान्निध्य
बहुत भाता था। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को
अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में सियालदह छोड़कर आश्रम
की स्थापना करने के लिए शान्तिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर
ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की।
टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। रवींद्र
संगीत बाँग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं
किया जा सकता। उनकी अधिकतर रचनाएँ तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी
शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के अलग-अलग रंग प्रस्तुत
करते हैं।अलग-अलग रागों में गुरुदेव के गीत यह आभास कराते हैं मानो उनकी रचना उस राग
विशेष के लिए ही की गई थी। प्रकृति के प्रति गहरा लगाव रखने वाला यह प्रकृति प्रेमी
ऐसा एकमात्र व्यक्ति है जिसने दो देशों के लिए राष्ट्रगान लिखा।
तीन देशों के राष्ट्रगानों के रचयिता रवीन्द्रनाथ टैगोर के पारंपरिक
ढांचे के लेखक नहीं थे। वे एकमात्र कवि हैं जिनकी दो रचनाएँ तीन देशों का राष्ट्रगान बनीं- भारत का राष्ट्र-गान जन
गण मन और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बांग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।इसके अतिरिक्त श्रीलंका का राष्ट्र
गान भी रवीन्द्र जी के ही एक गीत का अनुवाद है। वे वैश्विक
समानता और एकांतिकता के पक्षधर थे। ब्रह्मसमाजी होने के बावज़ूद उनका दर्शन एक अकेले
व्यक्ति को समर्पित रहा। चाहे उनकी ज़्यादातर रचनाऐं बांग्ला में लिखी हुई हों। वह
एक ऐसे लोक कवि थे जिनका केन्द्रीय तत्त्व अंतिम आदमी की भावनाओं का परिष्कार करना
था। वह मनुष्य मात्र के स्पन्दन के कवि थे। एक ऐसे कलाकार जिनकी रगों में शाश्वत प्रेम
की गहरी अनुभूति है, एक ऐसा नाटककार जिसके
रंगमंच पर सिर्फ़ 'ट्रेजडी' ही ज़िंदा नहीं है, मनुष्य की गहरी जिजीविषा भी है। एक ऐसा कथाकार जो अपने
आस-पास से कथालोक चुनता है, बुनता है, सिर्फ़ इसलिए नहीं कि घनीभूत पीड़ा के आवृत्ति करे
या उसे ही अनावृत्त करे, बल्कि उस कथालोक
में वह आदमी के अंतिम गंतव्य की तलाश भी करता है।
सियालदह
और शजादपुर स्थित अपनी ख़ानदानी जायदाद के प्रबंधन के लिए 1891 में टैगोर ने 10 वर्ष
तक पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांगला देश) में रहे, वहाँ वह अक्सर पद्मा नदी (गंगा नदी) पर एक हाउस बोट
में ग्रामीणों के निकट संपर्क में रहते थे और उन ग्रामीणों की निर्धनता व पिछड़ेपन
के प्रति टैगोर की संवेदना उनकी बाद की रचनाओं का मूल स्वर बनी। उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ, जिनमें 'दीन-हीनों' का जीवन और उनके छोटे-मोटे दुख' वर्णित हैं, 1890 के बाद की हैं और उनकी मार्मिकता में हल्का सा
विडंबना का पुट है। जो टैगोर की निजी विशेषता है तथा जिसे निर्देशक सत्यजित राय अपनी
बाद की फ़िल्मों में कुशलतापूर्वक पकड़ पाए हैं।
साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में
टैगोर की चित्रकला यात्रा शुरू हुई। यह उनके कवित्य सजगता का विस्तार था। हालांकि उन्हें
कला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी उन्होंने एक सशक्त एवं सहज दृश्य शब्दकोष का
विकास कर लिया था। श्री टैगोर की इस उपलब्धि के पीछे आधुनिक पाश्चात्य, पुरातन एवं बाल्य कला जैसे दृश्य कला के विभिन्न स्वरूपों
की उनकी गहरी समझ थी। एक अवचेतन प्रक्रिया के रूप में आरंभ टैगोर की पांडुलिपियों में
उभरती और मिटती रेखाएं ख़ास स्वरूप लेने लगीं। धीरे-धीरे टैगोर ने कई चित्रों को उकेरा
जिनमें कई बेहद काल्पनिक एवं विचित्र जानवरों, मुखौटों, रहस्यमयी
मानवीय चेहरों,
गूढ़ भू-परिदृश्यों, चिड़ियों एवं फूलों के चित्र थे। उनकी कृतियों में
फंतासी, लयात्मकता एवं जीवंतता का अद्भुत संगम दिखता है। कल्पना
की शक्ति ने उनकी कला को जो विचित्रता प्रदान की उसकी व्याख्या शब्दों में संभव नहीं
है। कभी-कभी तो ये अप्राकृतिक रूप से रहस्यमयी और कुछ धुंधली याद दिलाते हैं। तकनीकी
रूप में टैगोर ने सर्जनात्मक स्वतंत्रता का आनंद लिया। उनके पास कई उद्वेलित करने वाले
विषय थे जिनको लेकर बेशक कैनवस पर रंगीन रोशनाई से लिपा-पुता चित्र बनाने में भी उन्हें
हिचक नहीं हुई।
टैगोर की कविताओं की पांडुलिपि को सबसे पहले विलियम रोथेनस्टाइन ने पढ़ा था
और वे इतने मुग्ध हो गए कि उन्होंने अँग्रेज़ी कवि यीट्स से संपर्क किया और पश्चिमी
जगत के लेखकों,
कवियों, चित्रकारों और चिंतकों से टैगोर का परिचय कराया। उन्होंने
ही इंडिया सोसायटी से इसके प्रकाशन की व्यवस्था की। शुरू में 750 प्रतियाँ छापी गईं, जिनमें से सिर्फ़ 250 प्रतियाँ ही बिक्री के लिए थीं।
बाद में मार्च 1913 में मेकमिलन एंड कंपनी लंदन ने इसे प्रकाशित किया और 13 नवंबर
1913 को नोबेल पुरस्कार की घोषणा से पहले इसके दस संस्करण छापने पड़े। यीट्स ने टैगोर
के अँग्रेज़ी अनुवादों का चयन करके उनमें कुछ सुधार किए और अंतिम स्वीकृति के लिए उन्हें
टैगोर के पास भेजा और लिखाः 'हम इन कविताओं
में निहित अजनबीपन से उतने प्रभावित नहीं हुए, जितना कि यह देखकर कि इनमें तो हमारी ही छवि नज़र आ
रही है।' बाद में यीट्स ने ही अँग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका लिखी।
1912
में टैगोर ने लंबी अवधि भारत से बाहर बिताई, वह यूरोप, अमेरिका और पूर्वी एशिया के देशों में व्याख्यान देते
व काव्य पाठ करते रहे और भारत की स्वतंत्रता के मुखर प्रवक्ता बन गए। हालांकि टैगोर
के उपन्यास उनकी कविताओं और कहानियों जैसे असाधारण नहीं हैं, लेकिन वह भी उल्लेखनीय है। इनमें सबसे ज़्यादा लोकप्रिय
है गोरा (1990)
और घरे-बाइरे (1916; घर और बाहर), 1920 के
दशक के उत्तरार्द्ध में टैगोर ने चित्रकारी शुरू की और कुछ ऎसे चित्र बनाए, जिन्होंने उन्हें समकालीन अग्रणी भारतीय कलाकारों में
स्थापित कर दिया।
प्रसिद्ध आलोचक और तुलनात्मक साहित्य के अध्येता
प्रो. इंद्रनाथ चौधरी ने कहा है कि- पश्चिमी समाज आज तक रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ‘मानवीय एकता’ और ‘आधुनिकता’ की परिभाषा को समझने की कोशिश कर रहा है। बीच-बीच में
वहाँ के विद्वानों ने उन्हें आध्यात्मिक या केवल रोमान्टिक कवि कहकर उनका कद छोटा करने
की कोंशिश की है, लेकिन थोड़े-थोड़े अंतराल
के बाद रवीन्द्रनाथ ठाकुर फिर उनको प्रभावित करते हैं और नए लेखकों की एक पूरी पीढ़ी
उनके दर्शन को अपनाती है। पश्चिम आज जिस मल्टीकल्चर की बात कर रहा है, वह उसकी ज़रूरत को बहुत पहले ही भाँप चुके थे। उनके
लिए आधुनिकता का मतलब अतीत का त्याग, बुद्धिवाद
का प्रचार और संशय का उदय नहीं था। उनकी आधुनिकता यूरोप की परिभाषा से बिल्कुल भिन्न
थी, इसीलिए रवीन्द्रनाथ ठाकुर भारत को एक भौगोलिक पहचान
के रूप में नहीं बल्कि एक वैचारिक पहचान के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे।
सुनील गंगोपाध्याय का मानना है कि बंगाली समाज
रवीन्द्रनाथ ठाकुर को रोमान्टिक कवि समझता है और युवा पीढ़ी आज तक उनके गीतों से प्यार
करती है और कई आधुनिक संदर्भों में उनका उपयोग करती है। यह जानना रोचक होगा कि हिन्दी
समाज उनको किस दृष्टि से देख और समझ रहा है? उनकी भाषा आज भी ताजी है और यही कारण है कि वे आज भी
उतने ही रूचि से पढ़े जातीहैं। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने उनको लोक वाणी का कवि
बताते हुए कहा है कि इतने वर्षों बाद भी उनकी लोकप्रियता का बड़ा कारण
यही है कि वे पाठकों के कवि थें। रवीन्द्रनाथ ठाकुर खुद अपने को पृथ्वी का कवि घोषित
करते हैं। गांधीजी से उनका वैचारिक मतभेद अपने इसी ‘विश्वबोध’ के चलते था। उन्होंने अपने साहित्य में कभी भी प्रयोजन
पर जोर नहीं दिया। इसीलिए उनकी रचनाएँ कालक्रम में दूर तक जाती हैं। उनका पूरा साहित्य
अहम् का विसर्जन है।
युवा आलोचक
ज्योतिष जोशी रवीन्द्रनाथ
के उपन्याशों के संदर्भ में मानते हैं
कि उनके उपन्यास ‘मानव सभ्यता के विमर्श’ हैं। उनके उपन्यासों में भाषा और विमर्श ही नहीं बदलते
बल्कि वे पूरे समाज की रूढ़ियों को नकारते हैं। ‘गोरा’ को
देश के दस कालजयी उपन्यासों में निःसंकोच रखा जा सकता है। प्रसिद्ध आलोचक गोपाल राय
ने उनकी कहानियों
के संदर्भ में कहते हैं कि -
जब वे कहानियाँ लिख रहे थे तब पूरे भारतीय साहित्य में शून्य पसरा हुआ था। पहली बार
किसी भी भारतीय भाषा में संवेदना के तत्व उनकी कहानियों में दिखाई पड़ते हैं। उनकी कई अंतिम कहानियाँ पहली बार जादुई
यर्थाथवाद को हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं ।
टैगोर दुनिया के संभवत: एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाओं को दो देशों ने अपना
राष्ट्रगान बनाया। बचपन से कुशाग्र बुद्धि के रवींद्रनाथ ने देश और विदेशी साहित्य, दर्शन, संस्कृति
आदि को अपने अंदर समाहित कर लिया था और वह मानवता को विशेष महत्व देते थे। इसकी झलक
उनकी रचनाओं में भी स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होती है। साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने
अपूर्व योगदान दिया और उनकी रचना गीतांजलि के लिए उन्हें साहित्य के नोबल पुरस्कार
से भी सम्मानित किया गया था। गुरुदेव सही मायनों में विश्वकवि होने की पूरी योग्यता
रखते हैं। उनके काव्य के मानवतावाद ने उन्हें दुनिया भर में पहचान दिलाई। दुनिया की
तमाम भाषाओं में आज भी टैगोर की रचनाओं को पसंद किया जाता है।
साहित्य की शायद ही कोई शाखा हो जिनमें उनकी रचनाएँ नहीं हों। उन्होंने कविता, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटक
आदि सभी विधाओं में रचना की। उनकी कई कृतियों का अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया है।
अंग्रेजी अनुवाद के बाद पूरा विश्व उनकी प्रतिभा से परिचित हुआ। सात मई 1861 को जोड़ासाँको
में पैदा हुए रवींद्रनाथ के नाटक भी अनोखे हैं। रवीन्द्रनाथ की प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं -
कहानियां : लगभग 42 कहानियों के सृजन का इन्हें श्रेय
प्राप्त है। ‘घाटेर कथा’, ‘पोस्टमास्टर’, ‘एक रात्रि’, ‘खाता’, ‘त्याग’, ‘छुट्टी’, ‘काबुलीवाला’, ‘सुभा’, ‘दुराशा’, ‘नामंज़ूर गल्प’, ‘प्रगति-संहार’ (अंतिम कहानी) आदि उनकी महत्वपूर्ण कहानियां हैं।
कहानी संग्रह : छोटा गल्प, कल्पचारिती, गल्पदशक, गल्पगुच्छ
(5 भागों में) और गल्पसप्तक।
गीत-संग्रह / काव्य-संग्रह : भानुसिंह ठाकुर की पदावली
(छद्मनाम भानुसिंह से 16 वर्ष की अवस्था में लिखा) , वनफूल, कविकाहिनी, रुद्रचंड, भग्नहृदय, शैशवसंगीत, `संध्या संगीत’, ‘कालमृगया’, ‘प्रभातसंगीत’, ‘छवि ओ गान (1884), ‘कड़ि ओ कोमल’ (1886), ‘मानसी’ (1890), ‘सोनारतरी’, ‘चित्रा’(1896), ‘चैताली’(1896), ‘कथा’ (1900), ‘काहिनी’, ‘कणिका’, ‘शक्तेर क्षमा’, ‘आकांक्षा’, ‘क्षणिका’, ‘कल्पना’, ‘स्वप्न’, ‘नैवेद्य’ (1901), ‘स्मरण’ (1902), ‘शिशु’ (1902), ‘खेया’ (1905), ‘गीतांजलि
(1910), ‘गीतिमाल्य’(1914), ‘गीतालि’ (1914), ‘वलाका’ (1916), ‘पलातक
(1918), ‘लिपिका’ (1919), `पूरबी’ (1924),
गीति-नाटिका / नाटक : वाल्मीकि प्रतिभा, प्रकृतिर प्रतिशोध (प्रथम नाट्य प्रयास), ‘मायार खेला’, ‘राजा ओ रानी’, ‘विसर्जन’ (1890), ‘चित्रांगदा’ (1891), ‘विदाय
अभिशाप’(1894), `गांधारीर-आवेदन’, ‘नरकवास’, ‘कर्ण-कुन्ती
संवाद’ (1897), `सती’, ‘चिरकुमार सभा’, ‘मालिनी’, ‘शरदोत्सव’ (1908), ‘प्रायश्चित’ (1909), ‘राजा’ (1910), अचलयातन
(1911), ‘डाकघर’ (1912), ‘गुरु’ (1917), ‘फाल्गुनी’ (1915), ‘मुक्तधारा’ (1922), ‘वसन्तोत्सव’ (1922), ‘वर्षामंगल’ (1922), ‘शेषवर्षण’ (1925), ‘शोध-बोध’ (1925), ‘नटीर
पूजा’ (1925), ‘रक्त-करवी’ (1926) ‘नटराज’ (1927), ‘नवीन’ (1927), ‘सुन्दर’ (1927),
उपन्यास : ‘बहू ठाकुरानीर हाट (1881, पहला उपन्यास), ‘राजर्षि’ (1887), ‘चोखेर बाली’, ‘नौका डूबी’ (1905), ‘गोरा’(1910), ‘चतुरंग’ (1915), ‘घरे-बाहिरे’ (1915), योगायोग
(1927), `शेषेर कविता’ (1927) ।
निबन्ध व विचार, संस्मरण : 1883 से 1887 के बीच विविध प्रसंग, आलोचना, समालोचना, चिट्ठी-पत्री, ‘योरोप यात्रीर डायरी’ (1891), ‘छिन्नपत्र’ (1912), ‘जीवनस्मृति’ (1911), ‘साधना’ (1914), ‘नेशनलिज़्म’ (1917), ‘परसनालिटी’ (1917), ‘क्रियेटिव
यूनिटी’ (1922),
डॉ. उर्मिला जैन ने अपने एक आलेख मे रवीन्द्रनाथ
ठाकुर की विदेश यात्राओं के संदर्भ में लिखा है कि- रविन्द्रनाथ ठाकुर के संबंध में
ब्रिटेन में कब-कब क्या छपा- यह सब यदि एक स्थान पर काल क्रमानुसार देखने को मिल जाए
तो संदर्भ की दृष्टि से शोध के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सामग्री सिध्द होगी। ब्रिटेन
के टैगोर सेंटर ने यही काम कोलकाता के एकेडेमिक पब्लिशर्स के सहयोग से किया है और उसका
परिणाम है 'रविन्द्रनाथ टैगोर एण्ड द ब्रिटिश प्रेस 1912-1941' नामक पुस्तक। इस पुस्तक में ब्रिटेन के समाचार पत्रों
में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के संबंध में जब भी, जो कुछ भी, जिस किसी भी रूप में प्रकाशित हुआ वह उनकी किसी पुस्तक
की समीक्षा हो,
उनके नाटकों का मंचन हो या उनके संबंध में
कोई लेख-समाचार आदि हो, यह सब काल क्रमानुसार
व्यवस्थित किया गया है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर 1878 से लेकर 1930 के बीच सात बार इंग्लैंड
गए। 1878 और 1890 की उनकी पहली दो यात्राओं के संबंध में ब्रिटेन के समाचार पत्रों
में कुछ भी नहीं छपा क्योंकि तब तक उन्हें वह ख्याति नहीं मिली थी कि उनकी ओर किसी
विदेशी समाचार पत्र का ध्यान जाता। उस समय तो वे एक विद्यार्थी ही थे। लेकिन जब वे
तीसरी बार 1912 में लंदन गए तब तक उनकी कविताओं की पहली पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद
प्रकाशित हो चुका था, अत: उनकी ओर ब्रिटेन
के समाचार पत्रों का ध्यान गया। उनकी यह तीसरी ब्रिटेन यात्रा वस्तुत: उनके प्रशंसक
एवं मित्र बृजेन्द्रनाथ सील के सुझाव एवं अनुरोध पर की गई थी और इस यात्रा के आधार
पर पहली बार वहां के प्रमुख समाचार पत्र 'द टाइम्स' में उनके सम्मान में दी गई एक पार्टी का समाचार छपा
जिसमें ब्रिटेन के कई प्रमुख साहित्यकार यथा डब्ल्यू.बी.यीट्स, एच.जी.वेल्स, जे.डी. एण्डरसन और डब्ल्यू.रोबेन्सटाइन आदि उपस्थित
थे। इसके कुछ दिन बाद 'द टाइम्स' में ही उनके काव्य की प्रशंसा में तीन पैराग्राफ लम्बा
एक समाचार भी छपा और फिर उनकी मृत्यु के समय तक ब्रिटेन के समाचार पत्रों में उनके
जीवन और कृतित्व के संबंध में कुछ-न-कुछ बराबर ही छपता रहा । भारत के राष्ट्रगान
के प्रसिद्ध रचयिता रबीन्द्रनाथ ठाकुर की मृत्यु 7 अगस्त, 1941
को कलकत्ता में हुई थी।
रवीन्द्र नाथ ठाकुर को विश्व
कवि कहना गलत नहीं होगा। कुछ बिन्दुओं से इसे स्पष्ट किया जा सकता है ।
·
51 कविता संग्रहों में 12 हजार से ज्यादा कवितायें आप ने लिखीं
।
·
11 गीत संग्रहों में दो हजार से अधिक गीत आप ने लिखे ।
·
रवीन्द्र संगीत आज दुनिया का जान-माना संगीत है ।
·
47 नाटक,13 उपन्याश और 12 कहानी संग्रहों में 150 से अधिक कहानियाँ ।
·
34 लेख –निबंध –समीक्षा संग्रह ।
·
बंकिम की वन्देमातरम गीत की धुन आपने बनाई ।
·
जन-गण-मन की धुन आपने बनाई ।
·
आप सफल नाटककार और अभिनेता भी रहे ।
·
रामकिंकर,नंदलाल बसु और असित हालदार जैसे चित्रकारों की स्थापना में आप का महत्वपूर्ण
योगदान रहा ।
·
आप अच्छे पर्यटक रहे। अमेरिका, जापान, इटली, डेन्मार्क, जर्मनी, फ़्रांस, स्वीट्ज़र लैंड,नार्वे,स्वीडन,इसराईल, रोम, हंगरी , रोम और चेकोसलाविया जैसे देशों की आप
ने यात्राएं की ।
इन तमाम बातों से हम रवीन्द्रनाथ
ठाकुर के बहुआयामी व्यक्तित्व को समझ सकते हैं। जहां तक रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी के शैक्षणिक
दृष्टिकोण का प्रश्न है , उसे भी मैं कतिपय महत्वपूर्ण बिन्दुओं के रूप में ही सामने रखना चाहूँगा ।
·
रवीन्द्रनाथ बचपन से ही परंपरागत शिक्षा पद्धति से भागते रहे।
स्कूल में मन नहीं लगता था। लंदन तक पढ़ने गए पर पढ़ाई बीच में ही छोडकर वापस आ गए ।
लेकिन आगे चलकर यही रवीन्द्र मुक्त शिक्षा पद्धति के प्रणेता बनते हुए विश्व भारती
की संकल्पना को साकार करते हैं ।
·
वर्षा मंगल , माघ मेला ,पौष मेला
, आनंद मेला और वसंतोत्सव के माध्यम
से पर्यावरण शिक्षा का काम शांति निकेतन में आप करते रहे ।
·
विश्व भारती के माध्यम से बहु उद्देशीय शिक्षण संस्था की संकल्पना
को आप ने साकार किया ।
·
आप विद्या चर्चा नहीं गुण चर्चा के समर्थक रहे ।
·
आप शिक्षक को मनुष्य गढ़ने का शिल्पी मानते थे , लेकिन शिक्षक-और छात्र के बीच मैत्रीपूर्ण
संबंधों के आप समर्थक रहे ।
·
आप प्रतिभा के पूर्ण विकाश पर ज़ोर देते थे ।
·
आप शिक्षा को सत्य के अन्वेषण का माध्यम मानते थे ।
·
आप सिर्फ ज्ञान या सूचना को महत्व नहीं देते थे अपितु एक बोध परक
दृष्टिकोण के विकाश को जरूरी मानते थे ।
·
आप शिक्षा का उद्देश्य हर दिन को आनंदपूर्ण बनाना मानते थे ।
·
शिक्षा का बृहत्तर समाज के साथ संबंध होना आप बहुत जरूरी मानते
थे ।
·
आप को 5 विदेशी और देश के 9 विश्वविद्यालयों से डी.लिट. की उपाधि
प्राप्त हुई ।
·
आप ने कृषि शिक्षा को भी महत्व दिया। आलू की उन्नत खेती सीखने
के लिए आपने अपने पुत्र को विदेश भेजा ।
·
आप भारतीयता से अधिक महत्वपूर्ण संस्कृति की मानवीयता और मानवीयता
की संस्कृति को मानते थे ।
·
आप आत्म अनुसाशन के पक्षधर थे ।
·
आप ने पिता के ध्यान मंदिर( शांति निकेतन) को शिक्षा मंदिर( विश्वभारती
) में बदला ।
·
आपने आचार्य हजारी प्रसाद द्वारा विश्व भारती में हिंदी विभाग
की स्थापना करायी और राष्ट्र भाषा का कार्य आगे बढ़ाया ।
·
सांप्रदायिकता और जातिवाद के आप घोर विरोधी थे । आप का गोरा उपन्यास
इसका जीवंत उदाहरण है ।
·
चंडालिका , श्यामा और अभिसारिका जैसी आप की रचनाएँ भी जातिवाद के विरोध में ही लिखी गयी
।
·
कुसंस्कारों का विरोध दर्ज कराती हुई रचनाओं में –रक्तकरवी और
विसर्जन जैसी रचनाएँ प्रमुख हैं ।
·
रवीन्द्रनाथ भारत के पहले ऐसे जमींदार थे जिन्होंने अपनी ही प्रजा
को अपने ही कर्ज से मुक्ति दिलाने के लिए अपने पैसों से सहकारी बैंक की स्थापना करते
हैं । इसतरह अर्थ नियोजन शिक्षा के स्वरूप को सामने लाते हैं ।
·
आपने ग्राम स्वराज्य की संकल्पना
को महात्मा गाँधी से लगभग 17 साल पहले साकार करते हुवे 600 गावों को गोद लिया ।
·
आपने ‘ ग्राम हितैषी सभा ’ का गठन किया ।
·
भारत की प्रथम ‘ग्राम संसद” के तहत पंचायत राज की स्थापना की ।
·
महिला सरपंच की संकल्पना भी आप की ही दी हुई है ।
·
देश के अंदर ही ‘ अपरिचय की दीवार ‘ तोड़ने के लिए आप –शिवाजी उत्सव, चित्तौड़ राणा और बंदा बैरागी जैसी कवितायें
लिखकर राष्ट्रीय एकात्मता का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं ।
·
रवीन्द्रनाथ जी ने एक धार्मिक दृष्टिकोण का भी निर्माण किया ।
इस वैश्विक धर्म दृष्टि की जड़ों में चंडीदास , कबीर , बुद्ध , यूनिटेरियन संप्रदाय की ईसाइयत, सूफ़ी मुसलमान और फ्रेंच दार्शनिक कोंत
दिखाई पड़ते हैं ।
·
आपने 10 विधाओं में 141 किताबें लिखीं ।
·
भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में आपने महत्वपूर्ण योगदान दिया
। आपने बंगाल में रक्षा बंधन की परंपरा शुरू करते हुवे उसे आज़ादी के हथियार के रूप
में अपनाया। ठीक उसी तरह जैसे बाल गंगाधर तिलक ने गणेश पूजा को आज़ादी का हथियार बनाया
।
·
अरविंदघोष की क्रांतिकारी पार्टी अनुशीलन समिति से आप के गहरे
संबंध थे ।
·
सन 1909 की 27 जुलाई को स्पेसल ब्रांच के डी.आई.जी. पुलिस एफ.सी.डेली
ने संदिग्ध क्रांतिकारियों की एक गोपनीय सूची बनायी जिसमे 19वाँ नाम रवीन्द्रनाथ ठाकुर
का था । (संदर्भ –आलोक भट्टाचार्य का हिंदी विवेक पत्रिका मे छ्पा आलेख । दीपावली विशेषांक
2011 )
·
26 जनवरी सन 1912 को शिक्षा विभाग द्वारा एक
अध्यादेश जारी कर के सरकारी कर्मचारियों को अपने बच्चों को शिक्षा के लिए शांति निकेतन
जाने से रोका गया । (संदर्भ –आलोक भट्टाचार्य का हिंदी विवेक पत्रिका
मे छ्पा आलेख । दीपावली विशेषांक 2011 )
·
जालियावाला बाग हत्याकांड के
विरोध में आपने अंग्रेजों द्वारा नाइटहुड के तौर पर दी गयी उपाधि ‘ सर ’ का परित्याग कर दिया ।
·
बलि प्रथा, दहेज प्रथा और देवदासी प्रथा के खिलाफ आपने खूब लिखा ।
·
कबीर, मीरा और विद्यापति का बांग्ला भाषा में अनुवाद किया ।
इस तरह हम देखते हैं कि रवीन्द्रनाथ
ठाकुर का वैचारिक फलक बहुत विस्तृत है । ज्ञान-विज्ञान की कई शाखाओं में आप को महारत
हासिल थी । आप को शैक्षणिक दृष्टिकोण उदार, मानवीय और प्रकृति के सहचर्य का समर्थक
है । आज हम जब भारतीय उच्च शिक्षा पद्धति के लिए एक नई दिशा खोज रहे है, ऐसे में रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी
का शैक्षणिक दृष्टिकोण हमारे
लिए मार्ग दर्शक बन सकता है । आखिर महात्मा गाँधी ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर को गुरुदेव
ऐसे ही थोड़े कहा होगा ।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को शत – शत प्रणाम ।
संदर्भ ग्रंथ सूची :-
·
विकिपीडिया
·
दैनिकजागरण
ब्लाग
·
गूगल.काम
·
हिंदी
विवेक पत्रिका –सितंबर 2011
·
वही-
दीपावली अंक – 2011
·
वही
–दिसंबर -2011
·
आन
लाईन हिंदी मैगजीन
·
आन
लाईन न्यूज़ पेपर
·
गोरा
– रवीन्द्रनाथ
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
प्रभारी-हिंदी विभाग
के. एम. अग्रवाल महाविद्यालय
कल्याण-पश्चिम
मो.-8080303132, 9324790726
डॉ. अनिता मन्ना
प्राचार्या
के. एम. अग्रवाल महाविद्यालय
कल्याण-पश्चिम
मो.-9820981698
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