Sunday, 21 March 2010

बोध कथा ८ :कछुए और खरगोश क़ी आगे क़ी कहानी

बोध कथा ८ :कछुए और खरगोश क़ी आगे क़ी कहानी
 ****************************************************************
 आप में से शायद ही कोई हो जिसे कछुए और खरगोश क़ी कहानी मालूम ना हो .लेकिन वह कहानी जंहा ख़त्म होती है ,वँही से मैं यह नई कहानी शुरू कर रहा हूँ.आशा  है आप लोंगों को पसंद आएगी .
 --------------तो जैसा क़ी आप जानते हैं क़ि कछुए और खरगोश क़ी दौड़ में कछुआ विजयी होता है.यह बात जब जंगल में फैलती है तब खरगोश का बड़ा मजाक उड़ाया जाता है. हर कोई खरगोश को ताने देने लगता है. बेचारा खरगोश बहुत दुखी होता है. उसे समझ में नहीं आता क़ि वह क्या करे? अंत में वह निर्णय लेता है क़ि  वह शांतिपूर्वक अपनी हार का कारण समझने क़ी कोशिस करेगा.बहुत चिन्तन-मनन करने के बाद उसे यह बात समझ में आ गयी क़ि ,''शत्रु या प्रतिस्पर्धी को कभी भी कमजोर नहीं समझना चाहिए .साथ ही साथ अति आत्मविश्वाश से भी हमे नुकसान उठाना पड़ता है.''इस बात को अच्छी तरह समझ कर वह फिर से कछुए से शर्त लगाने क़ी योजना बनता है. इसी संदर्भ में बात करने के लिए वह कछुए के घर जाता है. कछुआ उसका ह्रदय से स्वागत करता है. थोड़े अल्पाहार के बाद कछुए ने खरगोश से पूछा -''कहो मित्र कैसे  आना हुआ ?'
 खरगोश बोला,''भाई ,मैं तो आप को पिछली जीत क़ी बधाई और नई दौड़ प्रतियोगिता के लिए आमंत्रित करने के लिए आया हूँ.आशा है तुम इनकार नहीं करोगे.'' कछुए ने मन ही मन सोचा क़ि वह तो खरगोश को एक बार हरा ही चुका है,दुबारा दौड़ लगाने में मेरा क्या नुकसान .और बिना कुछ सोचे समझे अति उत्साह में वह हाँ  बोल देता है. और दूसरे दिन फिर दौड़ शुरू होती है.इस बार भी खरगोश बहुत आगे निकल आता है. कछुआ बहुत पीछे छूट  गया रहता है. खरगोश ने इस बार पक्का निर्णय लिया था क़ि जब तक वह दौड़ जीत नहीं जाता ,वह कंही रुकेगा नहीं.परिणामस्वरूप इस बार दौड़ खरगोश जीत जाता है.और अपने अपमान का बदला लेने में कामयाब हो जाता है.
 लेकिन इस घटना से कछुआ बड़ा दुखी होता है. उसे लगता है क़ि नाहक ही उसने दुबारा दौड़ के लिए हाँ किया.जंगल में उसकी कितनी इज्जत बढ़ गयी थी,लेकिन सब किये कराये पर पानी फिर गया. वह चुप -चाप घर पर पड़े-पड़े सोचने लगा क़ि आखिर वह इस बार हार क्यों गया ? .और बहुत सोचने के बाद उसे समझ में आया क़ि,''हर व्यक्ति के अंदर कुछ प्रकृति दत्त क्षमताएं हैं.वह उसी के अंदर हो सकती हैं. खरगोश जमीन पर हर हाल में मुझसे दौड़ में जीत जाएगा.मैं जमीन पर उसका मुकाबला नहीं कर सकता.यह उसकी प्रकृति है.मैं पानी में तेज चल सकता हूँ,जब क़ि खरगोश नहीं.यह मेरी प्रकृति है.''यह सोचते हुवे ही कछुए के मन में एक बात आती है. वह सोचता है क़ि अगर दौड़ नदी के उस पार तक लगायी जाए तो मेरी जीत सुनिश्चित है,क्योंकि खरगोश नदी पार नहीं कर पायेगा .बस फिर क्या था ,कछुआ खरगोश के पास जाकर बोला,''खरगोश भाई,आप को जीत मुबारक हो.आप के कहने पर मैंने दुबारा शर्त लगाई.अब मेरी इच्छा है क़ि कल एक बार फिर हम दोनों दौड़ लगाएं.लेकिन इस बार हम नदी के उस पार आम के पेड तक जायेंगे.बोलो,मंजूर है ?'' खरगोश कुछ समझ नहीं पाया.उसने भी शर्त के लिए हाँ कर दिया .
                                                     एक बार फिर दौड़ शुरू हुई. नदी तट तक तो खरगोश आगे रहा ,पर वह नदी पार नहीं कर सकता था.नदी का प्रवाह तेज था और नदी गहरी थी.परिणामस्वरूप वह वँही रुक गया.जब क़ि कछुआ आसानी से नदी पार कर,आम के पेड तक पहुँच गया.और इस तरह इस बार की दौड़ कछुआ जीत गया.इस जीत से वह खुश हुआ .उधर खरगोश अपनी हार से निराश था.वह समझ गया था क़ि कछुए ने चालाकी से काम लिया है.
 बहुत दिनों बाद दोनों फिर मिले और अपनी हार-जीत पर बातें करने लगे.बहुत लम्बी चर्चा के बाद दोनों इस निष्कर्ष पर पहुंचे क़ि,
 ''हर व्यक्ति क़ि क्षमता अलग-अलग होती है.अगर हम परस्पर सहयोग और सहकारिता क़ी नीति पर चलते हुए कार्य करें,तभी हम आगे बढ़ सकते हैं.सच्ची शक्ति इस आपसी सहयोग में ही है.आपसी प्रतिस्पर्धा में नहीं.एकता ही हमे अलौकिक शक्ति प्रदान कर सकती है.इसलिए हमे एक होकर काम करना चाहिए.''
 अपनी इसी बात को जंगल में सभी को समझाने के लिए दोनों एक बार फिर से नदी के उस पार तक दौड़ लगाते हैं. इस बार जब तक जमीन पर दौड़ना था,तब तक कछुआ ,खरगोश क़ी पीठ पर बैठा रहा.और जब नदी पार करने क़ी बात आयी तो खरगोश ,कछुए क़ी पीठ पर बैठ गया. इसतरह परस्पर सहयोग से दोनों ने दौड़ पूरी क़ी और दोनों ही संयुक्त विजेता घोषित किये गए.सारा जंगल उनकी बुद्धिमानी क़ी चर्चा कर रहा था.दोनों का ही सम्मान जंगल में बढ़ गया था.
             इस तरह इस नई कहानी से हमे सीख मिलती है क़ि ताकत जोड़ने से बढती है ,और आपसी सहयोग से नामुमकिन कार्य भी मुमकिन हो जाता है. इसलिए हमे हर किसी क़ि क्षमता के अनुरूप उसका सम्मान करना चाहिए.किसी को भी कमजोर नहीं समझना चाहिए.किसी ने लिखा भी है क़ि 
                           '' हाँथ पकडकर एक-दूजे का,
                     आगे ही आगे बढो .
                  एकता क़ी शक्ति के दम पर,
                  मुमकिन सब तुम काम करो ''   
                                                                                                  डॉ.मनीष कुमार मिश्रा 
                                                                                        onlinehindijournal.blogspot.com
 
  
 



( i do not have any type of copy right on the photos of this post.i have got them as a mail. )

Saturday, 20 March 2010

मुफलिसी के जख्मों से लहलुहान ,

मुफलिसी के जख्मों से लहलुहान ,

जिन्दा है मानों बिना प्राण ,

मुफलिसी के जख्मों से लहलुहान ;

बड़ा जीवट है ,खूं में उसके ,

स्वाभिमान है मन में उसके ;

मुफलिसी के जख्मों से लहलुहान ;

सांसों का भावों से रिश्ता ,

तिरस्कार से धन का नाता ;

वो मुफलिसी और उसका रास्ता ;

किस्से तो दुनिया बुनती है ,

उसको सिर्फ उलाहना ही मिलती है ;

रक्तिम आखें हाथों में छाले ,

ढलती काया पैरों को ढाले ;

संघर्ष से वो कब भागा है ;

स्वार्थ नहीं उसने साधा है ;

साधारण लोग किसे दिखते हैं ;

सब पैसे और ताकत को गुनते हैं ;

मुफलिसी के जख्मों से लहलुहान ,
जिन्दा है मानों बिना प्राण
/

बोध कथा -७ : माँ

बोध कथा -७ : माँ
**********************************
                                          बहुत पुरानी बात है. एक जंगल के करीब एक छोटा सा गाँव था. उस गाँव में  व्योमकेश नामक एक  बड़ा ही प्रतिभा शाली मृदंग वादक रहता था. उसकी कीर्ति चारों तरफ फ़ैल रही थी. वह मृदंग वादक सुबह -सुबह जंगल क़ी  तरफ निकल जाता,और एक छोटी सी पहाड़ी पर बैठकर अपना रियाज शुरू कर देता  था. 
                                       वह मृदंग इतनी खूबसूरती के साथ बजाता क़ी जंगल के कई प्राणी उसके आस-पास आकर खड़े हो जाते और उसे मृदंग क़ी थाप देते हुए घंटो देखते रहते. इन्ही जंगली जानवरों में एक छोटा सा हिरन का बच्चा भी था.वह भी रोज सभी जानवरों के साथ आता.लेकिन जब वह मृदंग वादक मृदंग बजाना शुरू करता तो , वह हिरन का बच्चा  ना जाने क्यों रोना शुरू कर देता .और जब मृदंग बजाना बंद हो जाता तब वह चुप-चाप वंहा से जंगल क़ी तरफ चला जाता.
                                      जंगल के सभी जानवर उस नन्हे हिरन शावक के व्यवहार को समझ नहीं पा रहे थे.खुद मृदंग वादक भी इस बात को समझ नहीं पा रहा था.आखिर एक दिन उस मृदंग वादक ने  फैसला किया क़ि वह इस बात का पता लगा कर रहेगा क़ि आखिर वह हिरन शावक मृदंग बजता देख रोता क्यों है ? अगले दिन जब सभी जानवरों के साथ वह हिरन शावक आया तो मृदंग वादक ने धीरे से उसे पकड़ लिया.वह शावक घबरा गया.सभी जानवर उसे  छोड़ के जंगल क़ी तरफ भाग गए.
                                  उस मृदंग वादक ने उस शावक को गोंद  में उठा कर कहा,'' हे हिरन शावक ,क्या मैं इतना बुरा मृदंग बजाता हूँ क़ी तुम्हे रोना आता है ?'' इस पर उस शावक ने कहा,'' नहीं,ये बात नहीं है.''  इस पर उसने फिर प्रश्न किया,'' तो तुम्हारे रोने का कारण क्या है ?'' इस बात का जवाब देने से पहले ही उस शावक क़ी आँखों से फिर आंसूं बहने लगे.वह रोते हुवे ही बोला,'' आप मुझे गलत ना समझें, दरअसल बात ये है कि आप के मृदंग पे जो हिरन की खाल चढ़ी है,जिससे इतनी सुंदर ध्वनि निकलती है.वो खाल मेरी माँ क़ी है.जिस दिन मैं पैदा हुआ था उसी दिन एक शिकारी ने उसका शिकार कर लिया था.फिर वही खाल आपने खरीदी थी. आप जब इस खाल को बजाते हैं तो मुझे लगता है कि मेरी माँ-------'' इतना कहते ही उस नन्हे शावक का गला भर आया. मृदंग वादक की  आँखों में भी आंसूं थे. वह उस शावक को वँही छोड़ कर अपने घर की  तरफ चला गया.वह मृदंग वँही पड़ा था.नन्हा शावक उस मृदंग क़ी खाल को प्रेम से चाट रहा था. मानों कह रहा हो-
                              '' तेरे बिना बहुत अकेला हो गया हूँ माँ , 
                                तुझ सा ना जग में कोई प्यारा है माँ .''  

 (i do not have any copy right on the same photo) 

Friday, 19 March 2010

तुझे याद नहीं मै करता ,

तुझे याद नहीं मै करता ,

तू रोज मुझे सपनों में दिखता ;

तुझे याद नहीं मै करता ;

दिन भर उलझा रहता हूँ कामों में ,

थम जाता हूँ राहों में ,

पत्नी बच्चों की आकान्छाओं को ,

पूरा करना है अपनो की आशाओं को ;

सो जाता हूँ इसी उधेड़बुन में ,

और तू आ जाता है ख्वाबों में ;

तुझे याद नहीं मै करता ,

तू रोज मुझे सपनों में मिलता;

वक़्त मिले तो परिवार की उलझन ,

कभी बीमारी कभी पैसों का क्रंदन ;

बहुधा तेरी विधी से चलता हूँ ,

पर याद नहीं तुझे करता हूँ ;

अनजान पलों में नाम तेरा मुंह पे आता है ,

एक पल को हाथ तेरी छाया छू जाता है ;

पर याद नहीं तुझको करता हूँ ;

दिल पे मै पत्थर रखता हूँ ;

तुझे याद नहीं मै करता ,

तू सपनों में मुझपे हँसता ;

तुझे याद नहीं मै करता ,

तू मेरे हर सपनों में रहता ,

तुझे याद नहीं मै करता /

Thursday, 18 March 2010

गर्दिशों का दौर कुछ इस कदर आता है ,

तक़दीर जब बिगड़ जाती है ,
तकलीफें हर रोज नया रास्ता तलाश आती हैं ;
दुविधाएं हर ओर बिखर जाती है ,
इल्जामों की बहार छा जाती है ;
जो कायल थे तेरी मासूमियत के ,
उन्हें भी बातों में सियासत नजर आती है ;
तक़दीर जब बिगड़ जाती है ,
---
गर्दिशों का दौर कुछ इस कदर आता है ,
अपनो को भी तेरे रिश्तों में चोर नजर आता है ;
लोगों के अंदेशों की सीमा नहीं बचती है ,
कितनो को तेरी अच्छाई भी बुराई सी दिखती है /
तक़दीर जब बिगड़ जाती है /
---
बिगड़ा नसीब भी बड़ा गुल खिलाता है ,
दर्द हर मोड़ पे मिल जाता है ;
जब भी कोई जिंदगी में गिरता नजर आता है ;
शक का कीड़ा कईयों को काट जाता है ,
भाग्य जब रूठे तो आछेपो की बन आती है ;
अपनो को भी तेरी नीयत में खोट नजर आती है ;
---
तक़दीर जब बिगड़ जाती है ,
तकलीफें हर रोज नया रास्ता तलाश आती हैं ;

-----------------===---------------
वक़्त काट ये वक़्त भी गुजर जायेगा ,
तेरी सच्चाई का चांटा कितनो के चेहरे पे नजर आएगा ;
जिनके दिल में कालिख उनके बातों की परवा क्यूँ हो ,

अपने का नकाब पहने दुश्मन की खुदाई क्यूँ हो ;
तुझपे उछाले कीचड़ का दाग उनपे नजर आएगा ;

वक़्त काट ये वक़्त भी गुजर जायेगा /

तेरी कमियों की खोज सबब हो जिसका ,
तुझे गिराना ही सारा चरित्र हो जिनका ;
उनका व्यवहार भी सबको समझ आएगा ,
वक़्त काट ये वक़्त भी गुजर जायेगा ,;

मनुष्य का भाग्य जब बदल जाता है ,
मुंशिफ बन जाये राजा ज्ञानी धूल खाता है;
वर्षों की मेहनत पल में खाक बन जाती है ;
राह चलते को मिटटी में दौलत नजर आ जाती है ;
वक़्त काट ये वक़्त भी गुजर जायेगा ,
तेरी सच्चाई का चांटा कितनो के चेहरे पे नजर आएगा /
----------==========-------------

बोध कथा-६: भौतिकता

बोध कथा-६: भौतिकता 
 *********************************************
                                         कविता अभी ४ साल क़ी ही है. लोगों को यह लगता है क़ि वह बड़ी खुशनसीब है. उसके पिताजी किसी बड़ी विदेशी कंपनी में मैनेजर हैं. माँ भी कॉलेज में अध्यापिका हैं. घर में पैसे क़ी कोई कमी नहीं है. फिर कविता अपने माँ-बाप क़ी इकलौती संतान है.वह जो चाहती है,वह वस्तु उसे तुरंत दिला दी जाती. उसकी देख -रेख  करने के लिए घर में आया भी थी. माँ-पिताजी दोनों घर से बाहर रहते.ऐसे में अकेले ही कविता बोर हो जाती. उसे घर से बाहर भी जाने क़ी इजाजत नहीं थी.सिर्फ रविवार को माँ-पिताजी दोनों ही घर पे रहते.लेकिन उनका घर पर रहना भी ना रहने क़ी ही तरह था.वे दोनों अपने ऑफिस और महाविद्यालय क़ी ही बातों में उलझे रहते.कविता क़ी तरफ ध्यान देने का उन्हें मौका ही नहीं मिलता.
                                     ऐसे ही एक रविवार को जब दोनों लोग घर पे थे,कविता पहले दौड़ कर माँ के पास गई और बोली,''माँ ,आज तो छुट्टी है ना ? फिर मेरे साथ खेलो ना ." कविता क़ी बात सुनकर माँ बोली,'' अरे बेटा,बहुत काम है.मुझे बच्चों के पेपर चेक करने हैं.एक काम करो, तुम पापा के साथ जा कर खेलो .'' इसतरह माँ ने कविता को टाल दिया और वापस अपना काम करने लगी.
              माँ के पास से कविता पिताजी के पास आ गई. उसके पिताजी भी अपने   
 लैपटॉप  पर कुछ  जरूरी काम  कर रहे थे. कविता ने उनसे भी वही बात कही. इस पर उसके पिताजी मुस्कुराते हुए बोले,'' अगर मैं आप के साथ खेलूंगा  तो पैसे कौन  देगा ? आप जाओ ,मुझे जरूरी काम है. परेशान मत करो.''कविता चुप-चाप उलटे पाँव अपने कमरे में चली आयी. थोड़ी देर रोती रही .फिर अचानक उसका ध्यान अपने पैसों के गुल्लक पर गया. वह उस गुल्लक को लेकर अपने पिताजी के पास गई और बोली,''पापा, मेरे पास जितने पैसे हैं आप सब ले लो.पर मेरे साथ खेलो ना ,प्लीज़ .''
              मासूम कविता क़ी बातें सुनकर उसके पिता अवाक रह गए .उन्होंने कविता को अपनी गोंद में उठा लिया.और बोले,''बेटा ,मुझे माफ़ कर दो.इस पैसे और भौतिकता क़ी दौड़ में  अपने पिता होने क़ी जिम्मेदारी को भूल गया था.आज तुम ने मेरी आँखें खोल दी .''
                                                        इस तरह कविता के पिता को अपनी गलती समझ में आयी.कविता जैसे बच्चों के लिए ही शायद किसी ने कहा है कि--------- 
                                         '' सब के साथ है,मगर अनाथ है.
                              आज का बचपन बहुत बेहाल है .''        

( i do not hvae any copy right on the said above photos.)   

Wednesday, 17 March 2010

रहता है मेरे दिल में

रहता है मेरे दिल में,
मगर उसे मिलूं कैसे ;
खिले कमल की पंखुड़ियों को छुयूं कैसे ,
तेरे सपनों को आगोस में भर लूँ ,
तेरा झिझगता विश्वास है,
मै उसको छुयूं कैसे ;
तेरी उलझन सुलझा मै दूँ
तेरी दुविधाओं को मान भी लूँ ,
तेरा इकरार जिऊ कैसे ?

ताशकंद – एक शहर रहमतों का” : सांस्कृतिक संवाद और काव्य-दृष्टि का आलोचनात्मक अध्ययन

✦ शोध आलेख “ताशकंद – एक शहर रहमतों का” : सांस्कृतिक संवाद और काव्य-दृष्टि का आलोचनात्मक अध्ययन लेखक : डॉ. मनीष कुमार मिश्र समीक्षक : डॉ शमा ...