Tuesday, 23 April 2013

आधी जीत : एक निष्पक्ष एवं प्रामाणिक साहित्यिक दस्तावेज़


              
 म प्रकाश पांडे नमन द्वारा लिखित उपन्यास आधी जीत समाजसेवी अन्ना हज़ारे के जन लोकपाल बिल से संबंधित दिल्ली के रामलीला मैदान में हुए आंदोलन के परिप्रेक्ष में लिखा गया एक नए कलेवर का उपन्यास है । अगस्त 2011 में हुआ यह आंदोलन कई मायनों में अलग था, इस समग्र आंदोलन को सामाजिक, राजनीतिक,आर्थिक एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष में समझने – समझाने का साहित्यिक स्वरूप ही इस उपन्यास की गति है । आंदोलन की दुर्गति या सफलता के प्रश्न पे लेखक का मोटे तौर पे निष्पक्ष रहना उपन्यास को बोझिल या एकांगी बनाने से बचाता है । ठीक इसीतरह तर्क के साथ-साथ तथ्यों का विस्तृत विश्लेषण भी उपन्यास के संवादों को अधिक विश्वसनीय रूप प्रदान करता है ।
         भाषा सहज,सरल और सपाट बयानी वाली है । आत्मकथात्मक और संवाद शैली का भरपूर उपयोग किया गया है। शेरो - शायरी और काव्य पंक्तियाँ भी उपयोग में लायी गयी हैं। दिल्ली और आस-पास का परिवेश उपन्यास के केंद्र में है । पात्रों की भाषा को उनके परिवेश के अनुकूल दिखाई गयी है। पात्रों के नाम बड़े प्रतिकात्मक हैं । आज़ादी के बाद का मोहभंग, शोषण, भ्रष्टाचार, अपराध और राजनीति की साँठ-गाँठ और जन आंदोलनों की स्थितियाँ उपन्यास के केंद्र में हैं । इस पूरे उपन्यास में उपन्यासकार सीधे तौर पे अपना कोई  निर्णय नहीं थोपता है लेकिन अपने तर्क से अपनी स्थिति को स्पष्ट जरूर करता चलता है।
        उपन्यास का मुख्य पात्र स्वतंत्र कुमार उस भारतीय मध्यम वर्ग का  प्रतिनिधि है जो सोचने-समझने और बहस करने के बीच कुलबुला जरूर रहा है लेकिन उसकी जरूरतें और जिम्मेदारियाँ उससे बगावत के सारे हथियार / इरादे छीन लेती हैं । लेकिन अन्ना हज़ारे की जो वर्चुअल छवि / मीडिया द्वारा निर्मित एक जो फोबिया / रूपक बनाया गया उसने इस मध्यम वर्ग की कुलबुलाहट को बढ़ा ज़रूर दिया था । ज़्यादा से  ज़्यादा लोगों के शामिल होने वाली खबरों ने आंदोलन को प्रभावी बनाया ।
        आम आदमी हताशा, निराशा,कुंठा और शोषण के बीच अन्ना हज़ारे की तरफ उम्मीद,कौतूहल,आशा और हर्ष के साथ जुड़ा । आश्चर्य और आशंका के साथ भी अपरोक्ष रूप से इस आंदोलन को समर्थन मिला । उपन्यासकार ने दिखाया है कि अन्ना के आंदोलन ने भ्रष्टाचार के तिलिस्म को भले ही न तोड़ा हो लेकिन आम आदमी के अंदर पैठ जमा चुके कायर को काफ़ी हद तक हराने में ऊर्जा ज़रूर प्रदान की है । उपन्यास के निम्न मध्यवर्गीय पात्र लिप्टन की लड़ाई और उसमें सभी का सहयोग उसी मानसिकता का उदाहरण है ।
         इस उपन्यास का एक दबा हुआ पर महत्वपूर्ण पक्ष है साइबर संस्कृति,मास कल्चर, माध्यम साम्राज्यवाद, मीडिया निर्मित रूपक, मीडिया का चरित्र, और सोशल मीडिया का गाशिपतंत्र । इन सब को उपन्यासकार ने उभारने का सफल प्रयास किया है । मेरा यह मानना है कि अन्ना का आंदोलन, आंदोलन से कंही अधिक एक सफल इवेंट था जो विचारधारा की विनम्रता के अभाव में खत्म हो गया । लोकतांत्रिक प्रक्रिया में चीजें समय के साथ मजबूत होती हैं । आक्रोश, आक्रामकता और अतिवाद लोकप्रियता ज़रूर प्रदान करता लेकिन लॉन्ग टर्म बेनिफ़िट नहीं दे पाता है । जे.पी. आंदोलन से लेकर अभी तक जो भी बड़े लोकप्रिय जन आंदोलन इस देश में हुए, उन आंदोलनों के मलबे पे ही भ्रष्टाचार की नई पौध इसी देश में लहलहाई है ।
        इन्हीं बातों को उपन्यासकार इस उपन्यास के माध्यम से बिना अपनी कोई राय थोपे पाठकों के सामने तथ्यों और तर्कों के साथ प्रस्तुत कर देते हैं । अन्ना हज़ारे के आंदोलन एवं उसकी गति को निष्पक्षता और प्रामाणिकता के साथ समझने में महत्वपूर्ण साहित्यिक दस्तावेज़ है ।

                                  डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
                                 असोसिएट– भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र,शिमला
                                  एवं प्रभारी – हिंदी विभाग
                                  अग्रवाल महाविद्यालय, कल्याण
                                  manishmuntazir@gmail.com

Tuesday, 16 April 2013

अपने ही क़िस्से में, अपना ही लतीफ़ा हूँ ।




मैं आजकल, कुछ  ऐसी प्रक्रिया का हिस्सा हूँ 

कि अपने ही क़िस्से में, अपना ही लतीफ़ा हूँ । 


शोर बहुत है लेकिन



शोर बहुत है लेकिन , मेरा चिल्लाना भी ज़रूरी है

शामिल सब में हूँ ,  यह दिखाना भी ज़रूरी है ।  







Sunday, 14 April 2013

मेरे हिस्से में सिर्फ़, इल्ज़ाम रखते हो



मेरे हिस्से में सिर्फ़, इल्ज़ाम रखते हो 

किस्सा-ए-मोहबत्त यूं तमाम करते हो  


                                 मनीष "मुंतज़िर ''



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हर लफ़्ज़ तिरे जिस्म की खुशबू में ढला है / जाँ निसार अख़्तर




हर लफ़्ज़ तिरे जिस्म की खुशबू में ढला है
ये तर्ज़, ये अन्दाज-ए-सुख़न हमसे चला है

अरमान हमें एक रहा हो तो कहें भी
क्या जाने, ये दिल कितनी चिताओं में जला है

अब जैसा भी चाहें जिसे हालात बना दें
है यूँ कि कोई शख़्स बुरा है, न भला है।

तो फिर तुमने उसे देखा नहीं है/ तलअत इरफ़ानी


बदन उसका अगर चेहरा नहीं है,
तो फिर तुमने उसे देखा नहीं है

दरख्तों पर वही पत्ते हैं बाकी,
के जिनका धूप से रिश्ता नहीं है

वहां पहुँचा हूँ तुमसे बात करने,
जहाँ आवाज़ को रस्ता नहीं है

सभी चेहरे मकम्मल हो चुके हैं
कोई अहसास अब तन्हा नहीं है

वही रफ़्तार है तलअत हवा की
मगर बादल का वह टुकडा नहीं है

Saturday, 13 April 2013

रात के बाद / खलीलुर्रहमान आज़मी


नश्शा-ए-मय के सिवा कितने नशे और भी हैं
कुछ बहाने मेरे जीने के लिए और भी हैं

ठंडी-ठंडी सी मगर गम से है भरपूर हवा
कई बादल मेरी आँखों से परे और भी हैं

ज़िंदगी आज तलक जैसे गुज़ारी है न पूछ
ज़िंदगी है तो अभी कितने मजे और भी हैं

हिज्र तो हिज्र था अब देखिए क्या बीतेगी
उसकी कुर्बत में कई दर्द नए और भी हैं

रात तो खैर किसी तरह से कट जाएगी
रात के बाद कई कोस कड़े और भी हैं

वादी-ए-गम में मुझे देर तक आवाज़ न दे
वादी-ए-गम के सिवा मेरे पते और भी हैं

Friday, 12 April 2013

प्रेम विस्तार है

 प्रेम  विस्तार  है , स्वार्थ  संकुचन  है . इसलिए  प्रेम  जीवन  का  सिद्धांत  है . वह  जो  प्रेम  करता  है  जीता  है , वह  जो  स्वार्थी  है  मर  रहा  है .   इसलिए  प्रेम  के  लिए  प्रेम  करो , क्योंकि  जीने  का  यही  एक  मात्र  सिद्धांत  है , वैसे  ही  जैसे  कि  तुम  जीने  के  लिए  सांस  लेते  हो .

स्वामी विवेकानंद


                                                                                            

September 2012 IIAS SHIMLA ASSOCIATES

IIAS SHIMLA ASSOCIATES -    September 2012
Dr. Bijay Kumar BarnwalChina-Myanmar Relations: The Road Ahead
Dr. Leena ChauhanTarkon Se Pare Kuch Ansuljhe Rahasye.
Dr. Harinder KaurWoes and Worries of the Tribal Women in Punjab.
Dr. Kaustav ChakrabortyDirty Issues: Reconsidering the ‘Impure’ in two Bengali Texts.        
Dr. Chandrabhan Singh YadavHindi Cinema Mein Stri Sasktikaran.
Dr. Madan Lal Mankotia  Inventorization of Medicinal Plants in different Agro-Ecological Zone of Himachal Pradesh.
Dr. Pushpesh Kumar PandeVan Raji: A Tribe in Transition.
Shri Pankaj Roy Translating Violence”: A Study Performance in Indian Drama and of Selected Plays of Vijay Tendulkar.
Dr. Devender KumarClassification and Functions: Contextualizing Hariani Peasant Women’s Folksongs within Folkloristics.
Dr. Manish Kumar C. Mishra Bharat mein Kisore Ladkio ki Taskari.
Dr. Hamda ZarinEffective Communication Skills in Counselling.
Dr. Prabhat MittalGold Price Movements: Common Wisdom and Myths.
Dr. Amal Kumar HarhTowards a Buddhist Social Philosophy: New Situations and Response.
Dr. Chaman Lal SharmaGarhwali Lokoktiyon evam Muhavaron ka Samajik Sanskritik Anushilan.
Dr. Nazish BanoPsycho-Social Enviornmental Influence: A Function of Perceptual Differences.
Dr. Ravendra Kumar SahuVaisvikaran ke Paripaikshay mein Loksanskriti ka Punarpath.
Dr. Ramanath PandeyCognitive Science and Indian Philosophy: Concept of Brain and Mind.
Dr. Gitika DeThemes in the Political Sociology of Early Post-colonial India: An Appraisal of the Works of F.G. Bailey.
Dr. Uttara YadavBhagwan Buddh Ka Arya Aastagik Marg Evam Vipassana.
Dr. Suryakant NathIs Small Beautiful? States Reorganisation: Prospects and Challenges.
Dr. Rakesh KumarChallenges to Sustainable Development with Special Reference to India.
Dr. D. BalaganapathiHistory of Indian Philosophy: Analysis of Contemporary Understanding of Classical Through Colonial.
Dr. Nitin VadgamaHindi Aur Gujarati Gazal: Tulnatamak Drishtibindoo.

KABIR - HAJARIPRASAD

Thursday, 11 April 2013

राहत इन्दौरी की एक रचना


 :

किसका नारा, कैसा कौल, अल्लाह बोल
अभी बदलता है माहौल, अल्लाह बोल

कैसे साथी, कैसे यार, सब मक्कार
सबकी नीयत डाँवाडोल, अल्लाह बोल

जैसा गाहक, वैसा माल, देकर ताल
कागज़ में अंगारे तोल, अल्लाह बोल

हर पत्थर के सामने रख दे आइना
नोच ले हर चेहरे का खोल, अल्लाह बोल

दलालों से नाता तोड़, सबको छोड़
भेज कमीनों पर लाहौल, अल्लाह बोल

इन्सानों से इन्सानों तक एक सदा
क्या तातारी, क्या मंगोल, अल्लाह बोल

शाख-ए-सहर पे महके फूल अज़ानों के
फेंक रजाई, आँखें खोल, अल्लाह बोल

मेरी बन्दगी वो है बन्दगी जो/ शकील बँदायूनी




मेरी ज़िन्दगी पे मुस्करा मुझे ज़िन्दगी का अलम नहीं
जिसे तेरे ग़म से हो वास्ता वो ख़िज़ाँ बहार से कम नहीं

मेरा कुफ़्र हासिल--ज़ूद है मेरा ज़ूद हासिल--कुफ़्र है
मेरी बन्दगी वो है बन्दगी जो रहीन--दैर--हरम नहीं

मुझे रास आये ख़ुदा करे यही इश्तिबाह की साअतें
उन्हें ऐतबार--वफ़ा तो है मुझे ऐतबार--सितम नहीं

वही कारवाँ वही रास्ते वही ज़िन्दगी वही मरहले
मगर अपने-अपने मुक़ाम पर कभी तुम नहीं कभी हम नहीं

वो शान--जब्र--शबाब है वो रंग--क़हर--इताब है
दिल--बेक़रार पे इन दिनों है सितम यही कि सितम नहीं

फ़ना मेरी बक़ा मेरी मुझे 'शकील' ढूँढीये
मैं किसी का हुस्न--ख़्याल हूँ मेरा कुछ वुजूद--अदम नहीं

What should be included in traning programs of Abroad Hindi Teachers

  Cultural sensitivity and intercultural communication Syllabus design (Beginner, Intermediate, Advanced) Integrating grammar, vocabulary, a...