Tuesday 25 December 2018

3. जैसा कि दस्तूर रहा है ।


न जाने
किस ख़ुमारी में
अपनी नाकामियों की दास्तान के लिए
पहले शब्द
फ़िर ज़ुबान
औऱ
अपनी ख्वाहिशों के
वे रंगीन साँचे खोजता हूँ
जिनमें आशनाई की
तिलिस्मी बातों का फंदा था ।
वो बातें
जो कभी
दिल-ओ-दिमाग पर रवाँ थीं
वो बातें जिनमें
सुबह की अज़ान सा नूर होता
जो
शर्म से सुर्ख़ होना जानती
और बेपरवाही में
खुलकर साँस लेती ।
हाँ !!
सच तो यह भी है कि
उन बातों ने ही
मुझे गुनाहगार बनाया
और बेकार भी
जैसा कि
दस्तूर रहा है ।
अब
इस बेकार आदमी की
बिना सर-पैर की
बातों पर
आप
नादानों की तरह
ऐतबार क्यों कर रहे हैं ?
शायद इसलिए
क्योंकि
आप जानते हैं
नशे का स्वाद
और मैं
रोशनी से नहाये
शहरों की
अंधेरी क़िस्मत को ।
लेकिन
अब वे बातें
भूल गया हूँ
फ़िर भी
न जाने किस ख़ुमारी में..........।
---------- डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।

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