पद्मावत / पद्मावती
फ़िल्म को लेकर शुरू से जब हंगामा बरप रहा था, तभी से उत्सुकता थी कि फ़िल्म देखनी चाहिये । आख़िर पता तो चले कि यह
हंगामा बरपा क्यों ? वह भी फ़िल्म को बिना देखे । आरोप यह भी
लगा कि यह सब “पब्लीसिटी स्टंट” है । अगर यह सब “पब्लीसिटी स्टंट” था भी तो इसके
नैतिक पक्ष को लेकर बहस हो सकती है पर व्यावसायिक दृष्टि से तो यह स्टंट कामयाब
रहा । राजपूती आन-बान-शान की दुहाई देने वाली आंदोलनकारी करणी सेना परिदृश्य
से जिस तरह गायब हुई वह भी स्टंट वाली बातों को बल देती हैं । बहरहाल फ़िल्म
प्रदर्शित हो चुकी है और अपनी कामयाबी की इबारत भी लिख चुकी है । फ़िल्म की अभी तक
कि कमाई लगभग 500 करोड़ बतायी जा रही है,जो की अभी जारी है ।
संजय लीला भंसाली को इस
शानदार फ़िल्म के लिये बधाई । अगर तथाकथित
“पब्लीसिटी स्टंट” में भंसाली जी शामिल भी रहे हों तो भी जितनी कटु आलोचना
उन्होंने झेली, झपड़ियाए गये, माँ-बहन तक की गलियाँ सार्वजनिक रूप से सोशल मीडिया द्वारा
प्रचारित-प्रसारित की गयी यह सब दुखद ही कहा जा सकता है । विरोध का स्वर इतना
अमर्यादित था कि स्वस्थ मानसिकता का कोई भी व्यक्ति उसे स्वीकार नहीं कर सकता । बॉलीवुड
को कई विद्वानों ने “राजपत्रित वेश्यालय”तक कहने में गुरेज़ नहीं किया । चार इंच के
कपड़ों में फ़िल्मी पर्दे पर नाच चुकी,फ़िल्म की नायिका दीपिका
पादुकोण माँ पद्मावती कैसे बन सकती है ?,यह भी धर्म के
ठेकेदारों कों समझ में नहीं आ रहा था । जहाँ तक मेरी समझ है,
नायिका दीपिका पादुकोण एक कुशल अभिनेत्री के रूप में सिर्फ़ अपने सिनेमायी पात्र के
साथ पूरा न्याय करना चाहती होंगी । और वह उन्होंने किया भी । इस फ़िल्म को देखने के
बाद दीपिका की अदाकारी को श्रेष्ठ श्रेणी में ही गिना जाना चाहिये । उनकी भाव
-भंगिमाएँ, नृत्य, डायलॉग डिलेवरी सब
बहुत उम्दा रहे । संजय लीला भंसाली अपने रंग बोध के लिये सराहे जाते रहे हैं ।
फ़िल्म में राजस्थानी भाषा और रंगबोध को जिस तरह दिखाया गया वह भी उम्दा रहा । आधी
आबादी की अस्मिता और सम्मान को भी फ़िल्मी संवादों में एक ऊँचाई प्रदान की गयी है ।
अतः फ़िल्म को स्त्री अस्मिता और सम्मान के खिलाफ़ भी नहीं कहा जा सकता ।
इस फ़िल्म के प्रारंभ में ही
फ़िल्म को जायसी के पद्मावत के आधार पर फ़िल्माने की घोषणा होती है और एक नये
विरोध का स्वर यहाँ से भी उभरा । कई हिंदी साहित्य के विद्वानों ने अपना विरोध
दर्ज़ भी किया । लेकिन हमें यह समझना होगा कि भंसाली महोदय जायसी के पद्मावत को
आधार बना रहे थे ना कि जायसी के पद्मावत को केंद्र में रखकर उसका
फ़िल्मी रूपांतरण कर रहे थे । दरअसल रानी पद्मावती और उनके जौहर से जुड़ी हुई जितनी
भी साहित्यिक,ऐतिहासिक और
काल्पनिक कहानियाँ मिलती हैं, उनका एक मिश्रित या संलयित रूप
इस फ़िल्म में दिखाई पड़ता है । यह फ़िल्म देखने के बाद स्पष्ट है कि यह फ़िल्म जायसी
के पद्मावत के दृष्टिकोण से नहीं बनी है । इस फ़िल्म को जायसी के “पॉइंट ऑफ व्यू” से नहीं अपितु फ़िल्म निर्देशक भंसाली के “व्यू पॉइंट” से
समझना और देखना होगा ।
यह फ़िल्म दो विरोधी ध्रुव निर्मित करती है
अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती के चरित्र रूप में । ये दोनों चरित्र धर्म और अधर्म
का प्रतिकात्मक रूप भी हैं । पद्मावती अपनी प्रतिबद्धता,दृढ़ता, धर्म परायणता
और प्रेम की एकनिष्ठता की वजह से माँ भवानी का रूप हैं तो अलाउद्दीन खिलजी एक अति
महत्वाकांक्षी,अइयास,आततायी है जो
नैतिकता विहीन है । लेकिन फ़िल्मी किरदार के रूप में दोनों ही कलाकारों का अभिनय
सराहनीय है ।
पूरी फ़िल्म में
जो एक बात मुझे खटकती है वह यह कि जायसी के पद्मावत के आधार पर पद्मावती को सिंघल
द्वीप की राजकुमारी दिखाया गया पर उनके तेवर राजपुतानी राजकुमारियों जैसे ।
फ़िल्मी सिंघल द्वीप में राजकुमारी एक तरफ हिरन का शिकार कर रही हैं, घुड़सवारी कर रही हैं तो दूसरी तरफ कुछ
दृश्यों में भगवान बुद्ध की प्रतिमा और
प्रतिकों को भी दिखाया जाता है । भगवान बुद्ध के अस्तित्व और प्रतिकों के साथ हिरन
का शिकार करनेवाली राजकुमारी खटकती है ।
किसी अन्य राजपूताना राज्य की राजकुमारी के रूप में ही जो कुछ वर्णन
राजकुमारी पद्मावती को लेकर मिलते हैं उसे आधार बनाकर पद्मावती को चित्रित करना
उनके फ़िल्मी तेवर और संवादों के अधिक अनुकूल होता । लेकिन हो सकता है घायल राजा के
प्रति राजकुमारी की दया,करुणा और प्रेम के भाव के संदर्भ में
भगवान बुद्ध की प्रतिमा और प्रतिकों को दिखाया गया हो । लेकिन फ़िर वही प्रश्न उठता
है कि दया,करुणा और प्रेम के भाव से भरी बौद्ध धर्म के
केंद्र सिंघल द्वीप की राजकुमारी निरीह हिरन का शिकार कैसे कर सकती है ? जबकि एक राजपूताना राजकुमारी के रूप में यह चित्रण अधिक सहज दिखता ।
सिंघल द्वीप तक जाने की आवश्यकता नहीं थी ।
कुल मिलाकर यह एक
शानदार फ़िल्म है । जिस राजपूती अस्मिता और आन-बान-शान की दुहाई देकर फ़िल्म का
शुरुआती विरोध हुआ वह फ़िल्म देखने के बाद निरर्थक लगता है । इस फ़िल्म को देखने के
बाद मुझे आपत्तिजनक कहने जैसा और कुछ विशेष नहीं लगा । असहमतियाँ दर्ज़ कराने वालों
को असहमति का विवेक नहीं छोड़ना चाहिये ।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।
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