Thursday, 11 April 2019

19.प्रज्ञा अनुप्राणित प्रत्यय

किसी प्रज्ञावान व्यक्ति का 
शब्दबद्ध वर्णन 
उसके सद्गुणों की 
यांत्रिक व्याख्या मात्र है 
या फ़िर
शब्दाडंबर ।

जबकि 
उसकी वैचारिक प्रखरता
उसके लंबे
अध्यवसाय की 
अंदरुनी खोह में 
एक आंतरिक तत्व रूप में
कर्म वृत्तियों को
पोषित व प्रोत्साहित करती हैं ।

उच्च अध्ययन कर्म 
एक ज्ञानात्मक उद्यम है 
जो कि
प्रज्ञा की साझेदारी में 
पोसती हैं
एक आभ्यंतर तत्व को 
जो कि 
अपने संबंध रूप में 
ईश्वर का प्रत्यय है ।

लेकिन ध्यान रहे 
घातक संलक्षणों से ग्रस्त 
छिद्रान्वेषी मनोवृत्ति
आधिपत्यवादी 
मानदंडों की मरम्मत में 
प्रश्न से प्रगाढ़ होते रिश्तों की 
जड़ ही काट देते हैं 
और इसतरह 
अपने सिद्धांतों के लिए 
पर्याय बनने /गढ़ने वाले लोग 
अपनी तथाकथित जड़ों में
जड़ होते -होते 
जड़ों से कट जाते हैं ।

                -- डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।

20. नैतिक इतिहास ।

समुच्चय में निबद्ध 
श्रेष्ठता के
आदर्शों का बोझ 
नैमित्तिक स्तर पर
हमारे
नैतिक इतिहास को
अनुप्राणित करते हुए
बदलता है
शक्ति के 
उत्पाद रूप में ।

सत्ता प्रयोजन से
संकुचित
परिवर्तन का लहज़ा 
किसी विसम्यकारी 
तकनीक से
हमारे सत्ता व ज्ञान सिद्धांत 
हमेशा लोगों को
संरचनात्मक स्तर पर
एक लहर में
निगल जाती है
और हम 
अपनी संकल्पनाओं से दूर 
प्रस्थान करते हैं 
जड़ताओं में
जड़ होते हैं ।
                 ................ Dr Manishkumar C. Mishra 

Tuesday, 25 December 2018

9. विरुद्धों का सामंजस्य ।


हमारे सोचने
और
होने की विच्छिन्नता
हमारी दरिद्रीकृत अवस्था का
प्रमाण है ।
अपनी
विभूतिवत्ता को लिथाड़कर
परंपरागत
शब्दावली के कवच में
मज़हबी
पूर्वाग्रहों के साथ
हम
बिलबिला गये हैं ।
संपूर्ण नकारवाद
और अपनी
निरपेक्षता की पर्याप्तता के
अर्थहीन दावों के बीच
हम दिव्य
और पावन
किसी भी अवतरण की
संभावना को
लगातार
ख़ारिज कर रहे हैं ।
समाज की
अंतरात्मा जैसे
चराचरवादी
भाष्य कर्म
अवधारणात्मक
वशीकरण अभियान में
भुला दिये गए हैं ।
हे समशील !!
हमारी बनावट में ही
विरुद्धों के सामंजस्य का
मूलमंत्र है
समग्र और साक्षी
चेतना के लिए
चेतना का संघर्ष ही
जीवन है ।
यह संघर्ष ही
वह अच्युता अवस्था है
जिसकी कृतार्थता
हमारे अस्तित्व के साथ
बद्धमूल है ।
वह सर्वोत्कृष्ट
प्रभासिक्त
मानवी मध्यवर्ती
चेतना की अग्नि का
अलभ्य वरदान
विश्व की नींव है ।
-- डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।
( वरिष्ठ विद्वान श्री रमेश चंद्र शाह के व्याख्यान "पावनता का पुनर्वास" सुनने के बाद । )

8. ग़लीज़ दिनों की माशूक़ ।


उन दिनों
आवारा बदचलन रातें
गलीज़ दिनों की माशूक़ थीं 
शायद वह समय
सबकुछ ख़त्म होने का था ।
ये वही दिन थे
जब सारी अफ़वाहें
लगभग सच होतीं
आधी रात के बाद भी आसमान
बिना सितारों का होता
मुसीबतों से स्याह
मग़र चुप ।
ऐसे समय में
न कोई हमसुखन
न हमजुबांन
इश्क़ ओ अदब पर
मानों कर्बला का साया हो
सारंगी पर
सिर्फ़ वह फ़कीर सुनाता
तहजीब-ओ-अदब की
आख़री बात ।
तीख़ी घृणा के बीच
वीभत्स हत्याओं का ज़श्न
यादें मिटाती नफ़रतें
इंसानियत
लाचारी की हद तक बीमार
लिजलिजी
और असहाय ।
ऐसे खोये हुए समय में
सब के सब
खेलने भर के खिलौनें थे
यह कोई
देखा हुआ स्वप्न था
या फ़िर
हमारी आत्मकेंद्रियता की
खोह में छुपा
सचमुच कोई वक्त !!!!
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा ।

अमरकांत जन्मशती पर दो दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद

 अमरकांत जन्मशती के उपलक्ष्य में दिनांक 16-17 जनवरी 2026 को दो दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन ICSSR एवं महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अ...